मानव विकास

मानसिक बीमारी की 'अदृश्य' विकलांगता : सामाजिक सुरक्षा तक पहुँच में बाधाएं

  • Blog Post Date 20 मार्च, 2024
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Sakshi Sharda

Social Policy Research Foundation

s.sakshisharda@gmail.com

विश्वव्यापी अनिश्चितता और सन्घर्ष में अंतर्राष्ट्रीय ख़ुशी दिवस, 20 मार्च का महत्व और बढ़ जाता है। इसी सन्दर्भ में दिव्यांगता के आयाम में प्रस्तुत इस शोध आलेख में साक्षी शारदा लिखती हैं कि मानसिक स्वास्थ्य के मूल्याँकन और उसके निदान के बारे में स्पष्टता की कमी तथा सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के अपर्याप्त कार्यान्वयन के चलते किस प्रकार विकलांग लोगों की भेद्यता बढ़ जाती है। वे मानसिक बीमारी, तंत्रिका सम्बन्धी विकारों और सीखने की अक्षमता जैसी 'अदृश्य' सीमितताओं से पीड़ित लोगों के लिए ‘विकलांगता प्रमाणपत्र’ प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों का पता लगाती हैं। वे मौजूदा नीति में व्याप्त कमियों, मानसिक स्वास्थ्य के लिए जाँच के बारे में आम सहमति की कमी और तृतीयक स्वास्थ्य देखभाल केन्द्रों तक की सीमित पहुँच के कारण होने वाले मुद्दों पर प्रकाश डालती हैं।

भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा जुलाई और दिसंबर 2018 के बीच आयोजित नमूना पंजीकरण सर्वेक्षण का 76वां दौर विशेष रूप से विकलांगता की वास्तविकताओं को समझने के लिए डिजाइन और तैयार किया गया था। हालाँकि सबसे ताज़ा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 6 (एनएफएचएस-6) में विकलांगता से संबंधित प्रश्न शामिल नहीं हैं। ऐसी धारणा है कि विकलांगता सम्बन्धी डेटा "इतनी तेज़ी से नहीं बदलता है”। स्पष्ट सामायिक आँकड़ों की कमी और विशेष रूप से मानसिक बीमारी, तंत्रिका सम्बन्धी विकार तथा सीखने की अक्षमताओं के सम्बन्ध में समग्र रूप से विकलांगता के बारे में गलत धारणाएँ ऐसी स्थितियाँ पैदा करती हैं जिनमें स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचा विकलांगता वाले व्यक्तियों की ज़रूरतों के प्रति उत्तरदाई नहीं है। जानकारी के अभाव से व्यापकता दर, स्वास्थ्य देखभाल क्षमता और बुनियादी ढाँचे और अपेक्षित सामाजिक सुरक्षा के बीच विसंगति पैदा होती है।

प्रमुख चुनौतियों, व्यापकता दर, बीमारी की गम्भीरता और नीतिगत ढाँचे के भीतर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता को समझने की कमी के कारण इस क्षेत्र में कार्यान्वयन में कमियाँ रह जाती हैं और इसका एक उदाहरण, विकलांगता प्रमाणपत्र तक पहुँच है।

विकलांगता प्रमाणपत्र की आवश्यकता

भारत में, विकलांगता प्रमाणपत्र से धारक की विकलांगता स्थापित होती है और दिव्यांग जन (समान अवसर, अधिकारों की सुरक्षा और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995 द्वारा सुनिश्चित की गई सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभ अर्जित करने के लिए महत्वपूर्ण है। ये प्रमाणपत्र ऐसे व्यक्तियों को विभिन्न लाभ, जैसे कि मुफ्त शिक्षा, सरकारी नौकरियों व शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण और अधिमान्य भूमि हस्तांतरण का लाभ उठाने में सक्षम बनाते हैं।  

प्रमाणपत्र प्राप्त करना एक कठिन और समय लगने वाला कार्य है, लेकिन इन योजनाओं तक पहुँच सुनिश्चित करने का यही एकमात्र साधन है। इसमें प्रशासनिक आवश्यकताओं और प्राधिकृत अधिकारियों से मेडिकल रिकॉर्ड की आवश्यकता को देखते हुए, विकलांगता प्रमाणपत्र प्राप्त करने की प्रक्रिया बेहद कठिन बनी हुई है।

भारत के समग्र रोग-भार में मानसिक विकारों के आनुपातिक योगदान में वृद्धि होकर, वर्ष 1990 के 2.5% से बढ़कर वर्ष 2017 में 4.7% हो जाने के बावजूद, मानसिक बीमारी, सीखने की अक्षमताओं और तंत्रिका सम्बन्धी विकारों के निदान के लिए नीतिगत ढांचा और उसकी रूपरेखा पुरानी बनी हुई है। इसमें मानसिक विकलांगता के मूल्याँकन एवं वर्गीकरण के सम्बन्ध में बहुत अधिक स्पष्टता नहीं है। यह कमी, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी वर्जनाओं और मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता की कमी के साथ, तृतीयक देखभाल (अर्थात, गम्भीर और लगातार मानसिक बीमारी वाले लोगों के लिए विशेषज्ञ की उपस्थिति और विशेषज्ञ देखभाल, जिन्हें मनोचिकित्सा या दवा द्वारा प्रबंधित नहीं किया जा सकता है) तक पहुँच को कठिन बना देती है। इससे मानसिक विकलांगता से जूझते हुए लोगों के अनुभव में बड़ी भेद्यता बढ़ जाती है।

वर्ष 2008 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा समर्थित मानसिक बीमारी का अध्ययन करने वाले एक बड़े बहु-देशीय सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया कि विकसित देशों में 35-50% गम्भीर मामलों और कम विकसित देशों में 76-85% को, निदान के एक वर्ष के भीतर कोई इलाज नहीं मिलता है (केसलर एवं अन्य 2009)। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएमएचएस) 2015-16 इस बात पर प्रकाश डालता है कि मानसिक रुग्णता जनसंख्या के निम्न-आय वर्ग में प्रमुखता से देखी गई है (तालिका-1 देखें)। इससे पता चलता है कि गरीबी के कारण विकलांगता का बोझ बढ़ गया है, हालाँकि, देखभाल, चिकित्सा, संस्थागत सहायता और विकलांगता प्रमाणपत्र तक पहुँच का तालमेल बिठाया जा सकता है।

तालिका-1. मानसिक रुग्णता वाली जनसंख्या का हिस्सा- आय क्विंटाईल के अनुसार (2015-16) 

आय क्विंटाईल

जीवन भर

वर्तमान

निम्नतम

15.96%

12.28%

दूसरा

15.04%

12.14%

मध्य

13.55%

10.53%

चौथा

12.28%

9.61%

उच्चतम

12.20%

8.76%

स्रोत : एनएमएचएस 2015-16

नोट : सभी आँकड़े भारित प्रतिशत या वेटेड परसेंटेज में हैं

मानसिक बीमारी के कारण विकलांगता का वर्गीकरण एवं मूल्याँकन

दिव्यांगजन अधिनियम, 2016 भारत में विकलांगता प्रमाणपत्र के लिए कानूनी और प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं की रूपरेखा बताई गई है। मानसिक बीमारी का आकलन करने के लिए, भारतीय नीति ढाँचे ने भारत में विकलांगता मूल्याँकन और मूल्याँकन स्केल (आईडीईएएस- आइडियाज़) विकसित किया है जो व्यक्ति को चार मापदंडों पर परखता है- आत्म-देखभाल, पारस्परिक गतिविधियाँ, संचार एवं समझ और कार्य। मानसिक विकलांगता को मानसिक बीमारी के रूप में पहचाना जाता है जो जीवन के सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, सांस्कृतिक पहलुओं में मानव कामकाज में बाधा डालती है, या कोई भी ऐसा व्यक्ति, जिसने आइडियाज़ मूल्याँकन में 7 से अधिक अंक प्राप्त किए हों। हालाँकि, इसमें एक प्रमुख चुनौती मानसिक बीमारी का निदान करने के लिए जाँच की आवृत्ति (बारंबारता) और अवधि के बारे में स्पष्टता की कमी है। इसके अलावा विकलांगता को स्थापित करने के लिए निरंतर जाँच की आवश्यकता होती है, जिससे इसकी अप्राप्यता और बढ़ जाती है।

कानून के अनुसार, यदि निदान पूरा हो जाता है, तो उचित प्राधिकारी के साथ प्रारंभिक मुलाकात के दौरान ‘मानसिक बीमारी के कारण विकलांगता’ को स्थापित किया जा सकता है। हालाँकि, तंत्रिका सम्बन्धी विकारों के लिए, भारतीय मनोरोग सोसायटी की पुनर्वास समिति बीमारी की शुरुआत के बाद दो साल की अवधि में बीमारी की अवधि को स्कोर करने की सिफारिश करती है।

सीखने की अक्षमताओं के लिए, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय प्रमाणीकरण से पहले न्यूनतम एक वर्ष की आयु की सिफारिश करता है। एक से पाँच वर्ष के बीच के बच्चों का वैश्विक विकास विलंब (जीडीडी) निदान किया जा सकता है। इन शिशु विकास मापदंडों का मूल्याँकन बाल रोग विशेषज्ञ और मनोचिकित्सक की उपस्थिति में वैश्विक स्तर पर किया जाता है। पाँच वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों में बौद्धिक विकलांगता (आईडी) का निदान किया जा सकता है। जीडीडी और आईडी, दोनों बच्चे के जीवन के लिए कालानुक्रमिक रूप से तैयार किए गए मानदंड हैं- जीडीडी में दो या दो से अधिक विकास सम्बन्धी देरी की विशेषता होती है, जबकि आईडी का निदान साइकोमेट्रिक परीक्षण (स्रोर एवं अन्य 2020) द्वारा किया जाता है। दुनिया भर में लगभग 3% बच्चों का जीडीडी या आईडी होता है। भारत में, वर्ष 2022 में आईडी का संक्षिप्त प्रचलन 2% स्थापित किया गया था (रसेल एवं अन्य 2022)।

यह कानून उपयुक्त स्क्रीनिंग और निदान परीक्षण के रूप में निम्हांस (राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान) बैटरी परीक्षण की भी सिफारिश करता है, भले ही इसकी सीमाओं के लिए इसकी आलोचना की गई हो। बैटरी को सीमित नमूना आकार और निम्हांस में डॉक्टरेट अनुसंधान के आधार पर विकसित किया गया था और अंग्रेजी भाषा तथा पश्चिमी सन्दर्भों पर निर्भरता के कारण भी इसकी कुछ सीमाएं हैं।

वर्ष 2015 में डिस्लेक्सिया असेसमेंट फॉर लैंग्वेजेज़ इन इंडिया (डीएएलआई) नामक एक वैकल्पिक जाँच शुरू की गई थी। इसके सफल परिणामों के लिए राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र और यूनेस्को द्वारा  डीएएलआई की सराहना की गई है। स्कूल परामर्शदाता और पेशेवर, मूल्याँकन के लिए डीएएलआई का उपयोग कर रहे हैं और उन्होंने इसके लाभों (ज्योति 2019) के बारे में विस्तार से विमर्श किया है। वर्ष 2019 में, दिल्ली के डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में मानसिक स्वास्थ्य उत्कृष्टता केन्द्र ने डीएएलआई और निम्हांस बैटरी परीक्षणों के परिणामों की तुलना करने के लिए एक परियोजना शुरू की। दुर्भाग्य से, इस क्षेत्र में सफल अनुभव के बाद भी इस परियोजना पर कोई अपडेट नहीं है जिससे डीएएलआई की उपयुक्तता का पता चलता।

प्रमाणीकरण की लागत

उचित परीक्षणों की अवधि और चयन पर बहस के अलावा, एक और अधिक गम्भीर चिंता भी है- तृतीयक स्वास्थ्य देखभाल केन्द्रों तक पहुँच की। दस साल अनुभव वाले दिल्ली के एक स्कूल परामर्शदाता के साथ एक साक्षात्कार में, यह स्पष्ट हुआ कि विकलांगता प्रमाणपत्र प्राप्त करना समय के साथ-साथ लगातार अधिक चुनौतीपूर्ण होता गया है। उचित देखभाल प्रदान करने वाले अधिकांश और जिनके पास प्रमाणन बोर्ड स्थापित करने के लिए संस्थागत संसाधन हैं, ऐसे तृतीयक स्वास्थ्य केन्द्र सरकारी अस्पतालों के कर्मचारियों के काम के बोझ और निजी अस्पतालों द्वारा काफी अधिक शुल्क वसूलने के कारण पहुँच से बाहर रहते हैं, जिससे वे कई लोगों के लिए अप्राप्य हो जाते हैं।

दिल्ली में प्रशिक्षणरत एक नैदानिक मनोवैज्ञानिक ने बताया कि वर्तमान में, शहर में विकलांगता प्रमाणपत्र प्रदान करने वाले कुछ तृतीयक अस्पतालों में से एक आरएमएल अस्पताल है, जहाँ डेढ़ साल पहले अपोइन्टमेंट लेने की आवश्यकता होती है। अन्य तृतीयक देखभाल केन्द्र निजी अस्पताल हैं, जहाँ समान सुविधाओं की लागत बहुत अधिक है और वे संघर्षरत परिवारों की पहुँच से बाहर है। हालाँकि प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए लगने वाले व्यय में अंतर से संबंधित कोई स्पष्ट डेटा नहीं है, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) 2017-18 के 75वें दौर में पता चलता है कि मनोरोग और तंत्रिका सम्बन्धी बीमारियों के लिए अस्पताल में भर्ती होने की औसत लागत रु 26,843 है (महाशूर एवं अन्य 2022)। सरकारी और निजी अस्पतालों में इलाज की लागत में बहुत बड़ा अंतर है, जो कि सार्वजनिक अस्पतालों में 7,235 रुपये से लेकर निजी अस्पतालों में 41,239 रुपये तक है (मठ एवं अन्य 2019)। इसके इलावा अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि तृतीयक देखभाल केन्द्रों की सेवाओं का लाभ लेने के लिए, प्राप्त सुविधा और विकलांगता की गम्भीरता के आधार पर प्रति माह रु. 2,763 से 11,063 का खर्चा है।

सामाजिक निहितार्थ और नीति सम्बन्धी चिंताएँ

विकलांगता स्थापित करने की प्रक्रिया, परीक्षण से लेकर तृतीयक देखभाल तक, अक्सर सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के अंतर्गत कवर नहीं की जाती है। विकलांग छात्रों के एक स्कूली शिक्षा समन्वयक ने बताया कि वे परिवारों से स्कूल छोड़ने सम्बन्धी जाँच-पड़ताल के लिए विकलांगता प्रमाणपत्र प्राप्त करने की प्रक्रिया, इसकी आवश्यकता से दो साल पहले ही शुरू करने का आग्रह करते हैं, जबकि उनके छात्र तब  कक्षा 8 में होते हैं। हालाँकि, परिवारों को इस प्रकार होने वाली देरी से अवगत किया जाता है, तब भी अंतर्निहित सामाजिक भेदभाव और मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता की कमी इस प्रक्रिया की प्रगति में बाधा बन जाती है। इन बाधाओं के परिणामस्वरूप अक्सर देरी होती है और कुछ मामलों में, यह स्कूल छोड़ने (ड्रॉपआउट) का कारण बनता है।

ये नीतिगत खामियाँ विकलांगता के प्रबंधन के लिए आवश्यक देखभाल और सामाजिक लाभों तक पहुँच में महत्वपूर्ण बाधाएँ पैदा करती हैं। तीन नीतिगत चिंताओं का तत्काल समाधान किए जाने की आवश्यकता है। सबसे पहली चिंता, स्वास्थ्य देखभाल मशीनरी को परीक्षण आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदाई होने की आवश्यकता है। किए गए परीक्षणों और आवश्यक प्रक्रियाओं के बारे में नीतिगत निर्णय समय-समय पर समीक्षा के अधीन होने चाहिए। दूसरी चिंता, परीक्षणों की प्रशासित बैटरियों को अद्यतन करने और उनकी प्रभावशीलता का मूल्याँकन करने की आवश्यकता है। अंत में, कर्मियों की क्षमता और प्रमाणन की आवश्यकता, दोनों को ध्यान में रखते हुए सरकारी तृतीयक स्वास्थ्य केन्द्रों पर कार्य के बोझ को ठीक से संभाले जाने की आवश्यकता है। इसके लिए मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों की व्यापकता और बीमारी के बोझ के बारे में सटीक डेटा की आवश्यकता होगी, और इसके बिना, कोई स्थाई परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता है। 

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : साक्षी शारदा सोशल पॉलिसी रिसर्च फाउंडेशन में एक रिसर्च एसोसिएट और टेलर एंड फ्रांसिस, भारत की एक संपादकीय सलाहकार हैं।

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