दुनिया भर में होने वाले शोध अध्ययनों से पता चला है कि सत्ता में विभिन्न पदों पर बैठे लोग उन लोगों को प्राथमिकता देते हैं जिनकी सामाजिक पहचान उनसे मिलती-जुलती होती है। यह जानने के लिए कि क्या भारतीय न्यायालयों में भी ऐसा ही होता है, इस लेख में वर्ष 2010-2018 की अवधि के पचास लाख से अधिक आपराधिक मामलों का विश्लेषण किया गया है। अन्य देशों में पाए गए पैटर्न के विपरीत, इसमें साझा धर्म, लिंग या जाति के आधार पर अपराधों से बरी करने के फैसलों में कोई आंतरिक पक्षपात नहीं पाया गया है।
अपने साथियों द्वारा आँका जाना एक बात है, और अपने धर्म, लिंग या जाति से मेल खाने वाले किसी व्यक्ति द्वारा आँका जाना दूसरी बात है। दुनिया भर के शोधकर्ताओं ने इस बात को दर्ज किया है कि सत्ताधारी लोग- न्यायाधीश, शिक्षक, नौकरशाह अक्सर उन लोगों को तरजीह देते हैं जिनकी सामाजिक पहचान उनसे मिलती-जुलती होती है। विभिन्न परिस्थितियों में, प्रतिवादी अक्सर तब बेहतर स्थिति में होते हैं जब उनकी जाति या लैंगिक स्थिति (स्त्री-पुरुष) न्यायाधीश या जूरी के समान हो। (शायो और ज़ुस्मान 2011, अनवर एवं अन्य 2012, चोई एवं अन्य 2022, कै एवं अन्य 2025)। क्या भारत में भी ऐसा ही होता है?
एक नए शोध (ऐश एवं अन्य 2025) में हम वर्ष 2010 और 2018 के बीच भारत में 50 लाख से ज़्यादा आपराधिक मामलों, जिन पर कार्यवाही हुई थी के नए आँकड़ों का उपयोग करके इस प्रश्न की जाँच करते हैं। हम जाँच करते हैं कि क्या न्यायाधीश प्रतिवादियों के साथ तब ज़्यादा अनुकूल व्यवहार करते हैं जब उनके धर्म, लिंग या जाति (उपनामों का उपयोग करके) समान होती है।
अदालती कार्यवाही का वचन और जोखिम
भारत की अदालतों पर भारी दबाव है (बोहम और ओबरफील्ड 2020)। इनमें कर्मचारियों की कमी है, मुकदमों की बढती संख्या का बोझ रहता है, और इन्हें व्यापक रूप से पक्षपाती तथा ख़ासकर महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों और निचली जातियों के नागरिकों के लिए पहुँच से बाहर माना जाता रहा है। निचली अदालतों में कार्यरत न्यायाधीशों में महिलाएँ केवल 28% हैं और अन्य के 14% की तुलना में मुस्लिम का प्रतिशत केवल 7% है। अनुसूचित जातियों के सन्दर्भ में भी यही स्थिति है, हालांकि सटीक आँकड़े प्राप्त करना मुश्किल है। ये असमानताएँ एक मूल प्रश्न उठाती हैं : बेंच पर कौन बैठता है, क्या इसका अदालत में होने वाली घटनाओं पर प्रभाव पड़ता है?
इसका पता लगाने के लिए, हमने भारतीय ई-कोर्ट्स प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग करके एक नया डेटासेट बनाया, जिसमें देश की 7,000 से अधिक निचली अदालतों के केस रिकॉर्ड दर्ज हैं। आपराधिक मामलों को फ़िल्टर करने और केस रिकॉर्ड को जजों की सूची से जोड़ने के बाद, हमने एक न्यूरल नेटवर्क को प्रशिक्षित किया ताकि जजों और प्रतिवादियों, दोनों का उनके नाम के आधार पर लिंग और धर्म निर्धारित किया जा सके। (हमने सामान जातिगत पहचान का पता लगाने के लिए उपनामों का भी उपयोग किया, हालांकि इस पद्धति की अपनी सीमाएँ हैं।)
आँकड़ों के पैमाने से हम अपराधों में बरी होने की सम्भावना में 0.5 प्रतिशत अंक (पीपी) के छोटे से बदलाव जैसे परिणामों में भी अंतर का पता लगा सके। न्यायाधीशों को मामले सौंपने के नियम, जो मुख्यतः आरोप के प्रकार, पुलिस स्टेशन और अदालत कक्ष के रोटेशन पर आधारित होते हैं, और इनमें न्यायाधीशों का चयन अर्ध-यादृच्छिक आधार पर होता है। इस व्यवस्था के चलते हम समान पहचान विशेषताओं वाले न्यायाधीश को सौंपे जाने के कारणात्मक प्रभाव का स्पष्ट अनुमान लगा पाते हैं।
हम क्या पाते हैं : कोई तरीकेवार समूह पूर्वाग्रह नहीं है
सिद्धांत रूप में, न्यायाधीश उन प्रतिवादियों का पक्ष ले सकते हैं जिनकी सामाजिक पहचान उनसे मिलती-जुलती हो। कई देशों और सन्दर्भों में, वे ऐसा करते भी हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में एक अश्वेत जूरी सदस्य होने से अश्वेत प्रतिवादियों के लिए दोषसिद्धि दर में उल्लेखनीय कमी आती है (अनवर एवं अन्य 2012)। इज़राइल में यहूदी और अरब न्यायाधीश अपने-अपने समूहों के लोगों का का पक्ष लेते हैं (शायो और जसमैन 2011)। भारतीय बैंकिंग प्रणाली में भी इसी तरह के पैटर्न दर्ज किए गए हैं (फिसमैन एवं अन्य 2017)।
भारत की निचली आपराधिक अदालतों में, हमें ऐसा कोई प्रभाव नज़र नहीं आता है। महिला न्यायाधीशों द्वारा महिलाओं को अपराधों से बरी किए जाने की सम्भावना अधिक नहीं होती। मुस्लिम प्रतिवादियों को मुस्लिम न्यायाधीशों से बेहतर परिणाम नहीं मिलते। औसत प्रतिवादी को अपने न्यायाधीश के समान उपनाम होने से कोई लाभ नहीं मिलता। हमने इस नियम को सिद्ध करने वाले एक अपवाद में पाया कि असामान्य उपनाम वाले लोगों के सन्दर्भ में, न्यायाधीश के समान उपनाम होने की स्थिति में उनके परिणामों में सुधार होता है। लेकिन यहाँ होने वाले पूर्वाग्रह की कुल मात्रा बहुत कम है, क्योंकि यह यांत्रिक रूप से लगभग असम्भव है कि किसी दुर्लभ उपनाम वाले व्यक्ति का मामला उसी के समान दुर्लभ उपनाम वाले न्यायाधीश को ही सौंपा जाए। संक्षेप में में कहा जाए तो औसत समूह पूर्वाग्रह सांख्यिकीय रूप से शून्य से अप्रभेद्य है।
यह साक्ष्य आधार में सबसे सटीक रूप से अनुमानित शून्य परिणामों में से एक है। आकृति-1 में हमारे परिणामों की तुलना उन पूर्व अध्ययनों से की गई है जिनमें इसी तरह की अनुभवजन्य रणनीतियों का उपयोग किया गया है। इनमें से कई में 5 से 20 पीपी तक बड़े प्रभाव पाए गए हैं। हम उस आकार के दसवें हिस्से के प्रभावों को भी खारिज कर सकते हैं। हमारा 95% विश्वास अंतराल1 सम्भावित पूर्वाग्रह प्रभावों को केवल 0.6 पीपी पर सीमित करता है।
आकृति-1: न्यायिक पूर्वाग्रह अनुमानों के साथ अन्य सन्दर्भों से तुलना
पक्षपात का यह अभाव कई परिणामों में दिखाई देता है- चाहे प्रतिवादी बरी हो, दोषी ठहराया जाए, या छह महीने के भीतर फैसला सुना दिया जाए। ऐसा महिलाओं और पुरुषों, मुसलमानों और गैर-मुसलमानों, सभी प्रकार के अपराधों और देश के सभी हिस्सों में नज़र आता है। ऐसा इसलिए नहीं है कि व्यवस्था हर स्तर पर निष्पक्ष है, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि समूह के भीतर का पक्षपात, दोषी ठहराए जाने के निर्णय के समय न्यायाधीशों के निर्णयों को प्रभावित नहीं करता है।
क्या ख़ास सन्दर्भों में पहचान मायने रखती है?
इस औसत शून्य के बावजूद, क्या पूर्वाग्रह उन विशिष्ट परिस्थितियों में उभर सकता है जहाँ पहचान विशेष रूप से ख़ास हो? हमें इसके भी अधिक प्रमाण नहीं मिले।
हमने ऐसे चार सन्दर्भों की जाँच की-
धार्मिक त्योहारों के दौरान धार्मिक विशिष्टता : कुछ पूर्व अध्ययनों से पता चलता है कि धार्मिक त्योहार पहचानों को और अधिक ख़ास बना सकते हैं। लेकिन हमें रमज़ान (मुस्लिम त्योहार), दिवाली, होली, दशहरा या राम नवमी (कुछ प्रमुख हिंदू त्योहार) के दौरान किसी भी धर्म के प्रतिवादियों के परिणामों में कोई अंतर नहीं मिला, न ही धार्मिक समूह पूर्वाग्रह में कोई अंतर मिला।
लैंगिक अपराध : हम महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न और अपहरण जैसे अपराधों के मामलों में लैंगिक पूर्वाग्रह के बढ़ने को मान सकते हैं। लेकिन यहाँ भी, हमें कोई सबूत नहीं मिलता है कि महिला न्यायाधीश महिला प्रतिवादियों के साथ अधिक उदारता से (या पुरुष न्यायाधीश अधिक कठोरता से) व्यवहार करते हों।
पीड़ितों के साथ पहचान का अंतर : हम यह जाँच करते हैं कि क्या पूर्वाग्रह तब उभरता है जब किसी न्यायाधीश की सामाजिक पहचान पीड़ित के समान है लेकिन प्रतिवादी के समान नहीं, जैसा कि अमेरिका में किए गए शोध से पता चलता है, जिसमें पाया गया है कि जूरी द्वारा श्वेत पीड़ितों की तुलना में अश्वेत प्रतिवादियों के खिलाफ फैसला देने की अधिक सम्भावना है। फिर से, कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं दिखाई देता है।
दुर्लभ उपनाम : जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, जब असामान्य नाम वाले प्रतिवादियों का मिलान समान नाम वाले न्यायाधीशों से किया गया, तो हमें कुछ समूह-भेदभाव नज़र आया। समान पहचान की अत्यधिक प्रमुखता इस पूर्वाग्रह को बढ़ावा दे सकती है, लेकिन जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि इस ऐसे सुयोग बनने के बहुत ही कम कुल संख्या को ध्यान में रखते हुए इस प्रभाव का कुल परिमाण बहुत छोटा है।
भारतीय न्यायाधीश अलग क्यों हैं?
भारतीय न्यायाधीशों द्वारा औसतन समूह-भेदभाव क्यों नहीं किया जाता? इसके कई कारण हो सकते हैं।
न्यायिक मानदंड और प्रशिक्षण का प्रभाव हो सकता है : भारत की अदालतों में विलम्ब, अस्पष्टता, लंबित मामलों जैसे कई सुप्रलेखित समस्याओं के बावजूद, यह सम्भव है कि न्यायाधीश निष्पक्षता के मानदंडों को आत्मसात करें और उन्हें लागू करें। भारत में न्यायाधीश निर्वाचित नहीं होते और उनका कार्यकाल सुरक्षित होता है, जो उन्हें राजनीतिक या सामाजिक दबावों से सम्भावित रूप से बचाता है।
श्रेणी की दूरी सामाजिक पहचान के प्रभावों को कम कर सकती है : अधिकांश न्यायाधीश, चाहे वे किसी भी धर्म या लिंग के हों, अपेक्षाकृत कुलीन पृष्ठभूमि से आते हैं। किसी न्यायाधीश और एक सामान्य प्रतिवादी के बीच का सामाजिक और आर्थिक अंतर समान सामाजिक पहचान की प्रमुखता को कम कर सकता है।
प्रकाशन पूर्वाग्रह हमें यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि समूह पूर्वाग्रह वास्तव में जितना आम है, उससे कहीं अधिक आम है : यदि सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण परिणामों वाले शोधपत्र को शून्य परिणामों वाले शोधपत्र की तुलना में प्रकाशित करना आसान है, तो शून्य परिणाम वाले शोधकर्ता शोधपत्र जमा करने के चरण तक पहुँचने से पहले ही परियोजनाओं को छोड़ सकते हैं– यह फ़ाइल ड्रॉअर समस्या है।
नीचे दी गई आकृति-2 में एक 'फ़नल प्लॉट' दर्शाया गया है, जो एंड्रयूज़ और कैसी (2019) पर आधारित प्रकाशन पूर्वाग्रह का एक परीक्षण है। प्रकाशन पूर्वाग्रह के अभाव में, हम उम्मीद करते हैं कि पूर्व अध्ययनों (काले त्रिकोण) के बिंदु वास्तविक औसत अनुमान के आसपास केन्द्रित एक सममित फ़नल का निर्माण करेंगे। ग्राफ़ के जिन क्षेत्रों में बिंदु नहीं हैं, वे संकेत देते हैं कि उन क्षेत्रों में अध्ययन हुए होंगे, लेकिन वे कभी प्रकाशित नहीं हुए। नीचे दिया गया ग्राफ़ वास्तव में अत्यधिक असममित है और हम पाते हैं कि पूर्व अध्ययनों के कई बिंदु p<0.05 p="">
आकृति-2. पूर्व अध्ययनों से मानकीकृत त्रुटियाँ बनाम प्रभाव आकार
यह ग्राफ़ प्रकाशन पूर्वाग्रह की एक बड़ी मात्रा के अनुरूप है, जो यह दर्शाता है कि न्यायपालिकाओं में समूह-आधारित पूर्वाग्रह उतना व्यापक नहीं हो सकता जितना प्रकाशित शोधों द्वारा बताया गया है।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि हमारे शोध में पूर्वाग्रह की महत्वपूर्ण जाँच की गई है, फिर भी हमने पूर्वाग्रह को पूरी तरह से खारिज नहीं किया है। यह सम्भव है कि अन्यत्र देखा गया पूर्वाग्रह व्यवस्था के अंतर्गत पुलिसिंग, आरोप-पत्र दाखिल करने या ज़मानत के फैसलों में पहले से ही मौजूद हो और मुकदमे के दौरान नहीं हो। हम केवल उस अंतिम चरण पर ध्यान देते हैं, जिसमें किसी मामले का फैसला सुनाया जाता है। यह भी सम्भव है कि महिलाओं या मुसलमानों के साथ व्यवस्था द्वारा, जिसमें न्यायाधीश भी शामिल हैं, बदतर व्यवहार किए जाने की सम्भावना अधिक हो, लेकिन उन्हें समान और विपरीत पहचान वाले न्यायाधीशों द्वारा भी समान रूप का बुरा व्यवहार मिलता हो।
समूह-आधारित न्यायिक पूर्वाग्रह और भविष्य के शोध के निहितार्थ
हमारे साक्ष्य दर्शाते हैं कि समूह के भीतर के पूर्वाग्रह को लेकर चिंताएँ न्यायाधीशों द्वारा अपराधों से बरी करने के फैसलों के अलावा न्याय प्रक्रिया के अन्य पहलुओं पर भी केन्द्रित हो सकती हैं। हम कई कारणों से एक अधिक प्रतिनिधि बेंच की इच्छा कर सकते हैं, लेकिन हमें यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि इससे अलग न्यायिक नतीजे मिलेंगे। प्रतिनिधित्व से वैधता और विश्वास बनाने में मदद मिल सकती है, यह भविष्य के शोध का विषय है। किसे गिरफ्तार किया जाता है, किसे आरोपित किया जाता है, किसे मुकदमे तक पहुँचाया जाता है और सज़ा की कठोरता संबंधी संपूर्ण आपराधिक न्याय प्रक्रिया पर और अधिक शोध की आवश्यकता है।
अंतिम टिप्पणी : इस परियोजना पर काम करते हुए हमने दुनिया के सबसे बड़े न्यायिक डेटासेट में से एक बनाया और उसे जारी किया, जिसमें भारत भर के 7 करोड़ 70 लाख अदालती मामले शामिल थे। हमने अपनी प्रक्रिया के आरम्भ में और प्रकाशन से कई वर्ष पहले ही जब हमने अपना पहला कार्य-पत्र प्रकाशित किया था, डेटा जारी कर दिया था। यह कुछ मायनों में जोखिम भरा था। क्या इसके कारण हम अन्य शोधों से पिछड़ जायेंगे? लेकिन वास्तविकता में हमने पाया कि हमारा डेटासेट पहले से ही दूसरों को भारतीय न्यायपालिका पर मौलिक और रोमांचक कार्य करने में सक्षम बना रहा है, जिसके बारे में हमने कभी सोचा भी नहीं था। इनमें क्रेगी एवं अन्य (2023) द्वारा तापमान और न्यायिक निर्णयों पर अध्ययन, सर्मिएंटो और नोवाकोव्स्की (2023) द्वारा वायु प्रदूषण और न्यायिक निर्णयों पर अध्ययन और भारती और लेहने (2024) का न्यायिक सहायता पर अध्ययन शामिल है। अगर हमने प्रकाशन के समय पर ही डेटा प्रकाशित करने की मानक प्रक्रिया का पालन किया होता, तो हमारा डेटा भी सार्वजनिक नहीं होता। इसे ध्यान में रखते हुए हमें उम्मीद है कि अन्य शोधकर्ता भी खुले डेटा को जल्दी और बार-बार प्रकाशित करने के सामाजिक मूल्य को समझेंगे।
इसका मूल अंग्रेज़ी लेख सबसे पहले वॉक्सडेव द्वारा प्रकाशित किया गया था।
टिप्पणी :
- विश्वास अंतराल अनुमानित प्रभावों के बारे में अनिश्चितता व्यक्त करने का एक तरीका है। 95% विश्वास अंतराल का अर्थ है कि, यदि आप नए नमूनों के साथ प्रयोग को दोहराते हैं, तो 95% बार गणना किए गए विश्वास अंतराल में वास्तविक प्रभाव शामिल होगा।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय :
इलियट ऐश स्विट्जरलैंड स्थित ईटीएच ज्यूरिख के विधि एवं अर्थशास्त्र केंद्र में विधि, अर्थशास्त्र और डेटा विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। इलियट का शोध और शिक्षण अर्थमिति, प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण और मशीन लर्निंग की तकनीकों का उपयोग करके कानून, राजनीति और शासन के अनुभवजन्य विश्लेषण पर केंद्रित है। सैम एशर इंपीरियल कॉलेज लंदन में अर्थशास्त्र और लोक नीति के एसोसिएट प्रोफेसर और डेवलपमेंट डेटा लैब के सह-संस्थापक हैं, जो भारत और उसके बाहर नीति निर्माताओं, नागरिक समाज और निजी क्षेत्र के लिए कम उपयोग किए गए डेटा के मूल्य को अधिकतम करने के लिए काम करता है। पॉल नोवोसाद और कई सहयोगियों के साथ मिलकर, उन्होंने भारत में स्थानीय स्तर पर आर्थिक विकास का विश्लेषण करने के लिए एक उच्च स्थानिक रिज़ॉल्यूशन डेटा प्लेटफ़ॉर्म और नए विश्लेषणात्मक उपकरण बनाए हैं। अदिति भौमिक हार्वर्ड केनेडी स्कूल में लोक नीति में पीएचडी की तृतीय वर्ष की छात्रा हैं। वे महिला श्रम शक्ति में भागीदारी की बाधाओं और सामाजिक मानदंडों के आर्थिक झटकों के साथ मिलकर लैंगिक असमानता को बनाए रखने पर अध्ययन करती हैं। संदीप भूपतिराजू विश्व बैंक की विकास प्रभाव मूल्यांकन (डीआईएमई) इकाई में न्याय सुधारों के लिए डेटा और साक्ष्य कार्यक्रम में शोधकर्ता हैं। उन्होंने न्यायिक आँकड़ों के डेटाबेस संकलित किए हैं जो कानून के आर्थिक प्रभावों के साथ-साथ न्यायपालिका के भीतर पूर्वाग्रहों के अध्ययन में मदद करते हैं। क्रिस्टोफ़ गोएसमन डेटा विज्ञान, मशीन लर्निंग और अर्थशास्त्र (मुख्यतः कारणात्मक अनुमान) के उपकरणों का उपयोग करके कानूनी और राजनीतिक संस्थाओं पर अनुभवजन्य शोध करते हैं। वे साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण को बढ़ावा देने और शोध व व्यवहार के बीच की खाई को पाटने में विशेष रूप से रुचि रखते हैं। डैनियल ली चेन सीएनआरएस के वरिष्ठ शोधकर्ता हैं। पॉल नोवोसाद डार्टमाउथ कॉलेज में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर और डेवलपमेंट डेटा लैब के सह-संस्थापक हैं। डेवलपमेंट डेटा लैब सरकारों, फर्मों और नागरिक समाज संगठनों के साथ मिलकर उपग्रहों और निजी व सरकारी क्षेत्र के डेटा एक्स्क्लूसिव जैसे सूचना युग के स्रोतों से नीति-प्रासंगिक ज्ञान और खुला डेटा तैयार करती है।
क्या आपको हमारे पोस्ट पसंद आते हैं? नए पोस्टों की सूचना तुरंत प्राप्त करने के लिए हमारे टेलीग्राम (@I4I_Hindi) चैनल से जुड़ें। इसके अलावा हमारे मासिक न्यूज़ लेटर की सदस्यता प्राप्त करने के लिए दायीं ओर दिए गए फॉर्म को भरें।




13 नवंबर, 2025 










Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.