समष्टि अर्थशास्त्र

कोविड-19 के प्रति सरकार की प्रतिक्रियाएँ कितनी देाषपूर्ण रही हैं? प्रवासी संकट का आकलन

  • Blog Post Date 29 मई, 2020
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Sarmistha Pal

University of Surrey

s.pal@surrey.ac.uk

कोविड-19 संकट के बीच, मार्च के अंत तक, अनगिनत प्रवासी श्रमिकों ने भारत के बंद शहरों से भाग कर अपने-अपने घरों के लिए गांवों की ओर पैदल ही जाना शुरू कर दिया। इस पोस्ट में सरमिष्‍ठा पाल यह तर्क देती हैं कि सरकार की प्रतिक्रियाएँ न केवल प्रवासी श्रमिकों की जरूरतों को पूरा करने में विफल रहीं हैं, बल्कि उनके नियोक्ताओं की नकदी संबंधी बाधाओं को हल करने में भी काफी हद तक अक्षम रहीं हैं। ये नीतिगत विफलताएँ इतनी महंगी पड़ रहीं हैं कि इनके कारण बड़े पैमाने पर भूख एवं भुखमरी, मौतें, उत्पादकता में कमी, कंपनियाँ बंद होने और बेरोजगारी के उत्‍पन्‍न होने की संभावना है।

 

कोविड-19 से निपटने के लिए भारत सरकार की लॉकडाउन नीति से उत्पन्न प्रवासी संकट ने एक बार फिर से भारत के गहरे आर्थिक विभाजन और हाशिये के गरीब लोगों के प्रति उदासीनता को उजागर कर दिया है। इस पोस्ट में, मैंने इस संकट के लिए सरकार की दोषपूर्ण नीति प्रतिक्रियाओं के प्रभाव का आकलन किया है जिसमें प्रवासी मजदूरों और उनके नियोक्ताओं दोनों की चिंताओं का ध्यान रखा गया है।

प्रवासी मजदूर भारत के अनौपचारिक क्षेत्र के सबसे कमजोर समूहों में से हैं, जो भारत के कुल कार्यबल का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा हैं। देश में 40 मिलियन से भी अधिक प्रवासी मजदूर हैं। वे काफी हद तक असंगठित हैं और इनमें से अधिकांशत: निचली जातियों के लोग हैं। ये मजदूर अपने गांवों में गरीबी से बचने के लिए शहरों और शहरी केंद्रों की ओर पलायन करते हैं जहां वे घर बनाने के काम से लेकर, खाना बनाते, भोजनालयों में खाना परोसने, घर-घर पहुंचाने वाले सामान की डिलिवरी करने, सैलून में बाल काटने, गाडि़यों आदि की मरम्‍मत करने, प्लम्बर के कार्य करने, समाचार पत्र वितरित करने जैसे अन्‍य कार्य भी करते हैं।

22 मार्च को 'जनता कर्फ्यू' के परीक्षण के बाद, भारत सरकार ने 24 मार्च को पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा की। लॉकडाउन की शुरुआत के एक सप्ताह के भीतर उनके कार्यस्थल बंद हो गए और अधिकांश नियोक्ता और ठेकेदार जो उन्हें भुगतान करते थे, गायब हो गए - हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार इन मजदूरों में से 90% को वेतन नहीं दिया गया था। उनके पास बचत बहुत कम है, उन्होंने अपनी आजीविका खो दी और उनके एवं उनके परिवारों के पास निर्भर रहने के लिए कुछ नहीं बचा है। वे चाहते हैं कि वे किसी प्रकार अपने गांव लौट जाएं जहां उन्‍हें उम्‍मीद है कि शायद अपने परिवारों और रिश्‍तेदारों की मदद से वे जीवित रह पाएंगे। लेकिन अचानक लॉकडाउन में सभी बसों, ट्रेनों और टैक्सियों के बंद होने के कारण यह असंभव हो गया है। समाचार रिपोर्टों में कहा गया कि मजूदर रेलवे स्टेशनों में फंस गए थे। 30 मार्च तक, अनगिनत प्रवासी मजदूरों ने भारत के बंद शहरों से भागना शुरू कर दिया। अपके साथ पुलिस द्वारा दुर्व्‍यवहार किया गया, यहां तक कि उन पर बुरी तरह सैनिटाइज़र छिड़के गए, वे तब भी अपने गांवों की ओर पैदल चलते रहे। यह प्रतिक्रिया विदेश से लौटने वाले अमीर लोगों के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया के पूरी तरह विरोधाभासी थी, जहाँ उन लोगों को तत्काल सहायता, परीक्षण और उपचार की उपलब्‍ध कराया गया था।

यह विश्वास करना मुश्किल है कि सरकार या उसके सलाहकार प्रवासी मजदूरों के बड़े समूह पर लॉकडाउन के संभावित प्रभाव से पूरी तरह से अनजान थे। हालांकि वित्त मंत्री ने 26 मार्च को भारत सरकार के राहत पैकेज की घोषणा की, परंतु इसमें उन प्रवासी मजदूरों के लिए कोई प्रावधान नहीं था जो अपने घरों से दूर काम करते हैं। जैसे-जैसे प्रवासी समस्या नियंत्रण से बाहर होती गई, गृह मंत्री ने राज्यों को शहर छोड़ने वाले प्रवासियों को रोकने का आदेश दिया। नतीजतन, कई प्रवासी मजदूर जीवित रहने के लिए कुछ राज्य सरकारों, ट्रेड यूनियनों या दान से प्राप्‍त होने वाले भोजन पर आश्रित हो गए, जो अनिश्चित था, और कुछ मजदूर भीख मांगने तक को मजबूर हो गए। वे जिन शहरों में काम करते थे वहां आश्रयों में रहने, फुटपाथों पर या फ्लाईओवर के नीचे सोने के लिए मजबूर हो गए थे। जब प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की अवधि को बढ़ा कर 14 अप्रैल से 3 मई तक कर दिया तो उनकी हताशा और बढ़ गई और कई लोगों ने भागने की कोशिश की और जब पुलिस ने उन्‍हें सख्ती से रोका तब उन्‍होंने प्रदर्शन करना आरंभ कर दिया।

निश्चित रूप से, इन सभी स्थितियों को आसानी से टाला जा सकता था यदि सरकार ने इन गरीब प्रवासी मजदूरों पर अचानक लॉकडाउन के कारण पड़ने वाले भार की क्षतिपूर्ति करने की परवाह की होती। बसों की व्यवस्था की जा सकती थी, भोजन और दवाइयां उपलब्‍ध कराई जा सकती थीं, चिकित्सा जाँच की व्यवस्था हो सकती थी, और प्रवासी मजदूरों को उनके गंतव्य स्‍थान तक ले जाया जा सकता था। इस प्रकार इस बीमारी के प्रसार को सीमित करते हुए कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी और लॉकडाउन को सफल बनाया जा सकता था। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया गया और इसके लिए कोई तर्कसंगत स्पष्टीकरण भी नहीं है।

आकृति 1. लॉकडाउन अवधि के दौरान कारणों के अनुसार मौतों का रुझान।

आकृति में प्रयुक्त अंग्रेजी शब्दों/वाक्‍यांशों का हिंदी अर्थ

Death due to exhaustion/hunger - थकान/भूख के कारण मौत

Suicide due to loss of employment - रोजगार चले जाने के कारण अत्महत्या

Migrants killed in road accidents - सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए प्रवासी

Other accidents caused as a result of govt. actions - सरकारी कार्रवाई के कारण हुई अन्य दुर्घटनाएं

Death due to police atrocity/retaliation - पुलिस की सख्‍ती/बदला लेने के कारण हुई मौतें

Death due to transport blockade - परिवहन रुक जाने के कारण हुई मौतें

Suicide/homicide due to fear/stigma - डर/कलंक के कारण आत्‍महत्‍या/हत्‍या

Suicide/death related to alcohol withdrawal - शराब न मिलने संबंधी कारणों से आत्‍महत्‍या/मौत

Honour killings/suicides during lockdown - लॉकडाउन के दौरान ऑनर किलिंग/आत्‍महत्‍या

Sexual assault - यौन हमला

Deaths of providers of critical services - महत्‍वपूर्ण सेवाएं प्रदान करने वाले लोगों की मौतें

Stress, depression, trauma because of lockdown - लॉकडान के कारण तनाव, अवसाद, मानसिक आघात

सरकार ने लॉकडाउन से क्या हासिल किया?

24 मार्च को, जब प्रधानमंत्री ने तीन सप्ताह के लॉकडाउन की घोषणा की तो भारत में कुल 564 पॉजिटिव मामले थे। 14 अप्रैल को, जब इसे उठाने का समय निर्धारित किया गया था तब तक पॉजिटिव मामलों की संख्या 10,363 हो गई थी। वायरस के प्रसार पर लॉकडाउन का कोई स्पष्ट प्रभाव नहीं है। इस बात की पूरी संभावना है कि यह संख्‍या वास्तविक पॉजिटिव मामलों की संख्‍या से काफी कम हो सकती है क्योंकि भारत में अभी भी प्रति मिलियन लोगों की जांच की संख्या बहुत कम है। आकृति 1 में यह दिखाया गया है कि लॉकडाउन की अवधि में कोविड-19 से होने वाली मौतों की संख्‍या के साथ कई अन्य कारणों से होने वाली मौतों की बढ़ती हुई संख्‍या भी जुड़ गई है। इनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं - थकान/भूख, सड़क दुर्घटना, परिवहन रुकना, और भय/कलंक के कारण आत्महत्या/हत्या के कारण हुई मौतें, जिनमें से कई मौतें प्रवासी संकट के लिए सरकार की दोषपूर्ण प्रतिक्रिया के प्रत्यक्ष परिणाम हैं जिन्हें टाला जा सकता था, और जिससे लॉकडाउन की दक्षता हानियां भी कम होतीं।

इतना हीं नहीं, इससे संबंधित और भी कई अप्रत्‍यक्ष प्रभाव हैं। लॉकडाउन के दौरान पर्याप्त सरकारी सहायता के बिना इन प्रवासी मजदरों में से बड़ी संख्‍या में लोग भूखे मर रहे हैं और कुपोषण से पीड़ित हो रहे हैं। यदि मई में अर्थव्यवस्था फिर से शुरू होती है और कारखाने फिर से खुलते हैं, तो पोषण और उत्पादकता के बीच मजबूत संबंध को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कुपोषित मजदूरों की बीमारी होने की संभावना अधिक होने के कारण उत्पादकता घटने की संभावना भी अधिक होगी। डब्‍ल्‍यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) की रिपोर्ट है कि किसी व्‍यक्ति को मिलने वाला पर्याप्त पोषण औसतन उसके उत्पादकता स्तर को 20% तक बढ़ा सकता है, और इस प्रकार कुपोषण के कारण उत्पादकता में लगभग 20% का नुकसान होगा। भले ही प्रवासी मजदूरों को शहरों में ही बनाए रखने की सरकार की नीति उनके नियोक्ताओं को कम लागत पर प्रवासी मजदूरों के एक स्थानीय गुट को बनाने में मदद करती है, लेकिन सरकार द्वारा प्रवासी मजदूरों की सहायता करने के लिए हठधर्मितापूर्वक मना करने से उत्पादकता का भारी नुकसान होता है।

कुपोषित मजदूरों की कम उत्पादकता अंततः उनके संभावित नियोक्ताओं यानि सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) को प्रभावित करेगी जो 2016 की नोटबंदी के बाद से अभी तक संघर्ष कर रहे हैं और इसके बावजूद, वे वर्तमान में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में लगभग 58% का योगदान दे रहे हैं। इन कंपनियों को विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जैसे कर्मचारियों के स्वास्थ्य और संरक्षा का मुद्दा, घटती मांग, बाधित आपूर्ति श्रृंखला का मुद्दा, और लंबी अवधि में वित्तीय क्षमता का कमजोर होना, जो कि उनके दीर्घकालिक निवेश को बाधित करता है।

संघर्षरत एमएसएमई को अधिक धन प्रवाह की सुविधा के लिए दबाव के अंतर्गत, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 17 अप्रैल को छोटे और मध्यम आकार की गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) और सूक्ष्म वित्त संस्थानों (एमएफआई) को ध्‍यान में रखते हुए 500 बिलियन रुपये के लक्षित दीर्घकालिक परिचालन (टीएलटीआरओ) की घोषणा की। सबसे पहले तो यह राहत पैकेज लॉकडाउन के तीन सप्ताह से भी अधिक समय के बाद घोषित किया गया और किसी को नहीं पता कि पैसा कब तक लक्षित एमएसएमई तक पहुंचेगा। यह अनुमान है कि अमेरिका में एक औसत एसएमई के पास उत्‍तरजीविता के लिए औसतन लगभग 27 दिनों की नकदी होती है। हालांकि हमारे पास भारतीय एमएसएमई के लिए इस तरह का कोई अनुमान नहीं है, लेकिन सरकार की घोषणा से पहले तीन सप्ताह की देरी इन संघर्षरत एमएसएमई में से कई उद्यमों के लिए घातक साबित हो सकती है। फेडरेशन ऑफ इंडियन एमएसएमई के महासचिव ने एक बयान में शिकायत की है कि बैंक आरबीआई के आदेशों के अनुसार नकदी की कमी से जूझ रही फर्मों को पर्याप्‍त धन नहीं दे रहे हैं। दूसरा, एमएसएमई से इस नई ऋण योजना की मांग पर भी गंभीर संदेह बना हुआ है क्‍योंकि 2018 में आईएल-एवं-एफएस (इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एवं फाइनेंशियल सर्विसेज) के पतन के बाद से भारत के वित्तीय क्षेत्र में विश्वास के चल रहे संकट के बीच भविष्य के आर्थिक परिदृश्‍य अनिश्चित हैं। यह कोई नहीं जानता कि वास्तव में कितने एमएसएमई इस बैंक ऋण योजना के लिए आवेदन भरेंगे।

निर्यात क्षेत्र की फर्मों ने उद्योग के लिए एक व्यापक आर्थिक पैकेज की मांग की थी ताकि मजदूरी, वैधानिक दायित्वों, किराया और उपयोगिताओं में होने वाले खर्चों के भुगतान में राहत मिल सके। अप्रत्याशित लागतों की भरपाई के लिए पर्याप्त सरकारी सहयोग न मिलने के कारण यह संभावना नहीं है कि फर्म-स्तरीय वित्तीय रिटर्न सामाजिक लागतों अर्थात्, एमएसएमई के उत्पादन की निजी लागत और लॉकडाउन की अप्रत्याशित लागतों (मजदूरों की उत्पादकता के संभावित नुकसान सहित) को कवर कर सकें। यदि इनमें से कुछ फर्में समाप्‍त हो जाती हैं तो बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैलना अपरिहार्य है। नवीनतम सीएमआईई रिपोर्ट बताती है कि लॉकडाउन के बाद से बेरोजगारी की दर तेजी से बढ़ रही है और अब अप्रैल के तीसरे सप्ताह में यह 26 प्रतिशत हो चुका है। यदि एमएसएमई के ​​मुद्दे अनसुलझे रहते हैं तो लॉकडाउन हटने के बाद भी हम बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की संभावना को खारिज नहीं कर सकते।

लॉकडाउन की अप्रत्याशित लागतों की भरपाई के लिए क्या किया जाना चाहिए?

प्राधिकारियों का कहना है कि लॉकडाउन जीवन को बचाने के लिए महत्वपूर्ण है, परंतु श्रमिकों एवं नियोक्ताओं दोनों की चिंताओं की पूरी तरह से उपेक्षा किया जाना महंगा साबित हो रहा है। एक ओर, प्रवासी मजदूरों को संगरोध (क्‍वारंटीन) प्रोत्साहन देने से सरकार द्वारा मना करने के कारण उनकी खपत बुरी तरह प्रभावित हुई है। दूसरी ओर, एमएसएमई की नकदी की कमी को दूर करने के लिए त्वरित सरकारी कार्रवाई न होने के कारण क्षमतावान फर्में भी व्‍यवसाय से बाहर निकल सकती हैं, जिससे बड़े पैमाने पर बेरोजगारी होने की संभावना है। इस प्रकार, लॉकडाउन की अप्रत्याशित लागतें मजदूरों और एमएसएमई की सामाजिक एवं निजी लागतों के बीच असरदार रूप से शामिल हो गईं हैं। पर्याप्त सरकारी वित्तीय प्रोत्साहन के बिना, बाजार अपने दम पर, इस अनिश्चित समय में लॉकडाउन की अप्रत्याशित लागतों का भार उठाने में सफल नहीं होंगे।

यहां तक ​​कि अगर प्रवासी मजदूरों को उनकी नौकरी जाने के बाद वापस शहरों में ही रख लिया जाता है, तो भोजन और आश्रय के रूप में उनकी सहायता करने की आवश्यकता होती है। आपात स्थिति में अस्थायी पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) कार्ड जारी करना या सार्वभौमिक पीडीएस (यह देखते हुए कि भारतीय खाद्य निगम के पास खाद्यान्न का विशाल स्टॉक उपलब्‍ध है) को तब तक जारी करना जब तक कि अर्थव्यवस्था फिर से शुरू न हो, भुखमरी को कम करने का एक त्वरित समाधान हो सकता है। एमएसएमई के लिए प्रस्तावित ऋण योजना भी अपनी नकदी की कमी (जो कि एक समस्या से अलग है) को तुरंत पूरा करने के लिए अयोग्य लगती है, इसलिए, योजना के लिए अपेक्षित मांग उत्पन्न करने में विफल हो सकती है। इसके बजाय, यह अधिक असरदार हो सकता है कि सरकार सीधे एमएसएमई खातों में शीघ्र नकद हस्तांतरण करे। इस नकद हस्तांतरण को आसानी से पूरा करने के लिए ऑनलाइन जीएसटी (वस्‍तु एवं सेवा कर) भुगतान खातों का उपयोग किया जा सकता है। ऐसा करने में अनावश्यक देरी अधिक भूख, भुखमरी और मौतों (कोविड की मौतों के अतिरिक्त), उत्पादकता में कमी, एमएसएमई के बंद होने और अंततः बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के बढ़ने का कारण बनेगी। इस कार्य में बिल्‍कुल समय नहीं गंवाया जा सकता और अब सभी प्रयासों को इस दिशा में समर्पित किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह अस्थायी झटका (मंदी) लंबे समय तक रहने वाले झटके (अवसाद) में न बदल जाए।

लेखक ने इंद्रनील दासगुप्ता, सुगता घोष और बिभास साहा के साथ विचार-विमर्श किया है।

लेखक परिचय: सरमिष्‍ठा पाल गिल्डफोर्ड (यूनाइटेड किंगडम) स्थित सरे विश्वविद्यालय में वित्तीय अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं।

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