वर्ष 2022-23 के पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण के तहत जारी एक तथ्य पत्रक के बाद भारत में गरीबी पर बहस फिर से शुरू हो गई है। इस लेख में घटक और कुमार उल्लेख करते हैं कि शोधकर्ताओं में आम सहमति है कि देश में अत्यधिक गरीबी 5% से कम है। घटक और कुमार इस बात का गहराई से अध्ययन करते हैं कि गरीबी रेखा का निर्धारण कैसे किया जाता है तथा निष्कर्ष निकालते हैं कि गरीबी रेखा की गणना के लिए आवश्यक विस्तृत आँकड़ों के अभाव में, अत्यधिक गरीबी के अनुमानों के बारे में संदेह बना रहेगा।
उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों के आँकड़ों के अभाव में, जो 2011-12 और 2022-23 के बीच अप्रकाशित रहे, भारत में गरीबी के बारे में बहस अधर में लटकी हुई जान पड़ती है। हालांकि, राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) के फरवरी 2024 के ‘घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण : 2022-23 तथ्य पत्रक (फैक्टशीट)’ जारी होने से इस दिशा में एक नया प्रोत्साहन मिला। यह दस्तावेज़ सर्वेक्षण डेटा की इकाई-स्तरीय रिलीज़ जितना विस्तृत नहीं है, लेकिन यह अगस्त 2022 और जुलाई 2023 के बीच की अवधि के लिए ग्रामीण और शहरी भारत में उपभोग वितरण के विभिन्न वर्गों के सन्दर्भ में प्रति-व्यक्ति व्यय की सारणियाँ प्रदान करता है। इन तालिकाओं के आधार पर कई शोधकर्ताओं ने अत्यधिक गरीबी की सीमा निर्धारित करके गरीबी का अनुमान लगाया है (जैसे कि विश्व बैंक का सुप्रसिद्ध 2.15 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति दिन, जो 2017 क्रय शक्ति समता- पीपीपी पर आधारित है) और यह जानने की कोशिश की है कि जनसंख्या का कितना हिस्सा इस सीमा से नीचे रहता है।
भारत में अत्यधिक गरीबी का अनुमान- क्या यह 5% से कम है?
जारी जानकारी के समय और सीमा के चलते कुछ विवाद उत्पन्न हुए हैं क्योंकि पूरा सर्वेक्षण अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है और इसे आम चुनावों के तुरंत बाद जारी किया गया था। फिर भी, डेटा तो डेटा ही है और इसे विस्तार से खंगालना ज़रूरी है, और यह काम पिछले कुछ महीनों में हमारे सहित कई शोधकर्ताओं ने किया है। आम सहमति यह है कि भारत में गरीबी बहुत कम प्रतीत होती है। भारत की अंतिम राष्ट्रीय गरीबी रेखा, तेंदुलकर रेखा, का उपयोग करते हुए अत्यधिक गरीबी जनसंख्या के 5% से भी कम है। शोधकर्ताओं ने जिस प्रक्रिया से अनुमान यह लगाया है कि अत्यधिक गरीबी 5% से कम होनी चाहिए, वह सरल है- 2011-12 के लिए तेंदुलकर गरीबी रेखा लें और इसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के साथ बढ़ाएँ ताकि गरीबी रेखा के 2022-23 'समतुल्य' का पता चल सके। ये सीमाएँ जनसंख्या के निचले 5% के औसत उपभोक्ता व्यय से थोड़ी कम हैं। बेशक, इस समूह के भीतर भी भिन्नता है और इसलिए सटीक गणना अस्पष्ट है लेकिन इसके 5% से अधिक होने की सम्भावना नहीं है।1
यदि हम सर्वेक्षण में शामिल सबसे गरीब 5% परिवारों के व्यय पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में औसत मासिक व्यय 1,373 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 2,001 रुपये है, जिससे अखिल भारतीय औसत 1,600 रुपये निकलता है, जो कि गरीबी रेखा के लगभग बराबर है। क्योंकि 2011-12 में 22% आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी, इसलिए इन संख्याओं ने (कई लोगों को, लेकिन सभी को नहीं) इस निष्कर्ष पर पहुँचाया है कि पिछले दशक में गरीबी में काफी कमी आई है। कई लेखकों ने इतने लम्बे समय के बाद इस सर्वेक्षण की तुलना के बारे में संदेह जताया है, ख़ासकर इसकी सटीकता में सुधार के सम्बन्ध में और इस तथ्य के सम्बन्ध में भी कि ये सर्वेक्षण स्वयं सीपीआई की गणना में एक इनपुट हैं। लेकिन, फिलहाल हम इसे यथावत ही मान लेते हैं।
यदि भारत में गरीबी में इतनी तीव्र गिरावट आई है तो ऐसा गरीबी में कमी के अन्य वृहद-सहसम्बन्धों में अनुरूप परिवर्तन के अभाव के कारण है। ख़ासतौर पर, राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या रोज़गार में कृषि का स्थिर हिस्सा, या फिर श्रम बाजार में मजदूरी और रोज़गार की स्थिति, बहुत गतिशील अर्थव्यवस्था की तस्वीर पेश नहीं करते हैं।
इसकी एक व्याख्या वह है जिसे हम ‘आकस्मिक कल्याणवाद’ (घटक और कुमार 2024) कहते हैं- सरकार ने कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए कुछ ज़रूरी कल्याणकारी कदम उठाए, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध उदाहरण राशन प्रणाली के माध्यम से 8 करोड़ लोगों को मुफ्त चावल और गेहूँ का प्रावधान2 है, जो (कुछ उदारता/फीचर कम करते हुए) कई वर्षों बाद लागू हुआ और इसे अगले पाँच वर्षों के लिए बढ़ाए जाने की घोषणा की गई है। इसके कारणों का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। एक बार शुरू या विस्तारित किए जाने के बाद, पात्रता को वापस लेना हमेशा कठिन होता है, ख़ासकर तब जब कि जनसंख्या अनुपात और गरीबी रेखा के बारे में बहस के बावजूद, जनसंख्या के अधिकांश भाग की आर्थिक स्थिति किसी भी तरह से अच्छी नहीं है। ऐसे प्रावधान से गरीबों को अन्य मदों पर अपना खर्च बढ़ाने की सुविधा मिलती है, जो इस तथ्य पत्रक में दिए गए आँकड़ों के अनुरूप है।
गरीबी रेखा का निर्धारण
हालांकि, वर्तमान में सभी गरीबी अनुमानों की एक बुनियादी कमी यह है कि वे उचित रूप से परिभाषित गरीबी रेखा का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। सीपीआई (जिसकी गणना औसत परिवार के लिए की जाती है, न कि गरीबों के लिए) को यंत्रवत् लागू करके और विशेष रूप से यह देखते हुए कि एनएसओ के सर्वेक्षणों के बीच कितना समय बीत चुका है, यह सम्भव है कि गरीबों के सन्दर्भ में जीवन यापन की लागत को कम करके आंका जा रहा हो। उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण जीवन-स्तर के वितरण का अनुमान लगाने के लिए आवश्यक डेटा प्रदान करते हैं लेकिन न्यूनतम जीवन स्तर क्या है, इस पर विचार किए बिना हम बस 'गरीबों की पहचान' नहीं कर सकते।
इसलिए यह जानना उचित होगा कि गरीबी रेखा कैसे निर्धारित की जाती है। गरीबी रेखा निर्धारित करने का पारम्परिक तरीका उस भोजन की मात्रा के दाम का अनुमान लगाना है जितने की किसी भी व्यक्ति को जीने और काम करने के लिए आवश्यक ऊर्जा (कैलोरी में) प्राप्त करने के लिए ज़रूरत होती है। भारत में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में एक सक्षम वयस्क के लिए यह क्रमशः 2,400 और 2,100 कैलोरी आवश्यक माना जाता है। वर्ष 2009 में सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति ने गरीबी रेखा निर्धारित करने हेतु एक नए तरीके के साथ एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी जिसमें समिति ने खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की न्यूनतम कैलोरी आवश्यकता 1,800 कैलोरी को कैलोरी मानक के रूप में प्रस्तावित किया, लेकिन इसमें शिक्षा और स्वास्थ्य पर न्यूनतम व्यय आवश्यकताओं को भी जोड़ा। एनएसओ द्वारा 2011-12 के घरेलू व्यय सर्वेक्षण में नई गरीबी रेखा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति 816 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 1,000 रुपये निर्धारित की गई थी। इसके सापेक्ष अनुपात के आधार पर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में 882 रुपये का राष्ट्रीय औसत बैठता है। विश्व बैंक द्वारा वर्ष 2017 में पीपीपी के आधार पर प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2.15 अमेरिकी डॉलर की अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा का इस्तेमाल किया गया है, जो इसके बहुत करीब है। इस रेखा का उपयोग करते हुए, जनसंख्या अनुपात 22% मापा गया। क्योंकि तब से कोई विस्तृत सर्वेक्षण या रिपोर्ट नहीं आई है, इसलिए जब लोग गरीबी पर चर्चा करते हैं तो वे इस रेखा का उपयोग करते हैं और सीपीआई का उपयोग करके इसे बढ़ाते हैं, जो 2022-23 में ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 1,500 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 1,850 रुपये या औसतन 1,600 रुपये हो जाता है।
हमारी परिकल्पना यह है कि यदि सीपीआई का उपयोग करके वास्तव में कम आंकलन किया गया है, तो बुनियादी जीवन आवश्यकताओं के लिए आवश्यक कैलोरी की लागत 2011-12 की गरीबी रेखा से अनुमान से अधिक होने की सम्भावना है। एक प्रारंभिक बिंदु के रूप में, मान लीजिए कि हम न्यूनतम दैनिक कैलोरी आवश्यकता को पूरा करने के लिए मानक अनुपात में दाल, चावल, सब्जियाँ और खाना पकाने के तेल से युक्त एक बुनियादी भोजन का प्रस्ताव करते हैं- क्या सामग्री की लागत अनुमानित तेंदुलकर गरीबी रेखा से पूरी होगी? हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि ज़रूरी नहीं कि यह भोजन स्वस्थ आहार हो (थॉमस 2023) और ख़ासतौर पर ईएटी-लैंसेट सन्दर्भ आहार3 की तुलना में, औसत भारतीय आहार (जिसका हमारा प्रस्तावित आहार कोई अपवाद नहीं है) में साबुत अनाज से अधिक कैलोरी आती है, लेकिन फल- सब्जियों, फलियों और मांस-मछली-अंडे जैसे पशु-आधारित खाद्य पदार्थों का सेवन कम है। हमारा लक्ष्य बुनियादी निर्वाह खाद्य जरूरतों की लागत का अनुमान लगाना है।
अपने इस अनुमान के लिए हम अन्य लागत को छोड़ देते हैं, चाहे वह मसालों की हो, ईंधन या खाना पकाने के समय की हो। वर्ष 2022-23 के लिए केरल सरकार की वेबसाइट में दर्ज सामग्री की कीमतों का उपयोग करके (हमारा विकल्प डेटा की तत्काल उपलब्धता से तय होता है), हम भारत में खिचड़ी की लागत का अनुमान लगा पाते हैं। यह भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 के अनुरूप है, जिसमें ‘थालीनॉमिक्स’ नामक एक खंड है, जिसमें एक ऐसा ही अभ्यास किया जाता है। हालांकि इसके तरीके अलग हैं, फिर भी यह इस बात का प्रमाण है कि सरकार के आर्थिक सलाहकार जीवित रहने के भौतिक साधनों, भोजन, के बारे में जानते हैं। ध्यान दें कि तेंदुलकर गरीबी रेखा में न केवल प्रति व्यक्ति प्रति दिन 1,800 कैलोरी का भोजन शामिल होना चाहिए, बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य की लागत भी शामिल होनी चाहिए। हमने बुनियादी खाद्य आवश्यकता के अलावा हर चीज़ से परहेज़ किया है और इस प्रकार गणना से हमें एक नई गरीबी रेखा का अनुमान लगाने के लिए न्यूनतम आँकड़े प्राप्त होते हैं।
इन भोजनों की लागतों की हमारी गणना तालिका-1 में दर्शाई गई है। हमारा अनुमान है कि इस नुस्खे के अनुसार एक भोजन की लागत 39.38 रुपये है। यहाँ यह हम मान कर चल रहे हैं कि सरकार द्वारा मुफ़्त में चावल उपलब्ध कराए जाने के कारण चावल की कीमत शून्य है। इन कीमतों के आधार पर, 1,800 कैलोरी के भोजन की दैनिक लागत 83.2 रुपये आती है (तालिका-2)। उल्लेखनीय है कि हमारी गणना बढ़ी हुई तेंदुलकर गरीबी रेखा से काफी ऊपर हैं।
तालिका-1. एक बुनियादी भोजन की सामग्री, कैलोरी और लागत सहित (मुफ़्त चावल के साथ)
सामग्री |
मात्रा (ग्राम में) |
कैलोरी |
लागत (रु. में) |
चावल |
180 |
234 |
0 |
दाल |
90 |
104.5 |
9.63 |
सब्जियाँ (भिंडी) |
250 |
163 |
16.75 |
2 बड़े चम्मच वनस्पति तेल |
30 |
250 |
6 |
2 छोटे प्याज |
250 |
100 |
7 |
प्रति भोजन कैलोरी |
प्रति भोजन लागत |
||
851.5 |
39.38 |
तालिका-2. कैलोरी की लागत (मुफ़्त चावल के साथ)
दैनिक कैलोरी |
दैनिक लागत (रु.) |
मासिक लागत (रु.) |
1,200 |
55.53 |
1665.89 |
1,400 |
64.79 |
1943.55 |
1,600 |
74.04 |
2221.19 |
1,800 |
83.29 |
2498.85 |
2,000 |
92.55 |
2776.49 |
2,200 |
101.81 |
3054.15 |
2,400 |
111.06 |
3331.79 |
इसलिए स्वाभाविक सवाल यह है कि वर्ष 2022-23 में खाद्य पदार्थों की वास्तविक कीमतों के अनुसार कितने भारतीय 1,800 कैलोरी पर व्यय वहन कर पाएंगे? तालिका-2 में दर्शाई गई 1,800 कैलोरी की मासिक लागत लगभग 2,499 रुपये प्रति व्यक्ति दिखाई गई है। इसकी तुलना तालिका-3 में दर्शाए गए उपभोग व्यय के वितरण से करते हैं तो यह तुरंत स्पष्ट हो जाता है कि 5% की गरीबी दर जीवन स्तर के वास्तविक वितरण को कम करके आंकती है। ग्रामीण भारत में, 5वें और 10वें प्रतिशतक के बीच के लोगों का मासिक बजट, लगभग 7 करोड़ लोगों का मासिक बजट 1,782 रुपये था, जो कि भोजन के लिए आवश्यक 2,499 रुपये से काफी कम है। जैसे ही हम ग्रामीण और शहरी भारत के बीच मूल्य अंतर को समायोजित करते हैं तो वहन क्षमता थोड़ी बढ़ जाती है, लेकिन पूरी तरह से नहीं। तालिका-4 में, हमने एनएसओ फैक्टशीट से उपभोग वितरण को 1,200-2,400 की सीमा में कैलोरी की लागत के अनुपात में परिवर्तित किया है। इससे पता चलता है कि 10% से ज़्यादा आबादी 1,800 कैलोरी का खर्च नहीं उठा सकती। दूसरे शब्दों में, हम गरीबी की सम्भावना को मीडिया में बताए जा रहे आँकड़ों से कहीं ज़्यादा मानते हैं।
तालिका-3. वर्ष 2022-23 में सभी फ्रैक्टाइल्स की प्रति व्यक्ति खपत
फ़्रैक्टाइल |
ग्रामीण (रु.) |
शहरी (रु.) |
0-5% |
1,373 |
2,001 |
5-10% |
1,782 |
2,607 |
10-20% |
2,112 |
3,157 |
20-30% |
2,454 |
3,762 |
30-40% |
2,768 |
4,348 |
40-50% |
3,094 |
4,963 |
50-60% |
3,455 |
5,662 |
60-70% |
3,887 |
6,524 |
70-80% |
4,458 |
7,573 |
80-90% |
5,356 |
9,582 |
90-95% |
6,638 |
12,399 |
95-100% |
10,501 |
20,824 |
सभी वर्ग |
3,773 |
6,359 |
स्रोत : एनएसओ घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (तथ्य पत्रक) 2022-23।
टिप्पणियाँ : (i) एक फ्रैक्टाइल एक डेटासेट को दिए गए प्रतिशत के आधार पर बराबर भागों में विभाजित करता है- इस मामले में 5% है। उपभोग के फ्रैक्टाइल साधनों (नाममात्र) का अनुमान एमएमआरपी (संशोधित मिश्रित सन्दर्भ अवधि) पद्धति का उपयोग करके लगाया जाता है। (ii) इन लागतों में सामाजिक कल्याण हस्तांतरण शामिल नहीं हैं।
तालिका-4. विभिन्न समूहों के उपभोग व्यय को कैलोरी की मासिक लागत से विभाजित किया गया है, जिसमें मुफ़्त चावल भी शामिल है।
1,200 कैलोरी |
1,600 कैलोरी |
1,800 कैलोरी |
2,400 कैलोरी |
|||||
फ़्रैक्टाइल |
ग्रामीण |
शहरी |
ग्रामीण |
शहरी |
ग्रामीण |
शहरी |
ग्रामीण |
शहरी |
0-5% |
103% |
120% |
77% |
90% |
69% |
80% |
52% |
60% |
5-10% |
134% |
156% |
100% |
117% |
89% |
104% |
67% |
78% |
10-20% |
158% |
190% |
119% |
142% |
106% |
126% |
79% |
95% |
20-30% |
184% |
226% |
138% |
169% |
123% |
151% |
92% |
113% |
30-40% |
208% |
261% |
156% |
196% |
138% |
174% |
104% |
131% |
40-50% |
232% |
298% |
174% |
223% |
155% |
199% |
116% |
149% |
50-60% |
259% |
340% |
194% |
255% |
173% |
227% |
130% |
170% |
60-70% |
292% |
392% |
219% |
294% |
194% |
261% |
146% |
196% |
70-80% |
335% |
455% |
251% |
341% |
223% |
303% |
167% |
227% |
80-90% |
402% |
575% |
301% |
431% |
268% |
383% |
201% |
288% |
90-95% |
498% |
744% |
374% |
558% |
332% |
496% |
249% |
372% |
95-100% |
788% |
1,250% |
591% |
938% |
525% |
833% |
394% |
625% |
सभी श्रेणियाँ |
283% |
382% |
212% |
286% |
189% |
254% |
142% |
191% |
स्रोत : एनएसओ घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण।
टिप्पणियाँ : (i) कैलोरी लागत द्वारा सामान्यीकृत मासिक व्यय (ग्रामीण = शहरी का 80%, चावल की कीमत = 0) (ii) मान <100% इंगित करता है कि कोई व्यक्ति दिए गए व्यय बजट पर पर्याप्त भोजन नहीं कर सकता है।
गरीबों की पहचान अभी तक नहीं हुई है
यह सब एक साधारण बिंदु पर आकर खत्म होता है- क्या अनुमानित तेंदुलकर रेखा वास्तव में जीवित रहने की लागत का प्रतिनिधित्व करती है? हमने यह तर्क देने की कोशिश की है कि कैलोरी की लागत का प्रति व्यक्ति प्रति दिन 53 रुपये के शीर्ष का आँकड़ा पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं करता है। और जीवित रहने की एकमात्र आवश्यकता भोजन नहीं है। आवास, कपड़े, परिवहन, दवाओं की लागतें हैं जो हमारे बताए गए आँकड़ों से कहीं ज़्यादा हैं। ज़ाहिर है, हमारा अनुमान है कि वर्तमान इस्तेमाल की गरीबी रेखा की तुलना में ‘गरीबी रेखा’ में काफ़ी बदलाव आएगा। और अगर ऐसा है, तो भारत की मशहूर 'गरीबी बहस' का अगला दौर भारतीयों के वर्तमान न्यूनतम जीवन स्तर को दर्शाने के लिए इस नई गरीबी रेखा के निर्धारण के इर्द-गिर्द घूमेगा। ये रेखाएँ गरीबी पर अकादमिक अनुमानों और बहसों से परे बहुत महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि कल्याण और हस्तांतरण का निर्धारण, पुनर्वितरण के लिए केन्द्र से राज्यों को प्राप्त प्राप्त होने वाला धन एक नई गरीबी रेखा और आबादी के उस भाग के आपसी तालमेल से निर्धारित होगा जो जीवित रहने के लिए पूरीतरह से सरकारी सहयोग व कल्याण पर निर्भर है। गरीबी के सही आकलन के लिए आवश्यक डेटा उपलब्ध हो सकता है, लेकिन हमारे विचार में, अभी तक गरीबों की पहचान नहीं हो पाई है।
इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखकों के अपने हैं, और ज़रूरी नहीं कि वे आई4आई संपादकीय बोर्ड के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों।
टिप्पणियाँ:
- इस लेख के प्रकाशन के बाद जून 2024 में राष्ट्रीय चुनाव के नतीजे आने के कुछ दिनों बाद एचसीईएस की पूरी रिपोर्ट जारी की गई। पूरे डेटासेट के साथ काम करने वाले शोधकर्ताओं (देखें, आनंद, 2024) ने पाया कि गरीबी दर फैक्टशीट पर आधारित गणनाओं के समान ही थी। विशेष रूप से, आनंद (2024) ने रंगराजन रेखा के अनुसार गरीबी दर प्रस्तुत की है, लेकिन हमारे साथ निजी बातचीत में उन्होंने तेंदुलकर गरीबी रेखा की गणना 2.99% बताई है।
- 2. केंद्र सरकार की खाद्य सुरक्षा योजनाओं के कल्याणकारी प्रभावों के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। जैसा कि ड्रेज़ (2023) ने नोट किया है, ये योजनाएँ वर्ष 2013 के राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के ऊपर सिर्फ़ 'थोड़ा शक्कर डालने' जैसी थीं, जिसने दो-तिहाई आबादी को सब्सिडी वाले खाद्यान्न का हकदार बनाया। वर्ष 2020 की प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत एनएफएसए लाभार्थियों को शून्य लागत पर अतिरिक्त मात्रा में राशन उपलब्ध कराया गया था। तब से ये सब्सिडी वापस ली जा चुकी है।
- एक सार्वभौमिक स्वस्थ सन्दर्भ आहार, जो सब्ज़ियों, फलों, साबुत अनाज, फलियों और गिरियों आदि जैसे स्वस्थ खाद्य पदार्थों की खपत में वृद्धि पर आधारित है, जो स्वास्थ्य लाभ प्रदान करेगा और सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति की सम्भावना को भी बढ़ाएगा।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : मैत्रीश घटक 2004 से लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पोलिटिकल साइंस में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। वे 2009 से जर्नल ऑफ डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स के प्रधान संपादक हैं और 2006 से एसटीआईसीईआरडी में आर्थिक संगठन व सार्वजनिक नीति शोध कार्यक्रम के निदेशक हैं। ऋषभ कुमार मैसाचुसेट्स बोस्टन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं। वे देशों के भीतर और उनके बीच आय व धन के वितरण में रुचि रखते हैं तथा वर्तमान व ऐतिहासिक असमानता/गरीबी, आर्थिक विकास व राजनीतिक अर्थव्यवस्था के बारे में लिखते हैं।
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