पिछले कुछ वर्षों में आरबीआई ने वाणिज्यिक बैंकिंग में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर सतर्क रुख से हटकर व्यावहारिक, मामला-दर-मामला उदारीकरण वाला रुख अपनाया है, जिससे ज़्यादा विदेशी हिस्सेदारी की अनुमति मिलती है। इस लेख में सुनील मणि इस बदलाव की जांच करते हैं और ऐसे केस स्टडीज़ पर प्रकाश डालते हैं जो विकास और दक्षता को बढ़ावा देने में एफडीआई की भूमिका को दर्शाते हैं। उनका यह भी कहना है कि धनी ग्राहकों पर ध्यान देने वाले निजी बैंकों का बढ़ता प्रभुत्व बैंकिंग तक समान पहुँच को लेकर चिंताएँ पैदा करता है।
ऐतिहासिक रूप से भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारतीय वाणिज्यिक बैंकों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के नियमन में वित्तीय स्थिरता को प्राथमिकता दी है और विनिर्माण जैसे अन्य क्षेत्रों, जहाँ अक्सर 100% एफडीआई की अनुमति होती है, से अलग एक सतर्क दृष्टिकोण अपनाया है। इस रणनीति ने वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान भारतीय बैंकों को सुरक्षित रखा था। हालांकि वर्ष 2025 तक, आरबीआई एक अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपना चुका है, जिसमें पुनर्पूंजीकरण और आधुनिकीकरण (रिकैपिटलाइज़ेशन और मॉडर्नाइज़ेशन) के साथ जोखिम न्यूनीकरण को संतुलित करने के लिए चुनिंदा रूप से उच्च विदेशी हिस्सेदारी की अनुमति दी गई है। मैं इस लेख में तर्क देता हूँ कि इस बदलाव से नियामक नियंत्रण बनाए रखते हुए आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलता है, जो एक मौलिक नीतिगत बदलाव के बजाय एक सावधानी भरे बदलाव को दर्शाता है। हालांकि, इससे संपन्न ग्राहकों पर ध्यान और निजी बैंकों के प्रभुत्व के कारण समान बैंकिंग पहुँच के बारे में चिंताएँ पैदा होती हैं।
आरबीआई की सतर्क रहने की परम्परा और क्षेत्रीय अंतर
बैंकिंग क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रति आरबीआई का सतर्क रुख इस क्षेत्र के प्रणालीगत महत्व से उपजा है, जिसका उद्देश्य भारत की वित्तीय प्रणाली को अस्थिर वैश्विक पूंजी प्रवाह से बचाना है। यह वर्ष 2008 के संकट के दौरान स्पष्ट हुआ, जब सीमित विदेशी निवेश ने उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में देखी गई प्रणालीगत विफलताओं को रोका। खुदरा क्षेत्र जैसे क्षेत्रों के विपरीत, जहाँ स्वचालित एफडीआई पर कम प्रतिबंध हैं, बैंकिंग क्षेत्र को कड़े प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है। निजी बैंकों के लिए वैधानिक एफडीआई सीमा 74% है, लेकिन व्यक्तिगत ग़ैर-प्रवर्तक विदेशी स्वामित्व 15% तक सीमित है।1 5% से अधिक हिस्सेदारी के लिए पूर्व अनुमोदन आवश्यक है। अधिकांश स्वामित्व या मेजॉरिटी ओनरशिप (15% से अधिक) केवल असाधारण मामलों में ही अनुमत है, जैसे पुनर्पूंजीकरण या पर्यवेक्षी हस्तक्षेप, जिसमें घरेलू नियंत्रण को सुनिश्चित करने के लिए मतदान अधिकार 26% तक सीमित है। वर्ष 2008 में प्रभावी सीमाएँ और भी सख्त थीं (व्यक्तियों के लिए 5%, संस्थानों के लिए 10%), जो बैंकों को सट्टा पूंजी से बचाने के उद्देश्य से एक रक्षात्मक रुख को दर्शाती हैं।
आई नीति का विकास : रूढ़िवाद से व्यावहारिकता की ओर
आरबीआई की एफडीआई नीति में उल्लेखनीय बदलाव आया है। वर्ष 2001 और 2004 के बीच, एफडीआई को स्वचालित मार्ग से 49% तक उदार बनाया गया था और वर्ष 2004 में इसकी कुल सीमा बढ़ाकर 74% कर दी गई (एफडीआई, एफआईआई- विदेशी संस्थागत निवेश, एनआरआई- अनिवासी भारतीय और अन्य श्रेणियों सहित)। एकल-निवेशक सीमाएँ बनी रहीं और वर्ष 2013 तक अनिवासी शेयरधारकों की सीमा 10% (जिसे अनुमोदन से 15% तक बढाया जा सकता है) पर सीमित कर दी गई। एक उल्लेखनीय अपवाद- वर्ष 2018-2019 में कैथोलिक सीरियन बैंक (अब सीएसबी बैंक लिमिटेड) में फेयरफैक्स इंडिया होल्डिंग्स कॉर्पोरेशन की 51% हिस्सेदारी थी, जिसे पाँच साल की लॉक-इन अवधि के साथ एक आर्थिक रूप से कमज़ोर बैंक के पुनर्पूंजीकरण के लिए मंज़ूरी दी गई थी। वर्ष 2025 तक, आरबीआई की संतुलित व्यावहारिकता के चलते, मामला-दर-मामला आधार पर उच्चतर हिस्सेदारी की अनुमति मिलती है, जैसा कि जापान के सुमितोमो मित्सुई बैंकिंग कॉर्पोरेशन (एसएमबीसी) द्वारा बिना प्रमोटर की स्थिति के यस बैंक में 24.99% हिस्सेदारी खरीदने में देखा गया है। इस बदलाव से वर्ष 2008 के जोखिम-विरोधी रुख के विपरीत, विदेशी पूंजी को पुनर्पूंजीकरण और विकास के लिए एक रणनीतिक संसाधन के रूप में मान्यता मिलती है, जिसे कठोर नियामक निगरानी के तहत संतुलित किया जाता है।
मैं सीएसबी लिमिटेड में विदेशी निवेश का एक केस स्टडी2 करता हूँ क्योंकि सीएसबी बैंक में फेयरफैक्स के नेतृत्व में एफडीआई भारत के बैंकिंग क्षेत्र में एक दुर्लभ, नियामक-अनुमोदित अपवाद का प्रतिनिधित्व करता है, जो प्रत्यक्ष रूप से रक्षात्मक नीति से व्यावहारिक, मामला-दर-मामला उदारीकरण की ओर बदलाव को दर्शाता है। यह विश्लेषण इस बात का ठोस प्रमाण प्रदान करता है कि कैसे विदेशी पूंजी सम्भावित रूप से बैंक पुनर्पूंजीकरण और आधुनिकीकरण को गति दे सकती है और एक विशिष्ट संस्थागत परिणाम के माध्यम से व्यापक नीति परिवर्तन को स्पष्ट करती है।
केस स्टडी- सीएसबी बैंक का कायाकल्प
फेयरफैक्स के अधिग्रहण ने सीएसबी बैंक का कायाकल्प कर दिया, जिससे एफडीआई का प्रभाव नज़र आया। वर्ष 2020-21 से वर्ष 2024-25 तक, कुल आय 2,285 करोड़ रुपये से बढ़कर 4,569 करोड़ रुपये हो गई, जो पर्याप्त शुद्ध ब्याज़ आय और ग़ैर-ब्याज़ आय में 66% की साल-दर-साल वृद्धि के कारण हुई। कर-पश्चात लाभ 459 करोड़ रुपये से बढ़कर 594 करोड़ रुपये हो गया, जो वर्ष 2024-25 की चौथी तिमाही में 26% की तिमाही वृद्धि के साथ 190 करोड़ रुपये हो गया। परिसंपत्ति गुणवत्ता में सुधार हुआ, शुद्ध ग़ैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ (एनपीए) 0.68% से घटकर 0.52% हो गईं, जिसे 86.38% प्रावधान कवरेज अनुपात3 का समर्थन प्राप्त हुआ। बैलेंस शीट में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई- जमा राशि 20,188 करोड़ रुपये से बढ़कर 36,861 करोड़ रुपये हुई, अग्रिम 16,742 करोड़ रुपये से बढ़कर 31,842 करोड़ रुपये तक पहुँच गया और कुल परिसंपत्ति 47,836 करोड़ रुपये (सालाना आधार पर 33% की वृद्धि) तक पहुँच गई। दक्षता मानकों (एफिशिएंसी मेट्रिक्स) में 62.82% लागत-से-आय अनुपात और 24.47% पूँजी पर्याप्तता अनुपात शामिल हैं। पुनर्पूंजीकरण, खुदरा, एसएमई (लघु एवं मध्यम उद्यम), और स्वर्ण ऋण (पोर्टफोलियो का 42%) पर ध्यान केन्द्रित करने, साथ ही डिजिटल संवर्द्धन द्वारा संचालित ये लाभ, आधुनिकीकरण में एफडीआई की भूमिका को उजागर करते हैं।
तुलनात्मक रूप से, सरकारी पुनर्पूंजीकरण से समर्थित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (पीएसयू) बैंकों ने वर्ष 2024-25 तक 1.4 लाख करोड़ रुपये से अधिक का कुल शुद्ध लाभ दर्ज किया, जिसमें भारतीय स्टेट बैंक का योगदान लगभग 50,000 करोड़ रुपये था। कोटक महिंद्रा जैसे निजी बैंकों, जिनका आकार सीएसबी के समान है, ने लगभग 13,000 करोड़ रुपये का लाभ दर्ज किया। पीएसयू बैंकों की घरेलू समर्थन पर निर्भरता उनकी विदेशी पूंजी की आवश्यकता को कम करती है। हालांकि सीएसबी का तेज़ी से सुधार निजी बैंकों के आधुनिकीकरण में एफडीआई के अद्वितीय योगदान को रेखांकित करता है।
निजी बैंकों का प्रभुत्व और नीतिगत निहितार्थ
एचडीएफसी, आईसीआईसीआई और एक्सिस जैसे निजी बैंक, जिनका वर्ष 2025 तक विदेशी संस्थागत निवेश 40-55% है, आरबीआई की 26% मतदान सीमा के कारण भारत-नियंत्रित बने रहेंगे। एक्सिस बैंक की विदेशी हिस्सेदारी लगभग 50-55% है, जो एचडीएफसी (विलय-पूर्व) और आईसीआईसीआई के बराबर है, फिर भी ये सभी बैंक घरेलू प्रबंधन के अधीन हैं। इन बैंकों की बैंकिंग परिसंपत्तियों और जमाओं में 35-40% हिस्सेदारी है, जो निजी क्षेत्र के प्रभुत्व को दर्शाता है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विपरीत, निजी बैंकों पर जन-धन खातों4 या न्यूनतम शेष राशि की आवश्यकता जैसी सामाजिक योजनाओं का समर्थन करने की कम बाध्यता होती है और इसके बजाय वे संपन्न ग्राहकों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। हालांकि, वे शुल्क-आधारित आय के लिए सरकारी योजनाओं (उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना5) में हिस्सा लेते हैं, जिससे पता चलता है कि बड़े निजी बैंकों के पक्ष में नीतिगत पूर्वाग्रह है। इससे बैंकिंग तक सबके लिए बराबर पहुँच को लेकर चिंताएं पैदा होती हैं, क्योंकि सार्वजनिक नीति सर्व-समावेशिता की तुलना में लाभप्रदता को प्राथमिकता देती प्रतीत होती है, जिससे वित्तीय असमानता और बढ़ने की सम्भावना है।
आईडीबीआई और रणनीतिक निवेश
आईडीबीआई (भारतीय औद्योगिक विकास बैंक) के लिए फेयरफैक्स और एमिरेट्स एनबीडी की सट्टा बोलियाँ, हालांकि इनकी वर्ष 2025 के मध्य तक पुष्टि नहीं हुई है, वैश्विक रुचि का संकेत देती हैं। वर्ष 2019 से एलआईसी (जीवन बीमा निगम) की 25% हिस्सेदारी से आईडीबीआई की रिकवरी में लगभग 5,000 करोड़ रुपये का लाभ और वर्ष 2024-25 तक एनपीए का 1% से कम होना शामिल है। विदेशी भागीदार आरबीआई के आधुनिकीकरण लक्ष्यों के अनुरूप, डिजिटल बैंकिंग और एसएमई ऋण के लिए पूंजी और विशेषज्ञता प्रदान कर सकता है। वैकल्पिक रूप से, आईडीबीआई को एलआईसी की सहायक कंपनी बनाने से घरेलू नियंत्रण मज़बूत हो सकता है, जिससे एलआईसी की वित्तीय मज़बूती का लाभ उठाया जा सकता है। आरबीआई का मामला-दर-मामला दृष्टिकोण स्थिरता और प्रतिस्पर्धात्मकता सुनिश्चित करने के लिए इन विकल्पों को संतुलित करता है।
नीतिगत ढाँचा और वैश्विक हित
गवर्नर संजय मल्होत्रा ने 6 जून 2025 को 15% की सीमा (कैप) की पुष्टि की, लेकिन पूंजी और शासन संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्वामित्व ढाँचे की समीक्षा की घोषणा की। इस दृष्टिकोण से पुनर्पूंजीकरण और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलता है, लेकिन संपन्न ग्राहकों को प्राथमिकता मिलती है, जिससे असमानता पैदा होने का खतरा है। मल्होत्रा के अनुसार, एफडीआई के लाभों में पूंजी निवेश (उदाहरण के लिए, सीएसबी की 33% परिसंपत्ति वृद्धि), ज्ञान हस्तांतरण और आर्थिक विकास को समर्थन शामिल हैं। जोखिमों में अस्थिर पूंजी प्रवाह से उत्पन्न प्रणालीगत कमजोरियाँ, घरेलू नियंत्रण का सम्भावित नुकसान (जिसे वोटिंग कैप द्वारा कम किया गया), और निवेशकों की विश्वसनीयता बनाए रखने में नियामक चुनौतियाँ शामिल हैं। फाइनेंशियल टाइम्स भारत के "धीरे-धीरे खुल रहे" बैंकिंग क्षेत्र का उल्लेख करता है, जिसमें सुमितोमो मित्सुई बैंकिंग कॉर्पोरेशन की यस बैंक में हिस्सेदारी और आईडीबीआई की बोलियाँ भारत के बढ़ते वित्तीय बाज़ार से प्रेरित वैश्विक रुचि को रेखांकित करती हैं।
एफडीआई शासन की दोहरी संरचना
एक संबंधित कथन यह है कि भारत में विदेशी बैंकों द्वारा निवेश, वित्त मंत्रालय के लिए आरबीआई के निर्णय से ज़्यादा राजनीतिक चिंता का विषय है। वित्त मंत्रालय, डीपीआईआईटी (उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग) के माध्यम से, व्यापक राजनीतिक आर्थिक विचारों को प्रतिबिंबित करते हुए, नीतिगत रूप से क्षेत्रीय एफडीआई सीमाएँ निर्धारित करता है। फिर भी, आरबीआई व्यक्तिगत लेनदेन पर अंतिम नियामक अधिकार रखता है, जिसमें मामला-दर-मामला अनुमोदन, उपयुक्त मूल्यांकन, और लॉक-इन अवधि या वोटिंग अधिकारों की सीमा जैसी विवेकपूर्ण शर्तें शामिल हैं। फेयरफैक्स-सीएसबी बैंक और एसएमबीसी-यस बैंक मामले दर्शाते हैं कि कैसे, मंत्रालय द्वारा स्थापित नीतिगत फ्रेमवर्क के भीतर भी, आरबीआई अपने निर्णायक विवेकाधिकार का प्रयोग करता है। इसलिए, भारत में विदेशी बैंक निवेश एक दोहरी संरचना, अर्थात वित्त मंत्रालय द्वारा निर्धारित राजनीतिक संकेत और वैधानिक सीमाएँ तथा आरबीआई द्वारा परिचालनात्मक द्वारपालन (ऑपरेशनल गेटकीपिंग) का परिणाम है।
क्रमिक उदारीकरण की ओर?
आरबीआई के दृष्टिकोण से पूर्ण कैपिटल अकाउंट कन्वर्टिबिलिटी6 की ओर तत्काल कदम उठाने का संकेत नहीं मिलता है, जिसके लिए मज़बूत बैंक बैलेंस शीट, विकसित बॉन्ड बाज़ार, स्थिर मैक्रोइकोनॉमिक हालात और अनुकूल संस्थान की जरुरत है। वर्तमान नीति में, जिसे "क्रमिक परिवर्तन" कहा जा रहा है, वैधानिक सीमाओं को बनाए रखते हुए उच्च-गुणवत्ता वाली पूँजी आकर्षित करने के लिए रणनीतिक अपवादों का उपयोग किया गया है। इससे लेखांकन जैसी सेवाओं में उदारीकरण के साथ संरेखित घरेलू-एफडीआई से बैंक मज़बूत हो जाते हैं, लेकिन इसमें कम सेवा प्राप्त क्षेत्रों की उपेक्षा का जोखिम भी है।
निष्कर्ष
वर्ष 2008 के बचाव वाले की रवैये से वर्ष 2025 की व्यावहारिकता की ओर आरबीआई के बदलाव से अवसर और सावधानी के बीच संतुलन स्थापित होता है और यह स्थिरता सुनिश्चित करते हुए आधुनिकीकरण को बढ़ावा देता है। वर्ष 2008 की कड़ी सीमाओं और वर्ष 2025 के चयनात्मक खुलेपन के बीच का अंतर एक रणनीतिक विकास को दर्शाता है। हालांकि, निजी बैंकों का प्रभुत्व और संपन्न ग्राहकों पर ध्यान केन्द्रित करने से इक्विटी संबंधी चिंताएँ बढ़ती हैं। कैपिटल अकाउंट में पूरी तरह से बदलाव अभी दूर की बात है, लेकिन विकास के लिए साधक आरबीआई के सतर्क दृष्टिकोण में बड़े पैमाने पर वित्तीय विकास को पक्का करने के लिए सबको साथ लेकर चलने पर ध्यान देना होगा।
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आवश्यक नहीं कि वे आई4आई संपादकीय बोर्ड़ के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों।
टिप्पणियाँ :
1. इसका अर्थ है कि विदेशी निवेशक सामूहिक रूप से भारत के किसी निजी बैंक में 74% तक हिस्सेदारी रख सकते हैं, लेकिन कोई भी अकेला विदेशी निवेशक (जो प्रमोटर समूह का हिस्सा नहीं है) बैंक के 15% से अधिक शेयर नहीं रख सकता।
2. यह केस स्टडी सीएसबी बैंक के दो दस्तावेज़ों, सीएसबी (2025) और सीएसबी (विभिन्न वर्षों) पर आधारित है।
3. बैंकिंग क्षेत्र में प्रोविज़न कवरेज अनुपात (पीसीआर) किसी बैंक की ग़ैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का वह अनुपात है जिसके लिए उसने सम्भावित घाटे को कवर करने के लिए प्रावधान किए हैं।
5. जन धन खाते बिना किसी तामझाम वाले बचत खाते हैं, जिन्हें वर्ष 2014 में बैंकिंग सेवाओं से वंचित लोगों को भारत की औपचारिक बैंकिंग प्रणाली में लाने और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था।
5. प्रधानमंत्री मुद्रा योजना (पीएमएमवाई) वर्ष 2015 में शुरू की गई भारत सरकार की एक योजना है, जिसका उद्देश्य उन छोटे और सूक्ष्म उद्यमों को वित्तीय सहायता प्रदान करना है जिन्हें पारंपरिक बैंक पर्याप्त रूप से सेवा प्रदान नहीं कर पाते हैं।
6. दूसरे शब्दों में, भारत कैपिटल अकाउंट ट्रांज़ैक्शन पर विशिष्ट नियंत्रण बनाए रखेगा, जैसे कि इस बात की सीमाएं तय करेगा कि निवासी विदेश में कितना धन निवेश कर सकते हैं या विदेशी कितनी स्वतंत्रता से देश में पूंजी ला सकते हैं और देश से पूंजी ले जा सकते हैं।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय :
सुनील मणि एक अर्थशास्त्री और शिक्षाविद हैं, जिनकी दक्षता तकनीक और नवाचार वाले अर्थशास्त्र में है। वे पहले सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज़ तिरुवनंतपुरम में निदेशक और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के चेयर प्रोफेसर थे, और वर्तमान सीडीएस और अहमदाबाद विश्वविद्यालय में एक विज़िटिंग प्रोफेसर हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है और फोर्ड फाउंडेशन फेलो के तौर पर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पोस्टडॉक्टरल रिसर्च भी की है।उनके कामों में यूएनयू-एमईआरआईटी (मास्ट्रिच) जैसे संस्थान में अहम एकेडमिक अपॉइंटमेंट और बोकोनी यूनिवर्सिटी, नेशनल ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट फॉर पॉलिसी स्टडीज़ (टोक्यो) और यूनिवर्सिटी ऑफ़ टूलूस जाँ जौरेस में विज़िटिंग प्रोफेसरशिप शामिल हैं।
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25 नवंबर, 2025 




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