उत्पादकता तथा नव-प्रवर्तन

जन्म बनाम योग्यता: भारत में उद्यमशीलता पर जाति व्यवस्था का प्रभाव

  • Blog Post Date 25 अगस्त, 2022
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Sampreet Goraya

Stockholm School of Economics

sampreet.goraya@hhs.se

भारत में जाति व्यवस्था के प्रचलन के कारण सामाजिक गतिशीलता प्रतिबंधित रही है। यह लेख इस बात को दर्शाता है कि जाति असमानताओं की वजह से फर्मों में संसाधनों का गलत तरीके से आवंटन हुआ है। इस लेख में निम्न और उच्च जाति के उद्यमियों के संदर्भ में उत्पादकता और वित्तीय स्थितियों में व्याप्त अंतर को समझा गया है और पाया गया कि इसका धन-संपत्ति एवं आय असमानता तथा कुल कारक उत्पादकता पर व्यापक आर्थिक प्रभाव पड़ता है।

परंपरागत रूप से, जाति व्यवस्था ने लोगों को विभिन्न व्यवसायों में वर्गीकृत किया है और समाज के एक विशाल वर्ग के उद्यमशीलता कौशल को दबाते हुए सामाजिक गतिशीलता को प्रतिबंधित किया है। हालाँकि, समय के साथ जाति समूहों के लिए गतिशीलता प्रतिबंधों में कमी आई है और वर्तमान में गतिशीलता पर कम प्रतिबंध हैं, फिर भी जाति व्यवस्था भारत की एक प्रमुख विशेषता बनी हुई है।

इस विषय पर उपलब्ध अधिकांश साहित्य में यह तर्क दिया गया है कि विकासशील देशों में संसाधनों का गलत आवंटन काफी होता है, और यह कुल उत्पादकता में क्रॉस-कंट्री अंतर के एक बड़े अंश को दर्शाता है (बनर्जी और डफ्लो 2005, डी मेल एवं अन्य 2008, हसीह और क्लेनो 2009)। वित्तीय घर्षण, श्रम बाजार विनियमन और आकार-आधारित नीतियां, अन्य के बीच, जैसे बाजार से जुड़े कई मिथ्या निरूपणों को संसाधनों के गलत आवंटन का कारण माना गया है। हालाँकि, समग्र गलत आवंटन का आकलन करने में अनौपचारिक संस्थानों के मात्रात्मक महत्व के बारे में व्यवस्थित साक्ष्य हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं।

मैं अपने शोध में "जन्म, और योग्य नहीं" अर्थात, व्यक्तियों की उत्पादकता के बजाय उनकी जाति- इस परिकल्पना की पड़ताल करता हूँ – यह परिकल्पना भारतीय अर्थव्यवस्था में संसाधनों को आवंटित करने के तरीके को निर्धारित करती है और कुल उत्पादकता और उत्पादन पर इसके प्रभाव को निर्धारित करती है।

अध्ययन

मैं अपने हालिया अध्ययन (गोराया 2022) में फर्म-स्तरीय डेटा का उपयोग करता हूँ, जो जाति-संचालित संसाधनों के गलत आवंटन की उच्च स्तर की उपस्थिति के साक्ष्य प्रदान करते हैं। इस अनुभवजन्य विश्लेषण में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के सर्वेक्षण (2006-07)1 से प्राप्त डेटा का उपयोग किया गया है, जो बैलेंस शीट चर की एक विस्तृत सूची और उद्यम मालिक और उसके कर्मचारी की जाति के बारे में जानकारी के साथ-साथ  एमएसएमई का एक प्रतिनिधि नमूना प्रदान करता है– यह विशेषता भारत में आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले अन्य फर्म-स्तरीय डेटासेट में उपलब्ध नहीं है। इस डेटा से तीन मुख्य परिणाम सामने आते हैं, जो निम्नलिखित हैं।

तुलनात्मक उत्पादकता और निम्न जाति के उद्यमियों का प्रतिनिधित्व

एक संकीर्ण रूप से परिभाषित सेक्टर2 के अंतर्गत, निम्न-जाति और मध्यम-जाति के उद्यमियों का समान प्रकार की विशेषताओं वाले उच्च-जाति के उद्यमियों की तुलना में उच्च पूंजी उत्पादकता या पूंजी का औसत राजस्व उत्पाद (एआरपीके)3 क्रमशः 25-30% और 13-22% है। इसके अलावा,उच्च-जाति के उद्यमियों की तुलना में गैर-उच्च-जाति के उद्यमियों में कम क्रेडिट-टू-कैपिटल और क्रेडिट-टू-आउटपुट4 अनुपात की विशेषता है।

दूसरा, एआरपीके में अधिकांश जाति-पार प्रसार छोटे उद्यमियों में है। अर्थव्यवस्था में सबसे छोटे उद्यमी से सबसे बड़े उद्यमी की ओर बढ़ते हुए, सबसे छोटे उद्यमियों के सन्दर्भ में उच्च-जाति फर्मों की तुलना में निम्न-जाति फर्मों का एआरपीके जो 52% अधिक है, वह घटकर सबसे बड़े उद्यमी के सन्दर्भ में लगभग 12% अधिक हो जाता है।

तीसरा, जाति-पार एआरपीके अंतर क्षेत्रीय वित्तीय विकास (क्रेडिट-टू-आउटपुट अनुपात) के साथ नकारात्मक रूप से सह-संबंधित है। जैसे ही क्रेडिट-आउटपुट अनुपात बढ़ता है, जातियों में देखे गए एआरपीके में अंतर कम हो जाते हैं। यह देखा गया है कि सबसे कम वित्तीय विकास वाले राज्यों (बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों) में निम्न-जाति फर्मों का एआरपीके उच्च-जाति फर्मों के मूल्य से दोगुना है, जबकि अच्छी तरह से काम करने वाले वित्तीय बाजारों वाले राज्यों में ऐसा कोई अंतर नहीं देखा गया है।

निम्न और उच्च-जाति के उद्यमियों की वित्तीय स्थिति

मैं उद्यमिता के एक ऐसे मॉडल का उपयोग करता हूं जिसमें उद्यमियों को जाति-विशिष्ट उधार बाधाओं का सामना करना पड़ता है (बुएरा और अन्य 2015 पर आधारित)। यह मॉडल अनुमान लगाता है कि गैर उच्च-जाति उद्यमियों को सख्त वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि उनका क्रेडिट-आउटपुट अनुपात उच्च-जाति उद्यमियों की तुलना में बहुत कम हैं। इससे गैर उच्च-जाति उद्यमियों को श्रम के साथ पूंजी को प्रतिस्थापित करना पड़ता है, जिसके चलते उनका पूंजी-श्रम अनुपात कम हो जाता है और एआरपीके बढ़ता है।

इसके अलावा, वित्तपोषण संबंधी बाध्यताएं निम्न जातियों द्वारा फर्म का निर्माण किए जाने में बाधा डालती हैं और जाति-पार आय और धन असमानताएं उत्पन्न करती हैं। इस मॉडल से पता चलता है कि वित्त की असममित पहुंच हेतु क्रॉस-जाति आय और धन असमानता का एक महत्वपूर्ण अनुपात जिम्मेदार है; हालांकि, यह मॉडल जाति-पार असमानताओं के स्तर को डेटा के सापेक्ष कम करके आंकता है। यह अन्य प्रभावों (ऐतिहासिक नुकसान और श्रम बाजार भेदभाव सहित)- जो इस मॉडल में शामिल नहीं हैं, की ओर इशारा कर सकता है और इन पर अधिक जांच की आवश्यकता है।

यह मॉडल हमें जातियों के बीच के क्षेत्रीय उद्यमशीलता के अंतर को समझने में मदद करता है। क्षेत्रीय वित्तीय विकास को ऋण आपूर्ति के लिए एक झटके के रूप में माना जाता है जो इस मॉडल की सभी जातियों को आनुपातिक रूप से प्रभावित करता है। यह क्षेत्रीय वित्तीय विकास के साथ, घटते जाति-पार एआरपीके अंतर और पूंजी-श्रम अनुपात5 में वृद्धि का अनुमान लगाता है, क्योंकि यह विशेष रूप से अपेक्षाकृत उन अधिक विवश उद्यमियों को लाभान्वित करता है, जो अधिकांश गैर- उच्च जातियों के अंतर्गत आते हैं।

जाति-विशिष्ट विकृतियों का व्यापक आर्थिक प्रभाव

इस मॉडल का उपयोग जाति-विशिष्ट उधार लेने संबंधी बाध्यताओं की कुल लागत का अनुमान लगाने के लिए भी किया गया है। इसमें पाया गया कि गैर-उच्च जाति उद्यमियों की उधार लेने की क्षमता जब उनके उच्च जाति समकक्षों के समान होती है, तो कुल कुल कारक उत्पादकता (टीएफपी)6 में 3.6 प्रतिशत की वृद्धि होती है, और उद्यमिता क्षेत्र में प्रति वर्कर उत्पादन में 6.6% की वृद्धि होती है। इसके अलावा, इस मॉडल का उपयोग व्यापक और गहन मार्जिन7 पर टीएफपी लाभ का पता लगाने के लिए किया जाता है। पहले, अनुत्पादक उच्च जाति उद्यमियों के स्थान पर अधिक उत्पादक गैर- उच्च जाति उद्यमियों को पूंजी का पुन:आवंटन किया जाना अर्थव्यवस्था की आवंटन क्षमता को बढ़ाता है; इसके परिणामस्वरूप, जाति-पार एआरपीके अंतर शून्य हो जाता है, और एआरपीके में समग्र फैलाव काफी कम हो जाता है। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप टीएफपी में 2.26% की वृद्धि होती है।

दूसरा, उधार लेने संबंधी बाध्यताओं में कमी से उद्यमिता में प्रवेश करने हेतु अधिक गैर- उच्च जाति उद्यमी प्रेरित होने चाहिए क्योंकि जब उधार लेने संबंधी बाधाएं कम बाध्यकारी होती हैं तो उद्यमिता अपेक्षाकृत अधिक लाभदायक होती है। इसके अलावा, उद्यमियों का लगातार प्रवेश पूंजी और श्रम की मांग को बढ़ाता है। इसका तात्पर्य उत्पादक आदानों की लागत में वृद्धि से है, जिससे अनुत्पादक उद्यमी (अधिक धनी और एचसी उद्यमी रहने की संभावना) कम होने लगते हैं। और यह सुधार टीएफपी को 1.34% बढ़ा देता है।

निष्कर्ष और आगे के शोध की गुंजाइश

विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में संसाधनों का गलत आवंटन बड़े पैमाने पर होता है। हालांकि, गलत आवंटन के स्रोतों की जांच अभी भी की जा रही है, और कई फर्म-स्तरीय विकृतियों का पता चला है। मेरा कार्य दर्शाता है कि भारत में जाति व्यवस्था ऐसी विकृतियों का एक उदाहरण है, और यह कुल टीएफपी नुकसान को अंकित करने में इसके महत्व को निर्धारित करता है।

निम्न-जाति के उद्यमियों के लिए वित्त की बेहतर पहुंच से उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलेगा, क्रेडिट-बाध्यता वाली फर्मों का विस्तार होगा और बचत एवं संपत्ति-सृजन को बढ़ावा मिलेगा। इससे श्रम की मांग बढ़ेगी और अधिक रोजगार सृजित होंगे। भारत में इसका विशेष महत्व है, जहां अधिकांश परिवार कम आय वाले स्वरोजगार में शामिल रहते हैं।

इस अध्ययन के निष्कर्षों को देखते हुए, तार्किक दृष्टि से अगला कदम गैर उच्च-जाति उद्यमियों को होने वाले ऋण के कम आवंटन के सटीक कारणों का स्पष्ट तौर पर पता लगाना होगा और उच्च-विकास वाले निम्न-जाति के उद्यमियों का समर्थन करना होगा। निम्न-जाति के परिवारों को लाभान्वित करने के अलावा, यह अधिकांश आबादी हेतु प्रति श्रमिक, चाहे उनकी जाति कोई भी हो- के लिए उच्च उत्पादन और इस प्रकार उच्च मजदूरी के माध्यम से कल्याणकारी लाभ दिलाएगा।

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टिप्पणियाँ:

  1. यह सर्वेक्षण एमएसएमई मंत्रालय द्वारा किया गया था।
  2. क्षेत्रों को राष्ट्रीय औद्योगिक वर्गीकरण (एनआईसी) कोड के अनुसार निर्धारित किया गया है। एनआईसी कोड विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के लिए एक तुलनीय डेटा बेस विकसित करने और उसे बनाए रखने हेतु एक सांख्यिकीय मानक है, जिसे यह पता लगाने और विश्लेषण करने के इरादे से विकसित किया गया है कि प्रत्येक आर्थिक गतिविधि राष्ट्रीय आय में कैसे योगदान दे रही है।
  3. एआरपीके सकल मूल्य-वर्धित और अचल संपत्तियों के स्टॉक का अनुपात है। यह प्रति इकाई पूंजी के उत्पादन को कैप्चर करता है।
  4. क्रेडिट-टू-कैपिटल बकाया ऋणों और अचल संपत्तियों की राशि का अनुपात है; क्रेडिट-टू-आउटपुट बकाया ऋणों की राशि और सकल मूल्य-वर्धित का अनुपात है। इन दोनों अनुपातों से फर्मों/उद्यमियों की कर्जदारी को मापा जाता है।
  5. वित्त की बेहतर पहुंच पूंजी की लागत को कम करती है। यह फर्मों को श्रम की तुलना में पूंजी में अधिक निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करता है, इससे पूंजी-श्रम अनुपात में वृद्धि होती और एआरपीके में गिरावट आती है।
  6. कुल कारक उत्पादकता उस दक्षता को कैप्चर करती है जिसके साथ इनपुट को आउटपुट में परिवर्तित किया जाता है।
  7. व्यापक मार्जिन से तात्पर्य व्यवसायों में परिवारों के पुन:आवंटन से है; गहन मार्जिन से तात्पर्य उद्यमियों के बीच पूंजी के पुन:आवंटन से है।

लेखक परिचय: संप्रीत गोराया स्टॉकहोम स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।

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