शासन

भारतीय कानून कितना औपनिवेशिक है?

  • Blog Post Date 22 मार्च, 2022
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Tirthankar Roy

London School of Economics and Political Science (LSE)

t.roy@lse.ac.uk

भारत में औपनिवेशिक शासन और इसकी कार्यप्रणालियों से संबंधित आलोचनाओं के चलते कई प्रसंगों में इसके साथ कानून जोड़े गए हैं, ताकि औपनिवेशिक विरासत की दासत्वपूर्ण परंपरा में परिवर्तन लाया जा सके। इस लेख में, रॉय और स्वामी ने आर्थिक गतिविधियों से संबंधित तीन व्यापक क्षेत्रों- भूमि, कॉर्पोरेट और कंपनी कानून एवं पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन पर ध्यान केंद्रित करते हुए, वर्तमान कानून व्यवस्था में मौजूद औपनिवेशिक शासन के परंपरा-प्राप्त तत्वों को बाहर निकालने का कार्य किया है।

भारत में औपनिवेशिक शासन की अनीतियों (खामियों को) को, अकाल की स्थिति में इनकी निष्क्रियता से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में निवेश की विफलता तक सही मायनो में जिम्मेदार ठहराया गया है। ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन से ही देश के राजनीतिक हल्कों में इन मुद्दों पर व्यापक सहमति बनी है (थरूर 2016, पनगढ़िया 2020)। इन आलोचनाओं के चलते कई प्रसंगों में औपनिवेशिक विरासत की दासत्वपूर्ण परंपरा में परिवर्तन लाने हेतु इसके साथ कानून जोड़े गए है। हालाँकि हम व्यापक रूप से इस परिप्रेक्ष्य के साथ सहानुभूति रखते हैं, हमें इस बात की चिंता है कि एक स्पष्टीकरण के रूप में औपनिवेशिक शासन को पुनः अपनाना अतिसरलीकरण हो सकता है, लेकिन इससे बदतर तब होता है, जब वर्तमान में हल किए जा सकने-योग्य समस्याओं के लिए भी यह एक बहाना प्रदान करता है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए, हमें और अधिक सूक्ष्म प्रश्न पूछने की आवश्यकता है, जैसे: भारतीय कानूनी प्रणाली और व्यवहार में औपनिवेशिक अवशेष सबसे अधिक दृश्यमान और समस्याग्रस्त कहां है, और उत्तर औपनिवेशिक विकास की दिशा ने इसे किस दिशा में मोड़ दिया है? अर्थशास्त्रियों के रूप में हमारा ध्यान कानून पर है क्योंकि यह आर्थिक गतिविधि से संबंधित है। जहां तक कानून की बात है आपराधिक कानून और नागरिक कानून को अधिक विस्तार रूप देकर अलग से चर्चा की जा सकती है, जिसकी यहां चर्चा नहीं की गई है। हमारा मानना है कि हमें तीन व्यापक क्षेत्रों भूमि, कॉर्पोरेट और कंपनी कानून, एवं पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन के बारे में अलग तरह से विचार करने की जरूरत है।

भूमि डोमेन

औपनिवेशिक परंपरा के चिह्न शायद भूमि के क्षेत्र में सबसे अधिक दिखाई देते हैं –भूमि विवादों ने स्वतंत्रता के बाद से ही विधि व्यवस्था को जकड़ कर रखा है। विशेष रूप से जमींदारी1 प्रथा वाले क्षेत्रों, जहां राज्य द्वारा औपनिवेशिक शासन काल से ही खेती करने वाले अधिकांश किसानों से संपर्क साधने का प्रयास भी नहीं किया गया, वहां स्वामित्व अधिकारों संबंधी दस्तावेज भी बहुत कम उपलब्ध थे (रॉय और स्वामी 2016)। यह भूमि सुधारों में एक बहुत बड़ी बाधा थी, क्योंकि जब हम यह तक नहीं जानते थे कि इसकी शुरुआत किससे करनी है तो अधिकारों की रक्षा या पुनर्वितरण कैसे किया जाए? इसने निश्चित रूप से भूमि सुधारों के खराब प्रदर्शन में सर्वाधिक योगदान दिया है। यह तथाकथित "गैर-मौरूसी काश्तकार (किरायेदार-वसीयत)" के लिए शायद सबसे अधिक प्रासंगिक था, एक व्यक्ति जिसने जमीन के एक टुकड़े पर कब्जा तो कर लिया, लेकिन वह अपना अधिकार साबित नहीं कर सका। बहुतों को जमीन के मालिकों द्वारा सरसरी तौर पर बेदखल कर दिया गया, जो कि राज्य के लिए जोत भूमि के लक्ष्य को कम कर देता है।

हालांकि, यह गौर करने लायक है कि असमानता को कम करने के लक्ष्य से बनाए गए उत्तर-औपनिवेशिक भूमि कानून और इसके कार्यान्वयन की जटिलता भी इसे परंपरागामी बना देती है। उदाहरण के लिए, वर्षों पहले घोषणा की गई भूमि जोत पर एक प्रस्तावित सीमा, छल-कपट का निमंत्रण था, जैसे कि नकली 'विभाजन' और बेनामी जोत2,3 आदिवासी लोगों सहित गरीबों के हितों की रक्षा और भूमि बाजारों में शोषण से बचाव के अच्छे उद्देश्य से लगाये गए भूमि हस्तांतरण प्रतिबंधों ने बाजार के लेन-देन को भी भूमिगत कर दिया। इस तरह के प्रतिबंध औपनिवेशिक काल में ही लागू किए गए थे, लेकिन ये स्वतंत्रता के बाद शुरुआती कुछ दशकों के भूमि सुधार कानूनों के बाद हाल के कानूनों जैसे वन अधिकार अधिनियम तक ही आगे बढ़े हैं (रॉय और स्वामी 2021)। 

कंपनी कानून और कॉर्पोरेट गवर्नेंस 

कंपनी कानून और कॉरपोरेट गवर्नेंस के संदर्भ में, औपनिवेशिक विरासत काफी अलग रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के शुरुआती दशकों में, ‘प्रबंध एजेंसी’ के रूप में प्रचलित एक प्रकार की फर्म के बारे में कारणहितों के संभावित टकराव के चलते काफी विवाद था, जिसे कहा जाता था- "फर्म जो अन्य फर्मों का प्रबंधन करती है" (रॉय और स्वामी 2021)। एक औद्योगिक कंपनी में किसी व्यापारी की नियंत्रण हिस्सेदारी हो सकती है, और वह ऐसी ‘प्रबंध एजेंसी’ को किराए पर ले सकता है जो उसके स्वामित्व वाली हो। वह प्रबंध एजेंसी फिर ऐसे लेनदेन कर सकती थी जिससे औद्योगिक कंपनी और उसके अल्पसंख्यक शेयरधारकों के लाभ के बदले व्यापारी को फायदा हो। 1970 के दशक की शुरुआत में प्रबंध एजेंसी की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया।

भारतीय और विदेशी निवेश को बाधित या गलत आवंटित करने वाले बाद के अधिकांश कानून– एफईआरए (विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम), एमआरटीपी (एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक व्यापार अभ्यास) अधिनियम, एसआईसीए (बीमारु औद्योगिक कंपनी अधिनियम), आदि, उत्तर-औपनिवेशिक विचारों से प्रेरित थे। 1991 में शुरू हुए उदारीकरण के बाद, कंपनियों और कॉर्पोरेट गवर्नेंस से संबंधित कानून को फिर से पेश किया गया, जिसमें थोड़ा राजनीतिक विरोध हुआ। पूर्वव्यापी कराधान से जुड़ी गड़बड़ी जैसी हाल की गलतियां किसी विरासत में मिली औपनिवेशिक विकृतियों से नहीं, बल्कि सरकार की संसाधन जरूरतों से जुड़ी हैं।

पर्यावरण कानून

पर्यावरण कानून अत्यंत विवादित रहा है। इनमें से कुछ को वास्तव में औपनिवेशिक काल में देखा जा सकता है, जब राज्य ने जंगलों और जनसामान्य के परंपरागत अधिकारों को कम कर दिया, और स्वतंत्रता के बाद भी राज्यों ने इन कानूनों को ज्यों का त्यों बनाए रखा (शिवरामकृष्णन 1995)। इन कानूनों का स्थानीय समुदायों द्वारा विरोध किए जाने और भारतीय लोकतंत्र की जड़ें गहरी होने के साथ ही इन्हें बदल दिया गया और साथ ही गरीब राजनीतिक रूप से अधिक सक्रिय हो गए हैं। बाद में आये नए कानून- जैसे कि वन अधिकार अधिनियम और अन्य कानून औद्योगीकरण की जरूरतों के साथ-साथ गरीबों और उनके समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता को संतुलित करने के लिए संघर्षरत है। हमने औपनिवेशिक काल में विशेष रूप से प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के साथ पर्यावरण के मुद्दों के एक नए वर्ग के उद्भव को भी देखा है। बढ़ती घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय चिंताओं के समाधान हेतु राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा विधायी सिद्धांतों का एक पूरा सेट- प्रदूषक द्वारा भुगतान, बचावकारी सिद्धांत, आदि को अपनाया गया है। पुनः, ये समसामयिक मुद्दे हैं और समसामयिक प्रतिक्रियाओं से जुड़े हुए हैं।

विचार - विमर्श

अंत में, एक समस्या है जो औपनिवेशिक काल से चली आ रही है- कानून व्यवस्था में कार्मिकों की कमी, और न्यायाधीशों को इच्छानुसार मामलों को स्थगित करने, अपील की अनुमति देने जैसे विशेषाधिकार। भले ही ये औपनिवेशिक विरासतें हों, इन समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। तथ्य यह है कि भारत में प्रति व्यक्ति बहुत कम न्यायाधीश हैं, यह निश्चित रूप से एक वर्तमान राजनीतिक आकांक्षा4 है।

निश्चित तौर पर, औपनिवेशिक विरासत मायने रखती है- एक औपनिवेशिक शक्ति द्वारा लागू 200 साल पहले का कानून कैसे प्रभाव नहीं छोड़ सकता है? फिर भी, वर्तमान समस्या की जड़ों का वर्तमान समाधान न ढूंढकर उसे औपनिवेशिक विरासत से जोड़ कर देखना हमारे लिए लाभकारी नहीं हो सकता। 

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टिप्पणी:

  1. जमींदारी से तात्पर्य जमींदारों (जमींदारों) द्वारा भूमि जोत और कर संग्रह की प्रणाली से है।
  2. बिहार में वर्ष 1955 में लैंड सीलिंग बिल पर विधायिका में बहस हुई, लेकिन सदन में पारित नहीं हो सका। अंततः यह कानून 1961 में ही लागू हुआ (रॉय और स्वामी 2021)।
  3. बेनामी होल्डिंग्स एक ऐसी प्रॉपर्टी होल्डिंग्स हैं जहां असली मालिक की पहचान छुपाई जाती है।
  4. भारत में प्रति दस लाख लोगों पर औसत एक न्यायाधीश से अधिक है। जून 2018 में, 80 लाख दीवानी मामले थे जो औसतन 5-6 वर्षों से लंबित थे (रॉय और स्वामी 2021)। मामलों में सुनवाई की देरी के कारणों पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणियों के लिए मोहंती (2021) देखें।

लेखक परिचय: तीर्थंकर रॉय लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस (एलएसई) में आर्थिक इतिहास के प्रोफेसर हैं। आनंद वी. स्वामी विलियम्स कॉलेज, विलियमस्टाउन में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं, जहां वे सेंटर फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स से भी जुड़े हुए हैं।

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