हर साल, 16 अक्तूबर को विश्व खाद्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन वर्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन की स्थापना हुई थी। इसे मनाने का उद्देश्य वैश्विक भुखमरी से निपटना और उसे पूरी दुनिया से खत्म करना है। खाद्य और इसलिए, भुखमरी का सीधा सम्बन्ध कृषि और कृषि उत्पादों से है। वर्तमान जनसंख्या वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में कृषि उत्पादकता पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है। इस लेख में, मौसम में बदलाव की अल्पकालिक घटनाओं तथा दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण धान, मक्का और गेहूं की पैदावार में आने वाले अन्तर पर प्रकाश डाला गया है और पाया गया कि तापमान का नकारात्मक प्रभाव लम्बे समय की तुलना में अल्पावधि में अधिक होता है। इस लेख में फसल की पैदावार पर होने वाले वर्षा के प्रभाव की भी चर्चा की गई है और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल स्वनिर्धारित कृषि प्रबंधन नीतियों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है।
जलवायु परिवर्तन और मौसम में बदलाव की बार-बार हो रही चरम घटनाएं फसल की पैदावार पर कहर बरपा रही हैं और किसानों को अपनी फसलों के नुकसान को सीमित करने के अनुकूल उपाय करने के लिए मजबूर कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को मापने का इरादा रखने वाले अधिकांश अध्ययनों में, जलवायु परिवर्तन की अपेक्षा साल-दर-साल मौसम में होने वाले बदलाव नज़र आ रहे हैं (उदाहरण के लिए, डेशेन्स और ग्रीनस्टोन 2007, श्लेनकर और रॉबर्ट्स 2009, मियाओ एवं अन्य 2016, ज़्हाँग एवं अन्य 2017, मलिकोव एवं अन्य 2020, तथा अन्य को देखें)।
सभी क्षेत्रों, उत्पादकता क्षेत्रों और फसलों के संदर्भ में, दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव एक-समान नहीं होते हैं। अपने एक हालिया अध्ययन (कुमार और खन्ना 2023) में, फसल की पैदावार पर जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक और अल्पकालिक प्रभावों को समझने के लिए हम पिछले 50 वर्षों (1966-2015) की तीन प्रमुख फसलों, धान, मक्का और गेहूं को देखते हैं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को मापना, मौसमी बदलाव को नहीं
मौसम में परिवर्तन एक अल्पकालिक घटना है और यह दीर्घकालिक परिवर्तनों से भिन्न हो सकती है। यदि किसान जलवायु परिस्थितियों के दीर्घकालिक पैटर्न में बदलाव को देखते हैं, तो यह उम्मीद होगी कि वे अपनी खेती और सिंचाई के तरीकों को बदलकर उसे इसके अनुकूल करेंगे।
हम यह पता लगाना चाहते हैं कि क्या अत्यधिक तापमान और वर्षा से होने वाले अल्पकालिक बदलाव का प्रभाव महत्वपूर्ण है और क्या उसका दीर्घकालिक औसत के सापेक्ष, पैदावार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यदि ये प्रभाव लम्बी अवधि में नहीं दिखते, तो इसका मतलब यह है कि किसान जलवायु परिवर्तन के अनुसार अपने तरीकों का अनुकूलन कर रहे हैं।
जलवायु में दीर्घकालिक परिवर्तनों के अनुसार किसान अनुकूलन कर रहे हैं या नहीं, इसका निर्धारण करने के लिए हम क्वांटाइल रिग्रेशन मॉडल1 का उपयोग करते हैं। इस तरीके से हम फसल की उपज के उत्पादकता वितरण के ज़रिए जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को व्यवस्थित रूप से भिन्न कर पाते हैं और इससे स्पष्ट रूप से कम, औसत और उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों में फसल की पैदावार पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों में वितरणात्मक विविधता के बारे में जानकारी मिलती है। इससे हमें ‘आश्रित चर’ यानी डिपेंडेबल वेरिएबल के वितरण और उसके निर्धारकों के आपसी सम्बन्ध का पूरा ब्यौरा मिल जाता है। इस पद्धति में हम फसलों की छोटी और लम्बी अवधि की प्रतिक्रियाओं संबंधी अलग-अलग मॉडल तैयार करने के लिए तापमान, वर्षा, बढ़ते मौसम का विस्तार और फसल की पैदावार के बारे में पिछले 50 वर्षों के डेटा का उपयोग करते हैं।
हमारी जांच के परिणाम
हमने पाया कि बढ़ते तापमान और घटती वर्षा के कारण फसल की पैदावार कम हो जाती है, लेकिन पैदावार का फैलाव भी बढ़ जाता है। हमने यह भी पाया कि किसान धान और मक्के की पैदावार के लिए तापमान में बदलाव को अपनाने में सक्षम थे, लेकिन गेहूं के मामले में नहीं। धान के संदर्भ में, तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के कारण अल्पावधि में फसल की पैदावार में 6% की गिरावट आई और लम्बी अवधि में 4% की गिरावट आई। मक्के के संदर्भ में, यह प्रभाव छोटी और लम्बी अवधि में क्रमशः 9% और 1% की गिरावट का था। हम पाते हैं कि किसान अलग-अलग क्षेत्रों और फसलों के लिए अपनी रणनीतियों को अनुकूलित कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, गर्मी पड़ने वाले जिलों में स्वाभाविक रूप से ठण्डे क्षेत्रों के जिलों की तुलना में उच्च तापमान पर बेहतर परिणाम मिलते हैं।
इसके अलावा, हम पाते हैं कि उत्पादकता वितरण के निचले हिस्से पर प्रभाव अधिक हैं लेकिन ऊपरी हिस्से पर ये प्रभाव कम हैं। तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से पहले क्वांटाइल में धान और गेहूं की उत्पादकता क्रमशः 23% और 9% कम हो जाती है, लेकिन नौवें क्वांटाइल में गिरावट केवल 6% और 5% की होती है। दिलचस्प बात यह है कि कम उत्पादक क्षेत्रों में जिन किसानों ने काम किया, उनकी प्रतिक्रिया अधिक पैदावार वाले क्षेत्रों में काम कर रहे किसानों से अलग थी। इसे इस तथ्य से समझाया जा सकता है कि कम उत्पादक क्षेत्रों में किसान तापमान वृद्धि के बड़े प्रभावों के कारण अधिक अनुकूलन उपाय अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों में पहले से ही अधिक सिंचाई सुविधाएं मौजूद हैं और वे मानसून पर कम निर्भर रहते हैं। परिणामस्वरूप, दीर्घकालिक और अल्पकालिक प्रभावों के बीच अन्तर लगभग न के बराबर है।
वर्षा में 100 मिलीमीटर की वृद्धि से धान की पैदावार औसतन 2.4% बढ़ जाती है, हालांकि उत्पादकता वक्र के सबसे निचले हिस्से में धान की उत्पादकता 3.5% बढ़ जाती है, जबकि शीर्ष 10% उत्पादकों के लिए केवल 1% की वृद्धि होती है। ऐसा इस तथ्य के अनुरूप है कि उच्च उत्पादक क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधाएं बेहतर होती हैं, कम उत्पादक क्षेत्रों को उच्च उत्पादक क्षेत्रों की तुलना में वर्षा में वृद्धि से अधिक लाभ होता है।
हमने पाया कि तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के प्रभाव से लघु और दीर्घावधि दोनों में गेहूं की उत्पादकता में 3% की कमी आती है। चूँकि हम पाते हैं कि कोई महत्वपूर्ण अन्तर नहीं है, अतः किसी भी अनुकूलन का संकेत नहीं मिलता है। वर्षा के प्रति औसत गेहूं की उपज की अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रतिक्रिया में एक समान पैटर्न दिखता है और उपज प्रतिक्रिया कार्यों के परिमाण में कोई महत्वपूर्ण अन्तर नहीं होता है। धान की उपज के विपरीत, वर्षा में 100 मिमी की वृद्धि गेहूं की उत्पादकता को 2.5% तक नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।
निष्कर्ष
संक्षेप में, हम पाते हैं कि मौसम और जलवायु में परिवर्तन के प्रभाव उपज वक्र के वितरण पर असममित यानी नबराबर हैं- उत्पादकता वक्र के निचले हिस्से के किसान वितरण के ऊपरी हिस्से में काम करने वाले किसानों की तुलना में बड़े प्रभावों का अनुभव करते हैं। यहाँ इस बात पर गौर करना दिलचस्प है कि उपज वितरण वक्र के निचले हिस्से पर महत्वपूर्ण अनुकूलन उपाय किए जाते हैं।
हालांकि, बदलते मौसम और जलवायु परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलन सभी फसलों में एक समान नहीं है, जिसका अर्थ है कि बदलते मौसम और जलवायु परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलन के लिए खेत विशेष की ज़रूरतों के अनुरूप बनीं कृषि प्रबंधन नीतियाँ उपयोगी साबित होंगी।
टिप्पणी:
- क्वांटाइल रिग्रेशन ‘प्रीडेक्टेबल वेरीएशन’ के मूल्यों में ‘प्रतिक्रिया चर या रेस्पॉन्स वेरिएबल’ के सशर्त माध्यिका (या अन्य क्वांटाइल) का अनुमान लगाता है, जबकि न्यूनतम वर्ग पद्धति से प्रतिक्रिया चर के सशर्त माध्य का अनुमान मिलता है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : मधु खन्ना कृषि और उपभोक्ता अर्थशास्त्र विभाग में पर्यावरण अर्थशास्त्र की एसीईएस प्रतिष्ठित प्रोफेसर और अर्बाना-शैंपेन में इलिनोय विश्वविद्यालय में स्थिरता, ऊर्जा और पर्यावरण संस्थान की अंतरिम निदेशक हैं। सुरेंद्र कुमार दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं जिनके अनुसंधान क्षेत्रों में पर्यावरण और संसाधन अर्थशास्त्र, अनुप्रयुक्त अर्थमिति, दक्षता और उत्पादकता विश्लेषण शामिल हैं।
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