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खेत से थाली तक : भारत में सतत पोषण हेतु मोटे अनाज या मिलेट्स पर एकीकृत प्रयास आवश्यक

  • Blog Post Date 18 जनवरी, 2024
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वर्ष 2023 को कदन्न, मोटे अनाजों या मिलेट्स के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में मनाया गया और आई4आई द्वारा आयोजित ई-संगोष्ठी के इस आलेख में, कुमार, दास और जाट मोटे अनाजों की खेती बढ़ाने की क्षमता के बारे में चर्चा करते हैं। वे मोटे अनाजों के पोषण संबंधी लाभों के बारे में जागरूकता बढ़ने के प्रभाव के बावजूद, इन की कम माँग के पीछे के कुछ कारकों की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। साथ ही वे मोटे अनाज को उपभोक्ताओं के लिए किफायती और किसानों के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाने के लिए विभिन्न हितधारकों के बीच समन्वित प्रयासों की ज़रूरत पर प्रकाश डालते हैं। वे उत्पादन को बढ़ावा देने और मोटे अनाज की माँग बढ़ाने के लिए चार रणनीतियों का सुझाव देते हैं।

भारत के एक प्रस्ताव के बाद संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय कदन्न, मोटा अनाज या मिलेट्स वर्ष घोषित किया गया। वर्तमान वैश्विक कृषि खाद्य प्रणालियों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें न केवल भूख बल्कि भारी कुपोषण का बोझ भी शामिल है। कुपोषण भारत की सबसे महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक बनी हुई है (चंद्रा 2022)। वर्तमान में, देश में 80 करोड़ से अधिक लोगों को भोजन उपलब्ध कराने वाली सबसे बड़ी खाद्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) चलाने के बावजूद, वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 121 देशों में से 107 वें स्थान पर था।

भारत और दुनिया भर के लिए खाद्य सुरक्षा और पोषण के लक्ष्य को हासिल करने में मोटे अनाज या मिलेट्स बड़ा योगदान दे सकते हैं। मोटा अनाज, जिसे 'पोषक अनाज' और 'श्री अन्न' भी कहा जाता है, इसमें ज्वार, बाजरा, रागी, कांगनी/काकुन/कोर्रा (फॉक्सटेल) और कुट्टू (बकव्हीट) आदि शामिल हैं। ये अनाज पोषक तत्वों का एक पावर हाउस हैं। अपने उच्च प्रोटीन स्तर और अधिक संतुलित अमीनो एसिड प्रोफाइल के कारण, वे पोषण की दृष्टि से गेहूँ, चावल और मक्का से बेहतर हैं और इसमें फाइटोकेमिकल्स मौजूद होते हैं जिनमें सूजन-रोधी और एंटी-ऑक्सीडेटिव गुण होते हैं। मोटे अनाज वाला आहार फाइबर, अच्छी गुणवत्तावाले वसा, कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, लोहा, मैंगनीज़, जस्ता जैसे खनिजों और बी कॉम्प्लेक्स विटामिनों का एक समृद्ध स्रोत है, और यह टाइप 2 मधुमेह व मोटापे के प्रबंधन में सहायक माना जाता है (राव एवं अन्य 2018, अनिता एवं अन्य 2021)। मोटे अनाज जलवायु की दृष्टि से भी काफी लचीली फसलें होती हैं और इन को कम पानी वाली परिस्थितियों में उगाया जाता है। इस कारण से वर्तमान जलवायु संकट के चलते ये अनाज भविष्य में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण फसलों के रूप में योगदान दे सकते हैं।  

मोटे अनाज की माँग में बदलाव का रुझान

परम्परागत रूप से, भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ज्वार और अन्य मोटे अनाजों से कई खाद्य और पेय पदार्थ बनाए जाते थे, जो स्थानीय खाद्य संस्कृति में मुख्य पौष्टिक भोजन के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। लेकिन एनएसएसओ डेटा पर आधारित रुझानों से पता चलता है कि पिछले कुछ दशकों में अखिल भारतीय स्तर पर ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में, ज्वार, बाजरा और अन्य मोटे अनाजों की खपत में भारी गिरावट आई है। वर्ष 1991-92 और 2011-12 के बीच, ज्वार की वार्षिक प्रति-व्यक्ति खपत में ग्रामीण क्षेत्रों में 73.49% (9.96 से 2.64 किलोग्राम) और शहरी क्षेत्रों में 60.60% (3.96 से 1.56 किलोग्राम) की गिरावट आई। कई सूक्ष्म-स्तरीय अध्ययनों में भी इसी तरह के रुझान देखे गए हैं। ज्वार और अन्य मोटे अनाजों की प्रति-व्यक्ति खपत में यह भारी गिरावट मुख्य रूप से उन नीतियों के कारण हुई है जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और पीडीएस के माध्यम से गेहूँ और चावल को बढ़ावा देती हैं। मोटे अनाज को छोड़ने और उपभोग व्यवहार में बदलाव के अन्य कारकों में प्रति-व्यक्ति आय में वृद्धि, बढ़ता शहरीकरण, धान और गेहूँ जैसे अनाजों और उत्पादों की अधिक सुविधा, उपभोक्ताओं की स्वाद प्राथमिकताओं में बदलाव, वैश्वीकरण और गैर-मोटे अनाज प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थो पर अत्यधिक ध्यान शामिल हैं। संबंधित नीति और बाज़ार ताकतों के माध्यम से होने वाली दीर्घकालिक विकृतियों के कारण उपभोक्ता व्यवहार में बदलाव आया है और इससे मोटे अनाज की सापेक्ष माँग में कमी आई है।  

साथ ही, कपास और मक्का जैसी व्यावसायिक फसलें अपनी प्रौद्योगिकी-आधारित उपज वृद्धि और अपेक्षाकृत विकसित मूल्य श्रृंखलाओं के कारण अधिक आकर्षक हो गईं हैं। परिणामस्वरूप, मोटे अनाजों की खेती को कम उत्पादक भूमि पर धकेल दिया गया। एफएओ डेटाबेस से पता चला कि 1990-2020 के बीच, ज्वार के फसल उगाई क्षेत्र में 62% और मोटे अनाजों के क्षेत्र में 36% की गिरावट आई है। इस प्रकार, मोटे अनाज के उत्पादन और खपत में गिरावट, माँग और आपूर्ति पक्ष के कारकों और नीतियों, दोनों के कारण हुई।

एक सकारात्मक बात यह है कि कुपोषण को दूर करने और कई अन्य स्वास्थ्य परिणाम प्राप्त करने में पोषक तत्वों से भरपूर इन ग्लूटेन-मुक्त मोटे अनाजों की क्षमता का एहसास स्वास्थ्य के प्रति जागरूक उपभोक्ताओं और नीति-निर्माताओं में धीरे-धीरे बढ़ रहा है। हाल ही में लागू किए गए राष्ट्रीय और राज्य मोटा अनाज मिशनों के माध्यम से, भारत सरकार और ओडिशा, महाराष्ट्र, असम, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु जैसे कई राज्य कुपोषण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए, विशेषकर शुष्क क्षेत्रों में मोटे अनाज के उत्पादन, वितरण और खपत को पौष्टिक व लचीली फसल के रूप में बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं। 

मोटे अनाजों की मूल्य श्रृंखला को मजबूत करना

पिछले कुछ वर्षों में, पोषण विशेषज्ञ, पर्यावरणविद् और सरकार बड़े पैमाने पर ज्वार, बाजरा, रागी और दूसरे मोटे अनाजों के पोषक मूल्य को बढ़ावा दे रहे हैं। फिर भी, जागरूकता के लिए किए गए इन प्रयासों के नतीजे कई सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और बाज़ार-संबंधित कारकों के कारण विशेष माँग के रूप में परिवर्तित नहीं हुए हैं। बल्कि, इसके परिणामस्वरूप एक अवांछनीय बाज़ार परिणाम सामने आया है, जिसमें शहरी उपभोक्ताओं के लिए मोटे अनाज या और उनके आटे की कीमत बहुत अधिक हो गई है, जबकि उत्पादकों को मिलने वाली कीमतें कम हैं। उदाहरण के लिए, 2022-23 की आखिरी फसल में, उत्तर भारत में कई स्थानों पर किसानों को बाजरे की न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत कम कीमत मिली।

इसमें योगदान देने वाले कई कारक हैं, जैसे कि खराब तरीके से चलने वाली मोटे अनाज की मूल्य श्रृंखला का अर्थ यह है कि छोटे प्रोसेसर्स को उच्च लागत वहन करनी पड़ती है क्योंकि उन्हें खुदरा विक्रेताओं के ज़रिए नए बाज़ार बनाने पड़ते हैं और ये विक्रेता काफी अधिक मार्जिन चाहते हैं। स्थिर माँग और सार्वजनिक खरीद में कमी के कारण, फसल काटने के समय भी इनकी कीमत अनुकूल नहीं होती। इसके अलावा, चूंकि मोटे अनाजों का आट जल्दी खराब हो जाता है यानी इनकी शेल्फ लाइफ अपेक्षाकृत कम (20-30 दिन) होती है, इसलिए कम्पनियाँ अपनी लागत वसूलने और व्यवसाय की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए इसे अधिक कीमत पर बेचती हैं। कई कम्पनियाँ अमीर, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक ग्राहकों को लक्षित करती हैं जिससे इन अनाजों के बाज़ार मूल्य में वृद्धि होती है। इस प्रकार, शहरी उपभोक्ताओं (विशेष रूप से निम्न आय वर्ग के) के एक बड़े हिस्से के लिए मोटा अनाज पहुँच से बाहर हो गया है, जबकि ग्रामीण उपभोक्ता- जिनमें से दो-तिहाई से अधिक को सब्सिडी वाला गेहूँ और चावल 2-3 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से मिलता है, हो सकता है कि वे 30-40 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से मोटा अनाज खरीदने को तैयार न हों। इस तरह अधिकांश मामलों में मोटे अनाजों की खेती किसानों के लिए आर्थिक रूप से कम आकर्षक बनी हुई है।

अब तक वर्तमान सरकार के प्रयासों के परिणामस्वरूप विभिन्न हितधारकों, ख़ासतौर से स्वास्थ्य के प्रति जागरूक शहरी उपभोक्ताओं में मोटे अनाज के लाभों के बारे में जागरूकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। इस दिशा में, अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के लिए अंतर्राष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान (आईसीआरआईएसएटी) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद- भारतीय कदन्न अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर-आईआईएमआर) जैसे संस्थानों के प्रयासों से गति मिलने के कारण कई उद्यमियों और स्टार्ट-अप के साथ-साथ, आईटीसी, टाटा, हिंदुस्तान यूनिलीवर, ब्रिटानिया जैसे बड़े निजी उद्यमों को मोटे अनाज प्रसंस्करण में शामिल होने के लिए प्रोत्साहन मिला है।

लेकिन मोटे अनाज की मूल्य श्रृंखला टूटी हुई है। प्रसंस्कृत कदन्न उत्पाद कुल अनाज खपत का केवल एक छोटा-सा हिस्सा है, क्योंकि इसकी कीमत कम आय वाले उपभोक्ताओं की पहुँच से बाहर हो गई है, जो पोषण संबंधी सबसे बड़ी चुनौतियों का सामना करते हैं। हालांकि ‘मिलेट अम्मा’, हैदराबाद में ‘ट्रू गुड’ और ‘24 मंत्रा’ के रूप में मोटे अनाज उत्पादों की कुछ सफलता की कहानियाँ हैं, लेकिन अधिकांश को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जिसमें पूरे वर्ष मोटे अनाज की असंगत आपूर्ति, इनके आटे की सीमित शेल्फ-लाइफ, नियमित माँग की कमी, उपयुक्त प्रसंस्करण मशीनों की कमी और उचित आपूर्ति श्रृंखला के अभाव में खुदरा विक्रेताओं द्वारा अधिक मार्जिन की माँग शामिल है।

ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं के लाभ के लिए कदन्न की माँग बढ़ाने का अच्छा इरादा रखती है। इसे हासिल करने के लिए पहला कदम मोटे अनाज की सार्वजनिक खरीद को बढ़ाना होगा। हालांकि, वर्तमान में बाजरा और ज्वार की सरकारी खरीद उनके कुल घरेलू उत्पादन का केवल 1 से 3% है, जबकि गेहूँ और धान के लिए यह 45 से 70% है। रागी की स्थिति थोड़ी बेहतर है, इसके कुल उत्पादन का लगभग 15% सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदा जाता है। यह अच्छी खबर है कि सरकार ने वर्ष 2023-24 के दौरान 20 लाख टन से अधिक मोटा अनाज खरीदने की योजना बनाई है, हालांकि इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा समन्वित प्रयास किए जाने की आवश्यकता होगी।

मोटे अनाज की खेती और खपत को बढ़ावा देने के लिए रणनीतियाँ

लघु और दीर्घकालिक सीमा पर विचार करते हुए, आपूर्ति और माँग दोनों पक्षों के हस्तक्षेप के माध्यम से कदन्न उत्पादन को किसानों के लिए आर्थिक रूप से प्रतिस्पर्धी बनाना पहली और सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिकता होनी चाहिए। मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए नीतियाँ तैयार करते समय, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा पहलू के प्रति सचेत रहने की आवश्यकता है। सरकार की योजना वर्ष 2030 तक वार्षिक कदन्न उत्पादन को 180 लाख टन से कम के मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 450 लाख टन करने की है। वर्तमान में औसत कदन्न उत्पादकता 1 से 1.5 टन प्रति हेक्टेयर है, जो धान की औसत उत्पादकता से बहुत कम है। अतः उचित लक्ष्य के बिना, धान की खेती के क्षेत्र को मोटे अनाज में परिवर्तित करने के किसी भी प्रयास का देश की खाद्य सुरक्षा पर गम्भीर प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए, पौष्टिक और जलवायु के अनुकूल मोटे अनाजों को बढ़ावा देने की रणनीति में निम्नलिखित नीतिगत कार्रवाइयों पर विचार किया जाना चाहिए : 

i) विस्तार और उत्पादकता में वृद्धि :  हर राज्य में व्याप्त विभिन्न कृषि-पारिस्थितिकी प्रणालियों में, कदन्न उत्पादन के लिए बहुआयामी फसल उपयुक्तता विश्लेषण के ज़रिए सबसे उपयुक्त क्षेत्रों की पहचान करने की ज़रूरत है। ऐसे कई जिले होंगे जहाँ धान और अन्य प्रतिस्पर्धी फसलों की तुलना में मोटा अनाज अधिक प्रतिस्पर्धी हो सकता है, और बिना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा से समझौता किए इन्हें उगाया जा सकता है। जिला स्तर पर, भारत के कुछ प्रमुख राज्यों- झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और बिहार में, 3-5 वर्षों के आँकड़ों के आधार पर किए गए हमारे लागत-लाभ विश्लेषण में हमने पाया कि कई जिलों में वर्षा आधारित उपरी-भूमि के धान की तुलना में मोटे अनाज औसतन अधिक लाभदायक थे। इस अध्ययन में 1.53 टन/हेक्टेयर की औसत उपज वाले 125 प्रमुख धान उत्पादक जिलों की जांच की गई। इसी प्रकार से, मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल राज्यों में 1.46 टन/हेक्टेयर की औसत उपज वाले 50 मक्का उत्पादक ऐसे जिले हैं, जहाँ उपरी-भूमि के धान और मक्का, या 'प्रतिस्पर्धी फसलों' की औसत उत्पादकता 2 टन/हेक्टेयर से कम है, मोटे अनाज की खेती के संभावित क्षेत्र हो सकते हैं।

उपज स्तर और प्रत्यक्ष आर्थिक रिटर्न के अलावा, पशुओं के लिए चारे की स्थान-विशिष्ट माँग भी प्राथमिकता का एक कारक हो सकती है। इसके अतिरिक्त, उच्च उपज देने वाली किस्मों और उच्च क्षमता वाली लैंडरेस यानी भूमि प्रजातियों1 को बढ़ाने के लिए आवश्यकता-आधारित बीज प्रणालियों को मजबूत करने और उपज संबंधी बाधाओं को दूर करने के लिए अनुसंधान एवं विकास निवेश में वृद्धि लाने से कदन्न की खेती को लाभ होगा। मोटे अनाज की फसलों की दक्षता, लचीलेपन में सुधार और किसानों के कठिन परिश्रम को कम करने के लिए बड़े पैमाने पर उपयुक्त मशीनीकरण भी बड़ा महत्वपूर्ण है।

ii) माँग निर्माण : विभिन्न अनुमानों के अनुसार, वर्तमान में ज्वार और मोटे अनाजों का भारत के मुख्य आहार2में औसतन लगभग 6-7% अंशदान है। पोषण विशेषज्ञों का सुझाव है कि इसे 15-20% तक बढ़ाया जा सकता है, जिससे कदन्न की घरेलू माँग को तीन से चार गुना तक बढ़ सकती है। पाँच मुख्य क्षेत्र हैं जहाँ सरकार इनकी माँग को बढाने के लिए हस्तक्षेप कर सकती है- (क) सार्वजनिक खरीद और पीडीएस, मध्याह्न भोजन, आंगनवाड़ी केन्द्रों, सरकार समर्थित भोजन कार्यक्रमों, छात्रावासों और कैंटीनों में मोटे अनाज को शामिल करना, (ख) अक्षयपात्र और निजी छात्रावासों जैसे बड़े पैमाने की गैर-सरकारी सामुदायिक रसोइयों को मोटा अनाज शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करना, (ग) ज्वार और अन्य मोटे अनाजों के पोषक मूल्य के बारे में जागरूकता बढ़ाना, (घ) आसान पहुँच और उपयोग की सुविधा बढ़ाने के लिए विभिन्न कारकों को नीतिगत समर्थन प्रदान करना और (ट) पशु आहार, शराब/बियर बनाने, कपड़ा, जैव ईंधन, फार्मास्यूटिकल्स में मोटे अनाज के औद्योगिक उपयोग को बढ़ावा देना। कदन्न की सार्वजनिक खरीद में बढ़ोतरी और इसे पीडीएस में शामिल करना इस दिशा का पहला कदम आवश्यक है, लेकिन यह उपभोग व्यवहार को बदलनेके लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए, विभिन्न हितधारकों को शामिल कर के जागरूकता और पोषण संबंधी जानकारी बढ़ाने के बारे में ठोस प्रयासों की आवश्यकता है।

iii) कुशल आपूर्ति और मूल्य श्रृंखला : हालांकि भारतीय खाद्य निगम द्वारा प्रबंधित सार्वजनिक खरीद की वर्तमान प्रणाली राज्यों में विकेंद्रीकृत की गई है, कदन्न की खरीद और वितरण को छोटी प्रशासनिक इकाइयों में और आगे विकेंद्रीकृत किए जाने की आवश्यकता पड़ सकती है। जिले या जिलों के समूह को मोटा अनाज उत्पादन, खरीद, प्रसंस्करण और वितरण के लिए स्थानीय केन्द्र बनने में सक्षम बनाया जा सकता है। इससे परिवहन और भंडारण की लागत कम हो जाएगी, भंडारण के दौरान अनाज के खराब होने का जोखिम कम हो जाएगा और इसकी पहुँच भी बढ़ जाएगी। प्रत्येक जिले को पीडीएस, मध्याह्न भोजन, आंगनवाड़ी केन्द्रों, सरकार समर्थित भोजन कार्यक्रमों, छात्रावासों और कैंटीनों के लिए मोटा अनाज खरीदने और वितरित करने के लिए अधिकृत किया जा सकता है।

यद्यपि घरेलू बाज़ार माँग का प्राथमिक स्रोत बना रहेगा, लेकिन मोटे अनाज के उत्पादों की निर्यात माँग विशेष रूप से उच्च आय वाले देशों के विशिष्ट बाज़ार में भी बढ़ने की सम्भावना है। हम वैश्विक माँग में इस सम्भावित वृद्धि का लाभ तभी उठा सकते हैं जब घरेलू आपूर्ति और मूल्य श्रृंखला को व्यवस्थित किया जाए। एसएमई और बड़े निजी क्षेत्र के उद्यमियों के साथ मिलकर प्रसंस्कृत कदन्न के निर्यात का समर्थन करने, शेल्फ-लाइफ बढ़ाने के लिए अनुसंधान एवं विकास निवेश बढ़ाने और पोषण बनाए रखने वाले सुविधाजनक उत्पाद बनाने और विभिन्न स्तरों पर प्रसंस्करण के लिए छोटे पैमाने की प्रसंस्करण मशीनरी का उपयोग करने को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।

iv) हरित/कार्बन क्रेडिट के माध्यम से प्रोत्साहन : ऊपरी-भूमि में धान उत्पादन के स्थान पर मोटे अनाज के उत्पादन की ओर सम्भावित बदलाव के कारण जीएचजी उत्सर्जन में कमी से कार्बन क्रेडिट उत्पन्न करने की उच्च क्षमता है, जो किसानों के लिए अतिरिक्त प्रोत्साहन का ज़रिया बन सकता है। हालांकि, इस उभरते अवसर का लाभ उठाने के लिए विज्ञान समर्थित प्रयासों की आवश्यकता होगी।

अंततः मोटे अनाज को मानव जाति के लिए प्रकृति का उपहार माना जा सकता है। भारत के पोषण संबंधी अच्छे परिणामों को प्राप्त करने, कृषि के लचीलेपन में सुधार करने और भविष्य में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कदन्न को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण हो सकता है। वांछित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक सुविचारित, विज्ञान समर्थित, डेटा-संचालित रणनीति और इस लेख में उल्लिखित सक्षम नीतियाँ आवश्यक होंगी।

टिप्पणियाँ:

  1. लैंडरेस यानी भूमि प्रजातियाँ एक ऐसा शब्द है जिसका उपयोग कृषि में पारम्परिक या स्थानीय रूप से अनुकूलित फसलों की किस्मों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है, जो प्राकृतिक चयन और किसानी प्रथाओं के माध्यम से समय के साथ विकसित हुई हैं। ये फसल की किस्में किसी विशेष क्षेत्र की विशिष्ट पर्यावरणीय परिस्थितियों और कृषि पद्धतियों के लिए उपयुक्त हैं और कृषक समुदायों द्वारा संरक्षित हैं, लेकिन विविधता की प्रक्रिया में जारी नहीं की गई हैं। लैंडरेस में आम तौर पर लचीलेपन, अनुकूलनशीलता और उर्वरक या कीटनाशकों जैसे व्यापक इनपुट कम आवश्यकता से स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में पनपने की क्षमता की विशेषता होती है।
  2. चावल और गेहूँ की अनुमानित प्रति-व्यक्ति वार्षिक खपत 142 किलोग्राम है, जबकि ज्वार और मोटे अनाज की प्रति व्यक्ति अनुमानित खपत 10.16 किलोग्राम है।f 

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : शैलेन्द्र कुमार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद- भारतीय कदन्न अनुसंधान संस्थान (आईसीआरआईएसएटी) के ईएसटी कार्यक्रम के उप वैश्विक अनुसंधान कार्यक्रम निदेशक हैं, मांगी लाल जाट संस्थान के आरएफएफएस कार्यक्रम के वैश्विक अनुसंधान कार्यक्रम निदेशक हैं और अभिषेक दास वैज्ञानिक हैं।

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