हाल ही में वर्ष 2022-23 के लिए घोषित बजट को राजनीतिक अर्थव्यवस्था के चश्मे से देखते हुए, यामिनी अय्यर तर्क देती हैं कि महामारी के दौरान घोषित किये गए दोनों बजटों में कल्याण से ज्यादा पूंजीगत व्यय पर दिया गया जोर "बाजार के अनुकूल सुधारों" की ओर राजनीतिक आख्यान में बदलाव का सिलसिला मात्र है जो 2019 में मोदी सरकार के फिर से चुने जाने के साथ शुरू हुआ है।
वर्ष 2022-23 का बजट सरकार की राजकोषीय स्थिति पर महामारी के प्रभाव और नीतिगत विकल्पों को आकार देने वाले संदर्भ के बारे में एक दूर-दृष्टि रखने का अवसर प्रदान करता है। इस बजट की सुर्खियां बटोरने वाला शीर्षक- ‘पूंजीगत व्यय में 35% की वृद्धि’ है जो कल्याणकारी खर्च के बदले भौतिक बुनियादी ढांचे में अधिक से अधिक सार्वजनिक निवेश पर आधारित विकास की एक स्पष्ट नीति दिशा को दर्शाता है। महामारी के संदर्भ में इन विकल्पों के आर्थिक तर्क- घटती जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद), बढ़ती असमानता, लगातार बेरोजगारी पर व्यापक रूप से बहस की गई है जो इन पृष्ठों में शामिल है। लेकिन ये विकल्प एक महत्वपूर्ण राजनीतिक अर्थव्यवस्था पहेली भी पेश करते हैं। क्या सरकार ने अपने कल्याणकारी राजनीतिक आख्यान के मुद्दे को त्याग दिया है जो 2019 के चुनाव में हावी रहा? और इस विकल्प को चुनने के राजनीतिक कारण क्या हैं?
महामारी का प्रभाव
जैसा कि मैंने अपने पिछले साल के लेख में प्रकाश डाला था, केंद्र सरकार ने महामारी का सामना किया, जिसे रथिन रॉय ने एक मूक राजकोषीय संकट कहा है। यह संकट राजस्व लक्ष्यों को प्राप्त करने में इसकी लगातार विफलता (2019-20 में निवल कर राजस्व सकल घरेलू उत्पाद का 1.1% था, जो वर्ष के लिए बजट अनुमानों से कम था) के कारण और विनिवेश में विफलता के कारण था। अप्रत्याशित रूप से, राजस्व जुटाने की कमजोर क्षमता के चलते घोषित राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों को प्राप्त करने में लगातार गिरावट आई, जिसे सरकार ने ऑफ-बजट देनदारियों को बढ़ाकर 'प्रबंधित' किया।
फिर महामारी ने दस्तक दी। अपेक्षित रूप से सरकारी खर्च, विशेष रूप से सब्सिडी और मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम)1 पर, सकल घरेलू उत्पाद के 13.2% से बढ़कर 17.75% हो गया, राजस्व में भी कमी आई और राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 9.2% हो गया। हालांकि यह विचारणीय है कि वित्तीय गणित में असली छेद असफल विनिवेश से आया है! लेकिन महामारी भी वित्त मंत्रालय के लिए अपने राजकोषीय प्रबंध को आंशिक रूप से व्यवस्थित करने का एक अप्रत्याशित अवसर था। दुनिया भर में राजकोषीय घाटा बढ़ रहा था, महामारी के चलते उदारता तो आई। महामारी के प्रति भारत सरकार की राजकोषीय प्रतिक्रिया कुछ हद तक नरम होने के बावजूद, उसने अपनी ऑफ-बजट देनदारियों, विशेष रूप से भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के खाद्य सब्सिडी से संबंधित ऋणों को खाता-बहियों में वापस लाने के अवसर का उपयोग किया। एफसीआई की बकाया राशि को चुकाने के लिए राष्ट्रीय लघु बचत कोष में 1.5 लाख करोड़ रुपये का एकमुश्त भुगतान किया गया। इस लेखा-शोधन (क्लीन-अप) के कारण सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.7% राजकोषीय घाटे में जुड़ गया।
महामारी के एक साल के दौरान घातक दूसरी लहर के बावजूद, सरकार व्यय संकुचन के माध्यम से राजकोषीय समेकन की राह पर चल पड़ी। कर राजस्व में मामूली सुधार के बावजूद, वित्तीय वर्ष 2021-22 में सरकारी व्यय का पिछले वित्त वर्ष की तुलना में सकल घरेलू उत्पाद के 1.5% तक संकुचन, जबकि राजकोषीय घाटा वित्त वर्ष 2021-22 में तेजी से घटकर 6.9% होने की उम्मीद है। बेशक, विनिवेश लक्ष्य, जो उल्लेखनीय रूप से महत्वाकांक्षी थे, बस लक्ष्य ही रह गए | एयर इंडिया की बिक्री के बावजूद, 1 लाख करोड़ रुपये की कमी के उच्च स्तर पर है।
जैसा कि सरकार का तर्क है, वर्ष 2021 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सुधार हो रहा था और इसलिए व्यय का दबाव कम था और राजकोषीय समेकन आवश्यक था। लेकिन वास्तविकता यह है कि आर्थिक संकट तीव्र बना हुआ है जो मनरेगा के तहत बढ़ी हुई मांग से देखा जा सकता है। और मौजूदा खर्च का स्तर जमीनी स्तर की वास्तविकताओं को सुधारने के लिए पर्याप्त नहीं है। उदाहरण के लिए, मनरेगा हेतु अपूर्ण रही मांग का स्तर उच्च बना हुआ है। फरवरी 2021 में, काम की मांग करने वाले 77 लाख परिवारों को अभी तक काम नहीं मिला था (कपूर एवं अन्य 2022, भारत सरकार, 2022)।
इसके अलावा, कई महत्वपूर्ण योजनाएं जो बुनियादी सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करती हैं– जैसे शिक्षा, पोषण, यहां तक कि प्रमुख पेयजल योजना जल जीवन मिशन- हेतु इस वित्तीय वर्ष में खर्च में देरी या कमी हुई है। इसका एक कारण यह भी है कि इनके लिए बजट में राशि उपलब्ध नहीं करायी गई। नीति अनुसंधान केंद्र (सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च) द्वारा की गई जवाबदेही पहल की गणना से पता चलता है कि इन प्रमुख योजनाओं के लिए दिसंबर 2021 तक वर्ष के वार्षिक बजटीय आवंटन का केवल आधा ही जारी किया गया था। राजस्व में मामूली सुधार के बावजूद, इनमें से कई महत्वपूर्ण योजनाओं के लिए वित्त वर्ष 2021-22 के लिए संशोधित अनुमान इस प्रकार वर्ष की शुरुआत में बजट अपेक्षाओं की तुलना में कम हैं।
आर्थिक सुधार के एक मार्ग के रूप में राजस्व व्यय से अधिक पूंजीगत व्यय में निवेश करने का नीतिगत विकल्प वर्ष 2021-22 के बजट में भी दिखाई दे रहा था। वित्तीय वर्ष 2022-23 में, प्राथमिकताओं में यह बदलाव तेज हो गया है। कुल व्यय जीडीपी के 16.24% से घटकर 15.29% हो जाएगा। साथ ही पूंजीगत व्यय में निवेश राजस्व व्यय में उल्लेखनीय संकुचन करके किया गया है।
संक्षेप में, महामारी के संदर्भ में और उच्च राजकोषीय घाटे के आंकड़ों के बावजूद, सरकार महामारी के माध्यम से अपने राजकोषीय रुख में लगातार रूढ़िवादी रही है। पहले साल में विस्तार के बाद से राजकोषीय मजबूती पर जोर दिया गया है। विशेष रूप से विनिवेश के माध्यम से राजस्व जुटाने में बार-बार मिल रही विफलता को देखते हुए, शायद यही एकमात्र विकल्प था कि राजस्व बढ़ाने हेतु उसे दोगुना करने के बजाय व्यय में संकुचन के माध्यम से समेकन के रास्ते पर चलना शुरू कर दिया जाए। यह इस तथ्य में दिखाई देता है विकास की उम्मीद और वित्तीय वर्ष 2021-22 में बजट कर राजस्व से अधिक होने के बावजूद कि वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए राजस्व लक्ष्य वित्तीय वर्ष 2021-22 के इन संशोधित अनुमानों की तुलना में मामूली कम है। विनिवेश के लक्ष्य और भी कम हैं, यह एक गंभीर स्मरण है कि सरकार ने अपनी क्षमता विफलताओं को दूर करने के लिए सब कुछ छोड़ दिया है।
फलस्वरूप, वित्त मंत्री द्वारा "निजी निवेश को बढ़ाने हेतु सार्वजनिक पूंजी निवेश पर निर्भर रहना है" यह उद्धृत करना, कल्याण व्यय में कटौती करने की अनुमति देना है जो पसंदीदा नीति साधन के लिए जगह बनाने का एकमात्र तरीका है। हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि पूंजीगत व्यय पर खर्च करना आसान नहीं है। इससे रोजगार का निर्माण तुरंत नहीं होता है। इस पर विचार करें। नवंबर 2021 में, बजटीय पूंजीगत व्यय का केवल 49.4% खर्च किया गया था। दिसंबर में आंशिक रूप से एयर इंडिया की देनदारियों के कारण यह बढ़कर 70.7% हो गया। बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की हकीकत से वाकिफ लोगों को इससे हैरानी नहीं होगी। सच्चाई यह है कि 'बैड बैंक' और परिसंपत्ति मुद्रीकरण पाइपलाइन के वादे के बावजूद, नई बुनियादी ढांचा परियोजनाएं पूंजी-गहन और धीमी गति से शुरू होती हैं। कोविड-19 के कहर की पृष्ठभूमि के संदर्भ में बेरोजगारी, मुद्रास्फीति और घटती आय पर विचार किया जाए तो- तत्काल धन की आवश्यकता वाले और रोजगार को बढ़ानेवाले मनरेगा, शिक्षा और स्वास्थ्य- जैसे क्षेत्रों पर खर्च करने की अपेक्षा पूंजीगत व्यय को प्राथमिकता देने का विकल्प चुना जाना गलत भी है और कड़ा भी है।
राजनीतिक अर्थव्यवस्था की पहेली
महामारी में कल्याणकारी घोषणाओं से अधिक पूंजीगत व्यय पर लगातार जोर देना एक महत्वपूर्ण राजनीतिक अर्थव्यवस्था की पहेली को जन्म देता है। प्रधान मंत्री मोदी के पहले कार्यकाल में, विशेष रूप से 2017 के बाद, कल्याणकारी राजनीति जोर-शोर से दिखाई दे रही थी। उज्जवला2, स्वच्छ भारत3, पीएम किसान4, आयुष्मान भारत5- ये सभी योजनायें बजट भाषणों में तालियों की गड़गड़ाहट के साथ अपनी जगह बनाती रहीं और इन योजनाओं ने 2019 के चुनावी आख्यान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन ये कल्याणकारी बातें चुनाव के संदर्भ में प्रभावशाली होने के बावजूद, ऐसी 'सुधारवादी' प्रतिमा के पीछे छिपी थीं, जिन्हें कैंडिडेट मोदी ने वर्ष 2014 के चुनाव अभियान के दौरान "अधिकतम शासन, न्यूनतम सरकार" जैसे नारों के साथ बहुत सावधानी से गढ़ा था।
वर्ष 2019 में सत्ता में वापस आने के बाद से, सितंबर 2019 में कॉर्पोरेट कर दरों में कटौती के निर्णय के साथ ही, इस सुधारवादी छवि को पुनर्जीवित करने का ठोस प्रयास किया गया है। याद करें कि मई 2020 में राष्ट्रीय लॉकडाउन के चरम पर, एक उल्लेखनीय प्रत्यक्ष राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज के बीच, केंद्र सरकार ने कृषि अध्यादेशों और श्रम कानूनों में बदलाव जैसे तथाकथित "बाजार के अनुकूल सुधारों" की घोषणा की। "बाजार के अनुकूल सुधारों" को शुरू करने के अवसर के रूप में महामारी का उपयोग करने पर जोर देने के बावजूद इन्हें लागू करने में पूर्ण राजनीतिक विफलता को केवल राजनीतिक आख्यान में एक महत्वपूर्ण बदलाव के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। वास्तव में, उल्लेखनीय आर्थिक मंदी के बीच प्रस्तुत किया गया महामारी-पूर्व का वर्ष 2020-21 का बजट पीएम किसान, उज्ज्वला, खाद्य सब्सिडी- जैसी योजनाओं के लिए मांग प्रोत्साहन और कल्याण पर खर्च के लिए स्पष्ट रूप से था– उसे भी पहले से ही संकुचित (सीमित) किया गया था। महामारी के दौरान घोषित किये गए दो बजटों में कल्याण से अधिक पूंजीगत व्यय पर जोर दिया जाना, महज इस बदलाव की निरंतरता है जो मोदी सरकार के फिर से चुनाव के साथ शुरू हुई थी।
कल्याणवाद से दूर इस बदलाव के पीछे के राजनीतिक कम से कम नीतिगत स्तर के कारणों का कोई निश्चित मूल्यांकन करना मुश्किल है। शायद वर्ष 2019 के चुनाव में जीत और उसके बाद के वर्षों में, सरकार अपने वैचारिक एजेंडे को दोहरे स्तर से आगे बढ़ाने में सफल हो गई है, और इसने राजनीतिक आख्यान के लिए राजनीतिक स्थान खोल दिया है। आखिरकार यह प्रधान मंत्री के कार्यकाल के प्रारंभिक वर्षों में प्राथमिक जोर था जब "कारोबार में सुगमता", "अधिकार पर सशक्तिकरण", "अधिकतम शासन" का राजनीतिक बातों में दबदबा था। यह बिहार में चुनावी उलटफेर था जिसके परिणामस्वरूप "कल्याण पर जोर" दिया गया। तर्कसंगत रूप से, वर्ष 2019 की जीत ने "सुधार" और "विकास"- "सूट-बूट सरकार" के पक्ष में "कल्याणवाद" को कम करने का राजनीतिक अवसर पैदा किया। इसका मतलब यह नहीं है कि राजनीतिक लामबंदी के लिए भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) की रणनीति में ‘कल्याण’ अब महत्वपूर्ण नहीं रहा। वास्तव में, यह वैचारिक आशय (कल्पना) के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा है जो चुनावी आख्यान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुआ है। हालाँकि, यह संभावना है कि भाजपा को विश्वास है कि उसकी कल्याण संबंधी साख, अब विशेष रूप से जमीनी स्तर पर काफी मजबूत हो चुकी है, जो "डबल इंजन" के एक नए आख्यान को गढ़ सकती है: जनता के कल्याण के अब पुरे किये गए वादे और निजी पूंजी के लिए एक नई "सुधारवादी" छवि के रूप में। क्या कोई यह अनुमान लगा सकता है कि यह डबल इंजन देश के पांच महत्वपूर्ण राज्यों के होनेवाले चुनावों में चुनावी लाभ दिलाएगा, लेकिन महामारी के संदर्भ और दृश्यमान आर्थिक संकट से पता चलता है कि आने वाले वर्षों में कोविड-19 का कहर और गहराने की संभावना है।
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टिप्पणियाँ:
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- स्वच्छ भारत मिशन एक राष्ट्रव्यापी अभियान है जिसका उद्देश्य बड़े पैमाने पर व्यवहार परिवर्तन, घरेलू स्वामित्व वाले और समुदाय के स्वामित्व वाले शौचालयों के निर्माण और शौचालय निर्माण और उपयोग की निगरानी के लिए तंत्र स्थापित करके ग्रामीण क्षेत्रों में खुले में शौच को समाप्त करना है।
- पीएम किसान केंद्र सरकार की एक योजना है जिसके तहत सभी भूमिधारक किसान परिवारों को प्रति वर्ष तीन समान किश्तों में 6,000 रुपये की आय सहायता दी जाती है।
- आयुष्मान भारत केंद्र सरकार का राष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा कोष है जिसका उद्देश्य देश में कम आय वाले लोगों को मुफ्त में स्वास्थ्य बीमा कवरेज प्रदान करना है, और मोटे तौर पर, देश के निचले स्तर के 50% लोग इस योजना के लिए पात्र हैं।
लेखक परिचय: यामिनी अय्यर सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर), नई दिल्ली की अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी हैं।
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