अक्तूबर 11 पूरी दुनिया में अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य है देशों, समुदायों और समाजों को बालिकाओं के महत्त्व के बारे में याद दिलाना और उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में बराबरी का स्थान दिलाना। इसी सन्दर्भ में आज का यह लेख प्रस्तुत है जिसमें तान्या राणा ने बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान के फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत से प्राप्त अंतर्दृष्टि साझा की है। मासिक धर्म सम्बन्धी सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों का ध्यान मुख्य रूप से महिलाओं और बालिकाओं को सैनिटरी नैपकिन वितरित करने पर केन्द्रित रहता है। अपने इस लेख में तान्या राणा ने अधिक व्यापक मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य सेवाओं को उपलब्ध कराने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। वह इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य योजनाएं कार्यक्रम के खराब कार्यान्वयन और फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की कमी से ग्रस्त हैं और अनुशंसा करती हैं कि योजना बनाते समय बालिकाओं को चिंतन के केन्द्र में रखने से इन कमियों को दूर किया जा सकता है।
"कोई किशोरी या माँ मासिक धर्म के बारे में चर्चा करने के लिए हमारे पास नहीं आती है"
- बिहार की एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा)।
भारत में मासिक धर्म के बारे में बातचीत अभी भी लज्जा का विषय होने से वर्जित है। कुछ महीने पहले की एक गम्भीर घटना में, एक किशोरी की उसके 30 वर्षीय भाई ने हत्या कर दी थी, क्योंकि उसने यह मान लिया था कि मासिक धर्म का दाग उसकी बहन के किसी के साथ शारीरिक समबन्ध या 'अफेयर' का संकेत था। इस मुद्दे से एक महत्त्वपूर्ण सवाल खड़ा होता है कि मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने के लिए सरकार क्या उपाय कर रही है?
मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य, जिसे मासिक धर्म के दौरान ‘पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण’ की स्थिति के रूप में परिभाषित किया गया है, एक सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषाधिकार है (हेनेगन एवं अन्य 2021)। मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य के लिए व्यापक प्रावधानों की कमी से स्वच्छ मासिक धर्म सम्बन्धी उत्पादों या स्वच्छता सुविधाओं तक महिलाओं की पहुँच अपर्याप्त हो सकती है और गलत सूचना को बढ़ावा मिल सकता है, जिसका प्रभाव न केवल मासिक धर्म से गुज़र रही महिलाओं पर, बल्कि पूरे समाज पर भी पड़ता है।
अब तक मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य पर सार्वजनिक हस्तक्षेप, मुख्य रूप से महिलाओं और बालिकाओं को सैनिटरी नैपकिन के वितरण पर केन्द्रित रहा है (राणा 2022ए)। हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी केन्द्र सरकार को स्कूलों में मुफ्त सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध करवाने के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाने को प्रेरित किया है। हालाँकि, योजना वितरण में कई चुनौतियाँ हैं, जो भारत में महिलाओं के लिए व्यापक मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य में बाधा डालती हैं। इनमें से कुछ चुनौतियों में महिलाओं, लड़कियों और यहाँ तक कि सेवा प्रदाताओं में मासिक धर्म सम्बन्धी कम जागरूकता, योजना कार्यक्रम के लिए अपर्याप्त निधि, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का ख़राब संचार, मासिक धर्म सम्बन्धी उत्पाद का महंगा होना और कई अन्य कारण शामिल हैं (राणा 2022बी)।
इनमें से कुछ चुनौतियाँ कैसे सामने आती हैं और इस प्रमुख सेवा को प्रदान करने में सरकार की भूमिका क्या है, यह समझने के लिए ‘जवाबदेही पहल’, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के अंतर्गत बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान के फ्रंट-लाइन कार्यकर्ताओं (एफएलडब्ल्यू) जैसे आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं (एडब्ल्यूडब्ल्यू), आशा, और सहायक नर्स दाइयों (एएनएम) के साथ साक्षात्कारों की एक शृंखला आयोजित की गई। यह आलेख इन राज्यों में मौजूदा सेवाओं, महिलाएं और बालिकाएं उन योजनाओं के साथ कैसे जुड़ती हैं और इन सेवाओं के वितरण में एफएलडब्ल्यू की भूमिका पर कुछ प्रमुख अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य की स्थिति का एक संक्षिप्त अवलोकन
राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस-5) के अनुसार, भारत में लगभग 78% महिलाएं और लड़कियाँ स्वच्छ मासिक धर्म पद्धतियों1 का उपयोग करती हैं। परन्तु, राज्य स्तर पर इसमें अनेक भिन्नताएँ हैं। बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान, इन तीन राज्यों में देखें तो, बिहार में महिलाओं और लड़कियों द्वारा स्वच्छ मासिक धर्म पद्धतियों का सबसे कम (59%) उपयोग है, इसके बाद मध्य प्रदेश (61%), और राजस्थान (84%) का स्थान आता है। अन्य दो राज्यों की तुलना में बिहार में कपड़े का उपयोग भी अधिक (लगभग 68%) है, जहाँ क्रमशः लगभग 65% महिलाएँ और 44% लड़कियाँ कपड़े का उपयोग करती हैं।
एनएफएचएस सर्वेक्षण यह भी दर्शाता है कि बहुत कम (लगभग 32%) महिलाएं अपने स्वास्थ्य कार्यकर्ता के साथ जुड़ती हैं। इन तीन राज्यों में, यह जुड़ाव अखिल भारतीय औसत से कम है- बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में क्रमशः लगभग 25%, 29% और 24% महिलाओं ने पिछले तीन महीनों में किसी स्वास्थ्य कार्यकर्ता से सम्पर्क किया था।
एफएलडब्ल्यू सेवाओं के अन्तिम छोर तक यानी घर-घर जाकर सेवाएं प्रदान करते हैं और समुदायों में स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यवहार को बढ़ावा देते हैं। फिर भी, एक साथ कई ज़िम्मेदारियाँ निभाने, कम मुआवज़े और उनके काम को पहचान न मिलने के कारण, स्वास्थ्य प्रणाली में प्रभावी ढंग से कार्य करने के आवश्यक साधनों से वे वंचित रह गए हैं (सिन्हा एवं अन्य 2021)। ज़मीनी स्तर पर यह मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य सहित अन्य महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं की डिलीवरी को प्रभावित करता है। जैसा कि पहले बताया गया है, प्रणालीगत बाधाओं सहित सहभागिता की यह कमी, सुरक्षित, सूचित और स्वच्छ मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य प्रथाओं को सीमित कर सकती है। आलेख में आगे एफएलडब्ल्यू के साथ हुई हमारी बातचीत के मुख्य अंश शामिल हैं, जो इस तथ्य को उजागर करते हैं।
कार्यक्रम की ख़राब योजना और योजनाओं का सीमित दायरा
तीनों राज्यों में एफएलडब्ल्यू के साथ हुई बातचीत से पता चलता है कि वर्तमान में केन्द्र सरकार की कोई भी योजना चालू नहीं है। बिहार में राज्य की एक योजना- मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य योजना है, जिसके तहत स्कूल जाने वाली लड़कियों को सालाना 300 रुपये हस्तांतरित किए जाते हैं। हालाँकि, बिहार के एक उच्च अधिकारी ने संकेत दिया कि इसका मूल्यांकन करने के लिए कोई डेटा उपलब्ध नहीं है कि क्या परिवार इस पैसे का उपयोग पैड खरीदने के लिए कर रहे हैं (राणा 2023)।
राज्य योजना के लागू होने के बावजूद, बिहार में जिन एफएलडब्ल्यू से हमने बात की, उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी। एफएलडब्ल्यू अभी भी सामुदायिक सेटिंग्स में इस विषय पर लक्षित लोगों के साथ जुड़ने का प्रयास करते हैं। एक आशा कार्यकर्ता से जब उनके समुदाय में उपलब्ध मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा :
“मुझे ऐसी किसी भी सेवा के बारे में जानकारी नहीं है। लेकिन जब भी माता समिति2 की बैठक होती है, हम वहाँ उपस्थित महिलाओं और किशोरियों के साथ मासिक धर्म सम्बन्धी स्वच्छता और पैड का उपयोग करने जैसी स्वस्थ प्रथाओं के बारे में बात करते हैं।’’
एक अन्य आशा कार्यकर्ता ने बताया कि वे घर-घर जाकर मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य पर चर्चा करती हैं। फिर भी, माताओं या गर्भवती महिलाओं की कोई सक्रिय भागीदारी नहीं है।
मध्य प्रदेश में, वर्ष 2015 में ‘उदिता’ नामक एक योजना शुरू की गई थी। इस योजना के तहत, महिलाओं को मुफ्त में पैड की आपूर्ति करने के लिए आंगनवाड़ी केन्द्रों पर ‘उदिता कॉर्नर’ स्थापित किए गए थे। हालाँकि, वर्ष 2016 के बाद से सरकार की ओर से पैड की कोई आपूर्ति नहीं होने के कारण, एफएलडब्ल्यू ने मौजूदा ‘अनटाइड फंड’ का उपयोग करके महिलाओं और लड़कियों को रियायती कीमत पर पैड उपलब्ध कराने का ज़िम्मा उठाया है। जैसा कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ने उल्लेख किया है :
“वर्तमान, मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य को बढ़ावा देने की कोई चालू योजना नहीं है। कुछ समय पहले एक सम्बन्धित योजना (उदिता) शुरू की गई थी, लेकिन मुझे इसके बारे में विस्तृत जानकारी नहीं है। स्वास्थ्य, महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा सैनिटरी पैड नहीं दिए जाते हैं। गाँव में कोई डिस्पेंसरी नहीं है जिसके चलते महिलाओं और किशोरियों को पैड नहीं मिल पाता है। इसलिए, हम डिस्पेंसरियों से पैड लेते हैं और नागरिकों को कम कीमत पर देते हैं। लेकिन हमें इसके लिए अलग से कोई फंड नहीं मिलता, यह काम हम अपनी इच्छा से करते हैं।''
इन नियोजित हस्तक्षेपों का दायरा भी सीमित है और सैनिटरी पैड के वितरण की ओर झुका हुआ है। लेकिन पैड वितरण मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य का केवल एक पहलू है। पैड उपलब्ध कराने के अलावा, स्वच्छता और पानी की सुविधा, परिवहन जैसी सेवाओं को उपलब्ध कराने से व्यापक मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य में योगदान मिलता है।
उदाहरण के लिए, राजस्थान में, वर्ष 2021 से ‘उड़ान’ योजना चालू है। इस योजना के तहत, 45 वर्ष तक की लड़कियाँ और महिलाएं हर महीने छह सैनिटरी पैड वाले एक मुफ्त पैकेट की हकदार हैं। एफएलडब्ल्यू भी इस योजना के तहत पैड प्राप्त करने के पात्र हैं। पैड को आंगनवाड़ी केन्द्रों और स्कूलों में वितरित किया जाता है। ‘उड़ान एप्लिकेशन (ऐप)’ पर लड़कियों और महिलाओं के आधार और जन-आधार कार्ड विवरण के अनुसार प्रविष्टियां की जाती हैं और एफएलडब्ल्यू यह भी बताते हैं कि पैड का उपयोग कैसे करें और अपने मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य की देखभाल कैसे करें।
जबकि इस योजना ने सैनिटरी नैपकिन को मुफ्त उपलब्ध कराया है, एक आशा ने संकेत दिया कि इसके तहत पैड के उचित निपटान की समस्या का समाधान नहीं हो पाता है। इसके परिणामस्वरूप, सैनिटरी नैपकिन अक्सर गाँव में बिखरे हुए पाए जाते हैं। योजना में इस कमी के कारण व्यापक मासिक धर्म सम्बन्धी स्वच्छता सुनिश्चित नहीं हो पाती है।
एफएलडब्ल्यू के लिए भागीदारी और प्रसार में बाधाएं
मध्य प्रदेश में एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के अनुसार, स्थानीय समितियों में पुरुषों की उपस्थिति एफएलडब्ल्यू की मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य से सम्बन्धित मुद्दों को उठाने की क्षमता में बाधा डालती है :
“स्वास्थ्य समिति या पंचायत योजना में अधिकांश मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य के बारे में चर्चा नहीं की जाती है। क्योंकि इन बैठकों में पुरुष भी शामिल होते हैं इसलिए, महिलाएं इस मुद्दे को उठाना नहीं चाहतीं। महिलाएं दूसरी महिलाओं के सामने भी पीरियड्स के बारे में बात करने से झिझकती हैं, इसलिए उनसे यह उम्मीद करना कि वे इस मुद्दे को पुरुषों के सामने रखें, बहुत दूर की बात है।‘'
बिहार और राजस्थान के मामले में भी, एफएलडब्ल्यू को या तो आमंत्रित नहीं किया जाता है या ग्रामीण स्तर पर किसी भी गतिविधि की योजना में उनकी सहभागिता नहीं होती। उदाहरण के लिए, राजस्थान में एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ने कहा कि उसे नहीं पता कि उसकी पंचायत मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य को प्राथमिकता देती है या नहीं। उनके मौजूदा काम के बोझ के कारण भी इन वार्तालापों में उनकी भागीदारी नहीं हो पाती है। उसने कहा :
''पंचायत में भवन व सड़क निर्माण पर ध्यान दिया जा रहा है। पंचायत की महीने में दो बार होने वाली बैठकों में हर कोई शामिल नहीं हो पाता। स्वच्छता के बारे में कोई बातचीत नहीं होती, कूड़े-कचरे के बारे में भी नहीं। लोगों की इसमें रुचि भी सबसे कम है। मेरे आंगनवाड़ी केन्द्र में कोई (सार्वजनिक) शौचालय नहीं है, लेकिन शुक्र है कि लोगों के घरों में शौचालय और पानी की सुविधा है।''
जब मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य के बारे में जानने की बात आती है, तो बिहार में एएनएम और आशा ने खुलासा किया कि उन्हें इस विषय पर कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं मिला है। दवाओं की आपूर्ति की लगातार कमी भी उनके काम को कठिन बना देती है। बिहार में, एक आशा कार्यकर्ता, जिसे एएनएम द्वारा महिलाओं और लड़कियों के साथ बातचीत करने के तरीके के बारे में मार्गदर्शन दिया गया था, ने कहा :
“मुझे मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य के बारे में कोई अलग से प्रशिक्षण नहीं मिला है। लेकिन (एएनएम) ने हमें मासिक धर्म के दौरान साफ-सफाई बनाए रखने, गम्भीर या लगातार परेशानी होने पर डॉक्टर से परामर्श लेने और महीने के दौरान कमज़ोरी महसूस होने पर आयरन की गोलियाँ खाने के बारे में बताया है। मैं महिलाओं से बात करते समय उसी जानकारी का उपयोग करती हूँ, लेकिन मुझे कुछ समय से इस पर कोई रिफ्रेशर प्रशिक्षण नहीं मिला है। इसके अलावा, हमें अतिरिक्त आयरन की गोलियाँ भी नहीं मिलती जिन्हें हम मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य के के लिए वितरित कर सकते हैं। गाँव में चिकित्सा सुविधाओं की अभी भी कमी है, जिसके कारण अधिकांश महिलाएं अभी भी कपड़े का उपयोग करती हैं।’’
इसी प्रकार से, मध्य प्रदेश में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को कभी-कभी एएनएम द्वारा निर्देशित किया जाता है। हालाँकि, एक एएनएम ने बताया कि उन्हें भी कोई प्रशिक्षण नहीं मिलता है :
“अभी तक हमें इस सम्बन्ध में कोई प्रशिक्षण नहीं मिला है। जब ट्रेनिंग की बात आती है तो यहाँ के डॉक्टर कहते हैं कि मैं एक अनुभवी कर्मचारी हूँ और ज्यादा ट्रेनिंग का कोई फायदा नहीं है। वे नई एएनएम को इसके बारे में प्रशिक्षित करते हैं।”
राजस्थान में, भले ही आंगनवाड़ी केन्द्र उचित उपयोग के लिए पैड वितरण और प्रसार का स्थल हैं, पर वहाँ आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को कोई प्रशिक्षण नहीं मिला है।
मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य के बारे में बातचीत शुरू करना
कार्यक्रम की खराब योजना और एफएलडब्ल्यू के साथ कम जुड़ाव व्यापक मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य सेवाओं की डिलीवरी में आनेवाली चुनौतियाँ हैं, फिर भी मासिक धर्म के बारे में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाने की दिशा में कुछ सकारात्मक विकास हुआ है। इस लिहाज़ से राजस्थान में लागू ‘उड़ान योजना’ एक स्वागत-योग्य कदम है। एफएलडब्ल्यू ने उल्लेख किया कि टीवी और समाचार पत्रों में विज्ञापनों के परिणामस्वरूप इस विषय में रुचि बढ़ी है। एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ने मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य के बारे में बातचीत में सामुदायिक भागीदारी के बारे में टिप्पणी की :
“इस सम्बन्ध में एक कार्यक्रम हमारे आसपास के सरकारी स्कूलों में चलाया जाता है। ऐसा कार्यक्रम अब तक दो-तीन बार आयोजित हो चुका है। इसके लिए वरिष्ठ अधिकारी भी मौजूद रहे हैं। कार्यक्रम के दौरान, स्कूल के शिक्षक और अन्य अधिकारी मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य के बारे में चर्चा करते हैं। इसमें गाँव की महिलाएं और लड़कियाँ भाग लेती हैं।”
बिहार में एक आशा ने संकेत दिया कि भले ही समुदाय स्तर पर सक्रिय चर्चा अभी भी बहुत सीमित है, समय के साथ चीज़ों में काफी सुधार हुआ है।
“समुदाय स्तर पर कोई चर्चा नहीं हुई है। समय की कमी के कारण (ग्राम स्वास्थ्य स्वच्छता और पोषण दिवस, वीएचएसएनडी3 के दौरान मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर भी चर्चा नहीं की जाती है। जब मैं घर-घर जाती हूँ तो मासिक धर्म और स्वच्छता के बारे में बात करती हूँ। मासिक धर्म के बारे में लोग खुद बात नहीं करते है। फिर भी, महिलाएं और स्कूल जाने वाली लड़कियाँ- दोनों ही इन मुद्दों के बारे में पहले की तुलना में अधिक जागरूक हुए हैं।’’
मध्य प्रदेश में, एक एएनएम ने बताया कि शिक्षित महिलाएं और किशोरियाँ सुरक्षित मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य प्रथाओं के बारे में अधिक जागरूक हैं, हालाँकि इस विषय पर चर्चा सीमित है :
“जो लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं वे पीरियड्स के बारे में बात करने से झिझकते हैं। पढ़ी-लिखी लड़कियाँ बातचीत से झिझकती या कतराती नहीं हैं, लेकिन वे चर्चा में शामिल नहीं होती हैं। वे बस हमारी बात सुनती हैं। यहाँ मासिक धर्म के बारे में कोई बात नहीं करता। एक भी महिला या किशोरी स्वयं हमसे इस बारे में बात करने नहीं आई है। हमारे यहाँ पीरियड्स को ज्यादातर लोग अशुद्ध मानते हैं।”
भविष्य का एक आदर्श रास्ता- बिहार से एक सबक
हमने बिहार स्थित एक भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी से बात की, जिन्होंने ज़मीनी स्तर पर सामुदायिक गतिशीलता के महत्त्व पर जोर दिया (राणा 2023)। पूर्णिया के जिला कलेक्टर के रूप में अपने कार्यकाल में, वे जिले में मासिक धर्म सम्बन्धी स्वच्छता प्रबंधन (एमएचएम) के लिए एक कार्य योजना लेकर आए। इस योजना में ‘जीविका’ (महिला स्वयं-सहायता समूहों) के माध्यम से मौजूदा सामुदायिक नेटवर्क का लाभ उठाया गया है और उन्हें गाँवों में मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। उसी बातचीत में, उन्होंने महिला अधिकारियों द्वारा मासिक धर्म का वर्णन करने के लिए कई ‘अमूर्त शब्दों’ के उपयोग पर प्रकाश डाला। सेवा वितरण के प्रमुख कर्मियों को प्रशिक्षित करने से मासिक धर्म के बारे में बातचीत को सामान्य बनाने का दोहरा उद्देश्य पूरा हो सकता है और उन्हें अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से करने में भी मदद मिल सकती है।
इसके अलावा, इस योजना ने घरों में पर्याप्त कूड़ेदान उपलब्ध कराने और गाँव में पैड इंसिनेरेटर बनाने के लिए केन्द्र सरकार के ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के चरण-2 को संचालित करने का भी प्रयास किया है। कार्य योजना के साथ इस योजना का एकीकरण ‘अभिसरण रवैए’ का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। इस योजना में स्वास्थ्य, शिक्षा, एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडीएस), अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) कल्याण, पंचायती राज संस्थान (पीआरआई) आदि विभागों की ज़िम्मेदारियों और एमएचएम योजना में उनकी भूमिका को इंगित किया गया है। नियोजन में इस तरह का ‘अभिसरण रवैया’ विभागों के काम करने के अलग-थलग तरीके से बाहर निकलने और कुछ कार्यकर्ताओं पर पड़ने वाले बोझ को कम करने के लिए उपयोगी है। कई कार्यकर्ताओं के शामिल होने और ज़िम्मेदारियों की स्पष्ट रूपरेखा के साथ, इस ‘अभिसरण सोच’ से आधिकारिक स्तर पर मासिक धर्म के बारे में मुख्यधारा की बातचीत में भी मदद मिल सकती है।
जब व्यापक स्तर पर मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने की बात आती है, तो हालाँकि सुप्रीम कोर्ट की राष्ट्रीय नीति का आह्वान सकारात्मक है, लेकिन इसे जादू की छड़ी के रूप में भी नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि इससे समग्र समस्या के केवल एक संकीर्ण पहलू का समाधान मिलता है। एफएलडब्ल्यू के साथ साक्षात्कार से पता चलता है कि कार्यक्रम और कार्यान्वयन स्तर पर कमियाँ बनी हुई हैं। इसलिए, आगे बढ़ने का एक आदर्श तरीका यह है कि न केवल मासिक धर्म सम्बन्धी स्वास्थ्य को एक सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती के रूप में स्वीकार किया जाए, बल्कि अंतिम-मील के कार्यकर्ताओं के माध्यम से प्रभावी सेवा वितरण के लिए ‘अभिसरण रवैए’ या बालिकाओं को चिंतन के केन्द्र में रखने के रवैये से योजना को तैयार भी किया जाए।
इन साक्षात्कारों को पहली बार ‘जवाबदेही पहल’, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की 'इनसाइड डिस्ट्रिक्ट' शृंखला के एक भाग के रूप में प्रदर्शित किया गया था।
टिप्पणियाँ:
- इसमें स्थानीय स्तर पर तैयार नैपकिन, सैनिटरी नैपकिन, टैम्पोन और मासिक धर्म कप शामिल हैं।
- माता समितियों में 7-12 सदस्य होते हैं, जिनमें आशा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, केयर इंडिया का एक व्यक्ति और माताएं शामिल हैं। बिहार में, माता समितियों की बैठक महीने में एक बार मुख्यतः स्वास्थ्य सम्बन्धी चर्चाओं के लिए आयोजित की जाती है।
- ग्राम स्वास्थ्य स्वच्छता और पोषण दिवस (वीएचएसएनडी) समुदाय-आधारित कार्यक्रम हैं, जो गाँव में पोषण और स्वास्थ्य परिणामों में सुधार के लिए हर महीने आयोजित किए जाते हैं।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : तान्या राणा अकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) में एक रिसर्च एसोसिएट हैं। वे लिंग, पोषण व स्वास्थ्य और सार्वजनिक वित्त के परस्पर सम्पर्क के क्षेत्र पर काम कर रही हैं।
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