इस पोस्ट में मैत्रीश घटक इस बात पर विचार-विमर्श कर रहे हैं कि कैसे रैन्डमाइज्ड कंट्रोल ट्राइयल्स (आरसीटी; यादृच्छिकीकृत नियंत्रित परीक्षणों) को — जिसके प्रयोग की अगुआई इस वर्ष के अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता बैनर्जी, डुफ्लो और क्रेमर ने की थी — गरीबों के जीवन को सीधे प्रभावित करने वाले कार्यक्रमों एवं व्यवधानों के साथ वास्तविक जीवन में सफलतापूर्वक लागू किया गया। घटक इस बात का दावा करते हैं कि ये परीक्षण केंद्रीकृत नीति निर्माण की शीर्ष-पाद पद्धति में अत्यावश्यक सुधार उपलब्ध करा सकते हैं।
विकास अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आने वाले कुछ मानक प्रश्न जो गरीबी के निर्धारक तत्वों और उसे कम करने की नीतियों से संबंधित हैं, निम्नवत हैं – क्या सूक्ष्म ऋण गरीबी को कम करते हैं? क्या वित्तीय समावेश की नीतियां उन गरीबों की सहायता करने में प्रभावी हैं जो अपनी आय को बचाने, निवेश करने और बढ़ाने के लिए स्व-नोयोजित हैं? क्या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनयिम (मनरेगा)1 ने भारत में ग्रामीण मजदूरों हेतु रोजगार के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध करा कर वेतन में वृद्धि की? क्या यह पाठ्यपुस्तकों या मिड-डे-मील (दोपहर के भोजन) या बेहतर स्वास्थ और स्वच्छता की उपलब्धता है जो ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब परिवारों के बच्चों की शिक्षा प्राप्ति में सुधार ला सकती है?
इन प्रश्नों का उत्तर देने में एक मुख्य चुनौती कारण और प्रभाव के बीच में संबंध स्थापित करना है। यदि प्रश्न सीधे लगते हैं और दृष्टिकोण आसान प्रतीत होता है, तो आपका सामना उस शब्द से नहीं हुआ है जो शैक्षणिक संगोष्ठियों के लिए ऐसा है जैसा हैरी पॉटर और उसके मित्रों के लिए मंत्र हैं: ‘पहचान’। जैसे ही यह बात सामने आती है, कमरे में एक चुप्पी फैल जाती है और वक्ता एक गहन प्रतिवाद शुरू करता है कि कैसे उनका विश्लेषण, कारण से प्रभाव तक का पुख्ता सबूत स्थापित करता है। वास्तविक जीवन में समस्या यह है कि हर चीज एक साथ बदलती है और इसलिए इस बात की पहचान करना बहुत कठिन है कि क्या कारण है और क्या प्रभाव। उदाहरणार्थ, यदि गरीब लोग कम बचत करते हैं तो क्या ऐसा इसलिए है कि उनकी कम आमदनी के कारण कम बचत होती है या फिर इसलिए है कि कम बचत के कारण कम आमदनी होती है? इसी प्रकार, एक कारण से दूसरे कारण के प्रभाव का पता लगाना मुश्किल है। शायद बैंक की शाखाओं का विस्तार बचत की सुविधा उपलब्ध कराता हो, लेकिन सामान्य रूप से इन दोनों के बीच संबंध स्थापित करना उचित नहीं है क्योंकि कोई तीसरा कारक (जैसे उस क्षेत्र में वेतन की वृद्धि) दोनों को प्रभावित कर सकता है, जिससे भ्रामक संबंध स्थापित होगा। सिद्धांत वाद-विवाद के इन सभी पहलुओं औचित्य साबित कर सकता है परंतु यह नहीं बता सकता कि हमें ऐसी नीतियों पर ध्यान देना चाहिए जो आमदनी में वृद्धि कर बचत को बढ़ाएंगी या फिर ऐसी नीतियों को प्राथमिकता देनी चाहिए जो गरीब लोगों के लिए बचत के अवसरों में वृद्धि करेंगी और परिणामत: आय में बढ़ौतरी होगी।
आरसीटी की शक्ति
मानक प्रयोगाश्रित पद्धतियां पर्यावरण में कुछ बाह्य संचालित परिवर्तन को खोजने का प्रयास करती हैं जो एक कारक को परिवर्तित करता है और उसके बाद कारण-प्रभाव की रेखा शुरू होती है। बचत के उदाहरण को जारी रखते हुए, भारत सरकार ने पिछले कुछ सालों में उत्साहपूर्वक ‘जन-धन योजना’2 पर बल दिया है और कोई यह पता लगाने की कोशिश कर सकता है कि जिन लोगों को इस योजना में शामिल किया गया हैं, क्या वे उन लोगों से ज्यादा बचत करने में सफल हुए हैं जो इस योजना का हिस्सा नहीं थे। कठिनाई यह है कि सरकार ने किसी कारणवश कुछ क्षेत्रों को अन्य के मुकाबले प्राथमिकता के लिए चुना हो (उदाहरणार्थ, वे ज्यादा गरीब हों) तो यह एक स्वस्थ तुलना नहीं है। इसी प्रकार जो लोग खाता खुलवाने का विकल्प देते हैं, हो सकता है वे अल्पव्ययी हों और इसलिए हम उनके व्यवहार को इस बात का निर्णय लेने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते कि एक आम आदमी ऐसी योजना के प्रति कैसी प्रतिक्रिया होगी। अंततः, भले हम उन लोगों की बचत और आय पर एक सकारात्मक प्रभाव देखते हैं जिन्होंने ऐसे खाते खुलवाए हैं। हो सकता है कि कोई और कारण हो जो इन दोनों प्रवृत्तियों को प्रभावित कर रहा हो – शायद निर्यात मांग में वृद्धि के कारण या फिर सरकार के सड़क निर्माण कार्यक्रम के कारण वेतन बढ़ रहे हों।
यहीं आरसीटी की क्षमता स्थापित होती है। आरसीटी एक ऐसा पारिभाषिक शब्द है जिसे 14 अक्टूबर 2019 को विकास अर्थशास्त्र में आरसीटी के प्रयोग की अगुवाई करने के लिए अभिजीत बैनर्जी, एस्थर डुफ्लो और माइकल क्रीमर को अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार प्रदान किए जाने तक केवल शैक्षणिक और नीतिगत संसार के अंदर तक ही सुना गया था। चिकित्सा में प्रायोगिक परीक्षणों के पश्चात आरसीटी एक महत्वपूर्ण सूक्ष्म दृष्टि का प्रयोग करते हैं जिसके संकेत रोनॉल्ड फिशर, एक प्रतिष्ठित ब्रिटिश सांख्यिकीविद एवं अनुवांशिकीविद की पुस्तक - दि डिजाइन ऑफ एक्सपेरीमेंट्स (1935) में मिलते हैं : आप दो समान समूहों का चयन करें और फिर यादृच्छिक रूप से एक समूह को परीक्षण किए जा रहे उपचार (दवा या कोई नीति) को प्राप्त करने के लिए चयन करें और तब इस समूह (उपचार समूह) के परिणामों की तुलना दूसरे समूह (नियंत्रक समूह) से करें। यदि अंतर सांख्यिक रूप से व्यापक है, तो वह उपचार के कारण है। इस अध्ययन की रूपरेखा उपर्युक्त मानक समस्याओं को खारिज कर देती हैं।
यहाँ यहाँ यादृच्छिकीकरण का विचार आना महत्वपूर्ण नवीनता नहीं है बल्कि गरीब लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले कार्यक्रमों एवं व्यवधानों के साथ इसका वास्तविक जीवन में प्रयोग करना अभिनव परिवर्तन है। दवाइयों के परीक्षण से लेकर सरकारी कार्यक्रमों और साथ ही साथ गैर-सरकारी संस्थानों के कार्यक्रमों को यादृच्छिक आधार पर गांवों, घरों एवं संगठनों में स्थापित करना ऊंची कल्पनाशक्ति की बात लगती है।
अर्थशास्त्र में इस पद्धति के प्रयोग ने, कौन-सी नीतियां कारगर हैं और कौन-सी नहीं के बारे में हमारे विचार बदल दिए हैं। हम सूक्ष्म-वित्त का उदारहण लेते हैं जो विश्व भर में समाज के गरीब वर्ग से ताल्लुक रखने वाले 10 करोड़ से अधिक लोगों की जरूरतों को पूरा करता है, जिसमें अधिकतर महिलाएं हैं। बांगलादेश के मोहम्मद यूनुस को स्वयं के इकलौते दम पर आधुनिक युग के सबसे प्रसिद्ध एवं सफल सूक्ष्म-वित्त संस्थान (एमएफआई), ग्रामीण बैंक ऑफ बांगलादेश के सृजन के लिए सूक्ष्म वित्त आंदोलन के अग्रणी के रूप में देखा जाता है। वर्ष 2006 में यूनस और ग्रामीण बैंक ने विश्व की गरीबी कम करने में अपने योगदान के लिए संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार जीता था।
परंतु क्या सूक्ष्म-वित्त गरीबी कम करने में प्रभावशाली है? यदि हम केवल उन लोगों, जिनकों सूक्ष्म- वित्त उपलब्धताकी उपलब्धता है, की तुलना उन लोगों से करें जिन्हें यह उपलब्धताउपलब्धता नहीं है तो हमें उपर्युक्त कारणों हेतु संतोषजनक उत्तर नहीं मिलेंगे। बैनर्जी एवं डुफ्लो ने अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर स्पंदन, एक एमएफआई के साथ कार्य करते हुए लघु व्यवसायों के सृजन एवं लाभप्रदता पर सूक्ष्म-वित्त की उपलब्धताउपलब्धता के प्रभाव और साथ ही साथ जीवन स्तर के विभिन्न पैमानों का अध्ययन किया। उन्होंने यादृच्छिक रूप से हैदराबाद की लगभग 100 झुग्गी-झोपडि़यों में से आधी का चयन किया जहाँ जहाँ नई शाखा खोली गई थी (‘उपचार’ समूह), जबकि शेष आधी झुग्गी-झोपडि़यां वे थीं जहाँ जहाँ कोई शाखा नहीं खोली गई (‘नियंत्रक’ समूह)।
कार्यक्रम के आयोजन से पूर्व नियंत्रक एवं उपचार - दोनों झुग्गी-झोपडि़यां, आबादी, औसत बकाया ऋण, प्रति व्यक्ति व्यवसाय, प्रति व्यक्ति व्यय, एवं साक्षरता के संदर्भ में समान लग रही थीं। उपचाराधीन झुग्गी-झोपडि़यों पर कार्यक्रम का क्या प्रभाव पड़ा? लघु व्यावसायिक निवेश एवं पूर्व रूप से विद्यमान व्यवसायों के लाभ में वृद्धि हुई, परंतु उपभोग में बहुत ज्यादा इज़ाफा नहीं हुआ। टिकाऊ सामान पर व्यय बढ़ा, जो दर्शाता है कि ऋण का इस्तेमाल मुख्यत: इन सामानों को खरीदने के लिए किया गया है। अध्ययन के दौरान स्वास्थ्य, शिक्षा, अथवा महिला सशक्तिकरण के विषय में कोई सार्थक परिवर्तन नहीं देखा गया। इस शोध तथा भिन्न-भिन्न देशों में अन्य अध्ययनों ने गरीबी को कम करने में सूक्ष्म-वित्त की भूमिका के बारे में हमारे विचार बदल दिए हैं। जब अल्प ऋणों की उपलब्धता मौजूदा व्यवसायों के विस्तार और उपभोज्य वस्तुओं के निधिकरण हेतु बेशक उपयोगी हैं, और साथ ही यह ऋण ग्राहकों को आय प्रवाह एवं उपभोग आवश्यकताओं के बीच अस्थायी अंतर को काबू पाने में भी मददगार हो सकता है, परंतु इसे गरीबी की समस्या को सुलझाने वाली जादू की छड़ी के रूप में नहीं देखा जाता है।
विकास अर्थशास्त्र के क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर आरसीटी कहाँ योग्य साबित होती है?
विकास अर्थशास्त्र का संबंध अधिक व्यापक मुद्दों के समूह से है बजाय कि स्वास्थ्य, शिक्षा अथवा ऋण से संबंधित विशिष्ट कार्यक्रमों के मूल्यांकन के जहाँ आरसीटी का प्राय: अक्सर प्रयोग किया जाता है।
अर्थव्यवस्था के संरचनागत रूपांतरण की प्रक्रिया एक चिंता का विषय रहा है - कि कैसे आबादी ने कृषि से उद्योग और सेवाओं में पलायन किया – और तदनुसार, कैसे राष्ट्रीय आय का क्षेत्रीय संयोजन परिवर्तित हुआ। इस प्रक्रिया में केवल संसाधनों (भूमि, श्रम एवं पूंजी) का ही आवागमन शामिल नहीं है बल्कि यह संस्थागत परिवर्तन की प्रक्रिया भी है – अनौपचारिक व्यक्तिगत लेन-देन से अधिक औपचारिक संविदाकृत व्यवस्थाएं एवं बाजार, तथा सामाजिक प्रतिमानों में संबद्ध परिवर्तन। ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर साइमन कुज़्नेट और आर्थर लुइस, पहले के दो नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने विचार किया।
तथापि, आरसीटी का प्रयोग सूक्ष्म स्तर की समस्याओं के अध्ययन के लिए किया जा सकता है जहाँ वैयक्तिक कार्यक्रम का कार्यान्वयन - चाहे वो सरकार द्वारा हो या निजी संस्थान द्वारा (जैसे एमएफआई या कोई एनजीओ) – यादृच्छिक रूप से किया जा सकता है जो कार्यक्रम के प्रभाव के सांख्यिक रूप से संतोषजनक मूल्यांकन को सक्षम बनाता है, जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है। स्पष्टत:, विश्लेषण के किसी अन्य उपस्कर के साथ, आरीसीटी को विषय के अंतर्गत रुचि के प्रत्येक प्रश्न पर लागू नहीं किया जा सकता। और, जैसा कि युवा शोधकर्ताओं और शोध निधिकरण को आकर्षित करने वाली किसी भी नई पद्धति के साथ होता है, यहाँ यहाँ भी चिंता करने की बात यह है कि यह सिद्धांत और प्रयोगाश्रित कार्यों, जो आरसीटी के प्रयोग नहीं करते, सहित अन्य पद्धतियों का प्रयोग करने वाले महत्वपूर्ण शोध को बाहर धकेल देगी। अपनी मूल प्रकृति के अनुसार, आरसीटी विकास एवं संस्थागत परिवर्तन के व्यापक वृहत-स्तरीय मुद्दों अथवा अधिक दीर्घ-कालिक पहलुओं पर लागू नहीं किए जा सकते।
तथापि, यह ध्यान देना चाहिए कि आरसीटी के नए स्वरूप आ चुके हैं जो कार्यक्रमों के मूल्यांकन के अलावा और भी कार्य करती है और दर्शाती है कि उनकी प्रयोज्यता की सीमाओं को सृजनात्मक तरीकों से बढ़ाया जा सकता है। उदाहरणार्थ, विकासशील देशों में भूमि, श्रम, एवं ऋण बाजारों में प्रचलित संविदागत शर्तों को समझना विकास अर्थशास्त्र में शोध का मुख्य लक्ष्य रहा है। हाल ही के कई शोध दस्तावेजों ने ऋण और किरायेदारी की भिन्न शर्तों पर आरसीटी के उपस्करों को लागू किया, और पूर्व में किए गए कार्य की सीमाओं से उबरे। किरायेदारी का मामला लेते हैं — अभिजीत बैनर्जी और पॉल गर्टलर के साथ मेरे स्वयं के कार्य ने दर्शाया कि कैसे ऑपरेशन बरगा, 1970 के उत्तरार्ध और 1980 के पूर्वार्ध में पश्चिम बंगाल में किये गये किरायेदारी सुधार कार्यक्रम ने किरायेदारी व्यवस्थाओं को बदला और कृषि संबंधी उत्पादकता में सुधार किया। फिर भी, हमारे उत्तम प्रयासों के बावजूद, प्रदत्त आंकड़ों के अनुसार हम अन्य नीतियों की भूमिका को खारिज नहीं कर सके, जो उसी समय पर आयोजित की गई थीं, जैसे पंचायतों का सशक्तिकरण। युगांडा में आयोजित हाल के आरसीटी में, शोध दल ने वास्तविक जीवन में किरायेदारी संविदाओं में यादृच्छिक भिन्नताएं लाने के लिए बांगलादेशी एनजीओ बीआरएसी (बिल्डिंग रेसोर्सेस अक्रॉस कम्मुनिटीज़ - सभी समुदायों के लिए संसाधन निर्माण) का सहयोग लिया। अपने अभियान के भाग के रूप में, बीआरएसी ने भूमि के खंडों को निम्न सामाजिक आर्थिक स्तरों की महिलाओं को पट्टे पर दिया जिनमे किसान बनने की रुचि थीं, वे प्रभावी रूप से जमीनदारों की तरह व्यवहार कर थे। इस प्रयोग में, कुछ पट्टेदारों को फसल का उच्चतर हिस्सा (75%) मिला और कुछ को फसल का निम्नतर हिस्सा (50%) मिला। लंडन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स (एलएसई) से मेरे पूर्व के दो पीएचडी पर्यवेक्षकों - कोनॉर्ड बर्कार्डी और सेलिम गुलेस्की सहित शोधकर्ताओं के समूह द्वारा किए गए अध्ययन में यह पाया गया कि उच्चतर परिणामी हिस्सों वाले पट्टेदारों ने ज्यादा निवेशकिया, जोखिम भरी फसलों को जोता, और नियंत्रक समूह के लोगों की तुलना में 60% अधिक की पैदावार की। जबकि ये परिणाम, हमारे द्वारा प्राप्त पूर्व के परिणामों से मेल खाते हुए पुन: आश्वस्त करते हैं, नए साक्ष्यों की प्रकृति सुनिश्चित करती है कि नए अध्ययन पद्धतीगत सीमाओं के अधीन नहीं हैं जिनका सामना हमारे अध्ययनों को करना पड़ा था।
शैक्षणिक शोध जगत के अंदर और बाहर से आरसीटी की आलोचना
आरसीटी की मुख्य ‘आंतरिक’ आलोचना – शैक्षणिक शोध जगत के अंदर से (उदाहरणार्थ, हाल ही के नोबेल पुरस्कार विजेता एंगस डीटॉन द्वारा) – निम्नवत हैं:
सर्वप्रथम, जबकि आरसीटी ने वैयक्तिक कार्यक्रमों के मूल्यांकन की कुछ समस्याओं का समाधान किया है, इन अध्ययनों के विशिष्ट रूप से छोटे आकार के नमूने दर्शाते हैं कि निष्कर्षों को संपूर्ण आबादी पर लागू या अन्य पर्यावरणों पर विस्तारित नहीं किया जा सकता। साथ ही, यह संभावना है कि ये अध्ययन शोधकर्ताओं और सर्वेक्षणकर्ताओं द्वारा पाए गए विशुद्ध प्रभावों को भी आंशिक रूप से शामिल करते हों, जो थोड़ा कृत्रिम पर्यावरण बनाते हैं और इसलिए हो सकता है कि ये कार्यक्रम के सर्वेक्षण-मुक्त होने पर इसके परिणामों की पक्षपाती छवि प्रस्तुत करें (इसे ‘हॉवथोर्न प्रभाव’ कहा जाता है)।
दूसरा, कि यदि कुछ कार्यक्रम अच्छे साबित होते हैं, तो हमें यह नहीं पता कि क्या कोई और कार्यक्रम हो सकता है जो इससे बेहतर साबित होता।
तीसरा, यदि नीति अच्छा कार्य करती है, तो उस सटीक तंत्र का अनुमान लगाना कठिन है जिसकी बदौलत इस नीति ने कार्य किया - उदाहरणार्थ, क्या सूक्ष्म-वित्त ऋण को अधिक उपलब्ध कराकर काम करता है या फिर यह कोई ऐसी वस्तु है जो महिलाओं को सशक्त बनाती है, या फिर दोनों?
इनमें से प्रत्येक आलोचना की कुछ वैधता तो है। तथापि, प्रत्येक पद्धति की कुछ सीमाएं होती हैं और इसका समाधान ढूँढने के लिए या तो किसी को बेहतर पद्धति खोजनी होगी या फिर मौजूदा पद्धति को बेहतर बनाना होगा। एक अन्य आशाजनक तरीका है कि भिन्न-भिन्न पद्धतियों की मिश्रित क्रियाशीलता को भुनाना – उदाहरणार्थ, इस बात का अन्वेषण प्रासंगिक हो सकता है कि कैसे आरसीटी को अर्थशास्त्र के अन्य उपस्करों के साथ जोड़ा जा सकता है, जैसे सिद्धांत एवं अनुकरण। सिद्धांत, कारण और प्रभाव में संबंध बनाने वाले वैकल्पिक विवरण को उजागर करने में अच्छा है, परंतु यह इस बात के निर्धारण में उतना बेहतर नहीं है कि किसी प्रदत्त पर्यावरण में क्या-क्या दशाएं होंगी। यह बिल्कुल चिकित्सकीय विज्ञान जैसा है - सिद्धांत हमें इस बात का पहला संकेत देता है कि क्या हुआ है जबकि प्रयोगाश्रित अनुभव नैदानिक परीक्षण हैं जो मूल संकेत की पुष्टिया खारिज या संशोधन कर सकते हैं। हाल ही में एक शोध प्रक्षेपवक्र, जो काल्पनिक वैकल्पिक नीतियों के प्रभाव का अनुमान लगाने वाले नीतिगत अनुकरणों के लिए सैद्धांतिक प्रारूपों को आरसीटी साक्ष्य के साथ जोड़ता है, वह स्पष्ट करता है कि और कौन सा उपाय बेहतर हो सकता है, साथ ही साथ यह भी स्प्ष्ट करता है कि भिन्न पर्यावरण में इसके क्या प्रभाव होंगे।
इसके बाद आरसीटी की ‘बाहरी’ आलोचनाएं हैं।
कुछ लोग चकित हो जाते हैं कि शैक्षणिक अर्थशास्त्रीगण को नीति का मूल्यांकन क्यों करना चाहिए। क्या इसे नीति निर्माताओं के लिए नहीं छोड़ देना चाहिए? अंतत:, अर्थशास्त्री होने के नाते हम तुलनात्मक लाभ एवं विशेषज्ञता के मूल्य को समझते हैं। यहाँ तक कि विज्ञान और अभियांत्रिकी अलग-अलग विषय हैं, क्या शोध को नीति कार्य से अलग नहीं होना चाहिए, चाहे वो नीति का गठन हो या उसका मूल्यांकन?
कुछ चिंताएं यह भी हैं कि चूंकि आरसीटी में बहुत सी निधि जुटाने की आवश्यकता होती है, तो कुछ दाता एजेंसियों और मानवप्रेमी संगठनों के मिशन, शोध की दिशा को भंग कर सकते हैं – यहाँ तक कि औषधीय कंपनियों का लाभ प्रयोजन चिकित्सकीय शोध की कार्यसूची को प्रभावित कर सकता है। और फिर मनुष्यों पर प्रयोगों के संबंध में नैतिक प्रतिपूर्तियाँ भी होती हैं। ये प्रतिपूर्तियाँ नियंत्रक समूह के लोगों को लाभग्राही कार्यक्रम से वंचित रखने की बात से शुरू होकर उपचार समूह के व्यक्तियों के व्यवहार में हेरफेर करने तक की बात तक पहुँचती है, जो पारदर्शिता और सूचित स्वीकृति के प्रश्न उठाती है।
एक अन्य आलोचना यह है कि, चूंकि नीति निर्माण राजनैतिक कार्यसंरचना में घटित होता है, साक्ष्य आधारित नीति और वर्धित सुधारों के बारे में शुद्ध तकनीकी नजरिया अपनाना कितना भी अच्छा क्यों न हो, दिगभ्रमित हो सकता है और यदि खराब हुआ तो यह बिल्कुल वैसा ही होगा जैसे किसी बड़ी गंभीर चोट पर बैंड-एड लगा दिया जाए।
एक बार पुन:, इन प्रत्येक आलोचनाओं में कुछ वैधता है। परंतु ये आंशिक छवि उपलब्ध कराती हैं। नीति निर्माण शायद इतना महत्वपूर्ण है कि इसे केवल नीति निर्माताओं पर नहीं छोड़ा जा सकता। और हो भी क्यों न, हमने नीति निर्माण के ऐसे कई उदाहरण देखे हैं जो समस्याओं को कुछ ज्यादा ही सरल बना देते हैं और एक लाठी से सबको हांकने का केंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाते हैं। भारतीय संदर्भ में, कुछ बड़े नीतिगत परिवर्तन, जैसे विमुद्रीकरण या वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का कार्यान्वयन, या आधार3 कार्ड को अनिवार्य बनाने जैसे कार्य बिना किसी बुनियादी साक्ष्य के या बिना गहराई नापे किए गए। हाँ, प्रयोगों के डिजाइन के बारे में नैतिक विवेचनाएं हैं और साथ ही साथ, देश की विकास प्राथमिकताओं में शोध कार्यसूची किस तरह मेल खाती है, इस बात की जिम्मेदारी स्थापित करने की आवश्यकता भी है। परंतु यह एक ऐसी विधिक एवं नैतिक कार्यसंरचना के विकास की ओर इंगित करता है जो शोध को शासित करे, न कि किसी विशेष पद्धति को त्यागने का कार्य करे। यह भी सत्य है कि जिस प्रकार के कार्यक्रमों का अध्ययन किया जा रहा है, वे वर्धित सुधार प्रस्तुत करते हैं, परंतु यह बात नहीं है कि इनको करने से रोका जाना, सरकार की ओर से, या अन्य कर्ताओं द्वारा, या स्वयं लोगों द्वारा, वृद्धिशील सुधार का रास्ता खोल देगा।
मेरे लिए आरसीटी शोध कार्यसूची की सबसे महत्वपूर्ण विरासत, नीति के संदर्भ में केंद्र बिंदु में साक्ष्य की महत्ता को स्थापित करना है। जो हम जानते हैं और जो हम नहीं जानते, इन दोनों की जानकारी होना ज्ञान है। दृढ़ साक्ष्य की मांग इन दोनों के बीच की सीमा के बारे में हमें तीक्ष्ण जानकारी देती है। इस शोध कार्यसूची का एक अन्य स्वीकार्य पहलु है, नीति निर्माण में शीर्ष-पाद की बजाय नीचे से ऊपर दृष्टिकोण पर बल दिया जाना। हो सकता है कि समान नीति सभी स्थानों पर या फिर उसी स्थान पर सबके लिए समान रूप से कार्य न करे। केवल साक्ष्य ही नीतियों को उस क्षेत्र या लोगों के समूह की विशिष्ट आवश्यकताओं से बेहतर रूप से मेल खाने वाली बनाकर नीतियों की प्रभावशीलता में सुधार ला सकता है। यह शीर्ष पाद, एक लाठी से सबको हांकने वाले दृष्टिकोण में अति आवश्यक सुधार ला सकता है, जो, अफसोस कि केंद्रीकृत नीति निर्माण की एक विशिष्टता है, चाहे वो मौजूदा भारत में हो या फिर केंद्रीय योजना के असफल मॉडल में।
इस आलेख का संस्करण सर्वप्रथमओपन मैगज़ीन में प्रस्तुत हुआ था: https://openthemagazine.com/columns/lies-behind-abhijit-banerjees-nobel/
लेखक परिचय: मैत्रीश घटक लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और इंटरनेशनल ग्रोथ सेंटर के भारत-बिहार प्रोग्राम के एक लीड अकादमिक हैं।
नोट्स:
- मनरेगा ऐसे ग्रामीण परिवार को 100 दिनों के न्यूनतम वेतन सहित रोजगार देने की गारंटी देता है जिस परिवार का व्यस्क राज्य सतरीय सांविधिक न्यूनतम वेतन पर अकुशल मजदूरी करने का इच्छुक हो।
- जन धन योजना भारत सरकार की वित्तीय समावेशन योजना है। यह प्रत्येक परिवार के लिए कम से कम बैंक में एक आधारभूत खाते की सुविधा से बैंकिंग सुविधा की वैश्विक उपलब्धता, वित्तीय साक्षरता, ऋण बीमा की उपलब्धता, और पेंशन सुविधा पर बल देती है।
- आधार या अद्वतीय पहचान संख्या (यूआईडी) एक 12 अंकों की वैयक्तिक पहचान संख्या है जो भारत सरकार की ओर से भारतीय अद्वितीय पहचान प्राधिकारण (यूआईडीएआई) द्वारा जारी की जाती है। यह प्रत्येक निवासी की बायोमैट्रिक पहचान - 10 उंगलियों के निशान, ऑंखों की पुतली और फोटो का अभिग्रहण करता है, और भारत में किसी भी जगह पहचान और पते के साक्ष्य के रूप में कार्य करता है।
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