मानव विकास

भारत में माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच से संबंधित चुनौतियां

  • Blog Post Date 01 दिसंबर, 2022
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Mridusmita Bordoloi

Centre for Policy Research

mridusmita@cprindia.org

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Sharad Pandey

Centre for Policy Research

sharad@cprindia.org

भारत की नवीनतम राष्ट्रीय शिक्षा नीति में वर्ष 2030 तक शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुंच की परिकल्पना की गई है। हालांकि, प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन अधिक होने के बावजूद माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच कम रही है। इसमें योगदान करने वाले कुछ कारकों के बारे में बोरदोलोई और पांडेय विचार करते हैं, जिनमें माध्यमिक शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों की सीमित संख्या, स्कूली शिक्षा से जुड़ी उच्च लागत और शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण में सार्वजनिक निवेश की कमी शामिल हैं। वे माध्यमिक शिक्षा पर केंद्रित नीति पर अधिक ध्यान देने का आह्वान करते हैं।

1990 के दशक से भारत की शिक्षा नीतियों में प्राथमिक शिक्षा और बाद में प्रारंभिक शिक्षा तक पहुंच में सुधार लाने पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया गया है। इसे केंद्र सरकार के कार्यक्रमों, जैसे- जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी), ‘सर्वशिक्षा अभियान’ (एसएसए), और हाल ही में एकीकृत केंद्र प्रायोजित योजना ‘समग्र शिक्षा’ के साथ-साथ राज्य सरकारों द्वारा इसी तरह की पहल के माध्यम से किया गया है। इनके साथ-साथ बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार (आरटीई) अधिनियम, 2009 की वजह से भारत को प्रारंभिक शिक्षा तक लगभग सार्वभौमिक पहुंच हासिल करने में मदद मिली है। हालांकि इस प्रक्रिया में माध्यमिक शिक्षा पर आवश्यक ध्यान नहीं दिया गया है, और इसकी पहुंच अपेक्षाकृत बेहद कम रही है।

अच्छी गुणवत्ता वाली माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच बढ़ाने के लिए वर्ष 2009 में शुरू किए गए राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (आरएमएसए) के तहत "वर्ष 2017 तक माध्यमिक स्तर की शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुंच और वर्ष 2020 तक इसका सार्वभौमिक प्रतिधारण प्राप्त करने" का उद्देश्य रखा गया था। तथापि, महत्वपूर्ण आर्थिक विकास और शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्धियों के बावजूद, यह उद्देश्य दूर की कौड़ी रहा (तिलक 2020)। वर्ष 2020 में जारी भारत की नवीनतम राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) में स्कूली शिक्षा के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की परिकल्पना की गई है और वर्ष 2030 तक- पूर्व-प्राथमिक से उच्च माध्यमिक तक- सभी स्तरों पर गुणवत्ता और समान शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने की आवश्यकता को दोहराया गया है। हालांकि, देश में माध्यमिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति और इससे जुड़ी कई चुनौतियों को देखते हुए, एनईपी के उद्देश्य का साकार होना बहुत मुश्किल लगता है।

माध्यमिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति

यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन-प्लस (यूडीआईएसई-प्लस) के वर्ष 2020-21 के नवीनतम आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, माध्यमिक (ग्रेड 9 और 10) और उच्चतर माध्यमिक (ग्रेड 11 और 12) स्तर पर राष्ट्रीय सकल नामांकन दर (जीईआर) क्रमशः 80% और 54% थी। इसकी तुलना प्राथमिक स्तर पर 99% के जीईआर के साथ की गई थी। हालांकि, एक विशेष स्तर पर आयु-उपयुक्त नामांकन का शुद्ध नामांकन अनुपात (एनईआर)1 माध्यमिक और उच्च-माध्यमिक स्तरों के लिए बहुत कम- क्रमशः 53% और 35% था, जबकि प्रारंभिक स्तर पर यह अनुपात 92% था। यह एक बड़ी चिंता का विषय है, क्योंकि वर्तमान में भारत में 14 से 17 वर्ष की आयु के आधे से अधिक बच्चे माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ हैं। इसके अलावा, प्रारंभिक स्तर के विपरीत, उच्च स्तर पर एनईआर में राज्यों में व्यापक भिन्नताएं हैं (उदाहरण के लिए, वर्ष 2020-21 के दौरान बिहार में उच्च माध्यमिक स्तर पर एनईआर 18% था, तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश में क्रमशः 47% और 57% था)।

चित्र 1. वर्ष 2018-19 और 2020-21 में भारत में स्कूली शिक्षा स्तरों पर एनईआर

स्रोत: यूडीआईएसई-प्लस

Primary-प्राथमिक, Upper Primary-उच्च प्राथमिक, Secondary-माध्यमिक, Higher Secondary-उच्च माध्यमिक

न केवल पहुंच कम है, बल्कि नामांकित बच्चों में भी, माध्यमिक से आगे उच्च माध्यमिक ग्रेड में दाखिला भी कम रहा है। वर्ष 2020-21 के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर, कक्षा 10 से 11 तक दाखिला दर केवल 73% थी, जबकि ग्रेड 8 से 9 तक 91% थी। इसी प्रकार से, माध्यमिक स्तर पर स्कूल छोड़ने की दर काफी रही है, जिसमें वर्ष 2020-21 में माध्यमिक स्तर पर नामांकित बच्चों में से 14.6% बच्चों ने आगे स्कूल छोड़ा है, जबकि यह प्रतिशत ऊपरी-प्राथमिक स्तर पर 1.9% और प्राथमिक स्तर पर 0.8%  है (चित्र 2 देखें)। जबकि पिछले कुछ वर्षों में स्कूल छोड़ने की दर में धीरे-धीरे गिरावट आई है, यह फिर भी काफी अधिक है।

चित्र 2. वर्ष 2018-19 से 2020-21 तक भारत में शिक्षा के स्तर के अनुसार ड्रॉपआउट दर

स्रोत: यूडीआईएसई-प्लस

Primary-प्राथमिक, Upper Primary-उच्च प्राथमिक, Secondary-माध्यमिक

भारत में माध्यमिक शिक्षा की इस निराशाजनक स्थिति के पीछे हम कुछ कारकों को देखते हैं, और शिक्षा तक पहुंच से संबंधित कुछ चुनौतियों को समझने की कोशिश करते हैं।

माध्यमिक शिक्षा हेतु सरकारी प्रावधान की कमी

वर्ष 2020-21 में, देश के 15 लाख स्कूलों में से केवल 2,91,466 (या 19%) ने माध्यमिक या उच्च माध्यमिक शिक्षा की पेशकश की है। इसकी तुलना में, देश के सभी स्कूलों में से 95% स्कूल प्राथमिक शिक्षा प्रदान करते हैं। माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना हेतु आरटीई अधिनियम के अधीन निर्दिष्ट कोई दूरी मानदंड नहीं है, जबकि समग्र शिक्षा योजना के तहत किसी बस्ती से स्कूल के पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित होने के मानदंड का समर्थन किया गया है, जब तक कोई राज्य अपने स्वयं के मानदंड अधिसूचित नहीं करता है। इस प्रकार से, माध्यमिक विद्यालयों की सीमित प्रत्यक्ष पहुंच छात्रों के लिए- विशेष रूप से कठिन भौगोलिक और दूरदराज के क्षेत्रों की लड़कियों के लिए एक सुरक्षा चिंता का विषय है, क्योंकि उन्हें माध्यमिक विद्यालय तक पहुंचने के लिए बहुत लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।

लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में, यह पता चला कि वर्ष 2020-21 के दौरान, देश में स्थित कुल बस्तियों में से 98% बस्तियों के एक किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक विद्यालय थे, जबकि 93% बस्तियों के पाँच किलोमीटर के दायरे के अन्दर माध्यमिक विद्यालय थे। हालांकि, माध्यमिक शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों में से 43% स्कूल निजी और बिना सहायता-प्राप्त थे। सरकार द्वारा माध्यमिक विद्यालयों के लिए यह सीमित प्रावधान, बच्चों के- विशेष रूप से सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली पर सर्वाधिक निर्भर ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि के बच्चों के प्रवेश के लिए एक बाधा है।

माध्यमिक शिक्षा के लिए उच्च लागत

प्राथमिक शिक्षा की तुलना में माध्यमिक शिक्षा तक पहुँचने के लिए परिवारों को औसतन- बहुत अधिक खर्च करना पड़ता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के घरेलू सर्वेक्षण के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि वर्ष 2017-18 के दौरान, स्कूलों की एक विशेष श्रेणी के भीतर, माध्यमिक शिक्षा की लागत प्राथमिक शिक्षा की तुलना में कहीं अधिक है। यहां तक कि सरकारी स्कूलों में, चूंकि प्राथमिक शिक्षा मुफ्त है, बच्चों के प्राथमिक से माध्यमिक कक्षाओं में दाखिले में परिवारों को वित्तीय बोझ में अचानक वृद्धि का अनुभव होता है2। वर्ष 2017-18 के दौरान, सरकारी स्कूलों में माध्यमिक और उच्च-माध्यमिक शिक्षा हेतु औसत प्रति छात्र व्यय, प्राथमिक शिक्षा की तुलना में क्रमशः तीन और पांच गुना अधिक था (चित्र 3 देखें)। चाहे स्कूल किसी भी प्रकार का हो, प्राथमिक विद्यालय की तुलना में माध्यमिक स्तर पर निजी कोचिंग पर अपेक्षाकृत अधिक खर्च के कारण भी वित्तीय बोझ काफी बढ़ जाता है।

चित्र 3. वर्ष 2017-18 के दौरान शिक्षा स्तर और स्कूल के प्रकार के आधार पर स्कूली शिक्षा पर प्रति छात्र औसत वार्षिक व्यय (घरेलू क्षेत्र में)

स्रोत: घरेलू सामाजिक उपभोग पर आधारित लेखकों द्वारा किया गया अनुमान: शिक्षा, एनएसएस 75वां दौर

Primary-प्राथमिक, Upper Primary-उच्च प्राथमिक, Secondary-माध्यमिक, Higher Secondary-उच्च माध्यमिक, Government- सरकार, Private-aided- निजी सहायता प्राप्त, Private unaided- निजी-गैर-सहायता प्राप्त

इस प्रकार, माध्यमिक स्तर पर स्कूली शिक्षा की उच्च लागत कई परिवारों के लिए अपने बच्चों की प्राथमिक स्तर से आगे की शिक्षा को जारी रखना एक चुनौती है। हमने स्कूल के किसी भी स्तर पर 14 से 17 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों द्वारा उपस्थित नहीं होने से संबंधित कारणों को देखा। आवधिक श्रम-बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के आधार पर, वर्ष 2020-21 के दौरान, 31% बच्चों द्वारा उद्धृत प्रमुख कारणों में से एक- घरेलू आय के पूरक काम में उनका संलग्न होना था। 25% बच्चों ने बताया कि वे घर के कामों में भाग लेने के लिए स्कूल से दूर रहे, जबकि अन्य 18% बच्चों ने सोचा कि शिक्षा आवश्यक नहीं है। यह माध्यमिक शिक्षा को पूरा करने के महत्व के बारे में परिवारों में जागरूकता की कमी को भी इंगित करता है।

स्कूली शिक्षा में अपर्याप्त सार्वजनिक निवेश

भारत में माध्यमिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति को प्रभावित करने वाला एक अन्य व्यापक कारक इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश का निम्न स्तर है। वर्ष 2019-20 (शिक्षा मंत्रालय, 2022) के दौरान, संघ और राज्य सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के रूप में शिक्षा पर किया गया कुल व्यय 4.39% था, जो कोठारी आयोग द्वारा 1966 में निर्धारित 6% निवेश लक्ष्य- जिसे 1986 (शिक्षा मंत्रालय, 1966) तक प्राप्त किया जाना था, से काफी कम है। राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के स्तरों में इस हिस्से का कोई ब्रेक-अप नहीं है, जबकि राज्य के बजट के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि स्कूली शिक्षा पर अधिकांश खर्च प्रारंभिक शिक्षा के लिए हुआ है। वर्ष 2018 में एसएसए, आरएमएसए और शिक्षक शिक्षा की पिछली योजनाओं को शामिल कर लागू की गई समग्र शिक्षा की एकीकृत योजना के शुभारंभ के बाद भी स्थिति शायद ही बदली है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2017-18 में बिहार और मध्य प्रदेश ने स्कूली शिक्षा वित्त में से 60% से अधिक प्रारंभिक शिक्षा पर खर्च किया (बोरदोलोई एवं अन्य 2020)।

जैसा कि एनईपी 2020 द्वारा कल्पना की गई है, माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से कौशल विकास को शामिल करने हेतु बड़े निवेश की भी आवश्यकता है। इससे उन लोगों की रोजगार क्षमता में सुधार हो सकता है जो अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद कार्य-बल में प्रवेश करना चाहते हैं, और उन लोगों के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों में स्वीकार्यता में सुधार हो सकता है जो अपनी आगे की पढ़ाई करना चाहते हैं (भंडारी एवं अन्य 2020)। अच्छी गुणवत्ता वाली माध्यमिक शिक्षा सुनिश्चित करने हेतु अन्य बुनियादी लेकिन महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में- पर्याप्त संख्या में योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों की उपलब्धता, स्कूल की बुनियादी सुविधाएं और एक कुशल निगरानी प्रणाली के साथ एक ठोस नियामक तंत्र शामिल हैं। अफसोस की बात है कि भारत अभी भी इन मोर्चों पर पीछे है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2020-21 में, सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के कुल स्वीकृत पदों में से 19% पद माध्यमिक स्तर पर और 24% पद उच्च-माध्यमिक स्तर पर रिक्त थे। वास्तव में, वर्ष 2017-18 में किये गए एनएसएस शिक्षा सर्वेक्षण में पाया गया कि माध्यमिक स्तर पर बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने के लिए परिवारों द्वारा बताये गए दो सबसे प्रमुख कारण थे- सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता के प्रति असंतोष और पास में कोई सरकारी माध्यमिक विद्यालय का न होना। माध्यमिक विद्यालय भी अपर्याप्त बुनियादी सुविधाओं या इसकी खराब गुणवत्ता से ग्रस्त हैं। हालांकि स्कूल भवन, पेयजल और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के संबंध में स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन खेल के मैदानों, कंप्यूटरों और रैंप के मामले में स्थिति अभी भी चिंताजनक बनी हुई है।

निष्कर्ष

देश में माध्यमिक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय शिक्षा नीति के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए, और इसकी वर्तमान स्थिति से तुलना करते हुए, केंद्र और राज्य सरकारों- दोनों की वार्षिक शिक्षा योजना में इसे प्राथमिकता देकर माध्यमिक शिक्षा पर अधिक नीतिगत ध्यान केंद्रित करने का समय आ गया है। सस्ती माध्यमिक शिक्षा का प्रावधान सुनिश्चित करने हेतु सार्वजनिक निवेश में पर्याप्त वृद्धि होनी चाहिए। शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने, शिक्षकों के प्रशिक्षण, पर्याप्त शिक्षण-अधिगम संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने और एक जवाबदेह और पारदर्शी शासन-व्यस्था की संरचना बनाने के माध्यम से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार पर समान ध्यान दिया जाना चाहिए। इस दिशा में जब तक कठोर उपाय नहीं किए जाते, वर्ष 2030 तक सार्वभौमिक स्तर माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करना दुर्ग्राह्य ही लगता है।

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टिप्पणियाँ:

  1. शुद्ध नामांकन दर (एनईआर), उस स्तर के लिए परिभाषित आधिकारिक आयु-समूह में स्कूल के एक विशेष स्तर पर नामांकित बच्चों की संख्या है, जो उस आयु-समूह में कुल बच्चों के अनुपात के रूप में है। एनईआर गणना हेतु विभिन्न स्कूली शिक्षा स्तरों के लिए आयु-समूह हैं: (i) प्राथमिक: 6 से 10 वर्ष, (ii) ऊपरी प्राथमिक: 11 से 13 वर्ष, (iii) माध्यमिक: 14 से 15 वर्ष, और (iv) उच्च-माध्यमिक: 16 से 17 वर्ष।
  2. परिवारों द्वारा शिक्षा पर किये जाने वाले व्यय में पाठ्यक्रम शुल्क, किताबें, स्टेशनरी, यूनिफार्म, परिवहन, निजी कोचिंग और अन्य विविध खर्च शामिल हैं।

लेखक परिचय: मृदुस्मिता बोरदोलोई सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर), दिल्ली में एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव टीम की एसोसिएट फेलो हैं। शरद पांडे एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव (एआई), सीपीआर, नई दिल्ली में सीनियर रिसर्च एसोसिएट हैं।

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