मुद्रा तथा वित्त

बैंकिंग संकट का भारत की अर्थव्यवस्था पर असर

  • Blog Post Date 11 नवंबर, 2019
  • दृष्टिकोण
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Rajeswari Sengupta

Indira Gandhi Institute of Development Research

rajeswari@igidr.ac.in

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Harsh Vardhan

Management Consultant and Researcher

harshv89@yahoo.com

पिछले पांच वर्षों में, भारतीयों बैंकों के नॉन पर्फॉर्मिंग एसेट (एनपीए) अर्थात डूबे हुए कर्ज की रकम में काफी वृद्धि हुई है। इन नॉन पर्फॉर्मिंग एसेट के साथ निवेश वृद्धि दर में भी तेज गिरावट दर्ज की गयी है, आर्थिक मंदी भी है। इस पोस्ट में, राजेश्वरी सेनगुप्ता और हर्ष वर्धन ने सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों के साथ जुड़ी गहरी संरचनात्मक समस्याएँ जो मौजूदा एनपीए संकट का कारण बन रही हैं, पर चर्चा की है। साथ ही इसके समाधान पर भी चर्चा की गई है।

 

पिछले पांच वर्षों से, भारत का बैंकिंग क्षेत्र बेहद मुश्किल हालात से गुजर रहा है। बैंकों के डूबे हुए कर्ज यानि एनपीए में भारी वृद्धि हुई है। अगर अनुपात देखें तो बैंकों का दिया हुआ कुल कर्ज का 11 फीसदी से ज्यादा हिस्सा एनपीए बन चुका है, जो कि अपने चरम पर है। जब तक एनपीए संकट सामने नहीं आया था, तब तक बैंकों ने अर्थव्यवस्था के वाणिज्यिक ऋण में 90% से अधिक का योगदान दिया था। परिणाम स्वरूप, बैंकिंग के किसी भी नुकसान का प्रभाव अर्थव्यवस्था पर गहरा और लंबे समय तक चलने वाला होगा।

हाल के एनपीए संकट के साथ-साथ निवेश वृद्धि दर में तेज गिरावट और तीव्र आर्थिक मंदी भी आई है। संकट के लिए जिम्मेदार कई कारकों में से एक अहम वजह सिस्टम में सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों का प्रभुत्व है। भारत में, बैंकों द्वारा दिए गए कुल कर्ज में से 70% हिस्सेदारी सरकारी स्वामित्व वाले बैंक या सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) की है। हाल के बैंकिंग संकट के दौरान, ये बैंक निजी और विदेशी बैंकों के मुकाबले ज्यादा प्रभावित हुए थे और कुल एनपीए का 90% हिस्सा इन्हीं बैंकों के खाते में था। पीएसबी को इन डूबे हुए कर्जों के लिए प्रावधान करना पड़ा जिससे इनकी पूंजि में कमी आयी है।

सरकार को बैंकों को पूंजि देनी पड़ी। 2008-09 के बाद से सरकार ने पीएसबी में कुल 3 ट्रिलियन रुपये (अमरीकी $42 बिलियन) की पूंजि लगाई है। यह आंकड़ा भारत की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के 2% के बराबर है। ऐसी सरकार, जो राजस्व को बेहतर करने के लिए प्रतिबद्ध है, उसके लिए ये एक गंभीर आर्थिक बोझ है।

1969 में बैंक राष्ट्रीयकरण के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आए इन पीएसबी के साथ कई संस्थागत मुद्दे हैं। पहले 25 वर्षों तक, 90% से अधिक की हिस्सेदारी के साथ, पीएसबी ने भारतीय बैंकिंग में एकाधिकार का आनंद लिया है। इनके अलावा, केवल वे बैंक राष्ट्रीयकरण करने के लिहाज से काफी छोटे थे जो पुराने निजी बैंक और कुछ अन्य विदेशी बैंक थे।

इस अवधि के दौरान, सरकारी स्वामित्व के तहत पीएसबी की समरूपीकरण हुआ। प्रबंधन संरचना और मुआवजों एवं शासन सहित मानव संसाधन नीतियों को मानकीकृत किया गया। बैंकों में वरिष्ठ प्रबंधन का ऐसा पूल बना जो आसानी से एक बैंक से दूसरे बैंकों के बीच बदले जा सकते थे। इस प्रक्रिया के अंत में, 25 से अधिक विभिन्न नामों के साथ पीएसबी एक इकाई के रूप में संचालित होने लगे।

1991 में, भारत ने आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण शुरू किया। उदारीकरण के विभिन्न उपक्रमो के तहत निजी क्षेत्र में नए बैंक लाइसेंस जारी किए गए, जिन्होंने 1990 के दशक के मध्य में काम करना शुरू किया। 2000 के शुरुआत तक, वे पीएसबी के लिए विश्वसनीय प्रतियोगी के रूप में उभरे। जैसे ही नए निजी बैंकों ने पीएसबी को चुनौती देना शुरू किया, सरकारी नियंत्रण में रह कर तीन दशकों में पीएसबी में आई कमजोरियां सामने आने लगी। उनके लिए प्रतियोगिता में टिक पाना आसान नहीं रह गया था।

पीएसबी का प्रशासन बद्तर हाल में है। इन बैंकों के बोर्ड कमजोर हैं और वे बहुत थोड़ा निरीक्षण प्रदान करते हैं। सरकारी स्वामित्व की वजह से बैंक राजनेताओं और नौकरशाहों के प्रभाव में आते हैं। करीबियों को लोन दिलाने के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप होता है जो एक गंभीर समस्या है, यह खासकर ऐसा आधारभूत ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं में होता है, जहां कर्ज लेने वालों के सरकार से अच्छे संबंध हैं ।

पीएसबी को सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करने का जरिया भी बनाया जाता है। इससे बैंकों का आंतरिक प्रशासन कमजोर होता है। पिछले कुछ वर्षों में, सरकार ने दो योजनाओं को आक्रामक तरीके से लागू किया है - जन धन योजना और मुद्रा (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी) योजना।

पहली दायित्व वाली योजना है, जिसके तहत न्यूनतम बैलेंस जैसी कुछ शर्तों के साथ उन ग्राहकों के लिए बैंक खाता खोला जाता हैं, जिनके पास कोई बैंक खाता नहीं है। दूसरी योजना सूक्ष्म और लघु उद्यमों के लिए उधार योजना है। हालांकि इन दोनों योजनाओं के इरादे नेक हैं, लेकिन उनकी व्यावसायिक व्यवहारिकता पर नाममात्र ही ध्यान दिया गया है। व्यवसायों में बिना किसी विश्वसनीय मामले के पीएसबी उन्हें लागू कर रहा है।

पीएसबी में जोखिम प्रबंधन के पर्याप्त समाधान नहीं होते। जोखिम प्रबंधन टीम द्वारा पूरी तरह से जांच किए बिना ही बड़े ऋण सीधे बैंकों के बोर्ड को प्रस्तुत कर दिए जाते हैं। जबकि अच्छी तरह से संचालित निजी बैंकों में जोखिम प्रबंधन सामान्य प्रक्रिया है। अधिकांश पीएसबी में जोखिम प्रबंधन दल कमजोर होते हैं।

मालिक और प्रबंधक के रूप में सरकार का जो दृष्टिकोण है वो पीएसबी की चुनौती का मूल कारण है। इन बैंकों से अपेक्षा की जाती है कि वे ग्राहकों का सामना करते समय प्रतिस्पर्धी वाणिज्यिक संस्थाओं की तरह व्यवहार करें और बाकी कामकाज में सरकारी विभागों की तरह व्यवहार करें। पीएसबी के प्रतिस्पर्धी होने के लिए, सब को अपनी रणनीति विकसित करने और ग्राहक-खंडों के साथ भौगोलिक रूपरेखा और उत्पादों को प्राथमिकता देने की जरुरत है। सरकारी स्वामित्व के तहत ऐसा करना मुश्किल है, क्योंकि सरकार सबको समान रूप से देखती है।

इन सभी संरचनात्मक समस्याओं का परिणाम मौजूदा गंभीर एनपीए संकट के रुप में सामने आया है।

पीएसबी डूबे हुए ऋण को वापस पाने में असमर्थ है। आंशिक रुप से इसका कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकरों को ऋण वसूल करने के लिए प्रोत्साहन की कमी हैं और साथ हीं  हतोत्साहित करने की वजहें ज्यादा हैं। व्यावसायिक रूप और कुशल तरीके से डूब रहे ऋण की उगाही करने पर अनियमितता के आरोप लग सकते हैं जो बैंकरों को गंभीर व्यक्तिगत परेशानी में डाल सकते हैं। दूसरी ओर, डूबने वाले कर्जे को पहचानने में देरी करना और किसी भी कारोबारी निपटारे से बचना अपेक्षाकृत सुरक्षित विकल्प है। नतीजतन, पीएसबी अधिकारियों को जल्द ऐसी समस्याओं का हल निकालने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलता है।

सरकारी बैंकिंग नियामक के रूप में, भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) को सरकारी बैंकों को अनुशासित, विनियमित और उनका पर्यवेक्षण करने की आवश्यकता होती है। आरबीआई ने पीएसबी की देखरेख में ढिलाई बरती है। इसने एनपीए संकट को और बढ़ा दिया, क्योंकि आरबीआई ने बैंकों को विभिन्न पुनर्गठन योजनाओं के माध्यम से बुरे लोन की ओर से नजरें फेर लेने दिया है।

भारत सरकार ने हाल ही में पीएसबी के विलयन के लिए कदम उठाए हैं। यह पीएसबी की संख्या को कम करता है और उनके प्रशासन को आसान बनाता है। लेकिन यह खराब हो चुकी संस्थागत समस्याओं का हल नहीं देता है, जिसमें और अधिक मूल सुधारों की आवश्यकता है - जैसे निजीकरण। पीएसबी की तुलना में निजी क्षेत्र के बैंकों में एनपीए की समस्या कम गंभीर है।

भारत को असफल वित्तीय संस्थाओं में सुधार के लिए एक अच्छी तरह से परिभाषित रूपरेखा की आवश्यकता है। इस तरह की रुपरेखा का प्रस्ताव फाइनेंशियल रेजोल्यूशन एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस (एफ़आरडीआई) बिल द्वारा दिया गया था लेकिन सरकार द्वारा वापस ले लिया गया था। पीएसबी के निजीकरण से पहले, भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की परेशानियों को व्यापक शासन और बैंकिंग विनियमन सुधारों के माध्यम से हल करने की आवश्यकता है।

इस लेख का अंग्रेजी संस्करण पहली बार ईस्ट एशिया फोरम पर प्रकाशित हुआ था: https://www.eastasiaforum.org/2019/10/03/banking-crisis-impedes-indias-economy/ 

लेखक परिचय: डॉ. राजेश्वरी सेनगुप्ता मुंबई (भारत) में स्थित इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर) में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं। डॉ. हर्ष वर्धन बैन एंड कंपनी (एक मैनेजमेंट कंसल्टिंग फर्म) के वरिष्ठ सलाहकार हैं। वह मुंबई में एस.पी. जैन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड रिसर्च (एसपीकेआईएमआर) में सेंटर फॉर फाइनेंशियल स्टडीज (सीएफ़एस) में कार्यकारी-इन-रेजिडेंस भी हैं। 

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