कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कली में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर प्रनब बर्धन ने एक आय अनुपूरक के पक्ष में तर्क दिए हैं, लेकिन वह जो सबको उपलब्ध हो।
प्र. 1: क्या आप बता सकते हैं कि न्याय क्यों ज़रूरी है जबकि इतनी सारी अन्य गरीबी निवारण योजनाएं पहले ही मौजूद हैं? हमें मौजूदा योजनाओं के लिए ही बजट क्यों नहीं बढ़ा देना चाहिए?
आय अनुपूरक कार्यक्रम जरूरी हैं क्योंकि वर्तमान गरीबी निवाराण योजनाओं ने अभी भी लोगों के अच्छे-खासे हिस्से को गरीबी (या निराश्रितता) रेखा के नीचे छोड़ दिया है, और उससे भी ज़्यादा बड़ा हिस्सा निराश्रितता रेखा से ऊपर के लोगों का है जिनकी अत्यंत अनिश्चित आय है। अकेले वर्तमान कार्यक्रमों के लिए बजट बढ़ाने से काम नहीं चलेगा – जैसे, मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के दायरे में (शहरी गरीबों के अलावा) वैसे गरीब लोग नहीं शामिल जो शारीरिक परिश्रम करने में सक्षम नहीं हैं, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नैशनल फ़ूड सिक्योरिटी एक्ट) से गरीबों की खाने-पीने से भिन्न चीजों की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं, आदि। आय अनुपूरक कार्यक्रम उत्पाद मूल्य आधारित सहायता या इनपुट सब्सिडी कार्यक्रमों से भी बेहतर होते हैं क्योंकि उनसे बाजारों में कम विरूपण पैदा होता है।
प्र. 2: क्या आपकी समझ में इसके बजाय धनराशि का उपयोग सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान सेवाओं में सुधार के लिए किया जाय तो उसका बेहतर उपयोग होगा? या हमने सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान को कार्यशील बनाने का प्रयास छोड़ दिया है?
आय अनुपूरक कार्यक्रमों का समर्थन करने वाले लोग आम तौर पर सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के प्रति भी उत्सुक रहते हैं। हालांकि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में महज रुपए डालने से सुधार नहीं होगा। जैसे कि देखा गया है, भारत के नौ सबसे गरीब राज्यों को जो थोड़ी-बहुत रकम लोक स्वास्थ्य परियोजनाओं के लिए हर साल मिलती है उसका अच्छा-खासा हिस्सा मुख्यतः खराब गवर्नेंस के कारण बिना खर्च हुए वापस चला जाता है।
प्र. 3: क्या आप कोई ऐसी वैकल्पिक योजना पसंद करेंगे जिसमें हर प्राप्तकर्ता को मिलने वाली रकम को घटाकर नकद अंतरण के जरिए उतनी रकम का वितरण अधिक संख्या में परिवारों के बीच किया जाय? अगर हां, तो क्यों?
मैं मुख्यतः तीन कारणों से कम रकम होने पर भी प्रत्येक व्यक्ति को बिना शर्त यूनिवर्सल कैश ग्रांट (सबको नकद अनुदान) दिया जाना पसंद करूंगा :
(क) सैद्धांतिक रूप से, मैं चाहता हूं कि यह हर नागरिक के अधिकार का हिस्सा हो न कि चुने गए लोगों को दिया गया दान। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान में दिए गए ‘जीवन के अधिकार’ की जैसी व्याख्या की गई है, न्यूनतम आर्थिक सुरक्षा के अधिकार को उसी के अंतर्गत आना चाहिए।
(ख) भारत में बहुत लंबे समय से गरीबी निवारण कार्यक्रमों का उपयोग राजनीतिक संरक्षण के तहत वितरण के हिस्से के बतौर किया जा रहा है जिसके लिए गरीब प्राप्तकर्ताओं के साथ प्रार्थी जैसा बर्ताव किया जाता है। सर्वसुलभ कार्यक्रम (यूनिवर्सल बेसिक इनकम, सर्वसुलभ स्वास्थ्य देखरेख, मुफ्त व्यावसायिक शिक्षा की सर्वसुलभ उपलब्धता, आदि) संरक्षक-ग्राहक आधारित राजनीति को किनारे कर सकते हैं।
(ग) आपको गरीबों की पहचान करने की समस्या से बचने की जरूरत है जो मुख्यतः अनौपचारिक अर्थव्यवस्था वाले भारत में जटिल, विवादास्पद और भ्रष्टाचार से भरी हुई है।
प्र. 4: क्या आपको इस अतिरिक्त व्यय के राजकोषीय बोझ को लेकर कोई चिंता लगती है? क्या आपको लगता है कि न्याय को समायोजित करने के लिए करों की वर्तमान दरों को बदलना होगा या वर्तमान सब्सिडियों को समाप्त करना होगा?
न्याय पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 2 प्रतिशत व्यय होने का अनुमान है। जो लोग इसके या इससे भी अधिक महत्वकांक्षी आय अनुपूरक कार्यक्रमों के राजकोषीय बोझ के बारे में अत्यधिक चिंतित हैं वे अप्रत्यक्ष रूप से वर्तमान राजकोषीय स्थिति से संतुष्ट हैं जिसमें सब्सिडियों का बड़ा हिस्सा संपन्न और मध्यवर्गीय लोगों के पास जाता है और मध्यवर्ग पर बहुत कम कर लगता है। न्याय लागू हो या नहीं हो, हमलोगों को मांग करनी है कि उन सब्सिडियों में भारी कटौती की जाय, और संपत्ति की कीमतों तथा पूंजी लाभ पर कम कर लगने तथा संपत्ति और उत्तराधिकार पर कर नहीं लगने (ऐसे समय में जब राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के पारिवारिक सर्वेक्षण के आंकड़ों में हमारी अनुमानित संपत्ति-आधारित असमानता बढ़ती जा रही है और लैटिन अमेरिकी देशों के समकक्ष पहुंच रही है) का प्रतिकार किया जाय। ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम सप्लीमेंट’ के वित्तपोषण पर अपने काम के दौरान मैंने अनुमान किया था कि (अगर हममें संपन्न लोगों द्वारा अपरिहार्य विरोध का सामना करने का राजनीतिक साहस हो, तो) इन स्रोतों से संभवतः सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 10 प्रतिशत के बराबर अतिरिक्त रकम एकत्र की जा सकती है, और उसे स्वास्थ्य, शिक्षा, अधिसंरचना, और बेसिक इनकम के अनुपूरक पर खर्च किया जा सकता है।
प्र. 5: आप ऐसे लोगों को क्या कहेंगे जो इस बात से चिंतित हैं कि नकद के प्रवाह से डिमांड बढ़ जाएगी लेकिन सप्लाई नहीं जिससे कीमतों में वृद्धि होगी?
वर्तमान में सब्सिडी पाने वाले संपन्न लोगों से गरीब लोगों को धनराशि ट्रांसफर करने से सापेक्ष कीमतों, जैसे खाद्य पदार्थों की कीमतों में बदलाव हो सकता है। लेकिन ध्यान में रखें कि अभी सभी राजनीतिक दल किसानों की सहायता के लिए खाद्य फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के पक्ष में हैं और उसका भी कीमतों पर वैसा ही असर होगा। जैसा कि मैंने कहा कि (उत्पादकों और उपभोक्ताओं के लिए) आय संबंधी सहायता देना (उत्पादकों के लिए) कीमत संबंधी सहायता देने से बेहतर है। साथ ही, व्यापक स्तर पर आय बढ़ने से अभी गतिरुद्ध पड़ी निवेश संबंधी संभावनाओं को बल मिल सकता है।
प्र. 6: केंद्र सरकार की वर्तमान सब्सिडियों में से कौन-कौन अनावश्यक हैं और समाप्त करने के लिहाज से विचारणीय हैं?
सूची में उर्वरक, पानी और बिजली संबंधी सब्सिडियां; पूंजीगत सब्सिडियां और व्यवसाय के लिए कर संबंधी छूटें; रेलयात्रियों को मिलने वाली सब्सिडियां; अनेक अकुशल सार्वजनिक उपक्रमों के सब्सिडीशुदा नुकसान, आदि शामिल होंगे। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनांस एंड पॉलिसी (एनआइपीएफपी) के रिसर्चर्स ने अनुमान किया है कि 2015-16 में केंद्र और राज्य सरकारों, दोनो द्वारा दी जाने वाली कुल ‘‘गैर-मेरिट” सब्सिडी सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 6 प्रतिशत के बराबर थी। (और इसमें मूल्य आधारित सहायता के रूप में संपन्न किसानों को जाने वाला खाद्य सब्सिडी का हिस्सा शामिल नहीं है)। इसके अलावा, केंद्रीय बजट में (मुख्यतः कंपनियों को दी गई कर संबंधी छूट) ‘‘त्यागा गया राजस्व’’ (रेवेन्यूज फॉरगोन) सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 6 प्रतिशत के बराबर था।
प्र. 7: सबसे निचली 20 प्रतिशत आबादी को लक्षित करना विशाल कार्य लगता है। इसके लिए सरकार किन आंकड़ों का उपयोग कर सकती है? आप किस प्रकार के टार्गेटिंग मैकेनिज्म का सुझाव देंगे?
जैसा कि प्रश्न 3 के संबंध में कहा गया है, सर्वसुलभ आय अनुपूरक के पक्ष में एक तर्क यह है कि इस तरह से लक्षित करना मुश्किल होता है। कुछ लोगों ने कुछ पारदर्शी बहिष्करणों (जैसे खास आकार वाले घरों, कारों आदि वाले लोगों का) के बारे में सुझाव दिए हैं लेकिन इस तरह से ऊपरी 80 प्रतिशत हिस्से का बहिष्करण नहीं हो सकता है। पर ध्यान में रखें कि वर्तमान सरकार की प्रधान मंत्री किसान योजना, स्वास्थ्य योजना या आवासीय कार्यक्रमों सहित अधिकांश लक्षित कार्यक्रमों में यही समस्या मौजूद है।
प्र. 8: प्रस्तावित योजना आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को विकृत प्रोत्साहन (परवर्स इंसेंटिव्स) देने के लिए बाध्य है। वे लोग यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि वे अपनी वास्तविक स्थिति से काफी अधिक गरीब हैं या इसकी पात्रता हासिल करने के लिए वे अपनी आमदनी को कम करके दिखाने की कोशिश करेंगे। आप योजना का निर्माण कैसे करेंगे कि इस स्वाभाविक समस्या के कारण कम से कम नुकसान हो?
आमदनी छुपाने के अलावा भी, स्वरोजगार क्षेत्र के अधिकांश लोगों को पता नहीं होता है कि उनकी आमदनी कितनी है (कम से कम उस रूप में तो नहीं जिस रूप में अर्थशास्त्री आमदनी को मूल्यवर्धन, मूल्यह्रास आदि के साथ निर्धारित करते हैं)। इसलिए कुछ प्रकट प्रतिनिधि मापदंडों (कहें कि निवास संबंधी स्थितियों या सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना में विचारित अन्य ऐसी चीजों) का उपयोग करना होगा। एक बार सबसे निचले 20 प्रतिशत में चिन्हित हो जाने के बाद आपको एक कार्ड मिलेगा, और उसके बाद कोई भी विरूपित प्रोत्साहन नहीं होगा। आप अपना कार्ड दिखाएं और आपको नकद अनुदान मिल जाएगा।
प्र. 9: आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि यह योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नैशनल फ़ूड सिक्योरिटी एक्ट (एनएफएसए)) या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) जैसी वर्तमान योजनाओं को कमजोर या बर्बाद करने के लिहाज से ट्रोजन हॉर्स नहीं बन जाएगी?
चूंकि संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गंठबंधन) सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम और मनरेगा की शुरुआत की थी और अब उन कार्यक्रमों के अतिरिक्त न्याय की घोषणा की है, इसलिए अपने वादे को पूरा नहीं करने पर उनको जवाबदेह ठहराने के लिए अपेक्षाकृत सरल राजनीतिक तरीके होने चाहिए।
प्र. 10: वर्तमान गरीबी निवारण योजनाओं में मौजूद कमियां कमजोर सरकारी क्षमता की उपज हैं। क्या ‘न्याय’ योजना भी इस समस्या से पीडि़त नहीं होगी?
नकद अंतरण कार्यक्रम अन्य गरीबी निवारण कार्यक्रमों की अपेक्षा प्रशासनिक रूप से थोड़े सरल होते हैं बशर्ते कि बैंक खाते उपलब्ध हों। मैं समझता हूं कि विगत कुछ वर्षों के दौरान बैंक खातों के विस्तार और बैंकिंग ऐजेंटों की उपलब्धता में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। इकनोमिक सर्वे में आंकड़े दिए गए हैं कि राजस्थान और मध्य प्रदेश को छोड़कर शेष सभी राज्यों में बैंकिंग एजेंट 5 किमी के दायरे में मौजूद हैं। जैसे-जैसे नकद अंतरण कार्यक्रमों का विस्तार होगा, बैंकिंग ऐजेंटों की स्थिर लागत बड़ी आबादी पर बंटती जाएगी। और इस तरह से लागत घटने से आशा की जा सकती है कि बैंकिंग की उपलब्धता की समस्या में काफी हद तक सुधार हो जाएगा।
Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.