समष्टि अर्थशास्त्र

कोविड-19 झटका: अतीत के सीख से वर्तमान का सामना करना – पांचवां भाग

  • Blog Post Date 23 जून, 2020
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Pronab Sen

Chair, Standing Committee on Statistics

pronab.sen@theigc.org

इस श्रृंखला के पिछले दो भागों में, डॉ. प्रणव सेन ने कोविड-19 झटके से उबरने के लिए तीन अलग-अलग चरणों (उत्तरजीविता, पुनर्निर्माण और सुधार) के माध्‍यम से सुधार के मार्ग प्रस्तुत किए हैं। श्रृंखला के अंतिम भाग में, उन्होंने सरकार की राजकोषीय स्थिति के बिगड़ने के बारे में चिंताओं पर विचार करते हुए, सुधार के निधिकरण पर और बड़े प्रोत्साहन पैकेज के निधिकरण के लिए संसाधनों को कैसे जुटाया जा सकता है, इन मुद्दों पर चर्चा की है।

सुधार हेतु निधिकरण

श्रृंखला के पिछले हिस्सों में प्रस्तुत किए गए मॉडल के परिणामों को, चाहे वे कितने भी अनुमानित या प्रतिस्पर्धी हो, सरकार उन पर कड़े विकल्‍पों के साथ विचार करती है - या तो पहले से ही घोषित किए गए से ज्यादा कुछ न करे और लंबी अवधि की अव-सम प्रतिव्‍यक्ति जीडीपी की तैयारी करे; या एक बड़ा राजकोषीय प्रोत्साहन दे कर तुरंत कदम उठाए और दो वर्षों में धनात्‍मक वृद्धि पथ पर वापस लौटने की आशा करें। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार इस बारे में गहन रूप से चिंतित है, इसलिए अपनी राजकोषीय स्थिति के बिगड़ने के कारण विवश है। ऐसा लगता है कि इससे एक जिम्मेदार राजकोषीय प्रबंधक के रूप में इसकी वैश्विक स्थिति प्रभावित होगी और इस प्रकार इसे वैश्विक रेटिंग एजेंसियों द्वारा कम रेटिंग दिए जाने की संभावना है। हालांकि, यह संदिग्ध लगता है कि सरकार ने वास्तव में अपने मौजूदा रुख के दीर्घावधि प्रभावों और किसी भी जवाबी कार्रवाई का अनुमान लगाया है। इसलिए, यह आवश्यक है कि वैकल्पिक मार्गों के वित्तीय परिणामों की जांच की जाए ताकि सरकार एक उचित निर्णय ले सके।

जहां तक सुधार मार्ग के निधिकरण की बात है, इसमें तीन विशिष्ट क्षेत्र शामिल हैं: वित्तीय क्षेत्र, राज्य सरकारें, और केंद्र सरकार। सुधार के विभिन्न चरणों में इनमें से प्रत्येक की महत्वपूर्ण भूमिका है। जैसा कि पहले खंडों में वर्णित किया गया है, उत्‍तरजीविता के चरण में मुख्य भूमिका राज्य सरकारों और वित्तीय क्षेत्र की है; जीवन के लिए राज्‍य सरकारों की और उद्यमों के लिए वित्‍तीय क्षेत्र की। ये तीनों क्षेत्र उत्‍तरजीविता चरण में शामिल होंगे। सुधार चरण में, राज्य और केंद्र सरकारों की भूमिका महत्‍वपूर्ण होगी जिनमें से केंद्र की भूमिका अधिक महत्‍वपूर्ण होगी।

जहां तक ​​वित्तीय क्षेत्र का सवाल है, इस स्तर पर भविष्यवाणी करना व्यावहारिक रूप से असंभव है कि इसके लाभ-हानि खाते और बैलेंस शीट पर कितना प्रभाव पड़ेगा। हालाँकि, थोड़ा-बहुत गुणात्मक मूल्यांकन किया जा सकता है। आरंभ में, यह क्षेत्र महामारी और लॉकडाउन के पहले से ही परेशानी में था। एनपीए लगभग 9% के ऊंचे स्‍तर पर थे, और मुद्रा ऋणों में बड़ी गिरावट के कारण इसके लगभग 2 प्रतिशत अंक और बढ़ने की आशंका थी, जिसके लिए सरकार ने सितंबर 2019 से 1 अप्रैल 2020 तक के लिए कोई कार्रवाई न करने की छूट प्रदान कर दी थी। अब इन ऋणों की परिसंपत्ति गुणवत्ता विधि मान्यता को आगे और छह महीने के लिए स्थगित कर दिया गया है। अब यह लगभग निश्चित है कि छूट समाप्‍त होने पर 1 अक्टूबर 2020 के बाद इनमें से अधिकांश मुद्रा ऋण एनपीए बन जाएंगे।

मई 2020 में सरकार द्वारा दी गई नकद सहायता का एक महत्वपूर्ण घटक एमएसएमई को गैर-जमानती ऋण के लिए चार वर्षों के कार्यावधि के साथ रु.3,00,000 करोड़ का प्रावधान के रूप में है। इस बात की अत्‍यधिक संभावना है कि इस सुविधा का उपयोग पूर्व में मुद्रा ऋणों की तरह ही किया जाएगा जिससे कार्रवाई और लंबित हो सकती है। नतीजतन, इसके कारण विधि मान्‍यता आरंभ होने से कम से कम एक साल तक बैंक बैलेंस शीट में निहित वास्तविक नुकसान छिप जाएगा। हालांकि, मानक ऋण खातों को जीवित रखने के लिए यह एक छोटी कीमत है। अन्य सभी नकदी उपायों के लिए भी वास्‍तविकता कुछ ऐसी ही है।

आगे बढ़ते हुए, पूरे वित्तीय क्षेत्र में वर्तमान में मानक खातों को होने वाली क्षति की मात्रा मुख्य रूप से उस गति पर निर्भर करती है जिस पर अर्थव्यवस्था अपने वृद्धि पथ पर पुन: लौटती है। सुधार जितना जल्‍दी होगा, नुकसान उतना ही कम होगा। यदि सुधार का पथ आधार रेखा परिदृश्‍य के समान ही रहता है तो वित्तीय क्षेत्र को काफी नुकसान होगा, जिसे निवेश का समर्थन करने की अपनी क्षमता से अत्‍यधिक समझौता करना पड़ेगा, और इसके कारण सुधार की गति दूसरे भाग में तालिका 1 में दर्शायी गई गति की तुलना में और भी धीमी हो जाएगी। दूसरे परिदृश्य में अपेक्षाकृत शीघ्र सुधार को वित्तीय क्षेत्र वास्तव में सरकार से प्राप्‍त कुछ सहायता के साथ समा‍वेशित कर सकता है, और निवेश समर्थन तैयार हो सकता है। दोनों ही परिस्थितियों में, वित्तीय क्षेत्र को अपने पैरों पर वापस खड़ा करने के लिए केंद्र सरकार के बड़े और निरंतर समर्थन की आवश्यकता होगी।

सौभाग्य से सरकार की वित्तीय स्थिति के बारे में और अधिक सटीक होना संभव है। पहला सवाल जिसका जवाब दिया जाना जरूरी है, वह है - पहले से उल्लिखित दो वैकल्पिक परिदृश्यों में राजकोषीय प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए सरकार (दोनों, केंद्र एवं राज्य) को कितने अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता है? यह याद रखना चाहिए कि मॉडल की एक महत्वपूर्ण धारणा यह है कि सरकार के मूल व्‍यय को वास्‍तविक रूप से 2020-21 के बीई (बजट अनुमान) के स्तर पर विचार किए जा रहे लगातार चार सालों तक स्थिर माना जाता है (मान्‍यता 3)। इस प्रकार, व्यय में परिवर्तन केवल प्रोत्साहन के प्रावधान के रूप में हैं। दूसरा, राजकोषीय घाटे में परिवर्तन में कर राजस्व के स्रोतों पर कर के अलावा अन्य राजस्व हानि को ध्यान में नहीं रखा जाता है। यह राज्यों के लिए बहुत अधिक परिणामकारी नहीं है, लेकिन केंद्र के लिए महत्वपूर्ण है2। तीसरा, यह माना जाता है कि केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा कर दरों में कोई बदलाव नहीं किया जाता है। इस प्रक्रिया के परिणाम नीचे दी गई तालिका में प्रस्तुत किए गए हैं।

तालिका 1. 2020-21 बीई से समेकित राजकोषीय घाटे में परिवर्तन

(सभी आंकड़े 2019-20 के मूल्‍यों पर रु. करोड़ में)

वर्तमान प्रोत्‍साहन

प्रस्‍तावित प्रोत्‍साहन

Δ व्‍यय

Δ कर

Δ एफडी

Δ व्‍यय

Δ कर

Δ एफडी

2020-21

2,10,000

-7,50,000

9,60,000

1,00,000

-5,40,000

15,40,000

2021-22

0

-10,30,000

10,30,000

2,60,000

-5,40,000

9,00,000

2022-23

0

-8,60,000

8,60,000

0

-2,50,000

2,50,000

2023-24

0

-6,70,000

6,70,000

0

-2,40,000

2,40,000

नोट: Δ बदलाव को चिन्हित करता है - अर्थात 2020-21 का Δ व्‍यय, इन दोनों वर्षों के बीच व्यय में हुआ बदलाव है।

जैसा कि देखा जा सकता है, मौजूदा वर्ष में प्रस्तावित प्रोत्साहन के साथ समेकित घाटा काफी मात्रा में अर्थात लगभग रु.5,80,000 करोड़ बढ़ जाएगा। प्रोत्साहन के रु.7,90,000 करोड़ अधिक होने के बावजूद ऐसा है। इस प्रकार, अतिरिक्त प्रोत्‍साहन का एक हिस्सा उत्पन्न होने वाली ऊंची वृद्धि से पैदा हुए अतिरिक्त कर संग्रह द्वारा वित्तपोषित किया जाएगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात, बाद के वर्षों में प्रस्तावित प्रोत्साहन के साथ घाटा बहुत कम होगा। इस प्रकार, चार साल की समय सीमा पर विचार किया जाए, तो राजकोषीय घाटा लगभग रु.6,00,000 करोड़ कम होगा। यदि केवल वर्तमान वर्ष की तुलना में कुछ अधिक समय-सीमा पर भी विचार किया जाए तो भी प्रभावी रूप में इसका अर्थ यह है कि सरकार का यह विचार कि बढ़ा हुआ राजकोषीय प्रोत्साहन वहन नहीं किया जा सकता, पूरी तरह गलत है।

यदि हम समेकित राजकोषीय घाटे और जीडीपी के अनुपात (या सीएफडी अनुपात) पर विचार करें तो यह तर्क और भी बाध्यकारी हो जाता है, यह वह संकेतक जिसे सरकार रेटिंग एजेंसियों द्वारा उकसाए जाने के कारण अधिक स्थापित करती है। वर्तमान में यह अनुपात 6.5% निर्धारित किया गया है। सरकार जो कुछ भी करे, इस अनुपात में निश्चित रूप से वृद्धि होगी, लेकिन यह ब्याज के सापेक्ष परिमाण हैं।

यद्यपि 2020-21 में, प्रस्तावित प्रोत्साहन वर्तमान पैकेज के लिए 13.2% की तुलना में 15.4% का सीएफडी अनुपात देगा; 2021-22 में यह 15% की तुलना में 12.2% तक गिर जाता है; 2022-23 में ये संख्या 13.1% की तुलना में 10.1% हो जाती है; और 2023-24 में यह 9.0% की तुलना में 7.5%। इससे रेटिंग एजेंसियों को अत्‍यधिक प्रसन्‍न होना चाहिए क्योंकि राजकोषीय समेकन प्रक्रिया वर्तमान पैकेज की तुलना में प्रस्‍तावित पैकेज के लिए ज्‍यादा स्‍पष्‍ट है।

सरकार को परेशान करने वाला दूसरा बड़ा सवाल यह है कि बड़े प्रोत्साहन पैकेज के लिए संसाधन कैसे जुटाए जाएंगे। यह चिंता वित्तीय विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों द्वारा फैलाई जा रही है जो सरकार के लिए उपलब्ध "राजकोषीय स्थान" पर सवाल उठाते हैं। इसका मतलब यह है कि कोई भी इस बारे में बहुत स्पष्ट या सहमत नहीं है, लेकिन यह एक विचारोत्तेजक शब्द है। हालांकि, जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है, "राजकोषीय स्थान" की धारणा राज्यों के लिए तो समझ में आती है क्योंकि वे इस बात पर मजबूर हैं कि वे केंद्रीय फरमान द्वारा कितना उधार ले सकते हैं। लेकिन केंद्र सरकार के लिए इसका निश्चित रूप से कोई मतलब नहीं है। एक सत्‍ता जिसमें पैसा छापने की शक्ति होती है, वह कभी अयोग्य अर्थों में भी "राजकोषीय रूप से मजबूर" नहीं हो सकती है।

इस वर्ष (2020-21) के लिए, केंद्र पहले से ही रु.4,20,000 करोड़ के अतिरिक्त उधार कार्यक्रम की घोषणा कर चुका है और राज्यों को अपनी मूल उधार सीमा के अतिरिक्त इतनी ही राशि उधार लेने की अनुमति दे दी है। ऐसी स्थिति में, वर्तमान प्रोत्साहन पैकेज के साथ, राज्‍य द्वारा अतिरिक्त रूप से उधार लिए जा सकने वाली राशि रु.4,00,000 करोड़ में से वे अपने कर नुकसान की भी पूर्ति नहीं कर सकेंगे, जो कि अनुमानित रूप से रु.4,30,000 करोड़ है। इसका अर्थ यह है कि राज्यों को अपने खर्च को रु.30,000 करोड़ कम करना होगा। अर्थात प्रभावी राजकोषीय प्रोत्साहन रु.2,10,000 करोड़ नहीं बल्कि रु.1,8,000 करोड़ होगा। इससे वृद्धि की संभावना और भी कमजोर हो जाएगी।

केंद्र सरकार के मामले में, अनुमानित कर नुकसान रु.3,1,000 करोड़ है जिससे अन्‍य प्रयोजनों के लिए रु.1,10,000 करोड़ बच जाता है। हालांकि, जैसा कि फुटनोट 1 में उल्लेख किया गया है, गैर-कर राजस्व में भी नुकसान होगा; जिससे वास्तव में प्रोत्‍साहन को वित्‍तपोषित करने के लिए बहुत कम राशि बच सकती है। यह लगभग तय है कि केंद्र को अपने वर्तमान पैकेज को वित्त देने के लिए और उधार लेना होगा।

अतिरिक्त उधार की मात्रा (केंद्र और राज्यों के लिए लगभग 9,00,000 करोड़ रुपये) प्राप्‍त करना सरकारी बॉन्ड पर कमाई के रूप में बहुत मुश्किल या महंगा नहीं हो सकता है। वर्तमान में, बैंकों ने लगभग रु.8,50,000 करोड़, आरबीआई के रिवर्स रेपो खाते में रखे हुए हैं। उन्‍हें तो खुश ही होना चाहिए कि वे रिवर्स रेपो के रूप में कमाए जाने वाले 3.45% ब्याज की बजाय सरकारी प्रतिभूतियों से कम से कम 6% तक ब्‍याज कमा सकेंगे। वर्ष के दौरान, जब सरकार के पैकेज के नकदी घटक प्रभावी होंगे तो यह राशि और बड़ी हो जाएगी।

हालांकि, यह निसंदेह है कि प्रस्तावित पैकेज के लिए रु.8,00,000 करोड़ की अतिरिक्त आवश्‍यकता का एक बड़ा भाग बाजार पर दबाव डालेगा और कमाई में काफी वृद्धि करने की आवश्यकता होगी4। बदले में इससे अन्य सभी ब्याज दर बढ़ जाएंगी, जिससे पहले से ही झटका खाए हुए निवेशकों के विश्‍वास के और डगमगा जाने की आशंका बढ़ जाएगी। तब यह घाटे के मुद्रीकरण का एक वास्‍तविक उदाहरण होगा5

भारत में पिछले कुछ हफ्तों के दौरान मुद्रीकरण की संभावना के बारे में सक्रिय चर्चा हो रही है। मुद्रीकरण के खिलाफ तीन तर्क दिए गए हैं। पहला यह है कि इससे एक खराब मिसाल कायम होगी और सरकार को भविष्य में अपने घाटे के वित्तपोषण के लिए इस उपाय की लत लग सकती है6। नतीजतन, जैसा कि आलोचक इसे कहते हैं, यह राजकोषीय अपव्‍ययता के विरुद्ध "कड़ी मेहनत से मिली जीत को खतरे में डालना" होगा। इस तरह के एक दृष्टिकोण को दूसरे, कम खुशामदी तरीके से वर्णित किया जा सकता है - यह राजकोषीय ईमानदारी की वेदी पर अर्थव्यवस्था और मानव जीवन का बलिदान करने की इच्छा है। यह इस सरकार पर अच्छी तरह से प्रतिबिंबित भी नहीं होता है।

दूसरा तर्क यह है कि मुद्रीकरण अंतर-पीढ़ीगत रूप से अनुचित है, जिसमें वर्तमान के लिए भुगतान हेतु भविष्य की पीढ़ियों से उधार लेना शामिल है। हालांकि यह सामान्य परिस्थितियों में निश्चित रूप से सच है कि यह इस पैमाने के संकट में लागू नहीं होता है। यदि धन-वित्‍तपोषित प्रोत्साहन न दिए जाने के कारण निवेश में तेजी से कमी आती है, जैसा कि संभावित है, तो भविष्य की पीढ़ियों को और भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।

तीसरा और सबसे लोकप्रिय तर्क यह है कि घाटे के मुद्रीकरण से अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त धन की आपूर्ति होगी और इससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी। इस दृश्य के समर्थन में 2009-10 का अनुभव अक्सर पेश किया जाता है7। जबकि यह काफी उचित लगता है, लेकिन इसमें एक घातक दोष है कि यह इसके विपरीत-तथ्‍यात्‍मक रूप से विचार नहीं करता है। अतिरिक्त धन की आपूर्ति की धारणा धन की पूर्ण आपूर्ति के बारे में नहीं है, बल्कि धन की आपूर्ति जीडीपी के सापेक्ष है। वर्तमान संदर्भ में, दो विकल्‍प हैं (क) जहां एक ओर अतिरिक्त प्रोत्साहन प्रदान नहीं किया जाना और धन की आपूर्ति को स्थिर रखा जाना है; और (ख) दूसरी ओर, प्रोत्साहन प्रदान करना और धन की आपूर्ति को बढ़ाने की अनुमति प्रदान करना है। इन दोनों विकल्पों हेतु 2020-21 के लिए संबंधित आंकड़े इस प्रकार हैं:

विकल्प (क):

धन की आपूर्ति में परिवर्तन = 0; जीडीपी में परिवर्तन = - रु.25,20,000 करोड़; अतिरिक्त धन की आपूर्ति = रु.25,20,000 करोड़

विकल्प (ख):

धन की आपूर्ति में परिवर्तन = रु.8,00,000 करोड़; जीडीपी में परिवर्तन = - रु.11,60,000 करोड़ 9; अतिरिक्त धन की आपूर्ति = रु.19,60,000 करोड़

दूसरे शब्दों में, यदि अतिरिक्त राजकोषीय प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है तो अतिरिक्त धन की आपूर्ति इसके दिए जाने की तुलना में कहीं अधिक (5,60,000 करोड़ रुपये से अधिक) होगी। मुद्रीकरण के आलोचकों द्वारा दिए गए धन की मात्रा के सिद्धांत और तर्क के आधार पर मुद्रास्फीति दूसरे विकल्‍प की तुलना में पहले विकल्‍प में अधिक होनी चाहिए10

संक्षेप में, कोई बाध्यकारी कारण नहीं है कि पर्याप्त राजकोषीय प्रोत्साहन क्यों नहीं दिया जाना चाहिए, लेकिन इसके दिए जाने के लिए कई कारण हैं। सरकार को पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान नहीं करने के परिणामों पर और अपनी शंकाओं को दूर करने की आवश्यकता है। बहुत सारे जीवन और आजीविकाएं दांव पर है।

परिशिष्ट: मॉडल संरचना

इस श्रृंखला में उपयोग किया जाने वाला मॉडल सबसे सरल संभव विनिर्देश का उपयोग करता है जो विचाराधीन मुद्दों को हल कर सकता है। यह एक प्रमुख धारणा पर आधारित है: निवेश दर (निवेश बनाम जीडीपी अनुपात) स्थिर है। इस धारणा का अनिवार्य रूप से अर्थ है कि संभावित आउटपुट की वृद्धि दर भी स्थिर है। मॉडल को 6% की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त करने के लिए अंशांकित किया गया है, जिसे हम मुख्य गति के रूप में संदर्भित करते हैं।

इस प्रकार, संभावित आपूर्ति पक्ष पिछले वर्ष की वास्तविक जीडीपी के लिए लागू 6% वार्षिक वृद्धि दर बन जाता है। फिर संभावित आपूर्ति के वार्षिक अनुमान को ऐतिहासिक आंकड़ों से गणना किए गए मौसमी कारकों का उपयोग करके चार तिमाहियों में आवंटित किया जाता है। माना जाता है कि अर्थव्यवस्था के वास्तविक उत्पादन और संभावित आपूर्ति में विचलन केवल तभी होता है जब मांग पर बाह्य कारणों से झटका लगें। इस प्रकार, कोई भी मांग झटका न होने पर, अर्थव्यवस्था 6% के स्थिर वृद्धि दर पथ पर होगी।

चूँकि निवेश की दर नियत रखी गई है, इसलिए उपभोग, निर्यात, या सरकारी व्यय में मांग के झटके उत्पन्न हो सकते हैं11। इन झटकों की गणना अलग-अलग की गई है और उनकी उत्पत्ति के बिंदु और सततता की अवधि के आधार पर उन्‍हें तिमाही में आवंटित किया गया है। इस प्रकार, लॉकडाउन और निर्यात के ऋणात्‍मक झटके 2020-21 की पहली तिमाही तक सीमित हैं, जबकि वित्तीय प्रोत्साहन के धनात्‍मक झटके कई तिमाहियों में फैले हुए हैं।

प्रत्येक झटके को अगली छह तिमाहियों में गुणक प्रक्रिया के माध्यम से प्रसारित करने का अनुमान है। प्रसार प्रक्रिया का त्रैमासिक ब्‍यौरा पूर्व-निर्दिष्ट है ताकि तिमाहियों का कुल योग 2 तक बढ़ जाए। यह त्रैमासिक ब्‍यौरा ऋणात्‍मक और धनात्‍मक झटके के लिए समान नहीं है। ऋणात्‍मक गुणक झटके के बाद तीसरी तिमाही में सर्वाधिक हो जाता है और उसके बाद कम होने लगता है, जबकि धनात्‍मक लगातार कम होता जाता है।

प्रत्येक तिमाही के सभी झटकों के शुद्ध प्रभाव को उस तिमाही में वास्तविक जीडीपी के अनुमान को प्राप्त करने के लिए संभावित आपूर्ति में से घटा दिया जाता है। वास्तविक जीडीपी श्रृंखला प्राप्‍त करने के लिए इस प्रक्रिया को पूरी समय सीमा पर दोहराया जाता है। इन जीडीपी अनुमानों से ऐतिहासिक अनुपातों का उपयोग करते हुए अन्‍य सभी चरों की गणना की जाती है।

नोट्स:

  1. यह याद किया जा सकता है कि नोटबंदी के बाद, 2017 के दौरान एमएसएमई द्वारा इन ऋणों के एक बड़े हिस्‍से को अपने पिछले ऋणों के भुगतान को स्‍थगित करने के लिए लिया गया था।
  2. केंद्र सरकार के बजट में लाभांश और विनिवेश से प्राप्‍त बड़े गैर-कर राजस्व अनुमान हैं। इनके भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित होने की संभावना है, लेकिन इन्‍हें इन गणनाओं में शामिल नहीं किया गया है।
  3. यह निसंदेह पूर्णत: सटीक नहीं है क्योंकि बजट के बाद केंद्र ने पेट्रोलियम पर कर बढ़ा दिया है और कुछ राज्यों ने पेय शराब पर कर बढ़ा दिया है। जबकि पेट्रोलियम पर कर के कारण पेट्रोलियम की खुदरा कीमत (वैश्विक तेल की कीमतों में नरमी के कारण) पर वास्‍तविक रूप से कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, शराब पर कर ने इसके खुदरा मूल्य में उल्लेखनीय वृद्धि की है। यह मांग की कीमत लोच के आधार पर कुल मांग पर एक और मंदीगत प्रभाव डाल सकता है।
  4. बैंकों के नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) को कम करके कुछ अधिक उधार लेना सैद्धांतिक रूप से संभव है। लेकिन, इस बात की संभावना बहुत कम है कि बैंक वास्तव में अपनी नकद की तरलता स्थिति को काफी नीचे जाने देंगे क्योंकि लोगों द्वारा पिछले दो महीनों में अपने उपभोग की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी बचत में से तेजी से नकदी निकालने के कारण बैंकों में नकद की मात्रा काफी कम हुई है।
  5. मुद्रीकरण का अर्थ है कि सरकार नकद के लिए आरबीआई को सीधे बॉन्ड बेचती है और बाजार में नहीं जाती है।
  6. बाज़ार-उधार की तुलना में मुद्रीकरण का बड़ा लाभ यह है कि यह सरकार के लिए लगभग लागत रहित है। यद्यपि सरकार आरबीआई को ब्याज का भुगतान करती है, लेकिन व्यावहारिक रूप से यह पूरा का पूरा उच्च लाभांश के रूप में वापस आ जाता है। इस प्रकार, वहन की जाने वाली लागत केवल मूलधन का पुनर्भुगतान है, लेकिन बॉन्ड के कार्यकाल के आधार पर कई वर्षों बाद होगा। इस लागत का भी हल निकालने के लिए, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) के डॉ. रथिन रॉय ‘कंसोल्‍स’ के उपयोग की वकालत करते रहे हैं, जो कि अनिश्चित काल के (सतत) बॉन्ड हैं, इसलिए मूलधन का कभी वापस भुगतान ही नहीं किया जाता है। इसके साथ समस्या यह है कि बाजार में कंसोल का कारोबार नहीं किया जा सकता है, इसलिए, जरूरत पड़ने पर धन की आपूर्ति को कम करने के लिए इनका उपयोग नहीं किया जा सकता है।
  7. 2009-10 में मुद्रास्फीति बढ़ी थी जब सरकार ने अपने राजकोषीय घाटे को 3 प्रतिशत अंक तक बढ़ाया। लेकिन, घाटे का कोई मुद्रीकरण नहीं था।
  8. दूसरे भाग की तालिका 1 देखें।
  9. चौथे भाग की तालिका 1 देखें।
  10. इसमें से कोई भी वास्तव में सच नहीं है, क्योंकि वास्तविक परिणाम संभवतः दोनों मामलों में अवस्फीति के रूप में होगा, लेकिन यह अस्‍पष्‍ट सैद्धांतीकरण के खतरों को उजागर करता है।
  11. राष्ट्रीय आय खातों में, बाहरी क्षेत्र में भी आयात शामिल होता है। हालांकि, इस संदर्भ में, आयात झटके का स्रोत नहीं हैं और इसे अंतर्जात के रूप में निर्धारित किया जाता है।

लेखक परिचय: डॉ प्रणव सेन इंटरनैशनल ग्रोथ सेंटर (आई.जी.सी.) के कंट्री डाइरेक्टर हैं।

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