शासन

मनरेगा से निकली हैं कई राहें

  • Blog Post Date 22 मार्च, 2019
  • दृष्टिकोण
  • Print Page
Author Image

Karthik Muralidharan

University of California, San Diego

kamurali@ucsd.edu

Author Image

Paul Niehaus

University of California, San Diego

pniehaus@ucsd.edu

भारत की महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) की भूमिहीन ग्रामीण परिवारों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाए गए सुरक्षा तंत्र के रूप में प्रभावशीलता को लेकर बहुत सारे विवाद उत्पन्न हुए हैं। मुरलीधरन, नीहौस, और सुखतंकर ने बड़े पैमाने पर एक मूल्यांकन के परिणामों की चर्चा करके बताया है कि मनरेगा भूमिहीन ग्रामीण गरीबों के कल्याण में सुधार, और समग्र ग्रामीण उत्पादकता में वृद्धि के लिए आश्चर्यजनक रूप से प्रभावी उपकरण हो सकता है। 

 

किसानों की आर्थिक समस्याओं को कम करने के लिए नीतिगत तौर पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, जो स्वागतयोग्य है। लेकिन किसानों के साथ-साथ, मजदूरी पर निर्भर लाखों भूमिहीन ग्रामीण परिवारों की खुशहाली का ध्यान रखना शायद और भी जरूरी है। ऐसे परिवारों को सरकारी कृषि योजनाओं (जैसे खाद सब्सिडी, कर्ज-माफी, न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने, या किसानों को दी जाने वाली नगदी) का सीधे तौर पर फायदा नहीं मिलता। और तो और, उनकी ही आर्थिक सुरक्षा के लिए मूल रूप से तैयार की गई महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) अब भारी दबाव में है।


मनरेगा दुनिया का सबसे बड़ा सार्वजनिक रोजगार कार्यक्रम है, जिसमें 60 करोड़ से अधिक श्रमिक लाभान्वित हुए हैं। लेकिन इस कार्यक्रम ने बड़े स्तर पर  विवाद भी पैदा किए हैं। मनरेगा के समर्थकों का दावा है कि यह गैर-फसली मौसम में ग्रामीण गरीबों के लिए जीवन-रेखा के समान है। यह ग्रामीण वेतन को बढ़ाता है और उत्पादक सार्वजनिक संपत्तियों का निर्माण करने में भी मददगार होता है। दूसरी तरफ, आलोचक मानते हैं की यह योजना नुकसानदायक है और भ्रष्टाचार का पोषक है। उनकी नजरों में मनरेगा जमीनी स्तर पर फिजूलखर्ची है। बहरहाल, इन तमाम मुद्दों पर कई अच्छे अध्ययन हुए हैं, लेकिन सभी की अपनी तकनीकी सीमाएं हैं। नतीजतन, मनरेगा पर लोगों की राय सुबूत से अधिक विचारधारा और मान्यता से प्रभावित है।


ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर मनरेगा का असर देखने के लिए हमने उन आंकड़ों का इस्तेमाल किया, जब आंध्र प्रदेश (तब तेलंगाना नहीं बना था) सरकार ने मनरेगा भुगतान के लिए लाभार्थियों को बायोमेट्रिक स्मार्टकार्ड दिए थे। पहले, हमने स्मार्टकार्ड से भुगतान के बाद मनरेगा के क्रियान्वयन पर पड़ने वाले असर को जानने का प्रयास किया, जिसका आशाजनक नतीजा निकला। कई मामलों में हमें मनरेगा में खासा सुधार दिखा। लीकेज यानी रिसाव 41 फीसदी तक कम हो गया, कार्यक्रम में भागीदारी 17 फीसदी बढ़ी, काम करने और भुगतान के बीच का समय 29 फीसदी तक कम हो गया, भुगतान हासिल करने में लगने वाला समय 20 फीसदी तक घट गया, और भुगतान के अंतराल की अनियिमितता 39 फीसदी कम हो गई। दूसरे शब्दों में कहें, तो स्मार्टकार्ड के उपयोग से मनरेगा की सेहत जमीनी स्तर पर काफी सुधर गई और इसके क्रियान्वयन की गुणवत्ता इसके निर्माताओं के लक्ष्य के करीब आती दिखी।


मनरेगा के क्रियान्वयन में इस सुधार ने हमें एक अन्य बुनियादी सवाल का जवाब ढूंढ़ने का अनोखा मौका दिया। खासतौर से यह कि इस सुधार का ग्रामीण गरीबों पर पूर्ण प्रभाव क्या है? इसका जवाब काफी दिलचस्प है। नतीजे बताते हैं कि मनरेगा जॉब कार्ड धारकों की आमदनी में 13 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि कुल गरीबी में 17 फीसदी की गिरावट आई। हमारे सर्वेक्षण के ये नतीजे स्वतंत्र रूप से सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के आंकड़ों से मेल खाते हैं, जो खुद भी गरीबी में उल्लेखनीय कमी बताते हैं।


इन फायदों के कुछ कारण तो सीधे तौर पर यही हैं कि भ्रष्टाचार कम हुआ और मनरेगा से लाभार्थी की आमदनी में वृद्धि हुई। लेकिन यह पूरी तस्वीर का सिर्फ एक छोटा हिस्सा है। वास्तव में, बढ़ी हुई आमदनी का 90 फिसदी हिस्सा खुद मनरेगा से नहीं, बल्कि बाजार आय में बढ़ोतरी होने से आया। खासकर, हमने बाज़ार में मिलने वाले वेतन में उल्लेखनीय वृद्धि पाई। यह शायद इसलिए, क्योंकि एक बेहतर रूप में लागू मनरेगा ने निजी क्षेत्र में काम देने वालों को मजबूर किया हो कि वे श्रमिकों को आकर्षित करने के लिए उनका वेतन  बढ़ाएं। इसके अलावा, बढ़ते वेतन से निजी रोजगार में भी कोई गिरावट नहीं हुई। बल्कि आंकडे़ तो यही बताते हैं कि रोजगार में भी बढ़ोतरी हुई।


एक ही समय में वेतन और रोजगार, दोनों भला कैसे बढ़ सकते हैं? इसकी पहली वजह यह है कि मनरेगा की खामियां सुधर जाने से सार्वजनिक संपत्ति के निर्माण में सुधार हुआ, जिससे उत्पादकता, वेतन और रोजगार में वृद्धि हुई। दूसरी, अगर गांव में काम देने वाले लोग कम हों, वे आपस में मिलकर श्रमिकों का वेतन कम रखने की क्षमता रख सकते हैं। ऐसी स्थिति में, आर्थिक सिद्धांत यह कहता है कि न्यूनतम वेतन में वृद्धि होने से रोजगार भी बढ़ सकता है। तीसरी वजह यह हो सकती है कि क्रेडिट बाधाओं में कमी (जिसके सुबूत हमें मिले) के कारण निजी निवेश और उत्पादकता बढ़ी हो। समय बीतने के साथ-साथ, ग्रामीण वेतन में वृद्धि से मशीनीकृत खेती-किसानी में भी तेजी आ सकती है, जिससे उत्पादकता बढ़ेगी, जैसा अमेरिकी कृषि के इतिहास में दिखता है।


कुल मिलाकर, मनरेगा के बेहतर क्रियान्वयन ने निजी क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों में किसी नुकसान के बिना गरीबी को कम किया। यह नीति-निर्माण के लिए एक महत्वपूर्ण तथ्य है। इसने जाहिर तौर पर हमारी सोच को भी बदला है। शुरुआत में, हम मनरेगा में भ्रष्टाचार को लेकर निराश थे, क्योंकि हमारे पहले के अध्ययन का यही निष्कर्ष था। मगर हमारे नए सर्वे के परिणाम बताते हैं कि अच्छी तरह क्रियान्वित मनरेगा कार्यक्रम भूमिहीन ग्रामीण गरीबों के कल्याण और समग्र ग्रामीण उत्पादकता में वृद्धि का एक प्रभावी माध्यम बन सकता है।


ऐसी नीतियां दुर्लभ होती हैं, जो समानता और दक्षता, दोनों में सुधार करें। अच्छी तरह क्रियान्वित मनरेगा इसी तरह की योजना है। सरकार को इसमें कटौती करने या कमजोर क्रियान्वयन करके इसे धीरे-धीरे खत्म करने की बजाय इसे मजबूत करना चाहिए। यह अच्छी बात है कि हाल के बजट में इस योजना के लिए राशि आवंटन बढ़ाया गया है। लिहाजा सरकार को अब तय करना चाहिए कि इसका धन परियोजनाओं और लाभार्थियों तक समय पर पहुंचे। समय पर वेतन भुगतान के साथ-साथ सामाजिक संपत्ति गुणवत्ता को प्राथमिकता देने से  लाभार्थियों का कल्याण होगा, और ग्रामीण-उत्पादकता में सुधार भी दिखेगा। 

यह लेख पहले हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ था। 

लेखक परिचय: कार्तिक मुरलीधरन यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, सैन डीएगो में टाटा चांसलर'स प्रोफेसर ऑफ़ इकनॉमिक्स हैं। पॉल नीहौस यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, सैन डीएगो में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। संदीप सुखतंकर यूनिवर्सिटी ऑफ़ वर्जिनिया में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

No comments yet
Join the conversation
Captcha Captcha Reload

Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.

समाचार पत्र के लिये पंजीकरण करें