आइजीसी इंडिया के कंट्री डायरेक्टर डॉ. प्रोनाब सेन का तर्क है कि यह देखते हुए कि अधिकांश गरीबी उच्च निर्भरता अनुपातों के कारण हैं – पहली प्राथमिकता वर्तमान सामाजिक सुरक्षा का विस्तार होना चाहिए जिसमे बुजुर्ग, विकलांग और विधवाएं शामिल हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि अभी न्याय के बारे में जैसी परिकल्पना की जा रही है, उसकी तुलना में यह काफ़ी कम भेदभाव वाला होगा।
क्या आप बता सकते हैं कि न्याय क्यों ज़रूरी है जबकि इतनी सारी अन्य गरीबी निवारण योजनाएं पहले ही मौजूद हैं? हमें मौजूदा योजनाओं के लिए ही बजट क्यों नहीं बढ़ा देना चाहिए?
बिल क्लिंटन से क्षमा मांगने के साथ कहूंगा, “इट इज द इलेक्शन्स स्टूपिड!” (यह चुनाव है मूर्ख!)। मौजूदा योजनाओं के लिए आबंटन बढ़ाने से वह आकर्षण नहीं पैदा होता है जैसा ’बिग बैंग’ (बड़े दर्जे की) घोषणा से होता है, और निश्चित तौर पर आपके पास आकर्षक एक्रोनिम (प्रथमाक्षरी शब्द) नहीं हो सकता है।
अधिक गंभीर नोट पर, दो प्रमुख गरीबी निवारण कार्यक्रमों – जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) और मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) – को वस्तुतः बहुत अधिक धनराशि नहीं चाहिए। इनमें समस्याओं की प्रकृति प्रशासिनक अधिक है।
इन दोनो के अतिरिक्त, शेष सामाजिक सुरक्षा योजनाओं, खास कर बुजुर्गों, निःशक्तों और विधवाओं को कवर करने वाले राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (नैशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम) की कवरेज बुरी तरह खराब है और सहयोग की रकम हास्योन्मुख है। कवरेज और रकम में काफी विस्तार होना आवश्यक और वांछित, दोनो हैं। इसे सचमुच पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हालांकि यह ‘गरीबी पर अंतिम प्रहार’ के रूप में नहीं दिखेगी लेकिन इसके लिए एक दमदार पक्ष इस आधार पर तैयार किया जा सकता है कि अधिकांश गरीबी उच्च निर्भरता अनुपातों के कारण है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह काफी कम भेदभाव वाला होगा क्योंकि व्यक्तियों की इन श्रेणियों को – अगर पुरातन और बहुत अधिक संशोधित शब्द उपयोग करूं तो – ‘गरीबी के योग्य’ के बतौर देखा जाता है।
क्या आपकी समझ में इसके बजाय धनराशि का उपयोग सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान सेवाओं में सुधार के लिए किया जाय तो उसका बेहतर उपयोग होगा? या हमने सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान को कार्यशील बनाने का प्रयास छोड़ दिया है?
दोनो परस्पर बहिष्कारी नहीं हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा, दोनो ही निवेशों की प्रकृति वाले हैं और इसके चलते एक अंतराल के बाद ही परिणाम दर्शाते हैं। इस बीच गरीबों और असुरिक्षत लोगों को बचाना ज़रूरी है। सामाजिक सुरक्षा का मकसद ठीक यही करना होता है।
क्या आप कोई ऐसी वैकल्पिक योजना पसंद करेंगे जिसमें हर प्राप्तकर्ता को मिलने वाली रकम को घटाकर नकद अंतरण के जरिए उतनी रकम का वितरण अधिक संख्या में परिवारों के बीच किया जाय? अगर हां, तो क्यों?
अगर यह विकल्प हो, तो हां। 6,000 रु. प्रति माह जैसी बड़ी रकम समाज के विभिन्न वर्गों की आर्थिक स्थिति पूरी तरह बदल देगी। सबसे नीचे के 20 प्रतिशत लोग उछलकर अपने से ऊपर रहे 30 से 40 प्रतिशत के भी ऊपर चले जाएंगे। इससे निश्चित तौर पर आक्रोश, और संभवतः सामाजिक अशांति भी पैदा होगी।
क्या आपको इस अतिरिक्त व्यय के राजकोषीय बोझ को लेकर कोई चिंता लगती है? क्या आपको लगता है कि न्याय को समायोजित करने के लिए करों की वर्तमान दरों को बदलना होगा या वर्तमान सब्सिडियों को समाप्त करना होगा?
राजकोषीय व्यवहार्यता (फिस्कल फीसिबिलिटी) निश्चित तौर पर एक मुद्दा है लेकिन ऐसा नहीं है कि इससे पार नहीं पाया जा सकता। कर निश्चित तौर पर बढ़ाने पड़ेंगे लेकिन कोई जरूरी नहीं है कि ऊंची दरों के जरिए ही ऐसा हो। छूटों और कटौतियों की समाप्ति और/या युक्तिकरण से इसके अच्छे-खासे हिस्से की पूर्ति की जा सकती है। कुछ सब्सिडियों में भी कटौती की जा सकती है। हालांकि इन परिवर्तनों के प्रभाव का मूल्यांकन करने में भी सावधानी बरतनी होगी क्योंकि व्यवहारिक रूप में सभी मामलों में प्रभावी सापेक्ष मूल्यों और प्रोत्साहनों में बदलाव होगा।
आप ऐसे लोगों को क्या कहेंगे जो इस बात से चिंतित है कि नकद के प्रवाह से डिमांड बढ़ जाएगी लेकिन सप्लाई नहीं जिससे कीमतों में वृद्धि होगी?
अपने आप में, नकद निषेचन वर्तमान स्थिति में वांछित है। भारत में नकद अर्थव्यवस्था काफी बड़ी है, जो अभी तरलता (लिक्विडिटी) की काफी गंभीर कमी का सामना कर रही है। कृषि सहित अनौपचारिक क्षेत्र को पुनर्जीवित करने और उसके जरिए काम के अवसर पैदा करने के लिए इस समस्या का समाधान अन्यंत जरूरी है। कहा गया है कि स्वाभाविक कारणों से अत्यधिक तरलता भी अच्छी नहीं होती है। अतः नीति का उद्देश्य नकद का नपा-तुला अंतरण होना चाहिए। न्याय के साथ समस्या यह है कि इसमें बहुत अधिक नकद प्रवाह होना है जिसके साथ यह समस्या है कि परिस्थितियों की जरूरत के अनुसार इससे पीछे हटने की संभावना नहीं है।
केंद्र सरकार की वर्तमान सब्सिडियों में से कौन-कौन अनावश्यक हैं और समाप्त करने के लिहाज से विचारणीय हैं?
यह बताना संभव नहीं है कि कोई भी सब्सिडी स्वतः अनावश्यक है। प्रत्येक का मूल्यांकन उसके गुण-दोषों के आधार पर और आय अंतरण योजना द्वारा उसकी आवश्यकता को किस हद तक कम कर दिया गया है उसके आधार पर करना चाहिए।
सबसे निचली 20 प्रतिशत आबादी को लक्षित करना विशाल कार्य लगता है। इसके लिए सरकार किन आंकड़ों का उपयोग कर सकती है? आप किस प्रकार के टार्गेटिंग मैकेनिज्म का सुझाव देंगे?
ऐसे कोई आंकड़े नहीं हैं, और मुझे भरोसा भी नहीं है कि किसी हद तक परिशुद्धता के साथ ऐसा तैयार किया जा सकता है। संभावना यही है कि सामाजिक-आर्थिक एवं जाति गणना (सोसिओ-इकनोमिक एंड कास्ट सेन्सस) जैसी किसी चीज का उपयोग किया जाएगा, जिसमें गरीबी से सहसंबंधित चीजों को मापा जाता है न कि खुद गरीबी को। इस प्रक्रिया में एक हद तक व्यक्तिपरकता (सब्सेक्टिविटी) होती है जिसे चाहकर भी दूर नहीं किया जा सकता है।
प्रस्तावित योजना आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को विकृत प्रोत्साहन (परवर्स इंसेंटिव्स) देने के लिए बाध्य है। वे लोग यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि वे अपनी वास्तविक स्थिति से काफी अधिक गरीब हैं या इसकी पात्रता हासिल करने के लिए वे अपनी आमदनी को कम करके दिखाने की कोशिश करेंगे। आप योजना का निर्माण कैसे करेंगे कि इस स्वाभाविक समस्या के कारण कम से कम नुकसान हो?
फोकस उन विशेषताओं पर रखना होगा जिनका वस्तुनिष्ठ सत्यापन हो सके और जिन्हें गरीबी और वंचना के सूचकों के बतौर लोगों की स्वीकृति प्राप्त हो। ऐसे परिवर्तनशील कारक संस्कृति-संवेदी होते हैं और पूरे देश में समान नहीं भी हो सकते हैं। जहां तक क्षेत्रीय समता की बात है, तो इससे अलग तरह की समस्याएं पैदा होती हैं।
आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि यह योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नैशनल फ़ूड सिक्योरिटी एक्ट (एनएफएसए) या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) जैसी वर्तमान योजनाओं को कमजोर या बर्बाद करने के लिहाज से 'ट्रोजन हॉर्स' नहीं बन जाएगी?
एक विकल्प गरीबी रेखा के नीचे प्रत्येक राशन कार्ड-धारी व्यक्ति को इस योजना के दायरे में लाना होगा। इससे प्रति व्यक्ति भुगतान में कमी आएगी, लेकिन लाभ यह होगा कि जन वितरण प्रणाली को एकल मूल्य वाली योजना बनाया जा सकता है। किसी भी स्थिति में मनरेगा को मजबूत किया जाना चाहिए क्योंकि इसमें अधिक अतिरिक्त व्यय होने की आशंका नहीं है।
वर्तमान गरीबी निवारण योजनाओं में मौजूद कमियां सरकार की कमजोर क्षमता की उपज हैं। क्या न्याय योजना भी इस समस्या से पीडि़त नहीं होगी?
संभवतः।
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