अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में मार्च महीने में प्रस्तुत लेखों की श्रृंखला के इस द्वितीय शोध आलेख में लड़कियों और महिलाओं की लैंगिकता पर नियंत्रण की चर्चा है। बिहार में लड़कियों के बाल विवाह की प्रथा आज भी आम है। प्रियदर्शनी, जोशी और भट्टाचार्य ने इस लेख में, लड़कों और माता-पिता के अपने सर्वेक्षण के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं, जिसमें वे इस प्रवृत्ति के पीछे के सम्भावित कारकों को मापने के लिए 'महिलाओं और लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने और उन पर अपनी पसन्द थोपने की प्रवृत्ति' के लिए एक सूचकांक का निर्माण करते हैं। विशेष रूप से लड़कों के प्रतिगामी विचारों को उजागर करते हुए, वे स्कूल और सामुदायिक स्तर पर लैंगिक संवेदनशीलता की वकालत करते हैं।
एक युवक अपनी पत्नी के साथ मोटरसाइकिल पर जा रहा था। एक पुलिसकर्मी ने उसे रोकते हुए उसका लाइसेंस देखना चाहा। लेकिन युवक अपना लाइसेंस घर पर ही भूल गया था। नाराज़ पुलिसकर्मी ने जवाब दिया, " जिस चीज़ को घर पर होना चाहिए वह घूम रही है और जिसे बाहर होना चाहिए, वह घर में पड़ी हुई है!"
यह किस्सा बिहार के सुपौल जिले के 17 साल के एक लड़के ने सुनाया। वह बिहार में कम उम्र में विवाह की व्यापकता पर हमारे अध्ययन के हिस्से के रूप में एक फोकस समूह चर्चा (एफजीडी) में भाग ले रहा था। अध्ययन दल की धारणा के विपरीत, चर्चा में भाग लेने वाले 12 लड़कों में से किसी ने भी पत्नी को 'घर की चीज़' कहने के लिए पुलिसकर्मी की निंदा-आलोचना नहीं की। बल्कि, लड़कों की आम प्रतिक्रिया यह थी कि पुलिसकर्मी ने सही कहा था कि उस युवक को पत्नी के साथ नहीं घूमना चाहिए था। पत्नी को घर पर ही रहना चाहिए था।
बिहार में एक अध्ययन
वर्ष 2021 में बिहार में बाल विवाह की व्यापकता पर किए गए हमारे अध्ययन के परिणामों में ऐसी प्रतिक्रियाएं असामान्य नहीं थीं। इस अध्ययन में बिहार के 12 जिलों के कुल 12,690 लोगों ने भाग लिया था। उनमें से 7,200 युवा थे, जिनमें 14 से 24 साल की उम्र की लड़कियाँ और युवतियाँ तथा 16 से 26 साल की उम्र के लड़के और युवक शामिल थे। इसके अलावा, 3,600 माता-पिता (या प्राथमिक संरक्षकों) और 1,800 सामुदायिक नेताओं (या सहायक संरक्षकों) ने भी इस अध्ययन में भाग लिया।
हमारे शोध में मिश्रित-तरीके का दृष्टिकोण अपनाया गया, जिसमें मात्रात्मक और गुणात्मक यानी क्वांटिटेटिव और क्वालिटेटिव, दोनों तरीके शामिल थे। इस अध्ययन के लिए गुणात्मक डेटा गहन साक्षात्कार और फोकस समूह चर्चा, एफजीडी, के माध्यम से एकत्र किया गया था और मात्रात्मक साक्ष्य प्राप्त करने के लिए बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण किया गया था। सर्वेक्षण में 'संरक्षकों' (माता-पिता और समुदाय के नेताओं) ने केवल गहन साक्षात्कार में भाग लिया, जबकि युवाओं ने केवल एफजीडी में भाग लिया। 12 अध्ययन जिलों में से प्रत्येक में, लड़कियों के लिए एक एफजीडी और लड़कों के लिए एक अलग एफजीडी आयोजित किया गया था।
महिलाओं और लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने और उन पर पसन्द थोपने की प्रवृत्ति
हमारा अनुमान है कि महिलाओं और लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने और उन पर पसन्द थोपने की प्रवृत्ति (टेन्डेन्सी टु कन्ट्रोल विमेन एंड गर्ल्स सेक्सुअलिटी एंड एसर्शन ऑफ़ चॉइस- टीसीजीएसएसी) एक प्रमुख कारक है जो बाल विवाह के प्रसार को प्रभावित करती है। हमने अपने अध्ययन में, ‘टीसीजीएसएसी’ को एक ‘एडिटिव इंडेक्स’ या प्रवृत्ति संकेतक के रूप में गढ़ा, जिसमें निम्नलिखित धारणा संकेतक शामिल हैं- क्या लड़कियों को यह चुनने का अधिकार होना चाहिए कि वे किससे शादी करें? क्या एक विवाहिता को स्वयं यह निर्णय लेना चाहिए कि यदि उसकी पहली संतान लड़की है तो उसे दूसरा बच्चा पैदा करना है या नहीं? क्या पुरुष ही यह निर्णय लेता है कि उसे पत्नी के साथ यौन सम्बन्ध कब बनाना है? क्या महिला का पति जब भी यौन सम्बन्ध बनाना चाहे, उसे हमेशा तैयार रहना चाहिए? क्या किसी भी यौन सम्बन्ध में गर्भधारण से बचना महिला की ज़िम्मेदारी है? क्या महिला को यौन सम्बन्ध की पहल नहीं करनी चाहिए? क्या महिलाओं को घर से बाहर अकेले नहीं जाना चाहिए? क्या ऐसी महिला जो लड़के को जन्म नहीं देती, उसे कम महत्त्व दिया जाना चाहिए? क्या लड़कियों को शादी से पहले अपने परिवार के बाहर के लड़कों के साथ परिचय रखना चाहिए? और क्या महिला बच्चे को जन्म देने के बाद ही वास्तविक महिला होती है? इन संकेतकों को 1 से 5 के पैमाने पर मापा गया, जिसमें 1 को 'दृढ़ता से सहमत' और 5 को 'दृढ़ता से असहमत' के रूप में माना गया।
इस अध्ययन का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह था कि, संरक्षकों (माता, पिता, समुदाय के नेता) और युवाओं (अविवाहित और विवाहित लड़कियों, अविवाहित और विवाहित लड़कों) की सभी श्रेणियों में, टीसीजीएसएसी प्रवृत्ति अविवाहित लड़कों में सबसे अधिक पाई गई (100 में से 52.4 में यह प्रवृत्ति प्रदर्शित हुई)। इस समूह में पितृसत्तात्मक मानदंडों में विश्वास भी अधिक पाया गया। उदाहरण के लिए, जहानाबाद जिले के लड़कों का मानना था कि माता-पिता को अपने विवाहित बेटों के परिवार नियोजन मामलों से संबंधित निर्णय लेने का अधिकार है। इसी तरह 12 एफजीडी में से तीन में, लड़कों ने कहा कि वे उम्मीद करेंगे कि उनकी पत्नियाँ घर पर रहें, उनके परिवार के लिए खाना पकाएं और उनके बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल करें। उनके लिए, जल्दी शादी का मतलब परिवार के लिए जल्दी खाना पकाने वाला व्यक्ति परिवार में होना भी था।
अध्ययन के गुणात्मक परिणामों से टीसीजीएसएसी के प्रति प्रतिभागियों की प्रतिक्रियाओं का अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म प्रतिबिंब सामने आया। यह देखा गया कि अधिकांश संरक्षकों और लड़कों ने लड़कियों को नियंत्रित करने की प्रवृत्ति को ज़िम्मेदार पालन-पोषण के एक सामान्य और वांछनीय लक्षण के रूप में माना। उन्होंने अपनी और परिवार की प्रतिष्ठा के लिए लड़कियों की 'पवित्रता' के महत्व पर ज़ोर दिया।
डिजिटल स्थानों और शिक्षा तक लड़कियों की पहुँच
विशेष रूप से, डिजिटल (सार्वजनिक) स्थान पर लड़कियों की उपस्थिति को कुछ संरक्षकों द्वारा चिंता का विषय माना गया। सीतामढी जिले के एक समुदाय के नेता ने गहरी चिंता व्यक्त की कि भले ही लड़कियों को बाहर जाने से रोका जा सकता है, "वे फेसबुक और इंस्टाग्राम के बाज़ार और चौक-चौराहों पर मौजूद हैं...और यह अधिक खतरनाक है।" लड़कियों ने भी सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को लेकर अपनी चिंता साझा की क्योंकि उनके कुछ साथी भाग गए थे या उन्होंने ठीक से जाने बिना ही किसी व्यक्ति से शादी कर ली थी। लड़कियों को अक्सर ऐसे मामलों के जवाब में माता-पिता के दबाव का सामना करना पड़ता है, जहाँ उन्हें मोबाइल फोन का उपयोग करने से मना किया जाता है और कभी-कभी स्कूल छोड़ने के लिए भी मजबूर किया जाता है।
24 अभिभावकों से गहराई से बातचीत की गई, जिनमें से 15 ने बताया कि अपनी बेटियों को शिक्षा जारी रखने की अनुमति देने के बाद उन्हें संघर्ष का सामना करना पड़ा। सीतामढी में एक वरिष्ठ-माध्यमिक छात्रा की माँ ने अपनी बेटी को शिक्षा जारी रखने की अनुमति देने के बाद अपनी चिंता व्यक्त की, “मेरी बेटी ने कहा कि वह पढ़ेगी और नौकरी करेगी...वह अभी शादी नहीं करना चाहती है। तो, मैंने उससे कहा कि तुम पढ़ सकती हो, लेकिन तुम्हें 'अच्छा बनना' होगा। क्या करें...यह अच्छा समय नहीं है।“ सीतामढी के माता-पिता की तरह, अधिकांश माता-पिता ने लड़कियों को इस शर्त पर शिक्षा जारी रखने की 'अनुमति' दी थी कि वे 'अच्छी' और 'पवित्र' रहेंगी। फिर भी, वे लड़कियों को स्कूल/कॉलेज से न निकालने को लेकर शंकित और चिंतित थे।
हमारा अध्ययन विशेष रूप से माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की शिक्षा पर महामारी के प्रभाव पर उपलब्ध साक्ष्यों को भी प्रमाणित करता है, जिसमें अधिक लड़कियों ने बड़ी कक्षाओं में आने के बाद स्कूल छोड़ दिया। यह इंगित करता है कि, शौचालयों की खराब स्थिति और लड़कियों की सुरक्षा के बारे में चिंताओं के अलावा, लड़कियों द्वारा निर्धारित लैंगिक मानदंडों न मानने और ‘बॉयफ्रेंड’ बनाने का डर माता-पिता द्वारा बेटियों को स्कूल से निकालने के निर्णय के पीछे सबसे प्रासंगिक कारणों में से एक है।
हालाँकि माता-पिता ने शिक्षा की उपयोगिता को उच्च माना, लेकिन वे अपने बच्चों को शिक्षा पर समय बिताने के लिए प्रोत्साहित करते नहीं दिखे। हमारे सर्वेक्षण के परिणामों से पता चला कि लगभग 58% लड़कियों और 50% लड़कों ने स्कूल के बाहर पढ़ाई पर एक घंटा भी नहीं बिताया। गुणात्मक आँकड़ों से संकेत मिलता है कि माता-पिता सहित अधिकांश संरक्षकों ने लड़कियों की शिक्षा से अधिक उनकी शादी को प्राथमिकता दी। माता-पिता का सबसे आम तर्क यह था कि शिक्षित लड़की के लिए दूल्हा ढूँढ़ना अधिक कठिन होने के साथ-साथ, महंगा भी है, क्योंकि शिक्षित और अच्छी तरह से स्थापित दूल्हे अधिक दहेज की मांग करते हैं। इसके अलावा, उन्होंने लड़कियों की शिक्षा और उनके सशक्तिकरण के बीच सकारात्मक सम्बन्ध पर भी अपनी चिंता व्यक्त की। एक अभिभावक ने तर्क दिया कि शिक्षित लड़कियाँ राय बनाना शुरू कर देती हैं, जो उनके विचार में 'गलत' और 'असभ्य' है।
संरक्षकों और लड़कों ने दावा किया कि हाशिए पर स्थित जाति समुदायों में, परिवार आमतौर पर नहीं जानते कि लड़कियों को कैसे नियंत्रित किया जाए। बाल विवाह की व्यापकता से संबंधित सवालों पर संरक्षकों की प्रतिक्रिया में जाति का सन्दर्भ भी सामने आया। अधिकांश माता-पिता ने इस बात पर ज़ोर देकर कहा कि बाल विवाह उनके समुदाय में नहीं होता है और यह केवल उन समुदायों में होता है जिन्हें वे ‘निम्न’ या ‘छोटी जाति’ कहते हैं, या ऐसे समुदाय जो बेहद गरीब हैं और जिनके पास लड़कियों की गतिशीलता और लैंगिकता को नियंत्रित करने के लिए ठीक से संस्कृति या साधनों का अभाव है।
लैंगिक संवेदनशीलता की आवश्यकता : स्कूलों और समुदाय की भूमिका
‘टीसीजीएसएसी’ के उच्च प्रसार पर अध्ययन के परिणाम लैंगिक मुद्दों पर लड़कों को संवेदनशील बनाने और लैंगिक अंतर को पाटने के उद्देश्य से उन्हें अन्य युवा समूहों के साथ शामिल करने की आवश्यकता को दोहराते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता स्कूली पाठ्यक्रम का एक अभिन्न अंग होना चाहिए और गाँव, पंचायत स्तर पर स्कूल न जाने वाले युवाओं के लिए विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए।
इस अध्ययन से यह भी पता चला कि माता-पिता की शैक्षिक उपलब्धि और माताओं का जीविका1 जैसे महिला समूहों के साथ जुड़ाव, युवाओं में पितृसत्तात्मक मानदंडों के प्रति कम निष्ठा से जुड़ा हुआ था। प्रतिभागियों की सभी श्रेणियों में, जीविका से जुड़े माध्यमिक संरक्षकों की ‘टीसीजीएसएसी’ सबसे कम थी। जीविका के सदस्यों ने प्रचलित लिंग-आधारित भेदभाव और लैंगिक अंतर को पाटने के उद्देश्य से प्रासंगिक नीतियों और अधिकारों की स्पष्ट समझ प्रदर्शित की। इसलिए, जीविका के सदस्य, पंचायत और स्थानीय समुदाय के नेताओं के साथ, युवाओं की लैंगिक संवेदनशीलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। यह बाल विवाह से संबंधित दमनकारी लैंगिक मानदंडों को बदलने में सहायक होगा और राज्य में बाल विवाह और दहेज की प्रथाओं को समाप्त करने के लिए सरकार के अभियान को मज़बूत करेगा।
टिप्पणी :
- जीविका, या बिहार ग्रामीण आजीविका परियोजना, बिहार सरकार द्वारा ग्रामीण महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में काम करने वाला एक कार्यक्रम है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : शुभा भट्टाचार्य सेंटर फॉर कैटालाइज़िंग चेंज (सी3) में लैंगिक समानता विशेषज्ञ हैं। मधु जोशी इसी संस्था, सेंटर फॉर कैटालाइजिंग चेंज में लैंगिक समानता और शासन की वरिष्ठ सलाहकार हैं और अनामिका प्रियदर्शनी वर्तमान में सेंटर फॉर कैटालाइजिंग चेंज के शोध प्रमुख के रूप में काम कर रही हैं।
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