आज सारा विश्व कोरोना महामारी की समस्या से जूझ रहा है जिस पर अनेक कोणों से शोधकर्ताओं ने प्रामाणिक आलेख प्रस्तुत किए हैं। भावेश झा द्वारा इस आलेख में आम जनता के स्वास्थ्य को राजनीतिक प्राथमिकता कैसे प्राप्त हो विषय पर सम्यक प्रकाश डाला गया है। इसमें उन्होने यह मान्यता स्थापित करने की कोशिश की है कि जन-स्वाथ्य से जुड़े नवीन शोध व जानकारी शोधपत्रों से निकलकर सरल भाषा में आम जन तक पहुँचे।
"राजनीति" शब्द सुन कर आपके मन में चाहे जैसे भी विचार आते हो, परंतु एक लोकतांत्रिक देश में राजनीति हमारे जीवन के कई आयामों को सीधा प्रभावित करता है। आपके इलाके की कानून व्यवस्था का मसला हो या बच्चों क़े स्कूल का सिलेबस, लोकहित से जुड़े सभी फैसलों में अंतिम निर्णय राजनीतिक व्यवस्था ही करती है। लोकतंत्र में बिना राजनीतिक प्राथमिकता के कोई भी प्रणालीगत बदलाव की अपेक्षा नहीं कर सकते है।
नीति-निर्माताओं, शोधकर्ताओं व लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का एक बड़ा वर्ग है जो राजनितिक व्यवस्था के साथ जूझने से कतराते है। वैज्ञानिक सिद्धांत को मानने वाले पेशेवर लोक-स्वाथ्यकर्मियों के लिए राजनीतिक वर्ग के साथ काम करना कष्टकर व थकाने वाला लगता है। इन्हें कम समय में नये शोध को सरल भाषा में नीति-निर्माताओं को समझाना होता है। यह सब राजनीतिक वर्ग के विषय वस्तु की समझ व नए विषय सिखने समझने की रूचि पर भी निर्भर करता है। नए शोध को समान्य भाषा में उपलब्ध न होने की वजह से भी व्यवहार में लोक-स्वास्थ्य के समान्य नियमों का पालन नहीं हो पाता है।
ऐसी परिस्थिति में अत्यंत सामान्य लगने वाली लोक-स्वास्थ्य की बातों को लागू करवाना मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी लोक-स्वास्थ्य के मामूली लगने वाले तथ्यों को रिसर्च पेपर से निकल कर जमीन पर उतरने में वर्षो लग जाते हैं। इसकी कई वजहें हैं। एक प्रमुख वजह है – लोक-स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले लोग (जैसे शोधार्थी, सामाजिक कार्यकर्ता वगैरह) व्राजनीतिक व्यवस्था के बीच दूरी। एक तथ्य यह भी है कि लोक-स्वास्थ्यकर्मियों के प्रशिक्षण के स्तर पे भी कुछ कमियां है। जन-स्वास्थ्य के छात्रों को लोकहित में बदलाव के लिए राजनीतिक व्यवस्था के साथ ताल-मेल बनाकर काम करने का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है।
वर्तमान कोरोना महामारी के परिदृश्य में नागरिको के स्वस्थ्य की रक्षा करने वाली नीतियों को आगे बढ़ाने की सख्त जरुरत है। लोक-स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों की प्राथमिकता राजनेताओं व नीति-निर्माताओं में बहुत उत्साहजनक नहीं है। हालांकि वर्तमान में आयुष्मान भारत योजना स्वास्थ्य के मुद्दे को राजनीति के केंद्र में ला दिया है। मोटा-मोटी यदि लोक-स्वास्थ्य के चिकित्सकीय आयाम को छोड़ दें तो इससे जुड़े अन्य काम के नाम पर वोट मांगना भी मुश्किल है क्योंकि आप इससे जुड़े हुए बहुत सारे काम, जैसे - रोग-निगरानी, को मतदाताओं को दिखा नहीं सकते हैं। परन्तु कोरोना जैसे अन्य रोगो को महामारी बनने से रोकने के लिए एकीकृत रोग-निगरानी कार्यक्रम (आईडीएसपी) एक ठोस उपाय है।
लोक-स्वास्थ्य के ज़्यादातर काम छिपे हुए होते है, जो कि किसी फ़िल्मकार की तरह कभी परदे पर नहीं आते हैं, आपको दिखते हैं सिर्फ डॉक्टर व् नर्सें। आप आज सिगरेट के पैकेट पर वैधानिक चेतवानी और कैंसर से जुड़े चित्र देखते हैं वह लोक-स्वास्थ्यकर्मियों के वर्षो के संघर्ष का परिणाम है। यहाँ यह बताना आवश्यक है स्वास्थ्य के बहुत सारे कारक होते हैं, जैसे - कानून व्यवस्था, शिक्षा, पर्यावरण, व्यापार, आदि। उदहारण के लिए सिगरेट के पैकेट पर सचित्र चेतावनी का प्रावधान लाने के लिए जो कानूनी लड़ाई लड़ी गई, उससे सिगरेट की खपत कम होगी और सिगरेट कंपनियों का व्यापार प्रभावित होगा। ऐसे में सरकार को आर्थिक नुकसान सहकर जनहित में निर्णय लेना पड़ता हैं। इसे अंग्रेजी में "ट्रेड ऑफ़्स" कहते है। ऐसे ही नागरिकों के स्वस्थ्य को प्रभावित करने वाले अन्य मुद्दे भी कहीं न कहीं व्यापार और बाजार के हितों को प्रभावित करते हैं। इन "ट्रेड ऑफ़्स" की वजह से राजनीतिक व्यवस्था को जनस्वास्थ्य के पक्ष में निर्णय लेने में कठिनाई होती है।
सामान्य स्वास्थ्य-वर्द्धक व्यवहार परिवर्तन पर यदि आज सारा लोक-स्वास्थ्य महक़मा काम करे तो हो सकता है कि उसका परिणाम अगली पीढ़ी को मिले। अमूमन जन-स्वास्थ्य के कामों को मापना कठिन होता है और ये तुरंत परिणाम देने वाले नहीं होते हैं। यही कारण है कि सरकारों को हर राज्य में नया एम्स खोलना राजनीतिक रूप से ज़्यादा फायदेमंद लगता है बजाय इसके कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को सुदृढ़ किया जाए या हर जिले में आईडीएसपी के रिक्त पदों को भरा जाए।
वैज्ञानिक तथ्य व समझ अपनी जगह सही है पर राजनीतिक व्यवस्था की अपनी अलग सच्चाई होती है। राजनितिक वर्ग सिर्फ वैज्ञानिक समझ पर चुनाव नहीं जीत सकते है। उन्हें कोई भी निर्णय लेते वक़्त आर्थिक, सामाजिक वव्यक्तिगत स्तर पर समझौते करने होते हैं। अमूमन राजनीतिज्ञों का कार्यकाल छोटा होता है इसलिए उन्हें जल्दी ठोस परिणाम देने वाले कार्य पर ज़्यादा भरोसा होता है, जबकि जन-स्वस्थ्य का अधिकतम काम दीर्घकालीन व निवारक होता है।
फिर लोकस्वास्थ्य के मुद्दों को कैसे लोकहित में राजनीति की चाशनी में कैसे पकाया जाए? ऐसा नही है कि लोक-स्वास्थ्य के पक्षकार व राजनीतिक व्यवस्था बिल्कुल ही मिलकर काम नहीं करते। इसके सबसे बड़ा और सफल उदाहरण – ‘आयुष्मान भारत’ योजना में प्राथमिक स्वास्थ्य का एक पहलू जुड़वाना है। आज देश में डेढ़ लाख हेल्थ एंड वैलनेस सेंटर व उसमें काम करने के लिए जो नया स्वास्थ्य संवर्ग (सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी) तैयार हो रहा है जो किसी क्रांति से कम नही है। ये सब लोक-स्वास्थ्य के सिद्धांत को आगे बढ़ाने वाले लोगो व राजनीतिक व्यवस्था के बीच हुई लंबी खीचतान के बाद संभव हो पाया है।
कोरोना महामारी की समस्या ने एक बार फिर देश की बीमार स्वस्थ्य व्यवस्था की तरफ सबका ध्यान आकर्षित किया है। जिस दर से गैर संचारी रोग जैसे डायबिटीज, हृदय रोग, स्ट्रोक आदि बढ़ रहे है वो इस ओर इशारा कर रहे है कि हमे बिना समय गँवाए बड़े स्तर पर काम करने की जरुरत है। उसी तरह जो कुछ उपेक्षित जन-स्वास्थ्य की समस्याएं जैसे सर्पदंश व आत्महत्या से जुड़े तथ्य इकट्ठा कर इनको मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। राजनितिक वर्ग को भी चाहिए को वह अपनी विषय वस्तु की समझ को विकसित करे व खुले मन से पेशेवर लोगों के साथ जन-कल्याण के लिए काम करे। उसी तरह लोक-स्वास्थ्य के पक्षकारों को भी विभिन्न विचारधारा वाले राजनीतिक वर्ग के साथ निरंतर प्रयासरत रहना होगा। साथ ही साथशोधार्थियों, पेशेवर लोक-स्वास्थ्यकर्मियों, पत्रकारों व सामाजिक संगठनों को जन-स्वास्थ्य से जुड़े विषयो में जन भागीदारी बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए जरुरी है कि जन-स्वाथ्य से जुड़े नवीन शोध व जानकारी शोधपत्रों से निकलकर सरल भाषा में आम जन तक पहुँचे।
इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के खुद के हैं न कि उनके नियोक्ता के।
लेखक परिचय: भवेश झा मरीवाल हेल्थ इनिशिएटिव में मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं।
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