सकारात्मक कार्रवाई के बारे में बहस हमेशा योग्यता बनाम सामाजिक न्याय के सवाल में घिरी रही है, और जाति-आधारित जनगणना किये जाने की चर्चा ने एक बार फिर से अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के आरक्षण से संबंधित विवाद को ताज़ा किया है। भारत के प्रमुख राज्यों के 1960 से 2012 तक के आंकड़ों के आधार पर, यह लेख सामाजिक खर्च के माध्यम से विकास को आकार देने में ओबीसी लामबंदी की भूमिका की जांच करता है।
जाति-आधारित जनगणना किये जाने की चर्चा ने एक बार फिर से अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण पर बहस शुरू कर दी है। सकारात्मक कार्रवाई के बारे में बहस हमेशा योग्यता बनाम सामाजिक न्याय के सवाल में घिरी रही है। जाति व्यवस्था निश्चित तौर पर सामाजिक स्तरीकरण के सबसे कठोर रूपों में से एक है, और यह व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक परिणामों को तय करना जारी रखती है (चक्रवर्ती 2021)। आरक्षण के आलोचकों का तर्क है कि सार्वजनिक रोजगार प्रदर्शन पर आधारित होना चाहिए। इसके प्रत्युत्तर में, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हमारे जैसे असमान समाज में 'योग्यता' के सही अर्थ पर सवाल उठाया है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने ओबीसी की गणना के लिए केंद्र में मौजूदा शासन की अनिच्छा के बारे में लिखा है क्योंकि इसकी परिणति "मंडल II"1 के रूप में हो सकती है- जो ओबीसी लामबंदी की एक नई लहर बनकर क्षेत्रीय दलों को लाभ पहुंचा सकती है। डेटा-इच्छुक टिप्पणीकारों ने ओबीसी के भीतर विविधता और कोटा प्रणाली के पुनर्गठन में जनगणना के संभावित प्रभावों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया है।
ये सभी प्रश्न वैध हैं। लेकिन क्या सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण विकास में मदद कर सकता है? आखिरकार, लोक-सेवकों से जनता के कल्याण हेतु काम करने की अपेक्षा की जाती है। सकारात्मक कार्रवाई के बारे में बहुतायत शोध उपलब्ध हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर विशेष रूप से अनुसूचित जाति (एससी) और एक हद तक अनुसूचित जनजाति (एसटी) पर केंद्रित हैं। ओबीसी पर डेटा की कमी का मतलब यह भी है कि हम ओबीसी राजनीति को अच्छी तरह से नहीं समझते हैं। हाल के एक अध्ययन (चक्रवर्ती 2021) में, मैंने पाया कि भारत में जाति-आधारित लामबंदी ने किस प्रकार से देश में विकास को आकार दिया है।
ओबीसी और ओबीसी आरक्षण का इतिहास
आइए कुछ ऐतिहासिक संदर्भ से शुरू करते हैं। 1870 के दशक में मद्रास प्रेसीडेंसी में ओबीसी शब्द के प्रयोग का सन्दर्भ मिलता है। ब्रिटिश प्रशासन ने सकारात्मक कार्रवाई हेतु निम्न जाति के समूहों की पहचान करने के लिए शूद्र2 और 'अछूत' जातियों को "पिछड़े वर्गों" के लेबल के तहत जोड़ा। 1935 के भारत सरकार अधिनियम में अछूतों को अनुसूचित जाति के रूप में पुनर्वर्गीकृत किया गया। स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने इस वर्गीकरण का उपयोग करना जारी रखा (जैफ्रेलॉट 2003)। श्री बी.आर. अम्बेडकर जी के प्रयासों के कारण सरकार ने जाति उत्पीड़न को बड़े पैमाने पर कम करने के लिए ठोस उपाय किये। 1950 में अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया और सरकार ने केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर एससी और एसटी के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व अनिवार्य कर दिया। संविधान ने ओबीसी के लिए प्रावधान करने का भी संकल्प लिया था (जैफ्रेलॉट 2003)। काका कालेलकर और बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में क्रमशः 1953 और 1978 में पिछड़ी जाति हेतु दो केन्द्रीय स्तर के आयोग गठित किये गए। फिर भी, "ओबीसी" 80 के दशक के अंत तक एक अमूर्त प्रशासनिक श्रेणी बना रहा।
मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह द्वारा 1989 में ओबीसी के लिए आरक्षण की घोषणा किये जाने के बाद पूरे उत्तर भारत में उच्च जाति के छात्रों द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया गया। कुछ विद्वानों ने तर्क दिया कि इस अवधि के दौरान एक मजबूत चुनावी ताकत के रूप में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का उदय, उच्च जाति के समर्थन को आकर्षित करके निचली जातियों (कॉर्ब्रिज और हैरिस 2000) की उन्नति के खिलाफ किये गए "कुलीन विद्रोह" को दर्शाता है। इसके कारण अन्यथा विभाजित शूद्रों की प्रति-लामबंदी ने ओबीसी को राजनीतिक रूप से एक प्रमुख समूह के रूप में एकत्रित किया।, 90 के दशक में ओबीसी के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में काफी वृद्धि हुई, जिसे योगेंद्र यादव ने भारत का "दूसरा लोकतांत्रिक उत्थान" (यादव 2000) कहा है। चित्र 1 जैफ्रेलॉट और कुमार (2009) के शोध में एकत्र किए गए मूल आंकड़ों के आधार पर राज्य विधानसभाओं में विभिन्न जाति समूहों के प्रतिनिधित्व को दर्शाता है। ओबीसी को लामबंद करने वाली राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और समाजवादी पार्टी (सपा) जैसी पार्टियां राजनीति के इस "मंडलीकरण" (यादव 2000) के साथ महत्वपूर्ण रूप से आगे बढ़ीं- और इसी कारण से भाजपा को नई जाति-आधारित जनगणना का डर हो सकता है।
चित्र 1. राज्य विधानसभाओं में जाति-आधारित प्रतिनिधित्व का वितरण, दशक के आधार पर
नोट: (i) आंकड़े राज्य-स्तरीय जनसंख्या वितरण के लिए हैं- 1 का मान इंगित करता है कि किसी समूह का प्रतिनिधित्व उसकी जनसंख्या के समानुपाती होता है। (ii) संदर्भ रेखाएँ संबंधित समूहों के माध्यिका प्रतिनिधित्व को दर्शाती हैं।
90 के दशक की शुरुआत तक, भारत के अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्री गैर-ब्राह्मण थे, जो ज्यादातर ओबीसी समूहों (जैफ्रेलॉट और कुमार 2009) से आते थे। इन नेताओं ने अपने-अपने राज्यों में ओबीसी आरक्षण पर जोर दिया। राजनीतिक प्रतिनिधित्व के रुझानों के विपरीत, ओबीसी आरक्षण में सबसे तेज वृद्धि 1993 के बाद मंडल आयोग की रिपोर्ट (चित्र 2) के कार्यान्वयन के बाद हुई। स्वतंत्रता के ठीक बाद ओबीसी कोटा दक्षिण भारत के केवल चार राज्यों- तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक तक सीमित था। इसका कारण यह है कि दक्षिण भारत में निम्न जाति के सामाजिक आंदोलनों का बहुत लंबा इतिहास रहा है।, उदाहरण के लिए, तमिलनाडु राज्य में जस्टिस पार्टी द्वारा की गई राजनीतिक लामबंदी का नेतृत्व शूद्रों ने किया था। 1935 के प्रांतीय चुनावों तक, मद्रास प्रेसीडेंसी की विधायिका में पहले से ही दो-तिहाई गैर-ब्राह्मण थे। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत में पिछड़ी जाति के लिए पहला आरक्षण 1921 में मद्रास में जस्टिस पार्टी के तहत लागू किया गया था।
चित्र 2. सार्वजनिक रोजगार में राज्य-स्तरीय ओबीसी आरक्षण
ओबीसी आरक्षण और विकास
वर्तमान में सभी राज्यों में सार्वजनिक रोजगार में ओबीसी के लिए कुछ स्तर का कोटा है। ऐसे कोटा का विकास पर क्या प्रभाव पड़ा है? विद्वानों ने आमतौर पर ओबीसी आरक्षण को संरक्षण की राजनीति का एक रूप माना है। उदाहरण के लिए, मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के कुछ साल बाद, राजनीतिक वैज्ञानिक मायरोन वीनर ने ओबीसी आरक्षण को "कार्यालय की लूट को बाँटने की पेशकश, गरीबों के लिए सामाजिक न्याय का वादा नहीं" (वीनर 1991) के रूप में वर्णित किया। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पिछड़ी जाति के दलों के नेतृत्व वाली सरकारों को "नव-पैतृक" के रूप में वर्णित किया गया है- वे राज्य जो सार्वजनिक कीमत पर निजी हित साधते हैं (कोहली 2012)। जबकि कुछ राज्यों में संरक्षण और कुशासन की चिंताएं व्यर्थ नहीं हैं (बनर्जी और पांडे 2007), विकास पर ओबीसी राजनीति के प्रभाव के बारे में बहुत कम अनुभव-जन्य शोध किया गया है।
विकास को मापने का एक विश्वसनीय तरीका सार्वजनिक व्यय को माना जाता है। सरकारें अपने सीमित संसाधनों को आर्थिक या सामाजिक क्षेत्रों में वितरित करना चुन सकती हैं। आर्थिक क्षेत्र- जैसे उद्योग, बंदरगाह, राजमार्ग आदि, आम तौर पर निजी निवेश को आकर्षित करके आर्थिक विकास में सहायता करते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक सुरक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्र जनता के कल्याण को बढ़ावा देते हैं। सामाजिक विज्ञान में प्रभावशाली सिद्धांतों का तर्क है कि मजदूर वर्ग के गठबंधन सामाजिक कल्याण का समर्थन करते हैं (एसेमोग्लू और रॉबिन्सन 2006, रुएशेमेयर एवं अन्य 1992)। भारतीय संदर्भ में, ओबीसी और एससी राजनेताओं से सामाजिक व्यय का समर्थन करने की अपेक्षा की जानी चाहिए।
मैं भारतीय रिज़र्व बैंक के बजट डेटा के आधार पर पुनर्वितरण को सामाजिक क्षेत्रों में जाने वाले विकासात्मक खर्च के अनुपात के रूप में मापती हूं। मैं पहले उल्लेखित विधायकों (विधानसभा के सदस्यों) की जातिगत पृष्ठभूमि पर डेटा का उपयोग राजनीतिक प्रतिनिधित्व को मापने के लिए करती हूं और औपनिवेशिक काल से ओबीसी आरक्षण पर एक डेटासेट तैयार करने हेतु कई स्रोतों3 का उपयोग करती हूं। जाति ही एकमात्र कारक नहीं है जो विकास को आकार देती है, अतः, मैं राज्य की क्षमता, आय, सत्तारूढ़ गठबंधन की राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक भागीदारी सहित कई आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक कारकों की गणना करती हूं, जिन्हें पुनर्वितरण को प्रभावित करने के सन्दर्भ में दिखाया गया है। कुल मिलाकर, इस विश्लेषण में 16 प्रमुख राज्य शामिल हैं, और 1960 से 2012 तक की लगभग 95% आबादी शामिल है।
अपेक्षा के विपरीत, मैंने पाया कि अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग दोनों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व पुनर्वितरण खर्च से जुड़ा नहीं है। हालांकि, नौकरशाही में उच्च ओबीसी आरक्षण-सहित अधिक ओबीसी राजनीतिक प्रतिनिधित्व वाले स्थानों पर सामाजिक क्षेत्रों में अधिक खर्च करने की संभावना है। चित्र 3 में मैं आनुपातिक और पूर्ण सामाजिक खर्च दोनों के माध्यम से मापे गए पुनर्वितरण पर ओबीसी आरक्षण के सीमांत प्रभाव को अंकित करती हूं।
चित्र 3. सामाजिक क्षेत्रों में विकास व्यय (बाएं) और प्रति व्यक्ति व्यय (दाएं) के अनुपात के संदर्भ में पुनर्वितरण पर ओबीसी आरक्षण का सीमांत प्रभाव
क्या आरक्षण कारगर है?
पुनर्वितरण हेतु ओबीसी राजनीतिक समर्थन को प्रशासनिक आरक्षण के साथ क्यों बढ़ाना चाहिए? इस प्रश्न पर और अधिक शोध की आवश्यकता है, लेकिन हम जानते हैं कि नौकरशाह सरकारी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में शामिल मुख्य व्यक्ति होते हैं। स्थानीय नौकरशाह भी अक्सर नागरिकों के जीवन में सरकार के सबसे अधिक दिखाई देने वाले व्यक्ति होते हैं। विकास परियोजनाओं को डिजाइन करने और उन्हें क्रियान्वित करने में उनकी अक्षमता या अनिच्छा राजनीतिक वर्ग की नीतियों की सफलता को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती है। बिहार में अपने क्षेत्रीय शोध के दौरान, मैंने पाया कि स्थानीय स्तर पर निचली जाति के अधिकारियों की नियुक्ति लंबे समय से स्थापित उच्च-जाति संरक्षण नेटवर्क को तोड़ने में मदद कर सकती है और इसलिए संभावित रूप से सरकारी कार्यक्रमों के 'कुलीन कब्जा' को कम कर सकती है। विभिन्न क्षेत्रों की विकास परियोजनाओं में जातिगत पूर्वाग्रह को शिक्षा और पोषण सहित प्रलेखित किया गया है (थोराट और ली 2012, वीनर 1991)। एक अधिक प्रतिनिधिक नौकरशाही भी शासन को व्यापक आबादी के लिए अधिक सुलभ बना सकती है और नागरिकों को शासन पर प्रश्न करने की अनुमति दे सकती है। उदाहरण के लिए, राजद द्वारा निचली जातियों से संबंधित अधिक अधिकारियों को नियुक्त करने के बाद आये परिवर्तन को याद करते हुए बिहार-कैडर के एक आईएएस अधिकारी ने टिप्पणी की, "निम्न जाति के लोगों ने डीएम (जिला मजिस्ट्रेट) या बीडीओ (खण्ड विकास अधिकारी) के कार्यालय में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं की होगी। उन्होंने सोचा कि अगर उन्होंने कुछ कहा, तो उन्हें दंडित किया जाएगा। वह अब बदल गया। अब वे आत्मविश्वास से डीएम के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं। उन्हें नहीं पता उनका काम होगा या नहीं, लेकिन अब वे बिना किसी डर के उनके कार्यालय में प्रवेश कर सकते हैं।"
ये निष्कर्ष हमें आरक्षण की सीमाओं के बारे में कुछ उपयोगी जानकारी देते हैं। अनुसूचित जाति की राजनीति के विद्वानों ने तर्क दिया है कि चूँकि अधिकांश दल गैर-अनुसूचित जाति के राजनेताओं द्वारा नियंत्रित होते हैं (जेन्सेनियस 2017, डनिंग और नीलेकणी 2013), अतः अनुसूचित जाति के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के वितरण संबंधी प्रभाव सीमित हैं। दलितों की मजबूत लामबंदी के अभाव5 में, अनुसूचित जाति के नेताओं की नीतिगत वरीयता उन पार्टियों के एजेंडे से कमजोर होने की संभावना है जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं (जेन्सेनियस 2017, आहूजा 2019)। अधिकांश मुख्य-धारा की पार्टियां कमजोर एससी नेताओं को चुनती हैं जो पार्टी संगठनों में हाशिए पर रहते हैं। कांशीराम, सबसे बड़े एससी राजनेताओं में से एक, कोटा के माध्यम से चुने गए और केवल पार्टी नेताओं के आदेशों का पालन करने वाले एससी राजनेताओं के चमचे (चापलूस) के रूप में संदर्भित थे (जाफरेलॉट 2003)। उत्तर प्रदेश में सफल रही बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के अपवाद के साथ, विधानसभाओं में अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व बड़े पैमाने पर राज्य के जनादेश का परिणाम है। नीतिगत निर्णयों को लागू करने के लिए आवश्यक राजनीतिक एजेंसी प्रदान करने हेतु केवल जनादेश प्रतिनिधित्व ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ मजबूत लामबंदी की जरूरत है। हालांकि जाति और विकास पर अधिकांश शोध अनुसूचित जातियों पर केंद्रित रहे हैं, भारत में जाति-आधारित लामबंदी का नेतृत्व बड़े पैमाने पर ओबीसी द्वारा किया गया है।
इसका मतलब यह नहीं है कि हमें संरक्षण की राजनीति से आंखें मूंद लेनी चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उत्तर भारत में ओबीसी की लामबंदी अपेक्षाकृत नई है और कुल मिलाकर, अधिकांश राज्य सरकारों में निचली जातियों का प्रतिनिधित्व अभी भी कम है। केरल और तमिलनाडु को सामाजिक विकास के मॉडल के रूप में माना जाता है, लेकिन इन राज्यों की राजनीति दशकों तक 'पहचान की राजनीति' में फंसी रही (मैथ्यू 1982)। यदि दक्षिणी राज्यों का राजनीतिक प्रक्षेपवक्र ओबीसी राजनीति के भविष्य के लिए कुछ संकेत प्रदान करता है- समूह-आधारित और प्रतिनिधित्व संबंधी मांगों की चिंताएं धीरे-धीरे एक व्यापक कल्याण एजेंडे और लंबी अवधि के लिए एक समावेशी नागरिक समाज का मार्ग प्रशस्त करती हैं। शायद ओबीसी राजनीति की पुनर्वितरण क्षमता के बारे में हमारे पास कुछ हद तक आशावादी होने का कारण है।
इस पोस्ट का एक छोटा संस्करण हिंदुस्तान टाइम्स में छपा है।
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टिप्पणियाँ:
- 1972 में मंडल आयोग की स्थापना "सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े" की पहचान करने और इन समूहों के खिलाफ जातिगत भेदभाव के निवारण के लिए आरक्षण पर विचार करने के लिए की गई थी। 1980 में समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की गई थी।
- शूद्र 'श्रमिक' जातियों का एक विषम समूह है जो भारतीय आबादी का लगभग आधा हिस्सा है। इनमें जाट और पाटीदार जैसे कुछ समृद्ध जमींदार समूह शामिल हैं। अधिकांश शूद्र किसान और सेवा श्रमिक हैं।
- अधिक जानकारी के लिए, चक्रवर्ती (2021) देखें।
- विश्वास अंतराल अनुमानित प्रभावों के बारे में अनिश्चितता व्यक्त करने का एक तरीका है। 95% विश्वास अंतराल का अर्थ है कि यदि आप नए नमूनों के साथ प्रयोग को बार-बार दोहराते हैं, तो 95% समय परिकलित विश्वास अंतराल में सही प्रभाव होगा।
- भारतीय जाति-व्यवस्था के अनुसार, दलित (आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जाति) सबसे निचली जातियों के सदस्य हैं जो ऐतिहासिक रूप से अस्पृश्यता की प्रथा के अधीन थे।
लेखक परिचय: पौलोमी चक्रवर्ती क्वीन्स यूनिवर्सिटी में राजनीतिक अध्ययन विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में वेदरहेड सेंटर फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स में पोस्टडॉक्टरल फेलो हैं।
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