गरीबी तथा असमानता

‘न्याय’ विचार-गोष्ठी: सही लक्ष्यीकरण करना

  • Blog Post Date 16 मई, 2019
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Karthik Muralidharan

University of California, San Diego

kamurali@ucsd.edu

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डीएगो में अर्थशास्त्र के टाटा चांसलर्स प्रोफेसर कार्तिक मुरलीधरन ने न्याय के तहत देश में सबसे गरीब 20 प्रतिशत प्रखंडों (ब्लॉक्स) को लक्षित करने की और उन क्षेत्रों में नकद अंतरण को सार्वभौमिक या अर्ध-सार्वभौमिक बनाने की अनुशंसा की है।

 

क्या आप बता सकते हैं कि न्याय क्यों ज़रूरी है जबकि इतनी सारी अन्य गरीबी निवारण योजनाएं पहले ही मौजूद हैं? हमें मौजूदा योजनाओं के लिए ही बजट क्यों नहीं बढ़ा देना चाहिए? 

मुझे लगता है कि न्याय की घोषणा मुख्यतः मतदाताओं को यह याद दिलाने कि मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) जैसे प्रमुख गरीबी निवारण कार्यक्रम शुरू करने के लिए संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गंठबंधन) जिम्मेवार थी और सबसे ज़्यादा वंचित मतदाताओं के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता मजबूत करने के राजनीतिक मकसद से की गयी है।    

योजना के बारे में दिए गए विभिन्न वक्तव्यों में विवरणों के बारे में मौजूद भ्रम को देखते हुए, मुझे नहीं लगता है कि इस अभ्यास में इसके बजट, क्रियान्वयन और सबसे महत्वपूर्ण चीज – इस कार्यक्रम की अवसर लागत (ओपर्तुनिटी कॉस्ट) पर विस्तार से ध्यान दिया गया है। वाम और दक्षिण, दोनो के द्वारा कार्यक्रम की आलोचना में यह बात दिखती है। इसलिए मेरा यह मानना है कि अगर संप्रग को ऐसे कार्यक्रम के क्रियान्वयन का अवसर प्राप्त होता है, तो विवरणों के बारे में काफी चीजें बहस के लिए बची रहेंगी। 

नए कार्यक्रमों पर मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि जो दल किसी बड़े राष्ट्रीय कार्यक्रम की घोषणा की इच्छा रखता है, उन पर जिम्मेवारी है कि राष्ट्रीय स्तर पर आजमाने के पहले वह सबसे पहले अपने दल के प्रत्यक्ष शासन वाले राज्यों में उसे आजमाएं ताकि उसकी व्यवहार्यता और समर्थन को देखा जा सके। 

मनरेगा एक अच्छा कार्यक्रम था। इसका आंशिक कारण यह है कि उसके मॉडल को अनेक वर्षों तक अनेक राज्यस्तरीय प्रयासों में आजमाकर प्रमाणित किया जा चुका था। अतः संप्रग अगर न्याय के बारे में गंभीर है, तो मेरी अनुशंसा होगी कि उसके राष्ट्रीय संस्करण को लागू करने के पहले उसके विवरणों को दोषरहित बनाने के लिहाज से उसे पहले छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पंजाब और राजस्थान जैसे राज्यों में आजमाया जाना चाहिए। 

क्या आपकी समझ में इसके बजाय धनराशि का उपयोग सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान सेवाओं में सुधार के लिए किया जाय तो उसका बेहतर उपयोग होगा? या हमने सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान को कार्यशील बनाने का प्रयास छोड़ दिया है? 

इस प्रश्न पर मेरे मिलेजुले विचार हैं। एक ओर सुधरी हुई सार्वजनिक सेवाओं का पक्ष बिल्कुल स्पष्ट है। दूसरी ओर, वर्तमान स्थिति में सार्वजनिक सेवाओं पर व्यय की गुणवत्ता सचमुच खराब है। 

शिक्षा का उदाहरण लें जिसमें सरकारी विद्यालयों में प्रति विद्यार्थी सार्वजनिक व्यय किफायती निजी विद्यालयों में होने वाले प्रति विद्यार्थी कुल व्यय से काफी अधिक होता है। फिर भी करोड़ों माता-पिता अपनी जेब से पैसे खर्च करके अपने बच्चों को इन निजी विद्यालयों में भेज रहे हैं (जिनकी स्थिति सरकारी विद्यालयों से थोड़ी ही बेहतर है लेकिन आम तौर पर वे बेहतर जवाबदेही वाले हैं – जो माता-पिता को दिखती है)। 

स्वास्थ्य के मामले में स्थिति और भी उल्लेखनीय है जहां ग्रामीण भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य क्लीनिक होने पर भी 70 प्रतिशत से भी अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के दौरे फीस लेने वाले प्रोवाइडर्स के पास लगते हैं। ये प्राइवेट प्रोवाइडर कम योग्य हैं लेकिन अधिक प्रयास करते हैं। और प्रमाण दर्शाते हैं कि कम योग्य होने के बाद भी उनके द्वारा की जाने वाली देखरेख की गुणवत्ता निम्न नहीं है। 

इसलिए सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता के बारे में सोचने का एक उल्लेखनीय तरीका यह है कि: 

“यह आपके उत्पाद की गुणवत्ता के बारे में क्या बताता है, कि आप इसे मुफ्त में भी किसी को नहीं दे सकते हैं?” 

दूसरे शब्दों में, सामने आई पसंदों से पता चलता है कि सार्वजनिक सेवा प्रदान में काफी ‘मूल्य-विनाश’ होता है क्योंकि कोई सेवा प्रदान करने के लिए सरकार काफी व्यय करती है लेकिन वह इतनी निम्न गुणवत्ता वाली होती है कि अधिकांश लोग उसे नहीं चाहते हैं। ऐसा मुख्यतः इसलिए कि सरकारी वेतन बहुत अधिक होते हैं और फ्रंटलाइन वर्कर्स की जवाबदेही निम्न होती है। 

मेरा अभी भी पक्का विश्वास है कि हमें सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करने की जरूरत है, लेकिन मैं यह भी नहीं सोचता हूं कि ऐसा महज खर्च बढ़ाने से हो जाएगा। कई क्षेत्रों (मनरेगा, शिक्षा) के अनुभव दर्शाते हैं कि खुद कार्यक्रम पर खर्च बढ़ाने की अपेक्षा उस कार्यक्रम की मौजूदगी में जमीनी स्तर पर उसी स्तर की प्रभावी वृद्धि हासिल करने के लिए गवर्नेंस में सुधार करना लगभग 10-गुना किफायती हो सकता है। इसलिए अपनी कुशलता बढ़ाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को बाध्य करने का एक तरीका उसे गरीब परिवारों का बंधुआ (कैप्टिव) बाजार नहीं उपलब्ध कराकर उन विकल्पों को बढ़ाना हो सकता है जिसमें सबसे गरीब लोगों को सार्वजनिक और निजी, दोनो प्रकार के प्रोवाइडर्स से सेवाएं प्राप्त हों। 

यहां मेरा निष्कर्ष यह है कि आय संबंधी कुछ सहायता उपलब्ध कराने को सार्वजनिक सेवाओं के पूरक के बतौर देखा जाना चाहिए न कि उसके विकल्प के बतौर। समय के साथ, जब सरकार दर्शाए कि वह आय संबंधी अंतरणों के जरिए सर्वाधिक गरीब लोगों तक विश्वसनीय ढंग से पहुंच सकती है, तो वह अनेक नीतिगत विकल्प सामने लाए जिसके जरिए गरीब लोग वर्तमान सार्वजनिक सेवाओं और समकक्ष नकद अंतरण के बीच चुनाव कर सकें (पॉल नीहॉस और संदीप सुखतंकर के साथ मैंने इस पद्धति को जन वितरण प्रणाली के लिए रेखांकित किया है)।   

इस प्रकार आय संबंधी अंतरण की भूमिका लाभार्थियों का सशक्तीकरण करने की होगी ताकि वे अपेक्षाकृत मुखर ढंग से आवाज उठा सकें कि उनके नाम पर खर्च होने वाली सामाजिक क्षेत्र की धनराशियां वास्तव में कैसे खर्च होती हैं। दूसरे शब्दों में सार्वजनिक क्षेत्र को यह दिखाने की जरूरत होगी कि वह समकक्ष आय अंतरण की अपेक्षा अधिक मूल्य प्रदान कर सकता है, और समय के साथ गरीबों के काम आने के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकता है।   

क्या आप कोई ऐसी वैकल्पिक योजना पसंद करेंगे जिसमें हर प्राप्तकर्ता को मिलने वाली रकम को घटाकर नकद अंतरण के जरिए उतनी रकम का वितरण अधिक संख्या में परिवारों के बीच किया जाय? अगर हां, तो क्यों?   

हां। भारत में वर्तमान सब्सिडियों और कल्याण कार्यक्रमों को घटाने और उनकी जगह यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) को लाने को लेकर काफी बहस हुई है लेकिन मैं इसके पक्ष में कम ही हूं। 

इसके बजाय, अत्यन्त गरीबी में कमी लाने के लिए प्रयुक्त समाधानों के पोर्टफोलियो के हिस्से के बतौर आमदनी संबंधी अंतरण का मेरा पसंदीदा तरीका उसे अमल में लाना है जिसे मैं समावेशी विकास लाभांश (आइजीडी) कहता हूं। वर्तमान कल्याण कार्यक्रमों के विकल्प के बजाय पूरक के रूप में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 1 प्रतिशत पर स्थिर इस रकम का भुगतान सभी नागरिकों को किया जाए। 

ऐसे पद्धति के पीछे मौजूद तर्क को मैंने पॉल नीहॉस और संदीप सुखतंकर के साथ विस्तार से लिखकर एक लेख में प्रस्तुत किया है। लेकिन ऐसा करने के मुख्य कारणों में निम्नलिखित शामिल हैं – अंतर्निहित प्रगतिशीलता, लक्ष्यीकरण का कम खर्च, लाभ की समाप्ति नहीं होने से काम और आमदनी पर कोई अनुत्साहक (डिसइनसेंटिव) प्रभाव नहीं होना, कार्यक्रम के कारण जमीनी स्तर पर परिवारों की रैंकिंग नहीं बदलने (जो न्याय के कारण बदल सकती है) के चलते समाजशास्त्रीय आधार पर अधिक स्वीकार्य होना, यह दर्शाना कि सरकार हर नागरिक तक लगातार और भरोसेमंद ढंग से पहुंच सकती है, अंतिम मील तक वित्तीय समावेश, बच्चों का भत्ता महिलाओं को मिलने के कारण महिला सशक्तीकरण, और आय संबंधी अंतरण को प्राप्य बेंचमार्क के बतौर स्थापित करना जिसके मुक़ाबले अन्य सरकारी खर्चों के प्रति सरकार को जवाबदेह बनाया जा सके।  

अगर राजकोषीय अवरोध बाध्यकारी हों, तो मैं सबसे वंचित जिलों/प्रखंडों की पहचान करके और उनकी सीमा में सबको अंतरण करके स्थान के आधार पर लक्ष्यीकरण करने की सशक्त अनुशंसा करूंगा। 

यह ऐसी पद्धति है जिस पर 15वें वित्त आयोग को दृढ़ता से विचार करना चाहिए क्योंकि वित्त आयोग का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य देश में समता लाना है। आम तौर पर यह अधिक वंचित राज्यों के लिए अधिक आबंटन में रूपांतरित हो जाता है। लेकिन आम तौर पर इन राज्यों में शासन भी अपेक्षाकृत कमजोर रहा है और इसलिए सार्वजनिक व्यय का परिणामों में अनुवाद भी इन सेटिंग्स में काफी कमजोर होता है। अतः ‘समता’ के लिए चिन्हित खर्च के कम से कम कुछ हिस्से के सीधे लाभार्थी के पास जाने का महत्व सबसे गरीब राज्यों के लिए खास तौर पर अधिक है। सबसे गरीब जिलों/प्रखंडों को लक्षित करने वाली पद्धति स्वतः सबसे गरीब राज्यों को अधिक वेट देगी, इसलिए ऐसी पद्धति से 15वां वित्त आयोग समता का मेंडेट हासिल कर सकता है और ऊपर वर्णित सारे सकारात्मक लाभ भी प्राप्त हो सकते हैं। 

क्या आपको इस अतिरिक्त व्यय के राजकोषीय बोझ को लेकर कोई चिंता लगती है? क्या आपको लगता है कि न्याय को समायोजित करने के लिए करों की वर्तमान दरों को बदलना होगा या वर्तमान सब्सिडियों को समाप्त करना होगा? 

राजकोषीय गुंजाइश हमेशा बहुत कम होती है और एक केंद्रीय प्रश्न यह है कि हम कितना आबंटन सार्वजनिक वस्तुओं के लिए करते हैं और कितना पुनर्वितरण के लिए। जिस हद तक राजनेता और मतदाता मतदाताओं की वर्तमान कठिनाइयों को दूर करने के तरीकों की मांग करना जारी रखेंगे, उस हद तक आय अंतरण का गरीबी निवारण नीतियों के संविभाग का एक हिस्सा बना रहना काफी उचित लगता है। 

आप ऐसे लोगों को क्या कहेंगे जो इस बात से चिंतित है कि नकद के प्रवाह से डिमांड बढ़ जाएगी लेकिन सप्लाई नहीं जिससे कीमतों में वृद्धि होगी 

मुझे लगता है कि यह दूसरे दर्जे की चिंता है क्योंकि कोई मूल्य वृद्धि अल्पावधि में ही दिखने की आशंका है क्योंकि मध्यावधि में सप्लाई अधिक लचीली होती है। इसके अलावा, भारत में कनेक्टिविटी और बाजारों के समेकन होना जारी है जिससे खोज और उपलब्धता, दोनो से संबंधित बाधाएं घटेंगी। और इसलिए वास्तव में मैं इस मामले को लेकर चिंतित नहीं हूं।   

असल में, केन्या में बड़े पैमाने पर हुए आय अंतरण कार्यक्रम से हाल में प्राप्त प्रमाण में आय के अंतरण के फलस्वरूप डिमांड बढ़ने के कारण अतिरिक्त आर्थिक गतिविधि के बहुगुणक (मल्टीप्लायर) प्रभावों के जरिए गैर-भागीदारों पर काफी सकारात्मक प्रभाव पाया गया है। 

सबसे निचली 20 प्रतिशत आबादी को लक्षित करना विशाल कार्य लगता है। इसके लिए सरकार किन आंकड़ों का उपयोग कर सकती है? आप किस प्रकार के टार्गेटिंग मैकेनिज्म का सुझाव देंगे?  

मैं इस पद्धति का समर्थक नहीं हूं। इसके कारण ऊपर बताए गए हैं। इससे बेहतर मैं देश के सबसे गरीब 20 प्रतिशत प्रखंडों को लक्षित करूंगा (परिप्रेक्ष्य के लिए, बिहार में प्रति व्यक्ति आय महाराष्ट्र के प्रति व्यक्ति आय का लगभग पांचवां हिस्सा है) और इन क्षेत्रों में अंतरणों को सार्वभौमिक करुंगा (या संभवतः अर्ध-सार्वभौमिक – सरकारी नौकरी में होने, या आय कर की छूट की सीमा से ऊपर होने जैसे गैर-जरूरतमंद होने के स्पष्ट पुष्टि-योग्य मापदंडों के आधार पर बहिष्करण करके)। 

प्रस्तावित योजना आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को विकृत प्रोत्साहन (परवर्स इंसेंटिव्स) देने के लिए बाध्य है। वे लोग यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि वे अपनी वास्तविक स्थिति से काफी अधिक गरीब हैं या इसकी पात्रता हासिल करने के लिए वे अपनी आमदनी को कम करके दिखाने की कोशिश करेंगे। आप योजना का निर्माण कैसे करेंगे कि इस स्वाभाविक समस्या के कारण कम से कम नुकसान हो? 

मैं सहमत हूं कि न्याय के प्रस्तावित संस्करण से अत्यंत विरूपित प्रोत्साहन (परवर्स इन्सेन्टिव्स) होने की आंशका है। 

पूरी दुनिया में गरीबी निवारण योजनाओं पर शोध ने दर्शाया है कि गरीब लोग जैसे-जैसे अधिक उपार्जन करने लगते हैं, वैसे-वैसे उनको मिलने वाले लक्षित लाभों को ‘‘हटाना’’ काम के लिए अच्छा-खासा अनुत्साह पैदा करता है (क्योंकि लाभ हटने से उनके उपार्जन पर ऊंची सीमांत दर से कर लगता है)। 

इसी मुख्य कारण से मैं समावेशी विकास लाभांश (आइजीडी) की पद्धति की अनुशंसा करता हूं। 

वर्तमान गरीबी निवारण योजनाओं में मौजूद कमियां सरकार की कमजोर क्षमता की उपज हैं। क्या ‘न्याय’ योजना भी इस समस्या से पीडि़त नहीं होगी? 

सहमत हूं। न्याय की पद्धति के बजाय समावेशी विकास लाभांश (आइजीडी) की अनुशंसा करने के पीछे एक मुख्य कारण यह भी है कि मेरी समझ में अभी न्याय के बारे में जैसा सोचा गया है, उसकी तुलना में समावेशी विकास लाभांश सरकारी क्षमता के वर्तमान स्तर पर काफी अधिक लागू करने योग्य है। 

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