उत्पादकता तथा नव-प्रवर्तन

श्रम प्रतिबंधों में ढील का प्रभाव: राजस्थान में रोजगार से संबंधित साक्ष्य

  • Blog Post Date 13 सितंबर, 2022
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भारत में कड़े श्रम कानून फर्मों के विकास में बाधा डाल सकते हैं और अनौपचारिक एवं अनुबंध वाले रोजगार बढ़ा सकते हैं। यह लेख, औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए) में संशोधन के बाद राजस्थान में स्थित फर्मों से संबंधित साक्ष्यों को देखते हुए दर्शाता है कि श्रम कानूनों में ढील देने से कुल रोजगार और उत्पादन पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। इसके विपरीत, श्रम कानूनों में दी गई ढील के चलते अनुबंध वाले श्रमिकों में वृद्धि हुई है और स्थायी कार्य-बल में कमी आई है। हालांकि इस अध्ययन का अनुमान है कि संशोधन से प्रभावित फर्मों की निहित श्रम लागत में कमी आई है। 

भारत के औद्योगिक श्रम कानूनों के आर्थिक प्रभावों पर बहुत बहस होती रही है। इस बहस का मुख्य मुद्दा औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए) है, यह एक ऐसा कानून है जो नियमित श्रमिकों को काम पर रखने और काम से निकालने तथा कारखानों को बंद करने की प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है। इसके तहत कुछ चरम रोजगार सुरक्षा प्रावधान शामिल हैं: उदाहरण के लिए, अध्याय वी-बी- जिसके अनुसार श्रमिकों की किसी भी प्रकार की छंटनी के लिए आधिकारिक अनुमति की आवश्यकता है, और एक निर्दिष्ट आकार की सीमा से ऊपर के किसी भी कारखाने को बंद करने के लिए 90-दिन की अग्रिम सूचना की आवश्यकता है। कई अन्य देशों की तरह, भारत में भी यह तर्क दिया गया है कि इस तरह के कानून फर्मों के लिए श्रम को इष्टतम रूप से समायोजित करना मुश्किल बनाकर विकास को धीमा कर देते हैं। उदाहरण के लिए, बेस्ले और बर्जेस (2004) दर्शाते हैं कि भारतीय श्रम कानूनों के चलते भारत के औपचारिक विनिर्माण क्षेत्र में धीमी वृद्धि और 1958-1992 के दौरान अनौपचारिक रोजगार में वृद्धि हुई है। इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि फर्मों ने अधिक लचीले 'अनुबंध' श्रम के उपयोग के माध्यम से आईडीए की भरपाई करने का प्रयास किया है (चौरी 2015)।

राज्य स्तरीय श्रम कानून में संशोधन

भारतीय श्रम कानूनों से संबंधित अधिकांश पूर्व अध्ययनों में, इस अधिनियम में किये गए राज्य-स्तरीय संशोधनों के कारण औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए) के 'श्रमिक समर्थक' या 'नियोक्ता समर्थक' झुकाव में भिन्नता का जिक्र किया है। चूंकि आईडीए में आखरी प्रमुख राज्य-स्तरीय संशोधन वर्ष 1989 में अधिनियमित किया गया था, इसलिए इनमें से कई अध्ययनों को पहचान के लिए राज्य-स्तरीय भिन्नता पर निर्भर रहना पड़ा है। इसमें वर्ष 2014 में परिवर्तन हुआ, जब राजस्थान राज्य ने रोजगार के आकार की सीमा को बढ़ाते हुए- जिसमे आईडीए का अध्याय वी-बी 100 से 300 श्रमिकों के कारखाने पर लागू होना शुरू होता है; आईडीए और अन्य श्रम कानूनों को नियोक्ता-समर्थक के पक्ष में संशोधित किया। इसके तहत यूनियनों पर न्यूनतम सदस्यता आकार की अधिक कठोर आवश्यकताएं भी लगाईं गईं, और अनुबंध श्रमिकों को काम पर रखने को नियंत्रित करने वाले कानून- अनुबंध श्रम अधिनियम (सीएलए) के अंतर्गत 50 से कम अनुबंध श्रमिकों वाले कारखानों को छूट दी गई। व्यापार प्रेस द्वारा इन संशोधनों को एक प्रमुख सुधार के रूप में माना गया था।

हमारा अध्ययन, राजस्थान में इस नीति परिवर्तन से उत्पन्न हुए प्राकृतिक प्रयोग का उपयोग करते हुए, रोजगार सुरक्षा कानूनों (चौधरी और शर्मा 2022) के प्रभाव के बारे में लंबे समय से बहस किए गए सवालों पर नए सबूत प्रदान करता है। हमारे अध्ययन के परिणाम दर्शाते हैं कि रोजगार सुरक्षा प्रावधानों में चरम सुधार लागू करने से फर्मों के लिए श्रम पर निहित नियामक कर कम हो सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि इससे बड़े पैमाने पर समग्र प्रभाव पड़े।

अध्ययन और निष्कर्ष

हमने सिंथेटिक नियंत्रण पद्धति का उपयोग करके संशोधनों का तुलनात्मक केस अध्ययन किया। इसमें संभावित तुलना इकाइयों के भारित संयोजन का उपयोग करना शामिल है- हमारे मामले में डेटा-संचालित1 भार के विकल्प के साथ ‘नियंत्रण’ समूह के रूप में राजस्थान के अलावा अन्य भारतीय राज्य (अबाडी और गार्डियाज़बल 2003)। हमने इस अध्ययन के लिए, 1980 और 2018 के बीच की अवधि के औपचारिक विनिर्माण क्षेत्र के आधिकारिक राज्य-स्तरीय अनुमानों का उपयोग किया।

परिणाम दर्शाते हैं कि, संशोधनों का राजस्थान के औपचारिक विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार और उत्पादन पर हमारी उम्मीदों के विपरीत कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा। आउटपुट पर सकारात्मक प्रभाव के कुछ संकेत मिलते हैं, लेकिन यह मानक जांच के लिए ठोस नहीं है।

फिर हमने मुख्य नीति परिवर्तन का अंतर-अंतर2 विश्लेषण करने के लिए 2010 से 2018 तक के फ़ैक्टरी स्तर के पैनल डेटा का उपयोग किया: अध्याय वी-बी का निरसन। हमने राजस्थान और अन्य राज्यों में 100-300 तक श्रमिकों वाले कारखानों और 300 से अधिक श्रमिकों वाले कारखानों में संशोधन से पहले और बाद के परिणामों की तुलना की।

परिणामों से संकेत मिलता है कि संशोधन का सकल रोजगार पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन अनुबंध कर्मचारी रोजगार में लगभग 124% की वृद्धि हुई। इसके विपरीत, स्थायी कार्यबल में 19% की कमी आई। किसी भी अनुबंध श्रमिकों को काम में लेने वाली फर्मों की हिस्सेदारी में 14 प्रतिशत अंक (49% की आधारभूत दर से) की वृद्धि के अनुमान-सहित अनुबंध रोजगार में वृद्धि के एक हिस्से में बहुत बड़ा अंतर था।

हमने इसका अनुमान स्थायी कर्मचारियों के साथ जुड़े नियामक बोझ की निहित परिवर्तनीय श्रम-लागत के रूप में संकल्पना करते हुए, फर्म की इष्टतम लागत-न्यूनतम स्थितियों के आधार पर एक विधि का उपयोग करके लगाया। हम पाते हैं कि ‘उपचारित’ फर्मों (अर्थात, वे फर्में जिन्होंने अध्याय V-B के निरसन का अनुभव किया) में निहित श्रम लागत में लगभग 14% की गिरावट आई। ऐसा अधिक हल्के ढंग से विनियमित ठेका श्रम में बदलाव के कारण हो सकता है। इसके अलावा,अध्याय वी-बी के निरसन का उपचारित फर्मों के उत्पादन, निवेश और श्रम उत्पादकता पर कोई पता लगाने-योग्य प्रभाव नहीं पड़ा था। प्रति-सहज ज्ञान के रूप में, उनके द्वारा ठेका श्रमिकों को रोजगार पर रखने में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और औपचारिक, नियमित श्रमिकों के रोजगार में कमी आई। हमने पुष्टि की कि ये अंतर-अंतर परिणाम ‘उपचार-पूर्व’ अवधि की अंतर प्रवृत्तियों से प्रेरित नहीं हैं।

ठेका श्रमिकों के रोजगार में वृद्धि करने वाली फर्मों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि की जांच करने हेतु, हमने माना कि हमारे परिणाम एक अलग लेकिन समवर्ती रूप से लागू संशोधन- जिसमें राजस्थान द्वारा 20-50 संविदा कर्मियों वाली फर्मों को सीएलए से छूट देकर लागू होने वाले अनुबंध श्रम नियमों को आसान बनाए जाने के प्रभाव के कारण हैं। इस संशोधन से प्रभावित होने वाली फर्मों (अर्थात, 50 से कम अनुबंध श्रमिकों वाली फर्में) और प्रभावित नहीं होने वाली फर्मों (50 से अधिक अनुबंध श्रमिकों वाली फर्में) के बीच अंतर प्रभावों की जांच करने पर, हम पाते हैं कि बेसलाइन पर 50 से अधिक अनुबंध कर्मचारियों वाली ‘उपचार’ फर्मों के अनुबंध रोजगार में आनुपातिक वृद्धि, 50 से कम श्रमिकों वाली उपचार फर्मों की तुलना में दोगुने से अधिक है। यह हमें इस संभावित स्पष्टीकरण से विचलित करता है।

महत्त्वपूर्ण रूप से, हम पाते हैं कि औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए) में संशोधन के प्रभाव की ताकत फर्मों में ठेका श्रमिकों की अंतर्निहित तकनीकी व्यवहार्यता से जुड़ी हुई है- श्रम पर स्वाभाविक रूप से अधिक निर्भरता वाले उद्योगों में अधिक दृढ़ता से महसूस किया गया | अनुबंध श्रम की ओर झुकाव यह दर्शाता है कि उक्त संशोधन ने मुख्य कार्यों में स्थायी कर्मचारियों के स्थान पर ठेका श्रमिकों को रखने की क्षमता के साथ फर्मों के लिए संविदा श्रमिकों को काम पर रखने की बाध्यकारी नियामक बाधाओं को कम किया हो।

निष्कर्ष

हमारे परिणाम दर्शाते हैं कि औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए) के सबसे चरम रोजगार सुरक्षा प्रावधानों में संशोधन से फर्मों पर नियामक लागत सीमित समग्र प्रभाव के साथ कम हो सकती है। फर्मों की अप्रत्याशित हायरिंग-मिक्स प्रतिक्रिया व्यापक नियामक और संस्थागत ढांचे जिसके तहत भारतीय विनिर्माण कंपनियां अपने रोजगार का निर्णय लेती हैं- पर अधिक शोध की आवश्यकता है। इस बात के प्रमाण हैं कि राजस्थान द्वारा अपना संशोधन अधिनियमित किये जाने के समय, ठेका श्रमिकों के उपयोग में राष्ट्रव्यापी तेजी (जो 2000 के बाद शुरू हुई) ने नियमित श्रमिकों की (बर्ट्रेंड एवं अन्य 2021) कानूनी रूप से स्वीकृत सुरक्षा में किसी भी बड़े बदलाव के बगैर फर्मों की श्रम समायोजन लागत को व्यवहार में काफी कम कर दिया था। श्रम बाजार में उभरता यह द्वैतवाद हमारे द्वारा पाए गए संरचनागत बदलावों की व्याख्या करते समय विशेष प्रासंगिकता का हो सकता है,और इसका प्रभाव श्रम बाजार सुधारों को कैसे डिजाइन किया जाए इस पर हो सकता है।

यह जोर देने योग्य है कि हमारे निष्कर्ष आईडीए के एक चयनात्मक संशोधन की बात करते हैं। औपचारिक भारतीय फर्मों में रोजगार आईडीए के कई अन्य प्रावधानों और कई अन्य श्रम कानूनों द्वारा नियंत्रित किया जाता है; इस प्रकार से, भारतीय श्रम संहिता में अधिक समग्र परिवर्तन के प्रभावों पर अधिक साक्ष्य नीतिगत चर्चा के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो सकते हैं। यह संभव है कि, राजस्थान के श्रम कानून संशोधनों का प्रौद्योगिकी और नवाचार में फर्मों के निवेश पर समय के साथ महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। इस तरह के दीर्घकालिक प्रभावों की जांच करने हेतु इस संशोधन पर फिर से विचार करना भी दिलचस्प होगा।

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टिप्पणियाँ:

  1. भार का चयन एल्गोरिथम के जरिये इस प्रकार किया गया है कि तुलना इकाई की प्रमुख विशेषताएं नीतिगत सुधार से पहले की अवधि में राजस्थान की विशेषताओं से मिलती जुलती हों।
  2. अंतर-अंतर एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा समय के साथ 'हस्तक्षेप' तक पहुंच प्राप्त करनेवाले समूहों तथा पहुँच प्राप्त नहीं करने वाले अन्य समान समूहों में परिणामों के विकास की तुलना की जाती है

लेखक परिचय: सरूर चौधरी कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र में पीएचडी के छात्र हैं। सिद्धार्थ शर्मा विश्व बैंक के दक्षिण एशिया के मुख्य अर्थशास्त्री के कार्यालय में एक प्रमुख अर्थशास्त्री हैं। 

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