पिछले तीन दशकों में, तापमान में वृद्धि के कारण कृषि और औद्योगिक क्षेत्र के श्रमिकों को खपत में कमी का सामना करना पड़ा है, जबकि सेवा क्षेत्र में खपत की वृद्धि दर्ज हुई है। इस लेख में विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की व्यापकता पर चर्चा की गई है और तापमान परिवर्तनशीलता में बदलाव के कारण घरेलू उपभोग की असमानता में तेज़ वृद्धि की ओर विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया गया है। इसमें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के महत्त्व और नीतियों के अनुकूलन में सहायता के लिए, जलवायु परिवर्तन के आर्थिक प्रभावों के बारे में डेटा की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया गया है।
1980 के दशक के उत्तरार्ध से, मानवजनित जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के कई हिस्सों में तापमान 1°C से अधिक बढ़ गया है। तापमान में धीरे-धीरे होती गई इस वृद्धि ने आर्थिक गतिविधियों पर नकारात्मक प्रभाव डाला है और आय में कमी लाई है। उधर इसी कारण से फसलों की पैदावार और श्रमिक उत्पादकता में भी कमी आई है। हालाँकि आने वाले दशकों में अनुमानित आर्थिक क्षति का निश्चित अनुमान लगाना मुश्किल है, लेकिन 1980 के दशक से तापमान वृद्धि आर्थिक क्षेत्रों में अलग-अलग तरीकों से घरेलू आय पर प्रतिकूल प्रभाव ड़ालती आ रही है।
मैंने अपने एक हालिया अध्ययन (अग्रवाल 2021) में, वर्ष 1987 से 2012 तक, पूरे भारत में जलवायु परिवर्तन से आई तापमान परिवर्तनशीलता या 'जलवायु परिवर्तन के आघात1' के कारण परिवार के मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (एमपीसीई)2 पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया। इससे प्राप्त नतीजों से कृषि, औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में जुटे परिवारों में जलवायु के आघात या झटकों के भिन्न-भिन्न प्रभावों का पता चलता है।
कृषि क्षेत्र को, मुख्य रूप से इसकी मानसून पर निर्भरता और एक स्थिर सामान्य मौसम की आवश्यकता के कारण, जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील माना जाता है। तापमान और वर्षा पैटर्न में उतार-चढ़ाव से फसलों की पैदावार कम हो जाती है और उत्पादन में नुकसान होता है (भारत सरकार, 2018)। कृषि उत्पादों की अत्यधिक कमी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकती है और अल्पावधि में, खाद्य पदार्थों के मूल्यों में वृद्धि का कारण बन सकती है।
औद्योगिक क्षेत्र भी कई चैनलों के माध्यम से उच्च और अधिक परिवर्तनशील तापमान से प्रभावित होता आ रहा है। सबसे पहला, पंखे या एसी के ज़रिए शीतलता की कमी से कारखानों में श्रमिकों को शारीरिक गर्मी का तनाव झेलना, जिससे उनकी उत्पादकता कम हो जाती है और यह थकान व अन्य स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का कारण भी बन सकता है (सोमनाथन एवं अन्य 2021)। क्योंकि अधिकांश श्रमिक दैनिक वेतन भोगी होते हैं, कम प्रभावी कार्य-अवधि से उनकी मज़दूरी कम हो जाती है और इस तरह से उनका पारिवारिक उपभोग व्यय भी कम हो जाता है। हालाँकि यह प्रभाव कृषि श्रमिकों, विशेष रूप से भूमिहीन मज़दूरों पर दिखाई देता है, मुझे लगता है कि यह प्रभाव औद्योगिक क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण है। उच्च तापमान से कम्पनियों के पूंजीगत स्टॉक (जैसे मशीनरी और उपकरण) की दक्षता कम हो जाती है, जिससे कुल उत्पादन में कमी आती है और मालिकों की आय प्रभावित होती है।
सेवा क्षेत्र में काम कर रहे लोग भी उच्च तापमान के कारण तनाव झेलते हैं। हालाँकि, कार्यालय भवनों, वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों और यहां तक कि छोटी खुदरा दुकानों में एसी या पंखे जैसी प्रणालियों के चलते गर्मी में फर्क पड़ जाता है, जिसके कारण गर्मी के तनाव के प्रतिकूल प्रभाव सीमित हो जाते हैं। जैसा कि मेरे अध्ययन से पता चलता है, वास्तव में ऊर्जा की मांग में वृद्धि के कारण, इन परिवारों का मासिक घरेलू उपभोग व्यय बढ़ जाता है जबकि उनकी पारिवारिक आय नहीं बढ़ती। दूसरी ओर, अमीर परिवार अपनी पारिवारिक बचत के माध्यम से शीतलन प्रणालियों में निवेश करके, ऊर्जा की खपत बढ़ाकर गर्मी के नकारात्मक प्रभावों से बेहतर ढंग से निपटते हैं।
जलवायु परिवर्तन के आघात किस प्रकार से बढ़ती असमानता का कारण बनते हैं
मैं अपने अध्ययन में, पारिवारिक स्तर पर मासिक उपभोग व्यय पर, तापमान में बहिर्जात भिन्नता के कारण-प्रभाव के दीर्घकालिक जिले-वार औसत का विश्लेषण करने के लिए, एनएसएसओ के उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के जिला-स्तर के आर्थिक डेटा को, ईस्ट एंग्लिया विश्वविद्यालय की जलवायु अनुसंधान इकाई के उन्हीं जिलों के तापमान और वर्षा के मासिक जलवायु डेटा के साथ मिलकर देखती हूँ। मैंने पाया कि जहां ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किसानों और औद्योगिक श्रमिकों के औसत उपभोग में गिरावट आई है, वहीं सेवा क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों, चाहे वे किसी भी क्षेत्र के हों, के मासिक उपभोग व्यय में वृद्धि हुई है।
जलवायु परिवर्तन के आघात के और भी महत्वपूर्ण वितरणात्मक परिणाम होते हैं। अध्ययन से पता चलता है कि राष्ट्रीय आय वितरण में ग्रामीण औद्योगिक श्रमिक जलवायु परिवर्तन के झटके से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं और 2-21% की विशाल रेंज में उपभोग हानि का अनुभव करते हैं (आकृति-1)। मध्यिका या मीडियन पर, उपभोग हानि परिवार के मासिक व्यय का 8% है। हालाँकि, सेवा क्षेत्र के शहरी परिवारों की आय वितरण में 6-11% की वृद्धि स्पष्ट रूप से देखी गई है। इस प्रकार, जलवायु परिवर्तन के झटके आर्थिक क्षेत्रों में, और उनके बाहर भी असमानता की खाई को और बढ़ाने का कारण बनते हैं।
पारिवारिक आय संबंधित आंकड़ों के बिना, यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है कि सेवा क्षेत्र के लिए उपभोग व्यय में वृद्धि पारिवारिक आय (और इस प्रकार उपभोग स्तर) में वृद्धि के कारण हुई है, या बचत में गिरावट (संभवतः उपभोग के एक सुचारू स्तर के आदी होने की वजह से) के कारण है। हालाँकि, जलवायु परिवर्तन के झटकों के कारण कृषि और औद्योगिक क्षेत्र के परिवारों के एमपीसीई में गिरावट, चाहे उनकी बचत या संपत्ति में बदलाव की स्थिति जो भी हो, निश्चित रूप से इन परिवारों के जीवन-स्तर में गिरावट को दर्शाती है। इसलिए कहा जा सकता है कि सभी क्षेत्रों में प्रभावों की यह व्यापकता तापमान परिवर्तनशीलता में वृद्धि के कारण पारिवारिक खपत की असमानता में भारी वृद्धि को दर्शाती है।
आकृति-1. जलवायु परिवर्तन के आघात के कारण वास्तविक उपभोग व्यय में प्रतिशत परिवर्तन
कृषि आय वितरण के अंतर्गत, कई कृषक परिवार मूल रूप में खाद्य विक्रेता हैं। खाद्य कीमतों में होने वाली अचानक वृद्धि के कारण, जो किसान शुद्ध आपूर्तिकर्ता हैं, उनकी आय में अस्थाई वृद्धि हो सकती है, भले ही मौसम के झटके के कारण कुल खाद्य आपूर्ति कम हो गई हो। इससे किसानों के जीवन स्तर में बिना किसी वास्तविक वृद्धि के, उनके उपभोग व्यय में अस्थाई वृद्धि हो सकती है। हालाँकि उपभोग सर्वेक्षण डेटा से हम किसानों की शुद्ध आपूर्ति स्थिति का पता नहीं लगा पाते, हम ग्रामीण कृषक परिवारों के निचले 10% परिवारों की खपत में मामूली वृद्धि देखते हैं, जो यह दर्शाता है कि ये परिवार कृषि बाजार में शुद्ध खाद्य आपूर्तिकर्ता हो सकते हैं (आकृति-1 देखें)। वितरण के ऊपरी स्तर पर, हम ग्रामीण कृषि परिवारों की खपत में 1-10% की गिरावट पाते हैं। हमारा मानना है कि जिन अमीर कृषक परिवारों के पास बड़ी भूमि है, वे तापमान में उतार-चढ़ाव के चलते, फसल की पैदावार में कमी के कारण भूमि के मूल्यों में गिरावट का अनुभव करते हैं, जो उनके पारिवारिक उपभोग व्यय को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है।
सामाजिक सुरक्षा की भूमिका
पिछले तीन दशकों में भारत की लगभग 70% आबादी पर पड़े उच्च तापमान के कई प्रतिकूल प्रभावों को देखते हुए, जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों से निपटने के लिए सरकारी योजनाओं के रूप में सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान किया जाना आवश्यक है। इनमें आय की कमी को पूरा करने के लिए नकद सहायता (उदाहरण के लिए, उच्च तापमान की स्थिति में शीतलन उपकरण खरीदने के लिए) और लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से, विशेष रूप से कृषि और औद्योगिक क्षेत्र के श्रमिकों के लिए, खाद्य सब्सिडी के आवंटन में वृद्धि शामिल हो सकती है। मौसम की विसंगतियों (तराज़ 2023) के कारण फसल के नुकसान की विशेष स्थितियों में मनरेगा तक पहुँच में विस्तार किए जाने से रोज़गार के अवसर प्रदान मिलेंगे और खपत की गिरावट में सुधार होगा।
जलवायु परिवर्तन से होने वाली उपभोग असमानता में वृद्धि को व्यापक स्तर पर, गर्मी के तनाव के प्रभावों को कम करने के लिए लक्षित क्षतिपूर्ति योजनाओं के माध्यम से, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब परिवारों को, शीतलन उपकरण और भोजन सामग्री की खरीद के लिए सहायता और सब्सिडी देकर कम किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन से संबंधित सरकार का राष्ट्रीय अनुकूलन कोष कुछ राज्यों, जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं, के लिए लक्षित है। लेकिन, इसके तहत किया जानेवाला वित्त-पोषण विशिष्ट परियोजनाओं तक ही सीमित है। फिर भी, लगभग तीन दशकों से हो रही तापमान वृद्धि ने देश भर में लाखों परिवारों को प्रभावित किया है और भविष्य में इसके प्रभाव और भी गहरे होने की संभावना है। इनके चलते शमन, अनुकूलन और पुनर्वितरण उपायों के लिए अतिरिक्त धन आवंटन की आवश्यकता होगी।
निष्कर्ष
इस अध्ययन में पारिवारिक खपत के स्तर पर होने वाले जलवायु प्रभावों को दर्शाया गया है, जबकि हाल के दशक में पारिवारिक आय और बचत के संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधि सर्वेक्षण डेटा की कमी के कारण आगे का क्षेत्रीय विश्लेषण नहीं हो पाता है। बहरहाल, उपभोग व्यय जीवन स्तर का आकलन करने के लिए एक महत्वपूर्ण मीट्रिक है और भारत में गरीबी के स्तर को मापने के लिए एक वास्तविक बेंचमार्क भी है। इसलिए देश भर के परिवारों पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के आर्थिक प्रभावों का आकलन करने के लिए उपभोग व्यय पर समय पर, और अद्यतन घरेलू सर्वेक्षण डेटा आवश्यक है। इससे मिलने वाले साक्ष्य से पारिवारिक उपभोग में गिरावट को रोकने और असमानता में वृद्धि का सामना करने के लिए महत्वपूर्ण अनुकूलन, मुआवज़ों और शमन नीतियों को डिज़ाइन करने में सहायता मिलेगी।
(लेखक इस लेख में बहुमूल्य टिप्पणियों के लिए उत्कर्ष पटेल का आभार व्यक्त करते हैं। वे उपयोगी सुझावों के लिए दीपक कुमार, भानु प्रताप, आरती मलिक और दत्तव्य अग्रवाल को भी धन्यवाद देते हैं।)
टिप्पणियाँ:
- जलवायु आघात को ऐतिहासिक जिला-स्तरीय औसत मूल्य से ऊपर तापमान में एक मानक विचलन वृद्धि के रूप में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार, भारत के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के आघात तुलनीय हैं।
- एमपीसीई परिवारों के जीवन स्तर का एक माप है और इसमें भोजन, ऊर्जा, परिवहन, कपड़े और अन्य सहित कई टिकाऊ और गैर-टिकाऊ वस्तुओं पर किए गए उपभोग व्यय शामिल हैं। एमपीसीई की गणना परिवार के कुल मासिक उपभोग व्यय को परिवार के सदस्यों की संख्या से विभाजित करके की जाती है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : रावी अग्रवाल भारतीय सांख्यिकी संस्थान दिल्ली की एक विजिटिंग असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और वहाँ के जलवायु, खाद्य, ऊर्जा और पर्यावरण अर्थशास्त्र (सीईसीएफईई) पर अनुसंधान केन्द्र में एक अर्थशास्त्री भी, जो उभरती अर्थव्यवस्थाओं में पर्यावरण और विकास के मुद्दों पर काम कर रही हैं।
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