शहरीकरण

भारत में ज़मीन की महँगाई और इसके उपाय

  • Blog Post Date 17 मई, 2024
  • दृष्टिकोण
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भारत में ज़मीन की कीमत उसके मौलिक मूल्य की तुलना में अधिक है, जिसके चलते देश में आर्थिक विकास प्रभावित हो रहा है। इस लेख में, गुरबचन सिंह दो व्यापक कारकों- शहरी भारत में लाइसेंस-परमिट-कोटा राज और ग्रामीण भारत में भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के सन्दर्भ में यह स्पष्ट करते हैं कि ऐसा क्यों है। वे इस व्यवस्था को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने और अंततः अधिनियम के मूल्य-निर्धारण प्रावधानों को समाप्त करने की सिफारिश करते हैं।

भारत के बारे में एक शैलीबद्ध तथ्य यह है कि ज़मीन की कीमत इसके मौलिक मूल्य की तुलना में कहीं अधिक है। यह नीदरलैंड और यूरोप के अन्य हिस्सों जैसे कई उन्नत देशों में भूमि के बाज़ार मूल्य के सापेक्ष भी अधिक है (चक्रवर्ती 2013, सिंह 2016)। ज़मीन की ऊँची कीमत न केवल किफायती आवास जैसे परिचित उद्देश्यों के लिए मायने रखती है, बल्कि यह आम तौर पर आर्थिक विकास के लिए भी प्रासंगिक है।

इस लेख में मेरा ध्यान भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया, अधिग्रहित भूमि के मुआवज़े और नीलामी के माध्यम से भूमि के मूल्य निर्धारण का विश्लेषण करने वाले घटक और घोष (2011) जैसे अन्य सम्बंधित लेखों से अलग है। यह समझाने के लिए मैं पिछले (सिंह 2017) और आगामी अध्ययन का हवाला देता हूँ कि भारत में ज़मीन महँगी क्यों है और इसके बारे में क्या किया जा सकता है।1 मेरा स्पष्टीकरण मोटे तौर पर दो कारकों- 'लाइसेंस-परमिट-कोटा' राज (इसके बाद एलपीक्यू-राज के रूप में वर्णित) शहरी भारत में ‘रियल एस्टेट’ क्षेत्र में और ग्रामीण भारत में भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के सन्दर्भ में है। हालांकि भूमि अधिग्रहण अधिनियम को काफी अच्छी तरह से समझा गया है, लेकिन एलपीक्यू-राज के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। आइए, सबसे पहले इस पर चर्चा करते हैं।

लाइसेंस-परमिट-कोटा राज

एलपीक्यू-राज सख्त नियमों, विनियमों, नौकरशाही और राजनीतिक विवेकाधीन निर्णय लेने की प्रणाली को संदर्भित करता है। 1950 के दशक में जब सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देने, निजी क्षेत्र पर नियंत्रण लाने और बाज़ार ताकतों के मुकाबले योजना बनाने पर काफी ज़ोर दिया गया, तो इसे महत्व मिला। हालांकि 1990 के दशक की शुरुआत में देश के विनिर्माण क्षेत्र में एलपीक्यू-राज को समाप्त कर दिया गया था, लेकिन यह रियल एस्टेट क्षेत्र में, विशेष रूप से शहरी भारत में, कमोबेश बना हुआ है और इससे शहरी रियल एस्टेट की कीमत बढ़ रही है। यह सच है कि क्षेत्रीय कानूनों (ज़ोनिंग लॉ) जैसे कानूनों की आवश्यकता है जो शहरी क्षेत्र के व्यवस्थित विकास को सुनिश्चित करते हैं, फिर भी इनके अंतर्गत 'अत्यधिक' प्रतिबन्ध होते हैं। ये अत्यधिक प्रतिबन्ध एलपीक्यू-राज का विषय हैं।

बिल्डरों को रियल एस्टेट विकास और निर्माण के लिए अनुमोदन की आवश्यकता होती है। भारत में ये स्वीकृतियाँ असंख्य हैं, प्रभावी रूप से विवेकाधीन, समय लेने वाली, बहुत महँगी हैं और ये बड़े पैमाने पर अधिकारियों, राजनेताओं और 'गॉडफादर' के सम्पर्क के माध्यम से घूस या नकद या वस्तु के रूप में 'रिश्वत' के ज़रिए उपलब्ध होती हैं। इसके अलावा, फर्श वर्गफल अनुपात (एफएआर)2  को अक्सर कम रखा जाता है। इन सभी को कभी-कभी एलपीक्यू-राज के गठन के रूप में देखा जाता है हालांकि, यह वास्तव में एक संकीर्ण दृष्टिकोण है।

भले ही निर्दिष्ट क्षेत्र के दायरे में विकास और निर्माण की मंजूरी बिना किसी कठिनाई के मिल जाए, तो भी इसमें एक अधिक बुनियादी समस्या निहित है। आमतौर पर, नगर नियोजक कुछ क्षेत्र का सीमांकन करते हैं जिसके भीतर शहरी विकास किया जा सकता है और सरकार निर्दिष्ट क्षेत्र के लिए बुनियादी ढाँचा प्रदान करती है। एलपीक्यू-राज का सामान्य दृष्टिकोण इस बात पर कोई सवाल नहीं उठाता है कि यह निर्दिष्ट क्षेत्र पर्याप्त है या नहीं। शहरी अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों की तुलना में निर्दिष्ट क्षेत्र अक्सर छोटा होता है।

यह सच है कि भूमि उपयोग परिवर्तन या चेंज ऑफ़ यूज़ (सीएलयू) के लिए अनुमति लेने का प्रावधान है। फिर भी, अनुमतियाँ अत्यधिक संदेहास्पद हैं। लेकिन उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह है कि सीएलयू आमतौर पर ऐसे क्षेत्र के सन्दर्भ में जारी किए जाते हैं जो आकार में सीमित और पहले से अनुमोदित क्षेत्रों के पास होते हैं। इसलिए, सीएलयू का प्रावधान आम तौर पर उन विस्तारों पर लागू नहीं होता जो बड़े और दूर-दराज माने जाने वाले क्षेत्रों में किए जा रहे हों। चूँकि इस प्रक्रिया में विभिन्न विभाग शामिल होते हैं, सरकारी तंत्र में आपसी समन्वय से जुड़ी समस्याएं व्याप्त रहती हैं।

यदि किसी नए क्षेत्र में बाहरी विकास अपर्याप्त है (आंतरिक विकास, वैसे भी डेवलपर्स द्वारा प्रदान किया जाना तय होता है) तो नई टाउनशिप के लिए सीएलयू को अक्सर अस्वीकार कर दिया जाता है। दूसरी ओर, यह देखते हुए कि सम्बंधित क्षेत्र में पहले से इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, अक्सर क्षेत्र का बाहरी विकास सरकारी तंत्र नहीं करता है। यह एक दुष्चक्र है। अक्सर कानूनी या वास्तविक तौर पर कोई ऐसा सक्षम फ्रेमवर्क मौजूद नहीं होता जिसके तहत निजी क्षेत्र पूरी तरह से अपनी नई टाउनशिप या बसावट के लिए बाहरी विकास प्रदान कर सके। इसका सीधा परिणाम यह है कि भूमि की मात्रा सीमित हो जाती है और तदनुसार शहरी भारत में अचल संपत्ति की कीमत अधिक रहती है।

कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती। एलपीक्यू-राज में काला धन, सार्वजनिक अधिकारियों का 'बुरा' बर्ताव, अनियमितताएं (और यहाँ तक कि अपराध), उत्पीड़न, समय की बर्बादी, न्यायपालिका तक कम प्रभावी पहुँच और ऐसी अन्य बातें शामिल हैं। इसके चलते ईमानदार, सक्षम, रचनात्मक और मेहनती पेशेवर इस क्षेत्र में आने से कतराते हैं। इसलिए भले ही बड़ी संख्या में विक्रेता, व्यापारी और निवेशक मौजूद हों, प्रभावी प्रतिस्पर्धा सीमित रहती है। ज़मीन की उच्च कीमत (और निम्न गुणवत्ता) में इसका भी योगदान है।

वर्ष 2014 के बाद सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा 100 नए शहरों को विकसित करने के प्रयास के रूप में एक पहल की गई थी, जो "स्मार्ट सिटी" बनते3। हालांकि इसे जल्द ही 100 (ज़्यादातर मौजूदा) शहरों के मिशन में बदल दिया गया, जिन्हें 'स्मार्ट सिटी' बनाया जाएगा। मात्रा को सीमित रखते हुए गुणवत्ता पर यह ज़ोर, समग्र प्रतिबंधात्मक नीति का एक और रूप है, जो भूमि की कीमतों को ऊँचा बनाता है।

कीमत का एक सरल मॉडल

चलिए एक ऐसी अर्थव्यवस्था का विचार करें जिसमें एक निश्चित मात्रा में समान गुणवत्ता वाली खाली ज़मीन मौजूद हो, और सरलीकरण के लिए हम यह मान लेते हैं कि इसके केवल दो उपयोग हैं- इसका उपयोग ग्रामीण या शहरी अर्थव्यवस्था के लिए किया जा सकता है। इस मॉडल की बुनियाद ज़मीन के विभिन्न टुकड़ों के ठिकाने या लोकेशन पर आधारित है, जो ग्रामीण या शहरी अर्थव्यवस्था में ज़मीन के एक टुकड़े की दूसरे की तुलना में सापेक्ष कीमत पर टिका है। इस मॉडल में शहरी अर्थव्यवस्था में प्रतिनिधि भूमि की कीमत की तुलना में ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्रतिनिधि भूमि की कीमत पर ध्यान कन्द्रित है। यह माना जा रहा है कि सारी शहरी भूमि का उपयोग एक निश्चित एफएआर के साथ किया जाता है। यह मॉडल ग्रामीण भूमि की तुलना में शहरी भूमि की कीमत के प्रीमियम पर टिका हुआ है जो कि उन सम्मिलित लाभों के कारण होता है जिनसे शहर को आकार मिलता है। इसके बजाय यहाँ खाली भूमि की कीमत पर ध्यान दिया गया है।

कुल भूमि का अधिकतम मूल्य तब प्राप्त होता है जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भूमि का सीमांत या मार्जिनल मूल्य (अर्थात भूमि की एक अतिरिक्त इकाई का मूल्य) शहरी अर्थव्यवस्था में बराबर हो। एक ऐसे प्रतिस्पर्धी बाज़ार के बारे में सोचें, जहाँ संतुलन में बाज़ार-मूल्य मार्जिनल मूल्य के बराबर है। इसलिए इष्टतम आवंटन के मामले में, खाली भूमि की कीमत किसी भी उपयोग में समान होगी, चाहे वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में हो या शहरी अर्थव्यवस्था में।

आकृति-1. एलपीक्यू-राज और भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 का भारत में भूमि की कीमतों पर प्रभाव

टिप्पणियाँ : (i) क्षैतिज अक्ष भूमि की एक निश्चित मात्रा को दर्शाता है। बाईं ओर का ऊर्ध्वाधर अक्ष शहरी अर्थव्यवस्था में भूमि के सीमांत मूल्य को दर्शाता है, जबकि दाईं ओर का ऊर्ध्वाधर अक्ष ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भूमि के सीमांत मूल्य को दर्शाता है। (ii) नीले और भूरे रंग के दो वक्र क्रमशः शहरी अर्थव्यवस्था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भूमि के सीमांत मूल्य को दर्शाते हैं। (iii) यहाँ भूमि का सीमांत मूल्य निरंतर दर से घट रहा है।

अब मान लीजिए कि सरकार हस्तक्षेप करती है और शहरी अर्थव्यवस्था में भूमि का आवंटन कम हो जाता है। आकृति-1 (स्थिर) के परिदृश्य का आधार यही है। मान लीजिए कि समय के साथ शहरी अर्थव्यवस्था का विस्तार होता है लेकिन भूमि के आवंटन (और बुनियादी ढाँचे के लिए प्रावधान या प्रावधान को सक्षम करना) को गति नहीं मिलती है (सरलता के लिए यह आकृति में स्थिर है)। फिर, यहाँ शहरी अर्थव्यवस्था के लिए भूमि का कम आवंटन है। सम्बंधित रूप से, अब यहाँ 'कुल भार नुकसान (डेडवेट लॉस)'4 है और शहरी अर्थव्यवस्था में खाली भूमि का बाज़ार-मूल्य ग्रामीण अर्थव्यवस्था में खाली भूमि के बाज़ार-मूल्य से काफी अधिक है।

चलिए ऐसे मामले पर विचार करते हैं जब किसानों की लॉबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था से प्राप्त की जा सकने वाली भूमि की ऊँची कीमत पर ज़ोर देती है। ऊँची कीमत ग्रामीण अर्थव्यवस्था में 'मुक्त बाज़ार' संतुलन स्तर से ऊपर के किसी भी स्तर की हो सकती है। मान लें कि ग्रामीण भूमि के लिए अपेक्षित कीमत शहरी अर्थव्यवस्था के बराबर स्तर पर है (आकृति-1 में नारंगी क्षैतिज रेखा देखें)। इस मॉडल से क्या हासिल होता है?

भारत में भूमि का उपयोग

एलपीक्यू-राज के कारण शहरी भारत में भूमि आवंटन इष्टतम से कम रहा है और शहरी भूमि की कीमत ग्रामीण भूमि की कीमत की तुलना में अधिक है। डेडवेट लॉस (आकृति-1 में धारीदार धूसर क्षेत्र) अतिरिक्त समृद्धि की सम्भावना का प्रतीक है, जो प्रत्यक्ष में नहीं हो पाता क्योंकि भूमिका अनुचित आवंटन आड़े आता है। हम भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के मूल्य-निर्धारण भाग को सरल तरीके से दर्शाने हेतु आकृति-1 में क्षैतिज नारंगी रेखा को ले सकते हैं। विश्लेषण का नीतिगत निहितार्थ यह है कि सार्वजनिक प्राधिकरणों को लचीला होना चाहिए, उन्हें अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों के अनुसार तालमेल बनाए रखना चाहिए और समय के साथ, भूमि के उपयोग सम्बन्धी नीति का शहरी अर्थव्यवस्था की ओर झुकाव होना चाहिए। इससे शहरी भारत में भूमि की कीमत नियंत्रण में रहती है और इसके कारण, ग्रामीण भूमि की कीमतों पर दबाव कम करने में मदद मिलती है। 

इनका एक दिलचस्प परिणाम सामने आता है। यदि भूमि की उपलब्धता को इष्टतम स्तर पर रखा जाता है (अर्थात उपरोक्त मॉडल के गतिशील संस्करण में, शहरी अर्थव्यवस्था के लिए भूमि की आपूर्ति समय के साथ 'लोचदार' होती है) तो समय के साथ भूमि की कीमत में वृद्धि सीमित हो जाती है। तदनुसार अनुमानों में, भूमि के कम उपयोग, खाली घरों और रियल एस्टेट के ‘बुलबुले’ की गुंजाइश कम हो जाती है। यह सब भी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि और स्थिरता में योगदान दे सकता है।

यहाँ यह तर्क दिया जा सकता है कि कृषि उत्पादन प्रभावित हो सकता है क्योंकि भूमि का ग्रामीण अर्थव्यवस्था से शहरी अर्थव्यवस्था में अंतरण हो गया है। लेकिन, भारत में सबसे अधिक आबादी वाले शीर्ष 10 शहरों का राष्ट्रीय भूमि व्यापकता के लगभग 0.2% पर कब्ज़ा है (दास एवं अन्य 2019)। इसलिए, कुछ भूमि को शहरी भारत में अंतरित करने की गुंजाइश मौजूद है।

ऐसा भी प्रतीत हो सकता है कि यद्यपि नीतियों के प्रस्तावित सेट के तहत किसानों को ऐसी कीमत मिलती है जो शहरी अर्थव्यवस्था में प्रचलित कीमत के मुकाबले कम नहीं है। लेकिन भूमि की पूर्ण कीमत के मामले में उन्हें नुकसान होता है। हालांकि, इतनी ऊँची कीमत वास्तव में भारत के अधिकांश किसानों के लिए बहुत प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि वे आम तौर पर कीमत अधिक होने के बावजूद, अपनी ज़मीन बेचने का विकल्प नहीं चुनते हैं और इसके अच्छे कारण भी हैं। बिक्री की पूरी प्रक्रिया के बारे में किसानों में विश्वास की कमी है। साथ ही, भूमि बेचने के बाद बिक्री आय के पुनर्निवेश के बारे में विश्वसनीय वित्तीय सलाह का अभाव है। इसके अतिरिक्त, किसानों के पास सार्थक शिक्षा या कौशल का भी अभाव है जो उन्हें ज़मीन बेचने के बाद वैकल्पिक आजीविका अपनाने में सक्षम बना सके।

यहाँ प्रस्तुत विश्लेषण और नीति-निर्धारण का एक परिणाम यह भी होगा कि चूंकि शहरी भारत में अधिक भूमि उपलब्ध होने से शहरी भूमि की कीमत कम हो गई है, इसके नतीजे में शहरी आवास अपने आप सस्ता हो सकता है। इस तरह से प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) जैसी योजनाओं की आवश्यकता कम हो जाती है जो किफायती आवास के प्रावधान के लिए, सीधे या परोक्ष रूप से, मुख्य रूप से सार्वजनिक वित्त पर निर्भर करती हैं। यहाँ दिया हुआ विश्लेषण मुख्य रूप से सार्वजनिक नीति पर निर्भर करता है।

नीतिगत निष्कर्ष

जैसा कि मैंने इस लेख में रेखांकित किया है, भारत में ज़मीन की ऊँची कीमत की व्याख्या के दो तत्व हैं। पहला, एलपीक्यू-राज भारत में शहरी अचल संपत्ति की कीमत को बढाता है। दूसरा, शहरी भारत में ज़मीन की ऊँची कीमत को देखते हुए किसान और उनके प्रतिनिधि, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के मूल्य-निर्धारण सम्बन्धी प्रावधानों के तहत, उनसे प्राप्त ज़मीन की ऊँची कीमत पर ज़ोर देते हैं। इससे ग्रामीण भारत में ज़मीन की कीमत भी बढ़ जाती है।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के एक हिस्से को, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था से प्राप्त की जाने वाली भूमि की ऊँची कीमत से सम्बंधित है, निरस्त या समाप्त करने की दिशा में बढ़ने की ज़रूरत है। लेकिन उससे पहले, शहरी ज़मीन की कीमतों पर नियंत्रण रखने के लिए शहरी अर्थव्यवस्था में एलपीक्यू-राज को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की ज़रूरत है। बदले में यह भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के आंशिक संशोधन की व्यापक स्वीकृति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

लेख में व्यक्त विचार पूरी तरह से लेखक के हैं और रूरी नहीं कि वे I4I संपादकीय बोर्ड के विचारों को प्रतिबिम्बित करते हों।

टिप्पणियाँ :

  1. ग्युरको और रेवेन भी देखें (2015)
  2. किसी भवन का एफएआर उसके कुल फर्श वर्गफल के बराबर होता है जो उस भूमि के क्षेत्रफल से विभाजित होता है जिस पर वह बना है। कम एफएआर मूल्यों से इमारत की ऊँचाई कम हो जाती है और इसका तात्पर्य सख्त भवन नियमों से है।
  3. स्मार्ट सिटी मिशन के तहत, 100 शहरों को जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए बुनियादी ढाँचे के विकास और शहरी नियोजन पर ध्यान केन्द्रित करने वाली परियोजनाओं को लागू करने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों से धन और समर्थन प्राप्त हुआ।
  4. ‘भारी नुकसान’ (डेडवेट लॉस) तब होता है जब संसाधनों का आवंटन इष्टतम नहीं होता है। बाज़ार में प्रतिस्पर्धा के एक सरल मॉडल में, इष्टतम आवंटन तब प्राप्त होता है जब आपूर्ति की मात्रा मांग के बराबर होती है। यदि (गैर-बाज़ार) संतुलन मात्रा भिन्न है, तो इसके परिणामस्वरूप भारी नुकसान होता है। यह अर्थव्यवस्था के लिए एक नुकसान है, उस मामले के विपरीत जहाँ अगर किसी व्यक्ति को अगर नुकसान होता है, तो किसी और को ज़रूर फायदा होता है। 

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : गुरबचन सिंह एक स्वतंत्र अर्थशास्त्री हैं। वह अशोका यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर थे। कई वर्षों तक उन्होंने भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई), दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ाया। उनका शोध वित्त और व्यापक अर्थशास्त्र के बीच के ‘इंटरफेस’ पर है। उनका काम वास्तविक दुनिया को समझाने के लिए सिद्धांत और नीति पर आधारित है।

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