सामाजिक पहचान

वर्ग और जाति किस प्रकार से स्कूल के चुनाव को प्रभावित करते हैं

  • Blog Post Date 06 अक्टूबर, 2023
  • लेख
  • Print Page

माता-पिता द्वारा अपने बच्चों की शिक्षा के सम्बन्ध में लिए जाने वाले निर्णयों पर परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति प्रभाव डालती है। जाति और वर्ग की परस्पर-क्रिया को ध्यान में रखते हुए, यह लेख दर्शाता है कि परिवार जब बहुत अमीर या बहुत गरीब होते हैं, तब उनकी जाति की पहचान स्कूल के चुनाव के उनके निर्णयों को प्रभावित नहीं करती है। लेकिन, संपत्ति-वितरण के बीच में आने वाले वर्गों के लिए, जाति की पहचान बहुत मायने रखती है- वंचित जातियों के छात्र, जिनके माता-पिता श्रम बाज़ार में अच्छी तरह से जुड़े नहीं होते, उन्हें शिक्षा के रिटर्न कम मिलते हैं।

भारत में जाति की पहचान सकारात्मक कार्रवाई यानी आरक्षण का आधार है। यह शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में वंचित जाति समूहों- अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण का रूप लेता है। क्योंकि वंचित जाति समूह औसतन, उच्च जाति समूहों (आमतौर पर सामान्य जाति, जीसी के रूप में संदर्भित) की तुलना में गरीब हैं, सकारात्मक कार्रवाई की रणनीति गरीबी निवारण कार्यक्रम का रूप भी ले लेती है। लेकिन एक समूह के रूप में, सामान्य जाति (जीसी) काफी विषमरूप और बहुजातीय मिश्रण है और जाति आधारित सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) की रणनीतियां जीसी के एक गरीब सदस्य के बजाय एससी/एसटी समूहों के किसी कम गरीब सदस्य को लाभार्थी के रूप में चुने जाने की संभावना को रोक नहीं सकतीं

ऐसे परिदृश्य के चलते एक गम्भीर प्रश्न उठता है : वंचित व्यक्ति की पहचान के क्या आयाम होने चाहिए? क्या सकारात्मक कार्रवाई में किसी की आर्थिक पहचान (वर्ग) या उनकी सामाजिक पहचान (जाति) को ध्यान में रखा जाना चाहिए? हाल के दिनों में भारत में इस मुद्दे पर तीव्र राजनीतिक बहस हुई है, जिसके नतीजे में वर्ष 2019 के 103वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के माध्यम से सरकारी नौकरियों और स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया गया है। ईडब्ल्यूएस कोटा और भारतीय राजनीति में इसके महत्व के बावजूद, शैक्षिक और श्रम बाज़ार सम्बन्धी निर्णय लेने में विभिन्न पहचान आयामों की भूमिका का विश्लेषण करने वाले अध्ययन अधिक नहीं हुए हैं।

हम एक हालिया अध्ययन (भट्टाचार्य एवं अन्य 2021) में, लोगों की आर्थिक और सामाजिक स्थितियाँ कैसे उनके बच्चों के लिए स्कूल चयन के निर्णयों को आकार देने में परस्पर-क्रिया करती है, यह विश्लेषण करते हैं और इस शोध साहित्य में योगदान देते हैं।

सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) लागू करने के ऐतिहासिक प्रयास

औपनिवेशिक शासन के दौरान, कोल्हापुर और मैसूर की रियासतों ने क्रमशः वर्ष 1902 और 1921 में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की शुरुआत की थी। भारत सरकार के अधिनियम 1935 में उन जातियों और जनजातियों को सूचीबद्ध किया गया, जो आरक्षण लाभ के पात्र हैं। इन जातियों और जनजातियों का उल्लेख अधिनियम की अनुसूची में किया गया और तब से इन्हें आम बोलचाल में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में जाना जाने लगा। आज़ादी के बाद संविधान के अनुच्छेद 46 में कमज़ोर वर्ग को सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से बचाने का वादा किया गया। वर्ष 1951 में भारतीय संविधान में किए गए पहले संशोधन के माध्यम से भारत सरकार अधिनियम 1935, के अनुरूप जाति-आधारित आरक्षण का प्रावधान किया गया।

स्वतंत्रता के बाद, एससी/एसटी समूहों के अलावा दूसरे समूहों के लिए सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों का विस्तार करने का प्रयास किया गया। ऐसे ही एक प्रारंभिक प्रयास में काकासाहेब केलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की गई। आयोग ने वर्ष 1955 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) के लिए नौकरियों में आरक्षण लागू किए जाने का सुझाव दिया गया था, लेकिन उस समय इन सिफारिशों को लागू नहीं किया गया। एसईबीसी पर दूसरे आयोग की स्थापना बी पी मंडल की अध्यक्षता में की गई। इस आयोग ने वर्ष 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और कई सिफारिशें कीं, जिनमें सरकारी सेवाओं में एसईबीसी के लिए नौकरियों में 27% आरक्षण शामिल था। इन सिफ़ारिशों को अंततः वर्ष 1990 में श्री वी पी सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा गठबंधन सरकार द्वारा लागू किया गया। एससी/एसटी के अलावा अन्य एसईबीसी को अब अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाने लगा।

सैद्धांतिक फ्रेमवर्क

हमने अपने लेख के सैद्धांतिक फ्रेमवर्क में गैलोर और ज़ेइरा (1993) का बारीकी से अनुसरण किया है। उनके अध्ययन के अनुसार, माता-पिता अपने बच्चों के लिए मानव पूंजी सम्बन्धी निर्णय लेते हैं और महंगे (कौशल प्राप्त करना) और सस्ते (कौशल प्राप्त न करना) विकल्पों में से एक का चयन करते हैं। हालाँकि, महंगे विकल्प से भविष्य में अधिक रिटर्न मिलता है।

हमारे अध्ययन के अनुसार, माता-पिता यह तय करते हैं कि बचत साधन में कितना निवेश करना है और अपने बच्चों की शिक्षा के लिए कितना निवेश करना है। स्कूल के चुनाव के बारे में वे दो प्रकार के निर्णय लेते हैं- स्कूल की गुणवत्ता और स्कूल का प्रकार (सार्वजनिक या निजी)। हमारे मॉडल में, हम मानते हैं कि निजी स्कूल महंगे हैं लेकिन भविष्य में अधिक अपेक्षित रिटर्न दे सकते हैं। दूसरी ओर, सार्वजनिक स्कूल सस्ते हैं, लेकिन उनसे रिटर्न भी कम मिलता है। हम यह भी मानते हैं कि, शिक्षा की गुणवत्ता के अलावा, श्रम बाज़ार में मिलने वाला रिटर्न सकारात्मक रूप से माता-पिता के नेटवर्क पर निर्भर करता है, जो हमारे मॉडल में उनकी जाति की पहचान के आधार पर होता है। हमारे मॉडल में, जाति की पहचान के उच्च या निम्न स्तर के दो आधार हैं और उच्च जाति के माता-पिता का अपने निम्न जाति के समकक्षों की तुलना में बेहतर श्रम बाज़ार नेटवर्क होता है। हम यह भी मानते हैं कि निजी स्कूलों में गुणवत्ता का सीमांत प्रतिफल या मार्जिनल रिटर्न अधिक है। ये दो विशेषताएं साथ मिलकर, हमारे मॉडल में निर्णय लेने के संदर्भ में प्रमुख ‘ट्रेड-ऑफ़’ को दर्शाती हैं- महंगी स्कूली शिक्षा में निवेश बच्चों के लिए उच्च रिटर्न ला सकता है, लेकिन वह केवल तभी जब उनके माता-पिता सफेदपोश नौकरी बाज़ार में पर्याप्त रूप से जुड़े हों।

डेटा

हमने अपने सैद्धांतिक दावों का परीक्षण करने के लिए, आंध्र प्रदेश राज्य में वर्ष 2002 और 2011 के बीच एकत्र किए गए ‘यंग लाइव्स सर्वेक्षण डेटा’ का उपयोग किया है। हम बच्चों के छोटे समूह (जनवरी 2001 और जून 2002 के बीच पैदा हुए) के लिए ‘पारिवारिक सर्वेक्षण डेटा’ का उपयोग करते हैं। इस सर्वेक्षण में शामिल परिवारों का तीन बार सर्वेक्षण किया गया था- वर्ष 2002 में (पहला दौर), वर्ष 2006 में  (दूसरा दौर), और 2009 (तीसरा दौर) में। पारिवारिक सर्वेक्षण डेटा के अलावा, हम वर्ष 2011 में स्कूलों के दौरों और समूह के यादृच्छिक रूप या रैंडम तरीके से चयनित उप-नमूने के प्राचार्यों के साथ साक्षात्कार के माध्यम से एकत्र किए गए अलग स्कूली शिक्षा डेटा का भी इस्तेमाल करते हैं।

अनुभवजन्य परिणाम

हमारा मॉडल दर्शाता है कि संपत्ति का एक महत्वपूर्ण स्तर होगा जिसके ऊपर के माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजते हैं। लेकिन संपत्ति का यह महत्वपूर्ण स्तर विभिन्न जाति समूहों के लिए अलग-अलग है, विशेष रूप से, उच्च जाति {Wc(H)} के लिए महत्वपूर्ण संपत्ति निम्न जाति {Wc(L)} की तुलना में कम है। आकृति-1 में उच्च और निम्न जाति के माता-पिता द्वारा लिए गए निर्णयों को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है।

आकृति-1. उच्च और निम्न जातियों की संपत्ति का महत्वपूर्ण स्तर 

अनिवार्य रूप से, यह आकृति दर्शाती है कि उच्चतम और निम्नतम संपत्ति समूह से संबंधित लोगों के लिए जाति की पहचान कोई मायने नहीं रखती है- अमीर माता-पिता (आंकड़े में एक निश्चित महत्वपूर्ण संपत्ति {Wc(L)} से अधिक संपत्ति वाले माता-पिता) अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजते हैं। और गरीब माता-पिता {Wc(H)} से कम संपत्ति वाले माता-पिता), चाहे उनकी जाति कोई भी हो, अपने बच्चों को सार्वजनिक स्कूलों में भेजते हैं। केवल मध्यम आय वर्ग के माता-पिता ऐसे हैं (जिनकी संपत्ति का स्तर दो महत्वपूर्ण संपत्ति स्तरों के बीच का है), जिनके लिए स्कूल के प्रकार का चयन करने में जाति की पहचान मायने रखती है। इस समूह के माता-पिता के पास अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने के लिए आवश्यक संपत्ति तो है, लेकिन वंचित जातियों के बच्चों को श्रम बाज़ार से जो रिटर्न मिलता है, वह निजी स्कूलों में स्कूली शिक्षा पर पैसा खर्च करने के निर्णय को उचित नहीं ठहराता है। हम अपने अनुभवजन्य खंड में, स्कूल की पसन्द को ‘नियंत्रित’ करते हुए, माता-पिता की संपत्ति और जाति के साथ-साथ अन्य पारिवारिक चर या वेरिएबलज़ (जैसे कि माता-पिता की शिक्षा, परिवार का आकार और परिवार का क्षेत्रीय स्थान) पर स्कूल प्रकार के चर का प्रतिगमन या रिग्रेशन करते हैं। हम संज्ञानात्मक परीक्षणों के अंकों द्वारा प्राप्त की गई छात्रों की क्षमता को भी ‘नियंत्रित’ करते हैं। संपत्ति समूहों को पांच क्विंटाइल में विभाजित करने पर, हम पाते हैं कि सबसे अमीर और सबसे गरीब (पांचवें और पहले क्विंटाइल) में जाति की पहचान का स्कूल के चुनाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन ‘इंटरमीडिएट’ क्विंटाइल (दूसरे, तीसरे और चौथे) में उच्च जाति के माता-पिता के निजी स्कूलों को चुनने की अधिक संभावना होती हैं। वैकल्पिक जाति और धन वर्गीकरण के संदर्भ में हमारे परिणाम ठोस हैं।

निष्कर्ष

हमारा विश्लेषण स्कूल चयन निर्णयों के संदर्भ में जाति और वर्ग के विवादास्पद मुद्दे पर प्रकाश डालता है। हम एक विश्लेषणात्मक रूपरेखा और अनुभवजन्य साक्ष्य प्रदान करते हैं जो इस परिकल्पना का समर्थन करता है कि, इस संदर्भ में जाति की पहचान मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए मायने रखती है, लेकिन अमीर और गरीब परिवारों के लिए नहीं।

यह निष्कर्ष शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम में भविष्य के सुधारों के लिए एक मज़बूत संकेत प्रदान कर सकता है। कुछ राज्यों में, आरटीई के ज़रिए सभी एससी और एसटी को उनकी संपत्ति की स्थिति पर विचार किए बिना निजी स्कूलों में कोटा की अनुमति दी गई है (श्रीवास्तव और नोरोन्हा 2014)। हमारा विश्लेषण दर्शाता है कि आरटीई के तहत, निजी स्कूलों में एससी/एसटी छात्रों के लिए आरक्षण तभी होना चाहिए, जब वे मध्यम आय वाले परिवारों से आते हों, जबकि कम आय वाले परिवारों के छात्रों के लिए उनकी जाति की पहचान के बिना भी आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। हमारी बाद की सिफारिश आरटीई के वर्तमान प्रावधान के अनुरूप है, जिसमें गरीबी रेखा से नीचे के माता-पिता, चाहे उनकी जाति कुछ भी हो, आरटीई कोटा का लाभ उठा सकते हैं। फिर भी, हमारे परिणामों को नीति निर्माण में अपनाते समय सावधानी बरतने की आवश्यकता है। हमारा अनुभवजन्य अध्ययन मध्य संपत्ति समूह की एक अनौपचारिक परिभाषा का उपयोग करते हुए एक सैद्धांतिक अनुमान दर्शाता है। नीतिगत उद्देश्य के लिए मध्यम वर्ग को परिभाषित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर के डेटा का उपयोग करके और  अधिक गहन शोध की आवश्यकता होगी।

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : सुकांत भट्टाचार्य, कुमारजीत मंडल और अनिर्बान मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। अपराजिता दासगुप्ता अशोका विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर हैं।

क्या आपको हमारे पोस्ट पसंद आते हैं? नए पोस्टों की सूचना तुरंत प्राप्त करने के लिए हमारे टेलीग्राम (@I4I_Hindi) चैनल से जुड़ें। इसके अलावा हमारे मासिक न्यूज़ लेटर की सदस्यता प्राप्त करने के लिए दायीं ओर दिए गए फॉर्म को भरें।

No comments yet
Join the conversation
Captcha Captcha Reload

Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.

संबंधित विषयवस्तु

समाचार पत्र के लिये पंजीकरण करें