सामाजिक पहचान

कोटा (आरक्षण) और स्कूली शिक्षा सम्बन्धी निर्णय

  • Blog Post Date 20 अगस्त, 2021
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Gaurav Khanna

University of California, San Diego

gkhanna@umich.edu

सामाजिक समूहों में व्याप्त असमानताओं को पाटने के एक साधन के रूप में, सकारात्मक कार्रवाई, दशकों से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। यह लेख 1990 के दशक में सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों और कॉलेजों में भारत में लागू 'अन्य पिछड़ा वर्ग' के लिए आरक्षण के प्रभाव का विश्लेषण करता है। यह पाया गया कि नीति ने लाभार्थियों को अधिक समय तक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि वे कोटा का लाभ उठा सकें।

दुनिया भर के देशों में सकारात्मक कार्रवाई नीतियों की लागत और लाभों का मुद्दा कई वर्षों से एक गंभीर बहस का विषय रहा है। भारत में, अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) इन नीतियों के पारंपरिक लाभार्थी रहे हैं, और 1990 के दशक में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को भी इसमें शामिल करने के लिए इसे विस्तारित किया गया । भारत में राजनीतिक और शैक्षणिक हलकों में अधिकांश बहस इस सकारात्मक कार्रवाई का  कॉलेजों में स्नातकों की गुणवत्ता पर प्रभाव और इस नीति से बाहर रखे गए समूहों द्वारा सामना की जाने वाली प्रत्यक्ष लागत पर केंद्रित रही है। इस संदर्भ में, शोधकर्ता आमतौर पर एससी-एसटी को देखते हैं, जबकि ओबीसी पर इसके प्रभाव को अपेक्षाकृत कम जाना गया है। अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति पर किये गए कुछ शैक्षणिक शोध-कार्य (बर्ट्रेंड एवं अन्य 2010, बागडे एवं अन्य 2012) कॉलेज आरक्षण से लाभान्वित होने वाले छात्रों पर पड़े "मजबूत सकारात्मक आर्थिक प्रभाव" का प्रमाण दर्शाते हैं, जबकि अन्य अध्ययनों में (कृष्णा एंड रोबल्स 2012) यह चर्चा की गई है कि ये छात्र कॉलेज में वास्तव में "पिछड़े" कैसे हैं।  हालाँकि, मुद्दा यह भी है कि यह जानते हुए कि वे इन नीतियों के योग्य लाभार्थी हैं, क्या कोटा निचली जाति के छात्रों को स्कूल छोड़ने के बजाय अधिक समय तक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

कोटा (आरक्षण) के चलते निचली जाति के छात्रों के लिए कॉलेजों या सरकारी नौकरियों में जगह हासिल करना आसान हो जाता है। यह एक ओर, उन्हें अपनी स्कूली शिक्षा में कम प्रयास करने के लिए प्रेरित कर सकता है क्योंकि उनके लिए कम कट-ऑफ को पार करने की आवश्यकता होती है। तो दूसरी ओर, यह स्कूली शिक्षा से ड्रॉप-आउट को रोक सकता है, अगर उन्हें लगता है कि एक निश्चित स्तर की शिक्षा प्राप्त करने से उन्हें इन कोटा से लाभान्वित होने में मदद मिलेगी। उदाहरण के लिए, कॉलेजों में आरक्षण निचली जाति के छात्रों को कॉलेज में प्रवेश पाने की उम्मीद छोड़ने के बजाय कॉलेज की सीट प्राप्त करने के लिए अपने हाई स्कूल की शिक्षा में अपेक्षाकृत आसान प्रयास कर उसे पूरा करने हेतु प्रोत्साहित कर सकता है। इसी प्रकार से, सरकारी नौकरियों के विभिन्न स्तरों के लिए अलग-अलग योग्यताओं की आवश्यकता होती है, और इन नौकरियों में आरक्षण छात्रों को कोटा से लाभ उठाने के लिए शिक्षा के अपेक्षित स्तर को प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।

नौकरी में आरक्षण का ओबीसी की स्कूली शिक्षा पर प्रभाव

वी.पी.सिंह की सरकार ने 1989 में जब ओबीसी के लिए सीटें आरक्षित करने हेतु मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की कोशिश की, तो अधिकांश शहरी क्षेत्रों में इसका विरोध हुआ। 1991 और 1993 के बीच, सरकार ने सरकारी नौकरियों में इस आरक्षण को लागू किया, लेकिन अधिकांश केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इसका विस्तार करने में उन्हें 13 साल और लगे। हाल के एक पेपर में, मैं ओबीसी और गैर-ओबीसी पर मंडल नीति के प्रभाव तथा 1993 में अपने स्कूली शिक्षा सम्बन्धी निर्णय (स्कूल में रहने या छोड़ने के लिए) लेने लायक युवा छात्रों तथा स्कूल में लौटने की आयु पार कर चुके 25-26 की आयु के छात्रों (खन्ना 2013) के सन्दर्भ में उनके स्कूली शिक्षा के वर्षों पर प्रभाव की तुलना करने के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) डेटा का उपयोग करता हूं।

1950 और 1993 के बीच, ओबीसी छात्रों ने एससी और एसटी की तुलना में औसतन अधिक वर्षों की शिक्षा प्राप्त की, लेकिन वह सामान्य श्रेणी के छात्रों से कम थी। लेकिन जैसे ही   नौकरी में आरक्षण लागू हो गया, ओबीसी और सामान्य वर्ग के छात्रों के बीच शिक्षा का अंतर कम होता गया। 1993 और 2000 के बीच, ओबीसी छात्रों ने गैर-ओबीसी (सामान्य श्रेणी के छात्रों और एससी-एसटी दोनों सहित) छात्रों द्वारा किसी भी प्रकार से प्राप्त की गई औसतन शिक्षा की तुलना में 1.38 वर्षों की अधिक शिक्षा प्राप्त की। अधिक छात्र न केवल स्कूल जा रहे थे, बल्कि पूर्व-माध्यमिक विद्यालय या माध्यमिक विद्यालय की शिक्षा पूर्ण करने जैसी शैक्षिक सीमाओं को भी पार कर रहे थे।

नीति से बाहर रखे गए सामाजिक समूहों पर प्रभाव

दुर्भाग्य से इसी अवधि (1993-2000) के दौरान, अन्य सामाजिक समूहों, जिन्होंने ओबीसी के समान शिक्षा के स्तर पर शुरुआत की, के सन्दर्भ में ऐसे लाभ नहीं पाए गए क्योंकि वे नीति के लाभार्थी नहीं थे। मुस्लिम छात्र गैर-मुस्लिम छात्रों के बराबर नहीं आ सके थे, और सामान्य वर्ग के गरीब छात्रों का तबका अभी भी अमीरों से पिछड़ रहा था। इसलिए, ओबीसी द्वारा शिक्षा की प्राप्ति में सुधार सभी सामाजिक समूहों के लिए लक्षित उन नीतियों के कारण नहीं हुआ था, अन्यथा सभी समुदायों को लाभान्वित करने के लिए लक्षित इन नीतियों का प्रभाव मुस्लिम छात्रों और गरीब सामान्य श्रेणी के छात्रों पर भी दिखाई देता। उदाहरण के लिए, स्कूली शिक्षा के बुनियादी ढांचे पर कम खर्च करने वाले क्षेत्रों की तुलना में अधिक पैसा खर्च करने वाले क्षेत्रों में ओबीसी के लिए कोई अतिरिक्त लाभ नहीं था। इसके अलावा, गरीब ओबीसी को अपने अमीर समकक्षों की तुलना में दोगुना से अधिक लाभ हुआ। इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि नीति में 'क्रीमी-लेयर' का प्रावधान उन ओबीसी छात्रों को आरक्षण से लाभान्वित होने के लिए प्रतिबंधित करता है जिनके माता-पिता विशिष्ट व्यवसायों में हैं और उनकी आय एक निश्चित सीमा से ऊपर है । इसी प्रकार की बराबरी पूरे देश में देखी गई, न केवल बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां चुनावी राजनीति में भी मजबूत आंदोलन हुए थे। सामान्य तौर पर उपलब्ध प्रमाण दर्शाते हैं कि 1990 के दशक में देशव्यापी नौकरी आरक्षण ने ओबीसी को अधिक समय तक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया।

राज्य स्तर पर आरक्षण नीतियां

ओबीसी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आरक्षण 1990 के दशक में ही शुरू हुआ, जबकि कई राज्यों में काफी वर्षों1 से ओबीसी कोटा था। हालांकि, आरक्षित सीटों का अनुपात और ओबीसी की आबादी का प्रतिशत अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, कुछ दक्षिणी राज्यों में आरक्षण का इतिहास न केवल लंबा रहा, बल्कि आरक्षण की 'तीव्रता' भी उच्च थी, क्योंकि वहां ओबीसी की आबादी के अनुसार अधिक सीटें आरक्षित रही। यदि हम विभिन्न क्षेत्रों में प्रभाव की तुलना करते हैं, तो यह देखा जा सकता है कि ओबीसी की बराबरी उन राज्यों में अधिक स्पष्ट है, जहां आरक्षण की उच्च 'तीव्रता' थी। हालांकि, एक निश्चित स्तर के बाद उच्च कोटे का यह प्रभाव कम हो जाता है, जो आरक्षित सीटों के प्रतिशत को लगातार बढ़ाने से सीमित लाभ का संकेत देता है।

इन परिणामों को बेहतर ढंग से समझने के लिए हम हरियाणा राज्य पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। 1990 में, हरियाणा ने यह पहचानने के लिए एक आयोग की स्थापना की कि किन जातियों (उप-जातियों) को ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए। उन्होंने राज्य-व्यापी सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर एक 'पिछड़ेपन का सूचकांक' बनाया, और एक निश्चित कट-ऑफ से ऊपर किसी भी उप-जाति को ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया, और उन्हें राज्य द्वारा संचालित कॉलेजों में आरक्षण और नौकरियों में आरक्षण के लिए पात्र बनाया। किसी आरक्षण से पहले, कट-ऑफ से ठीक ऊपर की उप-जातियों का आय का स्तर कट-ऑफ के ठीक नीचे की उप-जातियों की तुलना में एक-समान था और वे एक जैसे ही व्यवसायों में काम करते थे। कट-ऑफ से ऊपर की और नीचे की उप-जातियों के बड़ी आयु वाले सदस्यों की शिक्षा का स्तर एक-समान था क्योंकि वे आरक्षण लागू होने के समय अपने स्कूली शिक्षा के फैसले को बदलने हेतु स्कूली आयु पार कर चुके थे। नीति लागू होने के बाद आठ साल तक के एआरआईएस–आरईडीएस2 डेटा का उपयोग करते हुए, मैंने पाया कि इन उप-जातियों के बीच केवल एक ही अंतर था कि कट-ऑफ से ठीक ऊपर की जातियों के युवा सदस्यों (और इसलिए आरक्षण के लिए पात्र थे) ने इस सीमा से ठीक नीचे की जातियों के उनके समकक्षों की तुलना में लगभग दो वर्ष तक की शिक्षा अधिक प्राप्त की । आरक्षण ने इन छात्रों को अधिक समय तक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया था।

समापन टिप्पणी

शैक्षिक असमानताओं को पाटने की जरूरत पर शायद ही कोई विरोध होगा। हालाँकि, मुद्दा  यह है कि इसे कैसे किया जाए। जबकि सकारात्मक कार्रवाई नीतियां छात्रों को अधिक समय तक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं, इन नीतियों की लागतों और लाभों को जोड़ने और निर्णायक रूप से यह तय करने से पहले कि हमें उनका उपयोग करना चाहिए या नहीं, कई अन्य बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। बड़े वर्ग आकार और शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रभाव (सहकर्मी प्रभाव और अन्य कारकों के कारण) जैसी लागतों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। यदि सरकारें सीटों की कुल संख्या नहीं बढाती हैं, तो सामान्य श्रेणी के छात्रों को भी आरक्षण की लागत का भार उठाना पड़ता है, जिनके लिए अब कुछ ही सीटें उपलब्ध हैं। इसके अलावा, ये नीतियां कुछ अन्य समूहों (जैसे सामान्य श्रेणी के गरीब वर्ग) को बाहर करती हैं, जिनकी स्थिति सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर खराब है। इसके अलावा, विभिन्न समूहों द्वारा इन मुद्दों का अंतर्निहित राजनीतिकरण किया जा रहा है जो सभी के हित में नहीं हो सकता है। अतः, ये नीतियां समूहों के बीच के अंतर को मिटाने के लिए सबसे अच्छा साधन हैं या नहीं, यह अन्य संभावनाओं के मूल्यांकन पर निर्भर करता है, जिन पर यहाँ चर्चा नहीं की गई है। हालांकि अभी के लिए, यह स्पष्ट है कि सकारात्मक कार्रवाई ओबीसी जैसे वंचित पृष्ठभूमि के छात्रों को और अधिक वर्षों की शिक्षा प्राप्त करने में और भविष्य में बेहतर नौकरी की संभावनाओं की आशा करने में मदद कर सकती है।

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टिप्पणियाँ:

  1. ब्रिटिश राज के दौरान मैसूर और कर्नाटक जैसे राज्यों में कोटा था। अन्य राज्यों ने 1970 के दशक के आसपास कॉलेज और/या नौकरी कोटा शुरू किया।
  2. नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) ने भारत में ग्रामीण परिवारों का एक पैनल सर्वेक्षण किया है। पहली तीन लहरों (1969, 1970 और 1971) को अतिरिक्त ग्रामीण आय सर्वेक्षण (ARIS) कहा गया। चौथी और पाँचवीं लहरों (1981, 1999) को ग्रामीण आर्थिक और जनसांख्यिकी सर्वेक्षण (REDS) कहा गया। यह पेपर 1999 की लहर का उपयोग करता है।

लेखक परिचय: गौरव खन्ना 2016-17 में सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट में पोस्ट-डॉक्टरल फेलो हैं, और 2017 से यूनिवर्सिटी औफ कैलिफोर्निया सैन डिएगो पब्लिक पॉलिसी स्कूल में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं।

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