सामाजिक पहचान

75 वर्षों के योजनाबद्ध विकास के बाद आदिवासी आजीविका की स्थिति

  • Blog Post Date 02 मार्च, 2023
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भारत में आदिवासी समुदाय की भलाई सुनिश्चित करने हेतु सतत प्रयास किये जाने के बावजूद, यह समुदाय सबसे वंचितों में से एक रहा है। चौधरी एवं घोष ने इस लेख में झारखंड तथा ओडिशा में रहने वाले आदिवासी समाज की आजीविका की स्थिति के सर्वेक्षण के एक अध्ययन के निष्कर्षों पर चर्चा की है। वे व्यक्तिगत साक्षात्कारों, फोकस समूह चर्चाओं और पारिवारिक सर्वेक्षणों का उपयोग कर यह पाते हैं कि देश के अन्य समुदायों की तुलना में, आदिवासी न केवल पारिवारिक आय में, बल्कि पोषण संबंधी परिणामों, सड़कों और सार्वजनिक परिवहन तक पहुँच तथा साक्षरता और भूमि के स्वामित्व के मामले में भी पीछे हैं।

मध्य भारतीय क्षेत्र में 'अनुसूचित जनजाति' या ‘आदिवासी’ की प्रशासनिक श्रेणी में आनेवाले लोग देश के सबसे हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक हैं (प्रसाद 2016)। आज़ादी के बाद से, सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियां ​​आदिवासियों की भलाई सुनिश्चित करने की दिशा में कार्य कर रही हैं। इसके बावजूद, उन्हें विकास प्राप्त करने में चूक रहे हैं। लगातार बेदखली और विस्थापन सहित इसके कई कारण हैं (फर्नांडीस और ठकुराल 1989)। साथ ही, ऐसा लगता है कि इन आदिवासियों की विशिष्ट आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं या उनके निवास के पारिस्थितिक क्षेत्रों पर विचार किए बिना विकास संबंधी प्रमुख नीतियां और कार्यक्रम को लागू किया गया है और ये उनके ऊपर थोपे गए हैं।

प्रदान (प्रोफेशनल असिस्टन्स फॉर डेवलपमेंट ऐक्शन; अर्थात विकास कार्य के लिए व्यावसायिक सहायता), जो एक अखिल भारतीय गैर-लाभकारी कार्यक्रम है, के द्वारा दो आदिवासी बहुल राज्यों – झारखंड और ओडिशा के आदिवासी समुदायों के आजीविका की स्थिति को समझने के लिए एक अध्ययन किया गया।

इस अध्ययन हेतु जांच इन तीन स्तरों पर की गई थी: i) अधिकांश आदिवासी समुदायों से संबंधित बुद्धिजीवियों, सामुदायिक नेताओं, कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों के व्यक्तिगत साक्षात्कार, ii) ग्रामीणों के साथ सामूहिक चर्चा, और iii) पारिवारिक स्तर के सर्वेक्षण।

प्रतिदर्श का चयन

लगभग 5000 आदिवासी (दोनों प्रमुख जनजातीय समूह1 और विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह2) परिवारों को यादृच्छिक (रैंडम) रूप से चयनित एकीकृत जनजातीय विकास कार्यक्रम (आईटीडीपी)3 ब्लॉकों से लिया गया था। परिवारों के ये यादृच्छिक प्रतिदर्श झारखंड के आठ जिलों (आईटीडीपी ब्लॉक वाले 15 जिलों में से) और ओडिशा के आठ जिलों (आईटीडीपी ब्लॉक वाले 13 जिलों में से) के 240 गांवों से लिए गए थे।

16 जिलों के 240 गांवों की पहचान जनसंख्या के अनुपात में की गई थी। सर्वेक्षण के लिए प्रति ब्लॉक अधिकतम पांच गांवों (30 से अधिक आदिवासी परिवारों के साथ) की पहचान की गई, जिसमें अनुसूचित जनजाति की आबादी वाले गांव को आदिवासी गांव के बराबर या 70% से अधिक माना गया।

यह संपूर्ण डेटा संग्रह अभ्यास झारखंड में मार्च-अप्रैल 2021 में और ओडिशा में अप्रैल-मई 2021 के दौरान आयोजित किया गया था। पारिवारिक सर्वेक्षण में झारखंड और ओडिशा के 16 जिलों के 53 ब्लॉकों के 4,994 परिवारों को शामिल किया गया; इनमें से 4,135 आदिवासी परिवार थे और 859 गैर-आदिवासी परिवार थे। 28 गांवों में फोकस समूह चर्चाएं आयोजित की गई, और आदिवासी समुदाय द्वारा सामना की जाने वाली आजीविका के मुद्दों के बारे में 40 प्रमुख आदिवासी और गैर-आदिवासी आजीविका के जानकार व्यक्तियों का गहराई से साक्षात्कार किया गया।

आदिवासी परिवारों की पारिवारिक आय

दो घटकों को मिला कर पारिवारिक आय की गणना की गई: पहला, वर्ष के दौरान कृषि उपज, प्राप्त मजदूरी, पेंशन, व्यवसायों आदि से अर्जित होने वाली वास्तविक नकद आय है, जिसे बैंक खातों में जमा किया जाता है। दूसरा घटक, उत्पादित या एकत्र की गई लेकिन घर में खपत की गई वस्तुओं की अनुमानित लागत है। ये आय के आंकड़े शुद्ध आउट-ऑफ-पॉकेट लागत (जेब खर्चे) हैं। लागू पारिवारिक श्रम या घरेलू इनपुट (खेत की खाद, पशु खिंचाई से प्राप्त ऊर्जा) की लागत को सकल बिक्री आय में शामिल नहीं किया गया है। स्वयं की खेती से कृषि उत्पादों से शुद्ध आय को कृषि आय के रूप में गिना गया है जबकि कृषि श्रम से आय को मजदूरी के रूप में गिना गया है।

फसलों से आय के संदर्भ में, वर्ष 2020-21 के लिए भारत सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर विचार किया गया। जहां एमएसपी उपलब्ध नहीं था, वहाँ कृषि आय की गणना बिक्री मूल्य (परिवारों में एकत्रित) और बिक्री मात्रा (परिवारों में एकत्रित) का उपयोग करके की गई। जहां ऐसी गणना संभव नहीं थी, लेकिन लगाए गए खपत मूल्य की गणना हेतु मूल्य अनुमान की आवश्यकता थी, वहाँ उचित अनुमानों का उपयोग किया गया। सब्जियों से आय की गणना कुल बिक्री मूल्य और कुल बिक्री मात्रा के अनुपात का उपयोग करके की गई। कुछ मामलों में, उस मौसम में परिवारों द्वारा एक सब्जी के पूरे उत्पादन का उपयोग स्वयं के उपभोग के लिए किया गया था। ऐसे मामलों में, अनुमानित मूल्य गणना के लिए आवश्यक मूल्य अनुमान प्राप्त करने हेतु उचित अनुमान लगाए गए।

कीमतों की जानकारी जहां उपलब्ध नहीं थी और स्वयं के उपभोग की सूचना दी थी, वहां अनुमान के तौर पर 1000 रुपये प्रति क्विंटल माना गया। बहुत छोटी और आकस्मिक फसलें, जिनकी उपज पूरी तरह से घर पर ही खप जाती थी, और जिनकी मात्रा का कोई अनुमान उपलब्ध नहीं था, उन्हें आय की गणना में शामिल नहीं किया गया। इस प्रकार का कम अनुमान गिने-चुने घरों में ही हुआ है।

निष्कर्ष स्पष्ट थे – झारखंड में, आदिवासी परिवारों की औसत वार्षिक आय 75,378 रुपये है; जबकि ओडिशा में यह 61,263 रुपये है। इसकी तुलना यदि भारत के कृषि परिवारों की वर्ष 2018-19 की औसत आय 122,616 रुपये से करें, तो यह झारखंड और ओडिशा के आदिवासी समुदायों (एनएसओ, 2021) की एक गंभीर तस्वीर प्रस्तुत करता है। इस क्षेत्र के आदिवासी परिवार, ग्रामीण भारत के कृषि परिवारों की औसत घरेलू आय से 60% या उससे कम कमाते हैं।

अन्य निष्कर्ष

इस अध्ययन में न केवल आय, बल्कि अन्य आजीविका परिणामों के संदर्भ में भी आदिवासी अत्यधिक वंचित नजर आये हैं, जैसे कि, खाद्य सुरक्षा और बच्चों के पोषण की स्थिति, तथा सार्वजनिक सेवा, शिक्षा और भूमि के स्वामित्व जैसे कारक जो उनकी आजीविका के परिणामों को प्रभावित करते हैं।

खाद्य और कृषि संगठन की वर्ष 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 22 करोड़ 43 लाख लोग कुपोषित हैं, जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 16% है। ‘प्रदान की वर्ष 2021 की एक रिपोर्ट दर्शाती है कि झारखंड और ओडिशा के आदिवासी क्षेत्र में स्थिति बहुत खराब है। झारखंड में 53% आदिवासी परिवार और ओडिशा में 55% आदिवासी परिवार अलग-अलग मात्रा में खाद्य-असुरक्षित हैं। इसमें से झारखंड में 25% और ओडिशा में 12% गंभीर रूप से खाद्य असुरक्षित पाए गए। इसके अतिरिक्त, दोनों राज्यों में आदिवासी परिवारों में 5 वर्ष से कम आयु के 50% बच्चों के सिर की गोलाई 3-97 प्रतिशतक के बाहर है, जो यह दर्शाता है कि वे कुपोषित हैं।

गरीब आजीविका परिणामों में योगदान देने वाले कारक

सड़कों और दूरसंचार के संदर्भ में कनेक्टिविटी (संयोजकता) एक महत्वपूर्ण कारक है, जो आजीविका को प्रभावित करता है। वर्ष 2021 की ‘प्रदान’ रिपोर्ट दर्शाती है कि झारखंड में 74% आदिवासी गाँव और ओडिशा में 72% आदिवासी गाँव बारहमासी (पक्की) सड़कों से जुड़े हुए हैं। इनमें से, झारखंड के केवल 63% गाँवों और ओडिशा के 80% गाँवों में सड़कें मोटर चलाने-योग्य हैं, जिसका अर्थ है कि झारखंड के 53% आदिवासी गाँव और ओडिशा के 42% आदिवासी गाँव मोटर चलाने-योग्य सड़कों से नहीं जुड़े हैं। यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है। वर्ष 2019 में मिशन अंत्योदय द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि देश के 30% गाँव मोटर चलाने-योग्य सड़कों से नहीं जुड़े हैं।

सार्वजनिक परिवहन की स्थिति भी आदिवासी गांवों में देश के बाकी हिस्सों से भी बदतर है। झारखंड और ओडिशा में क्रमशः केवल 46% और 57% गाँव सार्वजनिक परिवहन के माध्यम से अपने ब्लॉक मुख्यालय से जुड़े हुए हैं। दोनों राज्यों के लगभग 70% आदिवासी गाँवों में ही मोबाइल नेटवर्क उपलब्ध पाया गया।

शिक्षा एक और महत्वपूर्ण कारक है जो आजीविका के परिणामों को प्रभावित करता है। साक्षरता के आंकड़ों से पता चलता है कि झारखंड में 53% आदिवासी परिवारों और ओडिशा में 58.6% परिवारों के मुखिया ने स्कूली शिक्षा नहीं प्राप्त की है। आदिवासी परिवारों की महिला सदस्यों के डेटा से यह भी पता चलता है कि झारखंड में 43.7% और ओडिशा में 50.3% महिला सदस्यों ने स्कूली शिक्षा नहीं प्राप्त की है। प्रतिदर्श परिवारों के उत्तरदाताओं और उनके पति/पत्नी के साथ सरल पाठ पढ़ने और लिखने और सरल अंकगणित करने की क्षमता पर एक कार्यात्मक साक्षरता परीक्षण आयोजित किया गया। इस परीक्षण के परिणामों से पता चला कि झारखंड के आदिवासी परिवारों के लगभग 45% पुरुष और 63% महिलाएं और ओडिशा के आदिवासी परिवारों के 55% पुरुष और 75% महिलाएं बिल्कुल भी पढ़ या लिख ​​नहीं सकते हैं।

इस डेटा की तुलना राष्ट्रीय साक्षरता दर से नहीं की जा सकती है, जिसमें परिवार के सात या उससे अधिक आयु के सभी सदस्यों की जानकारी ली जाती है। उस अनुमान के अनुसार, वर्ष 2011 की जनगणना में देश की कुल साक्षरता दर 72.98% दर्शायी गई है, जिसमें महिला और पुरुष साक्षरता दर क्रमशः 64.63% और 80.9% है। हालाँकि, उस स्थिति में भी, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि झारखंड और ओडिशा के आदिवासी क्षेत्र साक्षरता दर के मामले में राष्ट्रीय औसत से बहुत पीछे हैं।

बहुत छोटे आकार की भूमि का स्वामित्व होना भी आदिवासियों की खराब आजीविका के परिणामों में एक और प्रमुख कारक है। झारखंड और ओडिशा- दोनों में आदिवासी परिवारों के कम से कम 89% उत्तरदाताओं ने ऐसी भूमि का स्वामित्व होने की सूचना दी जो उन्हें सीमांत किसानों या भूमिहीन के रूप में वर्गीकृत करती है। इसकी तुलना में, वर्ष 2018-19 में राष्ट्रीय स्तर पर केवल 2.6% कृषि परिवार भूमिहीन थे और 70.4% सीमांत धारक4 थे, जो स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि ओडिशा और झारखंड राज्यों में आदिवासियों का भूमि स्वामित्व काफी कम है (एनएसओ, 2021)।

हालांकि, दोनों राज्यों में 90% से अधिक परिवारों ने अपनी आजीविका के प्रमुख स्रोत के रूप में खेती की सूचना दी, झारखंड के मामले में कुल पारिवारिक आय (42%) में मजदूरी का योगदान सबसे अधिक है, इसके बाद कृषि (34%) का स्थान है। ओडिशा में, मजदूरी की आय के बाद कृषि आय (38%) का उच्चतम स्रोत है। कुल मिलाकर, ओडिशा और झारखंड के आदिवासियों के संदर्भ में, मजदूरी का काम, गैर-कृषि गतिविधियां, प्रेषण और पेंशन एक साथ आय के प्रमुख स्रोत के रूप में कृषि गतिविधियों से मिलनेवाली आय से अधिक हो जाता है ।

निष्कर्ष

सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के अथक प्रयासों के बावजूद, विकास के लगभग सभी पहलुओं में आदिवासी पिछड़ते दिख रहे हैं, और उनकी आर्थिक स्थिति अन्य सामाजिक समूहों (समुदायों) की तुलना में नीचले स्तर की बनी हुई है। दुर्भाग्य से, आजादी के 75 वर्षों के नियोजित विकास से भी आदिवासियों और अन्य समूहों (समुदायों) के बीच का अंतर कम नहीं हुआ है।

टिप्पणियाँ:

  1. प्रमुख जनजातीय समूह वे जनजातीय समूह हैं, जो कमोबेश व्यवस्थित कृषि करते हैं। ज्यादातर मामलों में उन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया गया है। हालाँकि, दोनों सह-अस्तित्व में नहीं हैं – समूह की अनुसूचित जनजाति (एसटी) स्थिति राज्य सरकारों द्वारा तय की जाती है। परिणामस्वरूप, एक राज्य में एसटी स्थिति वाले समुदाय को दूसरे राज्यों में एसटी का दर्जा नहीं मिल सकता है। उदाहरण के लिए, गोंड जाति को छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में एसटी माना जाता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में नहीं- जहां उन्हें अनुसूचित जाति का माना जाता है।
  2. विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) वर्ष 1973 में जनजातीय समूहों के लिए ढेबर आयोग द्वारा बनाई गई एक श्रेणी थी, जिसे निम्नलिखित द्वारा पहचाना जा सकता है: (i) कृषि-पूर्व तकनीक का उनका उपयोग (ii) साक्षरता का निम्न स्तर (iii) आर्थिक पिछड़ापन और (iv) घटती या स्थिर जनसंख्या। वे ऐसे समूह हैं जिनके स्थिर कृषि करनेवाले प्रमुख जनजातीय समूहों के विपरीत शिल्पकार होने या स्थानांतरित खेती करने की अधिक संभावना है। राज्य सरकारों द्वारा इनमें से अधिकांश समूहों को पीवीटीजी का दर्जा दिया गया है और देश में 75 पीवीटीजी की पहचान की गई है।
  3. एकीकृत जनजातीय विकास परियोजना (आईटीडीपी) ब्लॉक एक या एक से अधिक विकास ब्लॉकों के आकार का एक क्षेत्र है, जिसमें एसटी आबादी ऐसे ब्लॉकों की कुल आबादी का 50% या उससे अधिक है। आदिवासी उप-योजना के तहत एकीकृत जनजातीय विकास परियोजनाओं (आईटीडीपी) पर कार्यक्रम, जिसे अब अनुसूचित जनजाति घटक कहा जाता है, को आदिवासी परिवारों की गरीबी कम करने, शैक्षिक स्थिति में सुधार और शोषण को खत्म करने के विशिष्ट उद्देश्यों के साथ पांचवीं पंचवर्षीय योजना के बाद से लागू किया गया है।
  4. 77वें एनएसएस सर्वेक्षण के अनुसार, उस कृषि परिवार को कृषि गतिविधियों से उत्पाद के मूल्य के रूप में 4,000 रुपये से अधिक प्राप्त करने वाले परिवार के रूप में परिभाषित किया गया था, जिसका कम से कम एक सदस्य पिछले 365 दिनों के दौरान या तो प्रमुख स्थिति में या सहायक स्थिति, कृषि में स्वरोजगार कर रहा था। जिन परिवारों के पास भूमि नहीं है या 0.002 हेक्टेयर से कम या उसके बराबर क्षेत्र के स्वामित्व वाले परिवारों को 'भूमिहीन' माना गया है, जबकि 1 हेक्टेयर से कम क्षेत्र के स्वामित्व वाले परिवारों को 'सीमांत किसान' माना गया है।

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लेखक परिचय: दिब्येंदु चौधरी और पारिजात घोष प्रदान की रिसर्च एंड एडवोकेसी यूनिट में कार्यरत हैं।

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