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आरसीईपी व्यापार समझौता – मौका छोड़ दिया गया?

  • Blog Post Date 13 दिसंबर, 2019
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Sarthak Agrawal

Indian Administrative Service officer

sarthak13agr@gmail.com

हाल ही में प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की है कि भारत दक्षिण पूर्व एशियाई देशों और इसके मुक्त-व्यापार भागीदारों के बीच क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (रीजनल कोंप्रिहेंसिव इकनॉमिक पार्टनर्शिप - आरसीईपी) समझौते में शामिल नहीं होगा। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि सरकार को चिंता थी कि कुछ आरसीईपी देशों से आयात में वृद्धि का प्रभाव भारतीय कृषि और उद्योग पर पड़ सकता है। पुख्ता शैक्षणिक साक्ष्यों का उपयोग करते हुए अग्रवाल और मल्होत्रा यह चर्चा कर रहे हैं कि अगर इस रुख पर पुनर्विचार करना हो तो सरकार का किन बातों पर ध्यान देना जरुरी होगा।

 

अब जब इस सप्ताह, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) की हुई लंबी और मुश्किल वार्ता अपने अंतिम चरण में पहुंच गई, 16-राष्ट्र समूह में कई देश, इस साल के अंत तक सौदा पक्का करने के लिए इच्छुक थे। इनमें से कई देशों को उम्मीद थी कि 4 नवंबर को बैंकॉक में आयोजित आरसीईपी सदस्य देशों के प्रमुख के शिखर सम्मेलन के अंतिम दिन कुछ सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि भारत इस समझौते में शामिल नहीं होगा। भारत की चिंता यह थी कि आरसीईपी के कुछ देश, विशेष रुप से चीन से आयात बढ़ने के कारण भारतीय कृषि और उद्योग पर असर पड़ेगा। भारत का पहले से ही चीन के साथ व्यापार-घाटा काफी ज्यादा है, अन्य 15 सदस्य देशों में से 10 देशों ने ऐसी ही आशंका जाताई है। आरसीईपी समझौता सात साल में बना है इसका प्रस्ताव एसोसिएशन ऑफ साउथईस्ट एशियन नेशंस (आसियान) ने दिया था। इसका उद्देश्य इसके सभी फ्री-ट्रेडिंग (मुक्त-व्यापार) भागीदारों - भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को शामिल करना था। इन देशों के कुल सकल घरेलू उत्पाद (ग्रोस्स डोमेस्टिक प्रॉडक्ट - जीडीपी) को जोड़ा जाए तो पूरी दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद की एक-तिहाई हिस्सेदारी इनकी है जबकि पूरी दुनिया की कुल आबादी का आधा हिस्सा इन्हीं देशों में है, जो इसे दुनिया का सबसे बड़ा कारोबारी सौदा बना सकता था।

आरसीईपी सौदे पर भारत की प्रमुख चिंताएं

बातचीत के दौरान, भारत ने समझौते के मसौदे के अलग-अलग अध्यायों पर असहमति व्यक्त की, जिससे दूसरे सदस्य देशों ने निराश हो कर कथित तौर पर एक अल्टीमेटम जारी किया और जरूरत पड़ने पर हमारे बिना आगे बढ़ने संकेत दिए गए। दुर्भाग्यवश, इसपर भारत में बहस छिड़ गयी कि हमें इस साझेदारी में शामिल होना चाहिए या नहीं, बिना ये समझे कि इसका असर क्या होगा। इस बहस को और हवा इसलिए भी मिली क्योंकि आरसीईपी समझौते में क्या-क्या शर्तें हैं इसका किसी को पता नहीं चला, ये समझौता पूरी तरह गोपनीय तरीके से किया गया था। अब जब 2020 में व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने की तैयारी है, सदस्य देशों में इस बात पर असहमति है कि भारत की चिंताओं को समायोजित करने के लिए कुछ कदम उठाने की जरुरत है भी या नहीं। हम सख्त शैक्षणिक प्रमाणों के साथ कुछ जानकारी प्रदान कर रहे हैं कि अगर सरकार को अपने रुख पर फिर से विचार करना हो, तो किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। हम मुख्य रूप से वस्तुओं में, और कुछ हद तक, सेवाओं में व्यापार करने पर बात कर सकते हैं, रिसर्च करने वालों के तौर पर हम वस्तुओं के कारोबार पर ध्यान केंद्रित करेंगे। इसके बाद, हम संक्षेप में बताते हैं कि व्यापार सुधार में, विशेष रूप से भारतीय राजनीति के संदर्भ में, प्रोत्साहन खास कारगर नहीं होता, लेकिन फिर भी सरकार को इस पर विचार करना बंद नहीं करना चाहिए।

व्यापार उदारीकरण पर शोध साक्ष्य हमें क्या बताता है?

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एक ऐसा विषय है जहां आर्थिक शोध और जनमत बिलकुल अलग होते हैं। एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि अधिकांश बड़े अर्थशास्त्रियों का मानना ​​है कि स्टील और एल्युमीनियम के आयात पर अमेरिकी शुल्क (पिछले साल राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा घोषित) से अमेरिकियों के कल्याण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, लेकिन जब इस पर अमेरकियों की राय ली गयी, तो राय देने वालों में से सिर्फ एक-तिहाई ही इस दृष्टिकोण से सहमत थें। साफ है कि कारोबार को लेकर निराशा सिर्फ हिंदुस्तान में हीं नहीं हैं, ये पूरी दुनिया में है। आरसीईपी के हस्ताक्षर के बाद भारत में, चीन से होने वाले आयातों की वृद्धि होने का डर है। साथ ही कुछ हद तक ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से डेयरी उद्योग पर असर होने का भी डर है, जो संभावित रूप से भारतीय उद्योग को पंगु बना सकता है। अब लोगों की ऐसी भावना का अकादमिक समुदाय की सोच के साथ तालमेल कैसे बैठ सकता है?

पिछले दो दशकों में विकासशील देशों में व्यापार बाधाओं को हटाने के परिणामों को पढ़ते हुए एक समृद्ध शैक्षणिक साहित्य का विकास हुआ है, जो मुख्य रुप से विकासशील देशों में व्यापक व्यापार सुधार के कारण सक्षम हुआ है। इस रिसर्च से पता चलता है कि व्यापार उदारीकरण समग्र घरेलू उत्पादकता और कल्याण को न्यूनतम से अधिकतम उत्पादक कंपनी में बाजार-हिस्सेदारी को पुन:निर्धारित करके बढ़ाता है, जहां न्यूनतम उत्पादक बाजार से बाहर निकल जाते हैं और अधिकतम उत्पादक अपने व्यवसायों का विस्तार करते हैं (पावनिक 2002; गोल्डबर्ग और पावनिक, 2016)। प्रतिस्पर्धा, कंपनियों के भीतर सुस्ती को भी कम करती है और उन्हें प्रेरित करती हैं कि वे बेहतर प्रबंधकीय प्रथाएं अपनाएं। नतीजतन, उपभोक्ता अधिक विविधता और सस्ता माल प्राप्त करने में सक्षम होते हैं (मेलिट्ज़ और ट्रेफ़लर 2012)। अंत में, यह बात आमतौर पर साफ-ज़ाहिर है, व्यापार समझौते अक्सर व्यापार के लिए पारस्परिक बाधाओं को कम करके मेजबान देशों के लिए निर्यात बाजारों का विस्तार करते हैं। हालांकि, इसके साथ कुछ चेतावनी भी हैं। ऊपर उल्लेख किए गए साहित्य में मुख्य रूप से एकतरफा टैरिफ कटौती के उदाहरणों का अध्ययन किया गया है और व्यापार समझौतों के प्रभाव पर चर्चा नहीं की गई है। आरसीईपी जैसे सौदों में महत्वपूर्ण व्यापार-मोड़ प्रभावित होता है, यानी कि वे अधिकतम उत्पादक देशों के व्यापार को एफटीए के तहत आने वाले देशों की तरफ मोड़ता है। इसलिए, आरसीईपी के संदर्भ में, आयात करने से होने वाले लाभ का मूल्यांकण करना गलत हो सकता है।

दूसरा, भारत में 1991 के सुधारों के बाद, लागत के मुकाबले मूल्यों में ज्यादा कमी नहीं आयी क्योंकि शुरुआती दिनों में कच्चे माल के सस्ते आयात से लागत में जो कमी आयी उससे हुए अतिरिक्त मुनाफे को कंपनी अपनी जेब में डाल लेते थे (लोकेटर एवं अन्य 2016)। इसलिए सुधार के तुरंत बाद उपभोक्ता की स्थिति हमेशा बेहतर स्थिति नहीं हो सकती हैं। तीसरा, उदारीकरण के परिणामस्वरूप मजदूरों को आयात से जुड़े उद्योगों से हटा कर निर्यात के क्षेत्रों में भेजना एक लंबी और परेशानी भरी प्रक्रिया हो सकती है (डिक्स-कारनेइरो और कोवाक 2017), जो बेरोजगारी, अपराध में वृद्धि और यहां तक कि बाल श्रम में वृद्धि का कारण बन सकती है। शोध में यह भी पाया गया है कि व्यापार-सुधार के बाद जो भारतीय जिले प्रतिस्पर्धा के लिए अधिक उजागर हुए थे, वहां गरीबी दर में गिरावट की रफ्तार धीमी है (टोपालोवा 2010)। निष्कर्ष ये है कि व्यापार से लाभ तो है, लेकिन उनका वितरण असामान्य है। व्यापार उदारीकरण के असमान प्रभाव उन नीतियों के साथ और अधिक गंभीर हो जाते हैं जो एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में श्रम और पूंजी के पुन: आवंटन को रोकते हैं। भारतीय संदर्भ में, हमारी कठोर श्रम नीतियां और स्थानीय लोगों के लिए नौकरियां सुरक्षित करने की राज्य सरकारों की बढ़ती प्रवृत्ति अवांछनीय है, क्योंकि यह इन आवश्यक बदलावों को बहुत कठिन बनाता है।

भारत के पहले के अनुभव

आमतौर पर भारतीय संदर्भ में उद्योगों की बाल्यावस्था (इंफेंट इंडस्ट्री) का एक अतिरिक्त तर्क दिया जाता है। इस तर्क के मुताबिक भारतीय उद्योग अभी प्रारंभिक अवस्था में है और विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने से पहले उन्हें विकसित करने के लिए कुछ सुरक्षा की आवश्यकता है। ऐसी नीतियों का रणनीतिक रूप से 20वीं शताब्दी के मध्य में पूर्वी एशिया में उपयोग किया गया था और सैमसंग एवं टोयोटा जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सफलता के लिए इसे श्रेय दिया गया है। अंतर यह है कि, इसके प्रभावों के किसी भी पर्याप्त संकेत के बिना भारत में स्वतंत्रता के बाद से इस तर्कसंगतता का इस्तेमाल निरंतरता के साथ किया गया है। एक तर्क यह हो सकता है कि पूर्व और दक्षिण एशिया में प्रस्तावित राज्य समर्थन के बीच काफी अंतर है, लेकिन फिर दोष शायद औद्योगिक नीति में अपर्याप्त सुधार (विशेष रूप से श्रम कानूनों और एमएसएमई के लिए आरक्षण जो इन कंपनियों को ऊपर बढ़ने से हतोत्साहित करता है) और प्रति व्यापार सुधार नहीं (बेसली और बर्गेस 2004, अहलूवालिया 2002) होना हो सकता है।

कई शोधकर्ता का यह तर्क भी है कि भारत को आरसीईपी में शामिल नहीं होना चाहिए क्योंकि हमें अपने पिछले एफटीए से कोई फायदा नहीं हुआ है। वे नीति आयोग द्वारा किए गए अध्ययन सहित अन्य अध्ययनों का हवाला देते हैं जो यह दर्शाते हैं कि व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करने के बाद कैसे निर्यात से ज्यादा आयात हुआ है। हालांकि, केवल निर्यात पर इसके प्रभाव के साथ एफटीए से लाभ की बराबरी करना गलत है।

आर्थिक नीतियों को अक्सर राष्ट्रीय कल्याण को बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किया जाता है और इस बात का कोई सबूत नहीं है कि भारत के व्यापार समझौतों का हमारी राष्ट्रीय आय पर व्यापक प्रभाव पड़ा है (लेकिन व्यापार से बढ़ती जीडीपी के अन्य देशों से बहुत सारे सबूत हैं) (फियरर 2019, बर्नहोफेन और ब्राउन 2005)।

रिपोर्टों से पता चलता है कि सेवा क्षेत्र में आरसीईपी सदस्य देशों के बाजारों तक पहुंच प्राप्त करने पर, भारत ने कड़ी बातचीत की जहां यह तुलनात्मक लाभ रखता है और इस प्रकार निर्यात से प्राप्त होने वाले लाभ पर भरोसा कर सकता है। वैसे तो ‘अमूर्त’ अर्थव्यवस्था के बारे में बहस के लिए सीमित शोध है, लेकिन दूरसंचार, वित्तीय एवं व्यावसायिक सेवाएं या आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) जैसी सेवाओं का विस्तार सीमा पार तेजी से हो सकता है और इसे इस तरह से संगठित किया जा सकता है जो विनिर्माण क्षेत्र से काफी मिलता-जुलता है, जो अर्थव्यवस्था के मापदंड पर बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। सरकार की मंशा प्रशंसनीय है, लेकिन इसके दृष्टिकोण पर एक बार फिर विचार की जरुरत हो सकती है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की परिभाषा के अनुसार अक्सर सेवाओं में व्यापार के लिए आपूर्ति के चार मोड होेते है। सरकार का ध्यान मुख्य रूप से मोड 4 पर है, क्योंकि इसमें अन्य आरसीईपी देशों के लिए कुशल पेशेवरों की आवाजाही शामिल होगी, यानी उच्च मूल्य वर्धित सेवाओं का निर्यात होगा। हालांकि, दुनिया भर में आव्रजन पर हालिया बहस को देखते हुए, इसकी भी प्रतिरोध का सामना करने की काफी संभावना है। इसके अलावा, थाईलैंड और सिंगापुर जैसे कुछ देशों में घरेलू कंपनी कानून विदेशियों को काम पर रखने पर मात्रात्मक प्रतिबंध लगाते हैं। यह अस्पष्ट है इन्हें समाप्त करने में, आरसीईपी के नियम कितने व्यापक होंगे। जबकि आरसीईपी फ्रेमवर्क सामान्य विनियामक ढांचा बनाने और मानकों का सामंजस्य बनाने के लिए एक शुरुआती बिंदु प्रदान कर सकता है (सदस्यों में विविधता को देखते हुए, जो अपने आप में लंबा क्रम है), आपूर्ति के मोड में. सेवाओं में व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिए एकपक्षीय पहल (पर्यटन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पर विशेष जोर देने के साथ) अधिक फलदायी हो सकता है।

मुख्य बिंदु

इस साहित्य से पता चलता है कि (कुछ घरेलू सुधार पर सशर्त, श्रम के पुन: आवंटन को आसान बनाने और उद्योगों को एक विशेष तरीके से संचालित करने में सक्षम बनाना) सिद्धांत रुप से, आरसीईपी में शामिल होने पर प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए और प्रतिस्पर्धात्मक प्रभाव का लाभ उठाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त जगह हो सकती है। हालांकि, व्यापार के साथ आर्थिक पाई का आकार बढ़ता है, सुधार विशेष रूप से कठिन है क्योंकि व्यापार उदारीकरण से विजेता आमतौर बिखरे रहते हैं जबकि हारने वाले केंद्रित रहते हैं और इस प्रकार उनकी आवाज, विरोध में ज्यादा मुखर है। 1991 में, रणनीतिक और इच्छानुरूप की बजाय आर्थिक संकट के जवाब में सुधारों को अनिवार्य माना गया है। यहां तक ​​कि तत्कालीन प्रधान मंत्री, पी. वी. नरसिम्हा राव, और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी, 1996 के लोकसभा चुनावों में उदारीकरण में सरकार की भूमिका को कम करते हुए आगे बढ़े। जल्द ही 2022 की शुरुआत में उत्तर प्रदेश (यूपी) विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं। यूपी देश का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है और ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड से सस्ते आयात लाखों डेयरी किसानों पर दबाव डाल सकते हैं, जो पहले से ही राज्य सरकार की मवेशी नीतियों का परिणाम भुगत रहे हैं। लोकलुभावनवाद की राजनीतिक अर्थव्यवस्था व्यापार सुधार के विपरीत एक अध्ययन है। लोकलुभावन राजनेताओं द्वारा दिए गए तथाकथित 'फ्रीबी' से विजेता आम तौर पर एक चुनिंदा समूह के होते हैं, जबकि खर्च करदाताओं द्वारा वहन किए जाते हैं, जिनके पास विरोध करने के लिए सुसंगत संघ नहीं है और उनकी ओर से हड़ताल (अभी तक) करते हैं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि सुधार के बाद जो लोग सस्ते आयात से लाभान्वित होते हैं वे अपनी बढ़ी हुई क्रय शक्ति का श्रेय सरकार के विशिष्ट कार्यों, जैसे कि व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर, देने में सक्षम हैं। परिणामस्वरूप, हम वांछनीय की तुलना में बहुत अधिक लोकलुभावनवाद देखते हैं और जितनी जरुरत है उससे बहुत कम व्यापार सुधार देखते हैं।

राजनीति भविष्य पर तत्काल विशेषाधिकार देती है लेकिन दूरदर्शी नेता अल्पकालिक असुविधा के माध्यम से स्थिर लाभ के लिए अपने देश को देखने में सक्षम हैं। इस सरकार ने कड़े फैसले लेने के लिए कुछ इच्छाएं दिखाईं, जो लंबे समय में लाभांश एकत्र करेंगी। ऐसा करने में, सत्तारूढ़ दल, और विशेष रूप से प्रधान मंत्री, चुनावी राजनीति की मजबूरियों से खुद को अलग और एकांगी विचारधारा से राष्ट्र-हित के लिए समर्पित दिखाने की कोशिश की है। इस दावे के लिए आरसीईपी एक अच्छा टेस्ट था; सवाल यह है कि क्या सरकार पास हुई?

लेखक परिचय- सार्थक अग्रवाल लंदन स्थित इंस्टीट्यूट फॉर फिस्कल स्टडीज (आईएफ़एस) के साथ रिसर्च इकोनॉमिस्ट हैं, और उनके सेंटर फ़ॉर टैक्स एनालिसिस इन डेवलपिंग कंट्रीज़ में काम कर रहे हैं। माधव मल्होत्रा एक अर्थशास्त्री हैं जो अंतर्राष्ट्रीय विकास केंद्र (आइजीसी, म्यांमार कार्यालय) में एक परियोजना प्रबंधक की क्षमता में काम करते हैं।

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