वर्ष 2018 में शुरू की गई अतिरिक्त सीट योजना (सुपरन्यूमरेरी सीट्स स्कीम) का उद्देश्य परंपरागत रूप से पुरुष-प्रधान रहे आईआईटी संस्थानों के स्नातक इंजीनियरिंग छात्रों में स्त्री-पुरुष अनुपात में सुधार लाना है। लेख बताता है कि यह पहल इन प्रतिष्ठित संस्थानों में अधिक लड़कियों की भर्ती में सफल रही है। इसके अलावा, यद्यपि लड़कियों की शुरूआत प्रवेश स्तर पर निचले रैंकों से होती है, वे औसतन कार्यक्रम अवधि में शैक्षणिक रूप से अपने पुरुष समकक्षों के बराबर आ जाती हैं।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में बैचलर ऑफ टेक्नोलॉजी (बीटेक) कार्यक्रमों में लड़कियों के कम और स्थिर प्रतिनिधित्व संबंधी समस्या को हल करने के लिए वर्ष 2018 में सुपरन्यूमरेरी सीट्स स्कीम (एसएसएस) शुरू की गई थी, जिसके तहत प्रत्येक आईआईटी बीटेक कार्यक्रम में 20% सीटें विशेष रूप से महिला उम्मीदवारों के लिए निर्धारित की गई थीं।
इस प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग पारिस्थितिकी तंत्र में लड़कियों के नामांकन का अनुपात वर्ष 2017 तक लगभग 8% पर स्थिर था, जबकि बीटेक कार्यक्रमों में राष्ट्रीय औसत 30% और सामान्य विज्ञान स्नातक कार्यक्रमों में लगभग 50% का था (सेनगुप्ता एवं अन्य 2023)। आईआईटी को अधिक लैंगिक समावेशन की ओर प्रेरित करने के अलावा, दो विशिष्ट तथ्यों ने एसएसएस की शुरूआत के लिए अतिरिक्त तर्क प्रदान किया। पहला- जबकि ऐतिहासिक रूप से हर साल लगभग 20% लड़कियाँ संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई-एडवांस्ड) के लिए अर्हता प्राप्त करती हैं, स्थान, पाठ्यक्रम चयन के अधिक विकल्प न होना और पारिवारिक सहयोग की कमी जैसे संरचनात्मक कारकों के चलते उनमें से आधे से भी कम लड़कियाँ कार्यक्रमों में दाखिला लेती हैं। दूसरा- औसतन, कम रैंक के साथ आईआईटी में प्रवेश करने के बावजूद, लड़कियाँ अपने अंतिम संचयी ग्रेड बिंदु औसत, सीजीपीए के मामले में पुरुष समकक्षों से लगातार बेहतर प्रदर्शन करती पाई गईं।
योजना का डिज़ाइन : पारम्परिक आरक्षण की तुलना में अंतर
जबकि एसएसएस एक प्रमुख आरक्षण योजना है, इसका डिज़ाइन दो तरीकों से पारम्परिक सामाजिक-आर्थिक श्रेणी-आधारित आरक्षण प्रणाली से अलग है।
पहला, पारम्परिक आरक्षणों के विपरीत, एसएसएस कोई 'कोटा' नहीं है, क्योंकि इसमें कुल सीटों का कोई अनुपात महिलाओं के लिए आरक्षित नहीं है। बल्कि, इस योजना में केवल महिलाओं के लिए अतिरिक्त सीटों का सृजन की व्यवस्था है जिनकी संख्या लैंगिक समावेशन की आवश्यकता के अनुसार विभिन्न शाखा-संस्थान जोड़ियों में अलग-अलग होती है। सीटों की गणना वर्ष 2017 के लिंग-वार नामांकन संख्या के आधार पर एक बार की गई थी। इस प्रकार, वर्ष 2017 में किसी भी महिला के नामांकन न होने वाले शाखा-संस्थान जोड़े (उदाहरण के लिए, आईआईटी बॉम्बे में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग) का अर्थ यह होगा कि शाखा में केवल लड़कियों के लिए 100% सीटें एसएसएस के परिणामस्वरूप बनाई गई थीं। इसके विपरीत, वर्ष 2017 में महिला नामांकन के अनिवार्य अनुपात वाले शाखा-संस्थान जोड़े (उदाहरण के लिए, आईआईटी मद्रास में जैव प्रौद्योगिकी इंजीनियरिंग) को किसी भी अतिरिक्त सीट के सृजन की आवश्यकता नहीं थी। दूसरे शब्दों में, केवल महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों में एसएसएस के लागू होने से पहले लड़कियों द्वारा प्राप्त की गई सीटों की संख्या शामिल है।1
दूसरा, पारम्परिक आरक्षण पहलों के विपरीत, एसएसएस का कार्य शुरू में केवल महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें महिला छात्रों को आबंटित करना तथा उसके बाद बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों को सभी लिंगों के उम्मीदवारों के पूल से भरना है। परिणामस्वरूप, लगभग सभी बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों पर पुरुष उम्मीदवारों का कब्ज़ा हो जाता है, क्योंकि उच्च रैंक वाली महिलाओं को पहले से ही उनके पसंदीदा विभाग में ‘केवल महिलाओं वाली सीट’ आवंटित होती हैं। और चूंकि बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों की संख्या एसएसएस से पहले पुरुष छात्रों द्वारा प्राप्त सीटों की संख्या के बराबर है, इसलिए पुरुष उम्मीदवारों के लिए उपलब्ध सीटों का कोई नुकसान नहीं होता। अगर उच्च रैंक वाली महिला उम्मीदवार 20% से अधिक हैं, तो ये उच्च रैंकिंग वाली महिला उम्मीदवार बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों के लिए पुरुष उम्मीदवारों के साथ प्रतिस्पर्धा भी कर सकती हैं। इस प्रकार एल्गोरिद्म को सावधानीपूर्वक इस उद्देश्य से डिज़ाइन किया गया है कि किसी भी कार्यक्रम में आवंटित सीट पर किसी पुरुष उम्मीदवार को निम्न रैंक की महिला उम्मीदवार के लिए ‘हटाया’ न जा सके। इसका यह भी अर्थ है कि जाति-आधारित आरक्षण के विपरीत, केवल महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के लिए अलग से कोई मेरिट सूची तैयार नहीं की जाती है। इसके बजाय, सीटों को भरने के लिए मानक मेरिट सूचियों का ही उपयोग किया जाता है- केवल सीटों को भरने का क्रम उलट दिया जाता है। अर्थात, पहले केवल महिलाओं के लिए सीटें और उसके बाद बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटें भरी जाती हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल महिलाओं के लिए आरक्षित श्रेणी में, ‘क्रीमी लेयर’ की चिंता को दूर करने के लिए लिंग और जाति के अंतरसंबंध में स्थान आवंटित किए जाते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि केवल महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों में भी जाति और शारीरिक अक्षमता कोटा बनाए रखा जाता है, जैसा कि बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों के मामले में होता है।
योजना के निष्पादन का विश्लेषण
एसएसएस को तीन चरणों में लागू किया गया था, जिसका लक्ष्य वर्ष 2018 में 14%, वर्ष 2019 में 17% और वर्ष 2020 से सभी वर्षों के लिए 20% महिला नामांकन का था। हमारी रुचि ‘व्यापक मार्जिन’ (अर्थात, क्या यह योजना आईआईटी में अधिक महिलाओं को लाने में सफल रही है) और ‘गहन मार्जिन’ (यानी, योजना की शुरुआत के बाद आईआईटी में प्रवेश करने वाली महिलाओं का प्रदर्शन) दोनों आयामों में एसएसएस के प्रदर्शन को मापने में थी। हम यह विश्लेषण भी करना चाहते थे कि यह योजना महिलाओं की अंतर्निहित शाखा प्राथमिकताओं के बारे में क्या दर्शाती है2। हमने ‘व्यापक मार्जिन’ पर योजना के प्रदर्शन के विश्लेषण के लिए, वार्षिक जेईई रिपोर्ट से सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नामांकन डेटा का उपयोग किया। ‘गहन मार्जिन’ पर योजना के प्रदर्शन के विश्लेषण के लिए, हमने योजना शुरू होने से पहले और उसके तुरंत बाद के वर्षों में प्रवेश करने वाले समूह के लिए भाग लेने वाले संस्थानों में से एक के गोपनीय शैक्षणिक प्रदर्शन डेटा का लाभ उठाया। महिला शाखा की प्राथमिकताओं का अध्ययन करने के लिए, हमने शाखाओं के एक चयनित उपसमूह के लिए बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) और केवल महिला सीटों की शुरुआती और अंतिम रैंक की तुलना की। विशेष रूप से हमने अपना ध्यान, बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों की अंतिम रैंक और विशेष कार्यक्रमों में केवल महिलाओं के लिए सीटों की आरंभिक रैंक के बीच के 'रैंक-गैप' पर केंद्रित किया।
व्यापक मार्जिन
व्यापक मार्जिन पर हम पाते हैं कि यह योजना वर्ष 2022 तक अधिकांश आईआईटी संस्थानों में महिला छात्राओं के नामांकन को 20% तक बढ़ाने में उल्लेखनीय रूप से सफल रही है। जैसा कि आकृति-1 में दर्शाया गया है, जो मूल या पहली पीढ़ी के आईआईटी संस्थानों में महिलाओं के आवंटन में ऐतिहासिक रुझान प्रस्तुत करता है3। इसका एकमात्र अपवाद आईआईटी खड़गपुर है, जहाँ वर्ष 2020 से नामांकन लगभग 17% पर अटका हुआ है। संस्थान किस स्थान पर स्थित है यह महिलाओं के शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के निर्णय को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और खड़गपुर की दूरस्थता बाधा का एक कारक हो सकती है, जो महिला छात्राओं को वहाँ जाने से रोकती है (गुप्ता 2012, गौतम 2015, मुखोपाध्याय 1994)। हालांकि, इस संस्थान द्वारा अनिवार्य लक्ष्य को पूरा करने में असमर्थता के पीछे के कारणों को अनुभवजन्य रूप से सत्यापित करने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है।
आकृति-1. पहली पीढ़ी के आईआईटी संस्थानों में आवंटित सीटों में महिलाओं का प्रतिशत
गहन मार्जिन
हमने एक छात्र की बीटेक यात्रा के दौरान अकादमिक प्रदर्शन का विश्लेषण करके गहन मार्जिन पर विचार किया। हमने ऐसा करने के लिए, एसएसएस 2017 से पहले आईआईटी में प्रवेश लेने वाली महिलाओं और पुरुषों के प्रदर्शन की तुलना एसएसएस 2018 के बाद आईआईटी में प्रवेश लेने वालों से की (शर्मा और सेनगुप्ता 2024)।
आरक्षण के माध्यम से प्रवेश प्राप्त करने की शर्त पर, कई अध्ययन आरक्षित उम्मीदवारों (रोबल्स और कृष्णा 2012, आर्किडियाकोनो एवं अन्य 2016, डी सिल्वा एवं अन्य 2021) के बीच ‘मिस मैच’ और ‘कैच अप’ में विफलता के सबूत प्रदान करते हैं। ‘मिस मैच’ परिकल्पना यह कहती है कि आरक्षण के कारण छात्रों को उनकी क्षमता से ऊपर के वातावरण में प्रवेश मिलता है, जिससे शैक्षणिक प्रदर्शन (रैंक और जीपीए4 द्वारा मापा गया) और कार्यक्रम पूरा होने (ड्रॉप-आउट दरों द्वारा मापा गया) के मामले में खराब परिणाम सामने आते हैं। 'कैच अप' यह परिकल्पना कहती है कि आरक्षण के तहत भर्ती हुए छात्र अक्सर बिना आरक्षण के भर्ती हुए छात्रों से बहुत पीछे रह जाते हैं और हो सकता है कि आरक्षण के तहत प्रवेश पाने वाले छात्र इस अंतर को पाटने में सक्षम न हों।
अपने विश्लेषण में हमें महिला छात्राओं द्वारा आगे बढ़ने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं और हमें शैक्षणिक प्रदर्शन के मामले में मेल न होने का कोई प्रमाण नहीं मिला है। जबकि एसएसएस के लागू होने के बाद आईआईटी में आने वाली महिलाएँ काफी खराब औसत रैंक के साथ प्रवेश पाती हैं, वे समान या बेहतर रैंक के साथ बाहर निकलती हैं। यह बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों पर भर्ती होने वाली छात्राओं के साथ आगे निकलने की उनकी क्षमता प्रदर्शित करती हैं (आकृति-2)। हालांकि, औसतन ये छात्राएँ अपने पहले सेमेस्टर के जीपीए में बड़े अंतर के साथ शुरुआत करती हैं, लेकिन उनके अंक जल्द ही बराबर होने लगते हैं और कार्यक्रम के अंत तक अंतर समाप्त हो जाता है।
एसएसएस के लागू होने के बाद प्रवेश पाने वाली महिलाओं की अपने नामांकित पाठ्यक्रमों से स्नातक होने की संभावना अन्य छात्रों के समान ही होती है, जो किसी विसंगति को नहीं दर्शाता है। उनकी बीटेक के स्नातक होने की अधिक संभावना होती है और वह भी, निर्धारित समय के भीतर। दोनों अवधियों में कुल मिलाकर एट्रिशन/ड्रॉपआउट दरें नगण्य हैं। हम यह भी पाते हैं कि ये छात्राएँ अपनी डिग्री पूरी करने के लिए औसतन छह अतिरिक्त क्रेडिट पूरे करती हैं, लेकिन वे स्नातक की समय सीमा में देरी किए बिना ऐसा करती हैं। हमारे सभी परिणाम वैकल्पिक पाठ्यक्रमों के चयन के लिए ठोस हैं।
आकृति-2. आईआईटी में एसएसएस से ठीक पहले और लागू होने के बाद के समूह में महिला और पुरुष छात्रों के औसत सीजीपीए प्रक्षेप पथ
महिलाओं की शाखा वरीयताएँ
महिला शाखा वरीयताओं के बारे में डेटा से जो पता चलता है, उसका विश्लेषण करते समय हम पाते हैं कि आईआईटी में, अधिक प्रतिस्पर्धी और पहले से अधिक पुरुष-प्रधान शाखाओं में केवल महिलाओं के लिए और बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों के बीच रैंक अंतर कम है (आकृति- 3)। वास्तव में, कंप्यूटर विज्ञान और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के मामले में हमें पहली पीढ़ी के कुछ आईआईटी में कोई रैंक-अंतर नहीं मिलता है, जबकि पारम्परिक रूप से महिला-प्रधान शाखाओं में रैंक-अंतर बहुत अधिक है। उल्लेखनीय है कि बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों पर लगभग पूरी तरह से पुरुष उम्मीदवारों का कब्ज़ा है। इस प्रकार से पुरुष उम्मीदवारों के लिए प्रत्येक कार्यक्रम के भीतर शुरुआती और अंतिम रैंक वितरण के लिए एक ‘प्रॉक्सी’ प्राप्त होता है।
इस परिणाम से पता चलता कि बायोटेक और केमिकल इंजीनियरिंग जैसी शाखाओं में न केवल इन क्षेत्रों के लिए महिलाओं की अंतर्निहित प्राथमिकता के कारण, बल्कि अन्य रणनीतिक या मनोवैज्ञानिक कारकों के कारण भी पारम्परिक रूप से अधिक महिलाएँ रही होंगी। हम एसएसएस के लागू होने के बाद कंप्यूटर साइंस और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग जैसी शाखाओं में उच्च रैंकिंग वाली महिलाओं के इस बदलाव के लिए दो संभावित स्पष्टीकरण देते हैं। पहला, एसएसएस के लागू होने से पहले, महिलाएँ पुरुष-प्रधान शाखाओं में दाखिला लेने से कतराती थीं, क्योंकि उनके पास अपने साथियों का कोई बड़ा समूह नहीं था। दूसरा, प्रतिस्पर्धा में लैंगिक अंतर, विशेषकर इंजीनियरिंग जैसे मात्रात्मक क्षेत्रों के संदर्भ में, उच्च शिक्षा विशेषज्ञता के विकल्प के साथ भी सह-संबद्ध हो सकता है। एसएसएस लागू किए जाने से, संभव है कि महिला उम्मीदवारों के लिंग मिश्रण (स्त्री-पुरुष एक साथ) के साथ-साथ, एक कार्यक्रम के भीतर प्रतिस्पर्धा के स्तर की अपेक्षाएं कम हो गईं। इससे अधिक संख्या में महिलाएँ अधिक चयनात्मक और प्रतिस्पर्धी शाखाओं में आवेदन करने के लिए प्रेरित हो गईं।
आकृति-3. पहली पीढ़ी की आईआईटी शाखाओं में केवल महिलाओं के लिए और बिना किसी लैंगिक आधार वाली (अनारक्षित) सीटों के लिए रैंक प्रसार
निष्कर्ष
हमारा विश्लेषण वर्ष 2018 में आईआईटी में शुरू की गई अतिरिक्त सीट योजना (सुपरन्यूमरेरी सीट्स स्कीम), जिसका उद्देश्य परंपरागत रूप से पुरुष-प्रधान इन प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में लिंग अनुपात में सुधार लाना है, उसका पहला ठोस व सख़्ती से किया गया मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। हम दर्शाते हैं कि यह योजना आईआईटी पारिस्थितिकी तंत्र में अधिक लड़कियों को लाने में सफल रही है। इसके अलावा, जैसे ही लड़कियाँ प्रवेश पा लेती हैं, वे अकादमिक रूप से पुरुष समकक्षों के बराबर आ जाती हैं, भले ही वे औसतन कम प्रवेश रैंक से शुरू करें। लड़कियाँ पहले वर्ष से ही उल्लेखनीय प्रगति करती हैं, और बीटेक के अंत तक वे अपने पुरुष साथियों के साथ का अंतर पूरी तरह से समाप्त कर लेती हैं। लड़कियाँ प्रवेश पा लेने के बाद सफलतापूर्वक और निर्धारित समय के भीतर स्नातक हो जाती हैं, जो संभवतः उनकी अतिरिक्त दृढ़ता और कड़ी मेहनत के कारण संभव हो पाता है, क्योंकि वे पुरुष छात्रों की तुलना में अधिक संख्या में क्रेडिट पूरा कर लेती हैं। हम यह भी पाते हैं कि एसएसएस उच्च रैंकिंग वाली लड़कियों को आईआईटी में कंप्यूटर साइंस, इलेक्ट्रिकल और मैकेनिकल इंजीनियरिंग जैसी अत्यधिक प्रतिस्पर्धी और ऐतिहासिक रूप से पुरुष-प्रधान शाखाओं में अधिक संख्या में आवेदन करने के लिए प्रेरित कर रहा है।
हमारा विश्लेषण आईआईटी में प्रवेश की स्क्रीनिंग प्रक्रिया से जुड़ी संभावित समस्याओं पर प्रकाश डालता है। वैश्विक स्तर पर किए गए शोध से पता चलता है कि नकारात्मक अंकन आधारित परीक्षा जैसे उपाय लड़कियों की वास्तविक शैक्षणिक क्षमता को कम आंक सकते हैं- शायद उन गुणों जैसे कि अनुमान लगाने या प्रयास करने की इच्छा को पुरस्कृत करके, जिनसे महिलाएँ कुछ हद तक वंचित हैं (बाल्डिगा 2014, पेकारिनन 2015, शर्मा एवं अन्य 2025)। एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि उच्च तकनीकी कार्यक्रमों में ‘महिलाओं की अनुपस्थिति’ केवल योग्यता या पसंद की कहानी नहीं है। आँकड़े दर्शाते हैं कि योजना के लागू होने के बाद से, अधिकाधिक महिलाएँ उन चुनिंदा कार्यक्रमों को चुन रही हैं, जो परंपरागत रूप से पुरुषों के पक्ष में थे। इसलिए, एसएसएस के माध्यम से महिलाओं के लिए उपलब्ध सीटों की संख्या बढ़ाने के अलावा, महिलाओं को प्रवेश मिलने की अपेक्षित संभावना और प्रवेश मिलने पर अलगाव या प्रतिकूल माहौल का सामना करने जैसी चिंताओं को दूर करके अपनी प्राथमिकताओं और विकल्पों को अपडेट किया जा सकता है।
इस योजना के दीर्घकालिक प्रभावों का अभी अध्ययन किया जाना बाकी है और इसके लिए अधिक समूहों और अधिक संख्या में संस्थानों से डेटा की आवश्यकता होगी। हालांकि अब यह स्पष्ट है कि एसएसएस एक ऐतिहासिक आरक्षण संबंधी पहल है, जो देश के कुछ सबसे प्रतिष्ठित और मांग वाले संस्थानों से सभी स्नातक कार्यक्रमों में बीटेक डिग्री के साथ बड़ी संख्या में सक्षम लड़कियों को तैयार करने में उल्लेखनीय रूप से सफल रही है।
टिप्पणियाँ :
- उदाहरण के लिए, यदि किसी विशेष शाखा-संस्थान जोड़ी में वर्ष 2017 में महिलाओं के लिए 15 सीटें थीं और एसएसएस के लागू होने बाद केवल महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 20 है, तो इसका अर्थ है कि पांच अतिरिक्त सीटें सृजित की गईं।
- कंप्यूटर विज्ञान, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग तथा गणित और कंप्यूटिंग जैसी कुछ शाखाओं को अधिक चयनात्मक, प्रतिष्ठित और आकर्षक प्लेसमेंट के लिए जाना जाता है। इन कार्यक्रमों की शुरुआती और अंतिम रैंक बहुत अधिक होती है क्योंकि शीर्ष रैंकिंग वाले उम्मीदवार यहाँ प्रवेश के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। बायोकेमिकल इंजीनियरिंग जैसे कार्यक्रमों के विपरीत ये शाखाएँ परंपरागत रूप से पुरुष-प्रधान रही हैं।
- देश भर में 23 आईआईटी हैं, जिनकी अलग-अलग प्रतिष्ठा है। सात मूल या 'पहली पीढ़ी' के आईआईटी (दिल्ली, बॉम्बे, मद्रास, खड़गपुर, कानपुर, रुड़की और गुवाहाटी) सबसे प्रतिष्ठित हैं। अन्य नौ आईआईटी (रोपड़, भुवनेश्वर, गांधीनगर, हैदराबाद, जोधपुर, पटना, इंदौर, मंडी, वाराणसी) वर्ष 2008-2012 के दौरान स्थापित किए गए और सात (पलक्काड़, तिरूपति, धनबाद, भिलाई, धारवाड़, जम्मू, गोवा) वर्ष 2015-2016 के दौरान स्थापित किए गए।
- ग्रेड प्वाइंट औसत का मापन सेमेस्टर, वार्षिक और कार्यक्रम पैमाने पर किया जाता है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : नंदना सेनगुप्ता भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली के स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उन्होंने 2015 में कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय के टेपर स्कूल ऑफ बिज़नेस से अर्थशास्त्र में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। उनका शोध अनुप्रयुक्त मशीन लर्निंग और अर्थशास्त्र के मिलन बिंदु पर है, जिसमें भारतीय श्रम बाज़ार, सर्वेक्षण डिज़ाइन, अनुकूली सर्वेक्षण और एल्गोरिदम पूर्वाग्रह पर विशेष ध्यान दिया गया है। स्वाति शर्मा भी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में एक मात्रात्मक अर्थशास्त्री हैं और जो एक अंतःविषय परियोजना पर काम कर रही हैं जिसका उद्देश्य तृतीयक स्तर पर एसटीईएम विषयों में लैंगिक अंतर को दूर करना है। उनके शोध क्षेत्रों में कार्मिक अर्थशास्त्र, श्रम और विकास अर्थशास्त्र शामिल हैं, जिसमें लिंग, सामाजिक नेटवर्क और श्रम बाज़ार परिणामों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
क्या आपको हमारे पोस्ट पसंद आते हैं? नए पोस्टों की सूचना तुरंत प्राप्त करने के लिए हमारे टेलीग्राम (@I4I_Hindi) चैनल से जुड़ें। इसके अलावा हमारे मासिक न्यूज़ लेटर की सदस्यता प्राप्त करने के लिए दायीं ओर दिए गए फॉर्म को भरें।




08 जुलाई, 2025 








Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.