सामाजिक पहचान

भारत में भूमि के स्वामित्व के सन्दर्भ में लैंगिक और आंतर-लैंगिक अंतर

  • Blog Post Date 07 दिसंबर, 2021
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Bina Agarwal

University of Manchester

bina.agarwal@manchester.ac.uk

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Pervesh Anthwal

Virginia Polytechnic Institute and State University

perveshanthwal@vt.edu

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Malvika Mahesh

Apeejay School of Management

malvika.mahesh@learn.apeejay.edu

हालाँकि महिलाओं के भू-स्वामित्व को उनके आर्थिक सशक्तिकरण के एक प्रमुख संकेतक के रूप में पहचाना जाता है, भारत में कितनी और किन महिलाओं के पास भूमि है, इसका कोई विस्तृत अनुमान नहीं है। नौ राज्यों के लिए वर्ष 2009-2014 के बीच के देशांतरीय आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए, यह लेख दर्शाता है कि औसतन, ग्रामीण भारत में कृषि भूमि का स्वामित्व केवल 14% महिलाएं रखती हैं जो कुल 11% कृषि भूमि की मालिक हैं। इसके अलावा, विरासत कानून में सुधार बेटियों के पक्ष में होने के बावजूद, महिलाओं को विधवाओं के रूप में भूमि विरासत में मिलने की अधिक संभावना है।

आजादी के पचहत्तर साल बाद, हम ग्रामीण महिलाओं के कृषि भूमि के स्वामित्व के सन्दर्भ में किस स्थिति में हैं? कुछ समय पहले तक, भारत में कर्नाटक राज्य को छोड़कर, भू-स्वामित्व में लैंगिक अंतर का आकलन करने हेतु वस्तुतः कोई विश्वसनीय गहन डेटा उपलब्ध नहीं था (स्वामीनाथन एवं अन्य 2012)। इसके पश्चात, लाहोटी एवं अन्य (2016) ने भारत मानव विकास सर्वेक्षण-II (2011-12) का उपयोग एक समय में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर भूमि के स्वामित्व में लैंगिक असमानता के संकेतक की गणना के लिए किया। हालांकि, इस डेटासेट के अनुसार, भूमि का सह-स्वामित्व या स्वामित्व वाली भूमि की मात्रा और गुणवत्ता शामिल नहीं है, और उत्तरदाता द्वारा प्रभावी रूप से किसी भी अतिरिक्त मालिकों को छोड़ कर अपने परिवार1 में केवल शीर्ष तीन मालिकों के बारे में बताने की आवश्यकता थी। शीर्ष जिन तीन मालिकों के बारे में सूचित किया जा रहा है या जो महत्वपूर्ण व्यक्तिगत मालिकों के रूप में नहीं गिने गए हैं, यदि उनमें से किसी के साथ महिलाएं भूमि का सह-स्वामित्व रख रही हैं तो ऐसी महिलाओं का नाम गणना में नहीं लिए जाने की प्रवृत्ति होगी।

लैंगिक असमानताओं का प्रभावी ढंग से अनुमान लगाने के लिए, हमें व्यक्तिगत स्वामित्व वाली और सह-स्वामित्व वाली भूमि संपत्ति को कवर करने की, असमानता के विभिन्न आयामों का आकलन करने हेतु संकेतकों की एक श्रृंखला बनाने की और समय के साथ हो रहे परिवर्तनों की निगरानी करने की आवश्यकता है। चूँकि जिस क्षमता में (जैसे- विधवाओं या बेटियों के रूप में) महिलाएं भूमि का अर्जन करती हैं, वे संभावित लाभों को प्रभावित कर सकती हैं अतः हमें अब तक उपेक्षित आंतर-लैंगिक भिन्नताओं का भी आकलन करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, बच्चों के कल्याण के साथ महिलाओं की संपत्ति के स्वामित्व को दर्शाते अनुभव-जन्य प्रमाण विशेष रूप से छोटे बच्चों की मां के रूप में भू-स्वामित्व रखने वाली महिलाओं से संबंधित हैं (उदाहरण के लिए, थॉमस 1990, क्विसुम्बिंग और मालुशियो 2003, और मीनजेन-डिक एवं अन्य 2019 देखें)। इसी प्रकार से, भूमि या घर का स्वामित्व रखने वाली और वैवाहिक हिंसा की कम जोखिम वाली महिलाओं (पांडा और अग्रवाल 2005) के बीच अवलोकित लिंक से विवाहित महिलाएं लाभान्वित होंगी।

स्वतंत्रता के बाद हिंदुओं के लिए किये गए कानूनी सुधार- 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (एचएसए) से 2005 के हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम (एचएसएए) तक, और 1986-1994 के दौरान चार राज्यों2 में एचएसए में किये गए आंशिक सुधारों के साथ ही सभी सुधारों ने माता-पिता की संपत्ति (विशेषकर संयुक्त परिवार की संपत्ति में) पर बेटियों के अधिकारों को मजबूत किया है और यह पति की संपत्ति पर विधवा के अधिकारों की कीमत पर (अग्रवाल 1994, 1998) हुआ है। इसके परिणामस्वरूप, हमें बेटियों के रूप में भूमि का अर्जन करने वाली महिलाओं के अनुपात में वृद्धि की उम्मीद होगी। क्या सच में ऐसा है?

कृषि भू-स्वामित्व में लैंगिक और आंतर-लैंगिक असमानता

हमारे हाल के अध्ययन (अग्रवाल एवं अन्य 2021) में, हम इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (आईसीआरआईएसएटी) द्वारा एकत्र किए गए अनुदैर्ध्य डेटा का उपयोग करते हुए, कृषि भूमि स्वामित्व में लैंगिक और आंतर-लैंगिक असमानताओं- दोनों का विश्लेषण करते हैं। इस डेटा में मोटे तौर पर वर्ष 2010-2014 की अवधि में शुरू में आठ राज्यों में और 2014 में नौ राज्यों3 में 30 गांवों में रहने वाले परिवारों के एक समान सेट का आकलन किया गया है। हमारे पास इनमें से पांच राज्यों का वर्ष 2009 का डेटा भी उपलब्ध है। हालांकि डेटा नौ राज्यों तक ही सीमित है, फिर भी यह डेटा हमें विविध संकेतकों का आकलन करने, समय के साथ परिवर्तनों का अनुसरण करने, लैंगिक आधार पर व्यक्तिगत और संयुक्त रूप से स्वामित्व वाले भूखंडों की पहचान करने और भू-स्वामियों की ऐसी विशेषताओं का पता लगाने में सक्षम बनाता है जो पिछले शोध में कवर नहीं की गई हैं।

आंतर-लैंगिक अंतर का आकलन करने के लिए, सबसे पहले हम वर्ष 2009-2014 की अवधि के लिए सात संकेतकों की गणना करते हैं, और फिर लॉजिस्टिक रिग्रेशन के माध्यम से महिला (या पुरुष) के भू-स्वामित्व वाले एक ग्रामीण परिवार में जमीन के मालिक होने की संभावना, उनकी व्यक्तिगत विशेषताएँ, परिवार की विशेषताएँ, और क्षेत्रीय स्थान के सन्दर्भ में वर्ष 2014 के लिए इनका विश्लेषण करते हैं। हम अपने विश्लेषण में सात संकेतकों का उपयोग करते हैं (तालिका 1)।

तालिका 1. भू-स्वामित्व में लैंगिक असमानता के संकेतक

संकेतक

गणना

संकेतक 1: महिला भू-स्वामित्व वाले परिवारों का प्रतिशत

(जिन परिवारों में कम से कम एक महिला भू-स्वामी है/ सभी ग्रामीण भूमि-मालिक परिवार हैं) *100

संकेतक 2: सभी भूमि-स्वामियों में महिलाओं का प्रतिशत

(महिला भू-स्वामी उम्र ≥15 साल / सभी भूमि-मालिक, पुरुष और महिला, उम्र 15 साल) * 100

संकेतक 3: ग्रामीण भूमि-मालिक परिवारों में सभी महिलाओं के प्रतिशत के रूप में महिला भूस्वामी

(महिला भू-स्वामी उम्र ≥15 साल/≥15 साल की उम्र की सभी महिलाएं) * 100

संकेतक 4: लैंगिक आधार पर व्यक्तिगत और संयुक्त रूप से स्वामित्व वाले भूखंडों का अनुपात

संकेतक 5: महिलाओं के स्वामित्व वाली परिवार की भूमि का प्रतिशत

(महिलाओं के स्वामित्व वाला कुल क्षेत्र/परिवार के स्वामित्व वाला कुल क्षेत्र) *100

संकेतक 6: लैंगिक आधार पर स्वामित्व वाला औसत क्षेत्र (हेक्टेयर)

संकेतक 7: मिट्टी की गुणवत्ता और सिंचाई पहुंच के संदर्भ में, लैंगिक आधार पर स्वामित्व वाली भूमि की गुणवत्ता

'कोई समस्या नहीं' भूमि के रूप में पहचानी गई स्वामित्व वाली भूमि का प्रतिशत, और स्वामित्व वाली सिंचित भूमि का प्रतिशत

चित्र 1 से हमें 2014 के लिए ऊपर तालिका 1 में दिए गए पहले पांच संकेतकों का उपयोग करके लैंगिक अंतर की तुलना करने में मदद मिलती है। सभी स्तर पर अंतर लगातार बड़ा है, जिसमें महिलाओं के आंकड़े 20% से कम हैं। केवल 16% परिवारों में कोई महिला भूमि की मालिक है, और 15 वर्ष और उससे अधिक आयु वर्ग की सभी महिलाओं में से केवल 8.4% महिलाएं किसी भूमि की मालिक हैं। कुल मिलाकर, भू-स्वामियों में से केवल 14% महिलाएं भूमि की मालिक हैं, जो 10% भूखंडों और 11% कृषि क्षेत्र की मालिक हैं। हालांकि, संकेतक 6 और 7 पर, हम पाते हैं कि स्वामित्व वाले औसत क्षेत्र में लैंगिक अंतर बड़ा नहीं है (महिला और पुरुष दोनों के पास 2.5 हेक्टेयर से कम का स्वामित्व है), और न ही भूमि की गुणवत्ता में कोई बहुत अंतर है।

चित्र 1. भू-स्वामित्व में लैंगिक असमानता के उपायों की तुलना करना

स्रोत: लेखकों द्वारा आईसीआरआईएसएटी डेटा के आधार पर की गई गणना।

नोट: (i) इस आंकड़े में वे संयुक्त भूखंड दिखाए गए हैं जो महिलाओं और पुरुषों दोनों के सह-स्वामित्व में हैं

(ii) ग्राफ ऊपर तालिका 1 में दिए गए पहले पांच संकेतकों से संबंधित है। (iii) एचएच 'परिवार' को दर्शाता है।

यह भी ध्यान देने लायक है कि अधिकांश भूखंडों का एक ही मालिक है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2014 में, सभी नौ राज्यों में 87.5% भूखंडों के एकमात्र मालिक के रूप में पुरुष थे, एकमात्र मालिक के रूप में 10.2% महिलाएं थी, और 2.3% भूखंड संयुक्त रूप से एक लिंग या दोनों लिंग के एक से अधिक व्यक्तियों के स्वामित्व में थे। संयुक्त रूप से स्वामित्व की दुर्लभता से पता चलता है कि अपेक्षाकृत कम भूमि को समान उत्तराधिकारी संपत्ति के रूप में रखा जा रहा है। इससे यह संकेत मिलता है कि एचएसएए, 2005, जिसका मुख्य योगदान संयुक्त परिवार की संपत्ति और कृषि भूमि में सभी बेटियों के अधिकारों को मान्यता देना था, का इस दिशा में बहुत कम प्रभाव रहा है।

पश्चिमी, मध्य या पूर्वी राज्यों की तुलना में दक्षिण भारत में भूमि के स्वामित्व वाली महिलाओं का बड़ा अनुपात क्षेत्रीय पैटर्न के रूप में दिखना अपेक्षित था। तथापि, सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्य तेलंगाना में भी केवल 32% महिलाएं भूमि की मालिक थीं, जबकि ओडिशा (एक पूर्वी राज्य) में यह आंकड़ा केवल 5.6% था। इसके अलावा, हमने 2009-2010 और 2014 के बीच किसी भी संकेतक में बहुत कम बदलाव देखा है।

महिलाओं के पास जमीन होने की संभावना

फिर हमने तीन लॉजिस्टिक रिग्रेशनों के आधार पर लैंगिक और आंतर-लैंगिक गैप का विश्लेषण किया- सभी मालिकों के पूल किए गए नमूने के लिए एक और दो क्रमशः महिला-केवल और पुरुष-केवल मालिकों के लिए।

हम पाते हैं कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों के भूमि के मालिक होने की संभावना 48 प्रतिशत अंक अधिक है। इसके अलावा, केवल महिला मालिकों के सन्दर्भ में, वैवाहिक स्थिति और क्षेत्रीय स्थान सबसे अधिक मायने रखता है। विधवाओं के पास भूमि होने की संभावना विवाहित या अविवाहित महिलाओं की तुलना में 22 प्रतिशत अंक अधिक है। वास्तव में, विधवापन एक ऐसा सबसे महत्वपूर्ण कारक है जो एक महिला की जमीन के मालिक होने की संभावनाओं को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है, हालांकि उम्र और ऊंची जाति का होना भी मायने रखता है।

क्षेत्रीय आधार पर, आंध्र प्रदेश में महिलाओं के पास अन्य राज्यों की तुलना में जमीन के मालिक होने की संभावना 12 प्रतिशत अंक अधिक पाई गई है। हालांकि, कर्नाटक और महाराष्ट्र दोनों राज्यों ने संयुक्त परिवार की संपत्ति में अविवाहित बेटियों को सहदायिक के रूप में शामिल करने हेतु वर्ष 1994 में एचएसए, 1956 में आंशिक रूप से सुधार किया था, फिर भी अन्य राज्यों की तुलना में या एक-दूसरे की तुलना में दोनों का प्रदर्शन अच्छा नहीं है। वास्तव में यदि 2005 से पहले के कानूनी सुधार महिलाओं के पास जमीन के मालिक होने की संभावनाओं को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कारक थे, तो हमें यह उम्मीद होती कि जिन राज्यों में ऐसे सुधार नहीं हुए हैं उनकी तुलना में कर्नाटक और महाराष्ट्र के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण अंतर स्पष्ट दिखाई देता।

हालांकि, पुरुष मालिकों के सन्दर्भ में राज्य-विशिष्ट क्षेत्रीय चरों में से कोई भी महत्वपूर्ण नहीं है। स्पष्ट रूप से, भिन्न सामाजिक मानदंडों के कारण महिलाओं को प्रभावित करने वाली सांस्कृतिक पृष्टभूमि का पुरुषों पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। विधुर होना भी एक सक्षम कारक नहीं है (क्योंकि वर्तमान में 94% भूमि मालिक पुरुष विवाहित हैं)। हालांकि, पुरुषों के और महिलाओं के सन्दर्भ में भी, भूमि के मालिक होने की संभावना उनकी उम्र के साथ बढ़ती जाती है और उनके परिवार में 15 वर्ष की आयु के सदस्यों की संख्या बढ़ने पर या दूसरे शब्दों में कहें तो, संभावित दावेदारों की संख्या बढ़ने पर यह घटती जाती है।

यह आश्चर्यजनक है कि कानूनी सुधार बेटियों के पक्ष में होने के बावजूद, महिलाओं के भूमि का मालिक बनने के लिए विधवापन इतना महत्वपूर्ण है। भूमि मालिक पुरुष की मृत्यु के बाद, उसके द्वारा धारित भूखंड उसकी विधवा के पास जाते हैं और कई मामलों में वह उस परिवार की मुखिया भी (41% महिला भूमि मालिक अपने परिवार की मुखिया भी हैं) बनती है। 2014 में, हमारे नमूने में लगभग 46% महिला भूमि मालिक विधवाएँ थीं। लाहोटी एवं अन्य (2016) के अनुसार, यह आंकड़ा और भी अधिक यानी 56% था।

महिला भू-स्वामित्व वाले अधिकांश परिवारों में 15 वर्ष से अधिक आयु की बेटियाँ और/या बेटे थे, जो एचएसएए 2005 के तहत, अपने पिता की अलग संपत्ति के साथ ही संयुक्त परिवार की संपत्ति के सीधे दावेदार भी थे। लेकिन केवल कुछ मामलों में बेटे के नाम भी जमीन थी, और बेटियों में से किसी के पास कुछ भी नहीं था। संयुक्त परिवार की संपत्ति पर अपने भाइयों के समान अधिकार होने के बावजूद, अधिकांश महिला भूमि मालिकों ने अपने पैतृक परिवारों के बजाय अपने वैवाहिक परिवारों के माध्यम से भूमि अर्जित की। कोई भूमि प्राप्त नहीं करने या आमतौर पर वृद्ध विधवाओं के रूप में भूमि प्राप्त करने का अर्थ यह है कि अधिकांश भारतीय महिलाओं के नाम अपने जीवन-चक्र के उस विशिष्ट समय में भू-संपत्ति की कमी होती है जिस दौरान इसके स्वामित्व से उन्हें सबसे अधिक लाभ हुआ होता।

हमारे परिणाम कुछ हालिया अध्ययनों में अंतर्निहित केंद्रीय आधार की फिर से जांच करने की आवश्यकता की ओर भी इशारा करते हैं कि केवल एक कानूनी अधिनियम समूचे व्यवहार को बदल सकता है। ये अध्ययन 2005 से पूर्व के एचएसए, 1956 के राज्य-स्तरीय सुधारों को अर्ध-प्राकृतिक प्रयोगों के रूप में देखते हैं, और कानूनी अधिनियमन से बेटियों के अधिकारों (अविवाहित बेटियां संयुक्त परिवार की संपत्ति में समान उत्तराधिकारी हो सकती हैं) अर्थात लड़कियों की शिक्षा, महिला आत्महत्या, बेटे को वरीयता, और इसी तरह के मुद्दों (देखें, बोस 2017, एंडरसन और जेनिकॉट 2015, भालोत्रा एवं अन्य 2018) के सन्दर्भ में, होने वाले प्रभावों को समझने हेतु अर्थमितीय उपकरणों का उपयोग करते हैं। व्यवहार में, हमें संपत्ति के सह-स्वामित्व के बहुत कम प्रमाण मिलते हैं। अचल संपत्ति की वसीयत में बेटियों को शामिल करने के लिए माता-पिता का विरोध भी रहता है। वास्तव में, यह भी स्पष्ट नहीं है कि राज्य-विशिष्ट सुधारों में वास्तविक कानूनी परिवर्तन के बारे में वहां के लोगों को किस हद तक जानकारी है। अतः इसके बारे में उनमें प्रभावी जागरूकता लाने हेतु, एचएसए, 1956 द्वारा पहले से ही पिता की संपत्ति में बेटियों को दिए गए पर्याप्त अधिकारों और अविवाहित बेटियों को समान उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता देने वाले राज्य-विशिष्ट सुधारों में प्रदत्त अधिकारों के सीमित विस्तार के बीच के अंतर को उन्हें समझाने की आवश्यकता होगी।

निष्कर्ष

उत्तराधिकार कानून में महत्वपूर्ण सुधारों के बावजूद, हम भूमि के स्वामित्व के सन्दर्भ में सभी मुख्य संकेतकों में व्यापक लैंगिक अंतर पाते हैं, जिसमें 5-6 साल की अवधि में थोड़ा बदलाव देखा गया है। आगे, हमें डेटा संग्रह और नीति कार्यान्वयन दोनों में पर्याप्त सुधार करने की आवश्यकता होगी। इसकी शुरुआत करने के लिए, भारत में कृषि जनगणना और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण दोनों को अपने भूमि स्वामित्व के डेटा को लैंगिक आधार पर अलग करने की आवश्यकता होगी। विभिन्न सर्वेक्षणों में अन्य मापदंडों को भी शामल करने की आवश्यकता होती है जो समय-समय पर शोधकर्ताओं द्वारा किए जाते हैं, जिसमें व्यक्तिगत और संयुक्त रूप से स्वामित्व वाली भूमि, स्वामित्व वाले क्षेत्र और अर्जन के स्रोत शामिल हैं। नीति में, बेटियों के रूप में संपत्ति के स्वामित्व के सन्दर्भ में महिलाओं की स्थिति निराशाजनक बनी हुई है और यदि सतत विकास लक्ष्य 5 में लक्षित भू-स्वामित्व में लैंगिक समानता की दिशा में भारत को आगे बढ़ना है तो इस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। कठोर सामाजिक मानदंडों और प्रथाओं के चलते यह एक महत्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है।

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टिप्पणियाँ:

  1. आईएचडीएस-II प्रश्नावली में, संबंधित प्रश्न इस प्रकार है: “यदि भूमि घर के किसी सदस्य के नाम पर है, तो वह कौन है? [यदि तीन से अधिक हैं, तो शीर्ष तीन को सूचीबद्ध करें]”
  2. ये चार राज्य आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र थे। पांचवें राज्य, केरल ने 1976 में संयुक्त परिवार की संपत्ति को पूरी तरह समाप्त कर दिया।
  3. आंध्र प्रदेश (2014 में आंध्र प्रदेश 'नया' और तेलंगाना में विभाजित), और दक्षिण भारत में कर्नाटक; पश्चिमी और मध्य भारत में गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश; और पूर्वी भारत में बिहार, झारखंड और ओडिशा ।

लेखक परिचय: बीना अग्रवाल ग्लोबल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट, यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर, यूके में डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स एंड एनवायरनमेंट की प्रोफेसर हैं। परवेश अंतवाल वर्जीनिया टेक यूनिवर्सिटी में एक पीएच.डी. छात्र हैं| मालविका महेश एपीजे स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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