कृषि क़ानूनों के इस संगोष्ठी का समापन करते हुए मेखला कृष्णमूर्ति और शौमित्रो चटर्जी इस आलेख में यह तर्क देते हैं कि विनियामक सुधार, अनिवार्य नीतिगत डिजाइन और कार्यान्वयन के लिए एक अधिक व्यापक और प्रासंगिक दृष्टिकोण का, एक महत्वपूर्ण लेकिन सीमित भाग है। इसके अलावा जब बाजार की बात आती है, तो यह सोचना महत्वपूर्ण है कि बाजार विनियमन क्या कर सकता है और क्या नहीं तथा यह समझना कि भारत की कृषि विपणन प्रणाली में मंडियों की क्या भूमिका है?
कोविड-19 महामारी के बीच पिछले चार महीनों में भारतीय कृषि का अतीत, वर्तमान और भविष्य राष्ट्रीय सुर्खियों में रहा है। विवाद का कारण तीन कृषि अध्यादेशों (तब बिल के रूप में थे और अब इन्हें संसद में काफी कम समय में, हंगामे के दौरान और बाधित रूप से पारित किए जाने के बाद राष्ट्रपति द्वारा सहमति दी गई है) का लाया जाना है। ये नए कृषि कानून एक साथ मिलकर भारत में कृषि उपज के आदान-प्रदान, भंडारण, आवा-जाही और कराधान पर राज्य विनियमन के तरीके और मात्रा को बदलने के लिए ठोस कार्यों के एक समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारतीय विधायी इतिहास में ऐसा पहली बार देखा गया है कि किसान और उनकी उपज के प्राथमिक खरीदार के बीच महत्वपूर्ण 'प्रथम लेन-देन' के विनियमन पर केंद्रीय कानून लाया गया है। इसलिए देश के विशाल और विविध कृषि बाजारों और उन्हें विनियमित करने के महत्वपूर्ण, जटिल और संघर्षपूर्ण कार्य की ओर ध्यान आकर्षित हुआ है।
बड़े खरीदारों के लिए प्रवेश हेतु बाधाओं वाले प्रतिस्पर्धा-रहित बाजार को 'किसानों की आय दोगुनी करने' के राष्ट्रीय नीतिगत लक्ष्य को प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा माना जाता है। यही कारण है कि इन कानूनों को सरकार द्वारा ऐसे क्रांतिकारी सुधारों के रूप में मान्यता दी गई है जो अंततः भारतीय किसान और भारतीय कृषि को शोषणकारी बिचौलियों और भ्रष्ट राज्य-नियंत्रित एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) बाजारों से मुक्ति दिलाएंगे, जिन्हें मंडियों के रूप में भी जाना जाता है। लेकिन कृषि बाजारों को नियुत्रण मुक्त करने के लिए उठाये गये इस कदम पर यह संगठित आक्षेप लगाया गया है कि यह कानून निरंकुश निगमीकरण की सुविधा के लिए बनाया गया है और इसे आलोचकों द्वारा मूल्य समर्थन और नियामक संरक्षण की मौजूदा प्रणालियों की समाप्ति के अग्रदूत के रूप में देखा जाता है।
राजनीतिक रूप से जोरदार पक्ष लिए जाने और विरोध किए जाने के इस समय में इस संगोष्ठी का योगदान है कि यह सुधारों और इसकी आलोचनाओं की कथित महत्वाकांक्षाओं के संदर्भ में की जाने वाली बयानबाजी को महत्वपूर्ण रूप से कम करती है। वे इन कानूनों के संभावित और आशाजनक प्रभावों का जमीनी आकलन प्रस्तुत करते हैं। ऐसा करने के लिए वे उन मान्यताओं और सामान्यीकरण की समीक्षा करने के लिए भी कहते हैं, जो इस विषय के लिए लाज़मी हैं और इसमें शामिल संदर्भों और अनुभवों की विविधता को भी ध्यान में रखने के लिए आवश्यक है।
सभी लेखक बताते हैं कि परिवर्तन की दिशा के संदर्भ में नए अधिनियम पिछले दो दशकों में कृषि बाजार सुधारों की एक सतत और विकसित प्रक्रिया का हिस्सा हैं। यह केंद्र और कई राज्य-स्तरीय विधायी संशोधनों और उन कार्रवाईयों में दिखाई देता है जो एपीएमसी मंडियों के बाहर विनिमय को सक्षम करने वाली विपणन प्रणाली को खोलने के लिए की गई हैं। वर्तमान में इनमें बड़ी संख्या में राज्यों द्वारा निजी खरीद यार्ड, निजी बाजार, अनुबंध खेती और इलेक्ट्रॉनिक विपणन प्लेटफार्मों को जोड़ने के लिए किए गए प्रावधान शामिल हैं। इसलिए शायद यह पहली बार ही है, जब इस तरह के सुधार सामने दिखाई दे रहे हैं। यह भी सच है कि राज्य-स्तरीय सुधार प्रक्रियाएं आंशिक एवं अ-समान रहीं हैं और कई मामलों में लंबे समय तक कम निवेश और उपेक्षा भी दिखाई पड़ती है।
इसके बावजूद यह इन पूर्व राज्य-स्तरीय अनुभवों (जिनमें से कई पर इस संगोष्ठी में चर्चा की गई है) जिनमें बिहार में बाजारों को पूर्ण रूप से नियंत्रण मुक्त किए जाने से लेकर अन्य राज्यों में निजी खरीद चैनलों की अनुमति देने वाले अधिक चरणबद्ध संशोधनों और विशिष्ट क्षेत्रों एवं वस्तुओं में अनुबंध खेती के साथ विभिन्न प्रयोग की विस्तृत एवं सटीक समझ है, जो जमीनी स्तर पर बिना किसी समर्थन के, खासकर लघु या मध्यम अवधि मे परिवर्तनकारी प्रभावों की किसी भी संभावना को कम करते हैं। सबसे पहले स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि उत्पादन, प्रोसेसिंग और खपत की मौजूदा स्थितियों के तहत बुनियादी ढांचे और आपूर्ति श्रृंखलाओं में पर्याप्त नए निजी क्षेत्र के निवेश की सुविधा के लिए नियामक सुधार अपने आप में बहुत कम प्रभावी हैं। दूसरा, बदले में ‘वैकल्पिक चैनल’ बाजारों को आसानी से बिचौलिए-रहित नहीं बनाते हैं, बल्कि वास्तव में साफ देखा जा सकता है कि नए बिचौलियों के उद्भव और उनका विस्तार देखा जाना आम बात है। खासकर जब नियंत्रण मुक्त किए जाने से प्रति-पक्ष जोखिमों में और वृद्धि हो जाती है, जैसा कि हमने बिहार में देखा है। ऐसे मामलों में जहां बिचौलिये वस्तुओं को प्रचलन में रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उन्हें जबरन बाहर निकालने के कदम भी किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को चोट पहुंचा सकते हैं (इमरान एवं अन्य 2020)। बिचौलिया व्यवस्था की विशिष्ट संरचना और इसमें शामिल भूमिकाएं यहां महत्वपूर्ण हैं। तीसरा, अन्यों के बीच ये योगदान हमें याद दिलाते हैं कि इस बात के बहुत साक्ष्य हैं जो इस संभावना की ओर इशारा करते हैं कि अन्य कृषि नीतियां और उपाय (जैसे प्याज निर्यात प्रतिबंध जो आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) संशोधन विधेयक के रूप में भी संसद में पेश किए गए थे) उद्देश्यों के विपरीत कार्य करना जारी रखेंगे और सदैव किसानों को अधिक मूल्य प्राप्त करने के खिलाफ कार्यरत रहेंगे।
एक संभावित अल्पकालिक प्रभाव है जिसके बारे में हुसैन, रामास्वामी और सिंह सभी अपनी टिप्पणियों में बताते हैं। वह पंजाब और हरियाणा राज्यों के मामले में है, जहाँ नए केंद्रीय अधिनियम के तहत एफसीआई (भारतीय खाद्य निगम) अब सक्रिय रूप से अपने एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) खरीद संचालन को एपीएमसी मंडी प्रणाली के भौतिक क्षेत्र से बाहर ले जाने की कोशिश कर सकता है और इस तरह मंडी शुल्क और करों का भुगतान करने से बच सकता है। यदि ऐसा होता है, तो इन राज्यों के लिए भारी राजकोषीय परिणाम होंगे। हालांकि जब तक वायदे के अनुसार खरीद किया जाना जारी रहता है, किसान अभी भी एपीएमसी बाजार क्षेत्रों के बाहर एमएसपी पर सरकार को बेच सकते हैं। लेकिन जैसा कि सिराज हुसैन ने प्रकाश डाला है - इन राज्यों में किसानों को चिंता है कि अधिनियम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत खरीद और राशन की कवरेज को सीमित करने के लिए पहले की सिफारिशों (विशेष रूप से, शांता कुमार समिति की रिपोर्ट) को लागू करने के इरादे के संकेत देते हैं। वर्तमान में खाद्य अनाज खरीद व्यवस्था पर इन दोनों राज्यों के पैमाने और निर्भरता और किसानों एवं कमीशन एजेंटों के विशाल और सक्रिय नेटवर्क को देखते हुए भारत के उत्तरी अनाज उत्पादक राज्यों में व्यापक विरोध उनकी वास्तविक और विशिष्ट चिंताओं को दर्शाते हैं।
एपीएमसी मंडियों के भाग्य और एमएसपी खरीद के भविष्य के बीच का टकराव और अंतर्कलह पंजाब और हरियाणा के लिए नया है। लेकिन यह इस खतरे को उजागर करता है कि केंद्र एक जटिल राज्य-विषय और महत्वपूर्ण आजीविका प्रणाली में भारतीय कृषि के लिए अपनी व्यापक दृष्टि को बिना खुले और स्पष्ट रूप से साझा किए और यह बताए बिना कि इसकी भविष्य की योजनाएं अलग-अलग लेकिन परस्पर संबंधित राज्यों के हस्तक्षेपों में कैसे सुधार करेंगी, बाजार सुधारों को ला रहा है। विनियामक सुधार, अनिवार्य नीतिगत डिजाइन और कार्यान्वयन के लिए एक अधिक व्यापक और प्रासंगिक दृष्टिकोण का, एक महत्वपूर्ण लेकिन सीमित भाग है। इसके अलावा जब बाजार की बात आती है, तो यह सोचना कि बाजार विनियमन क्या कर सकता है और क्या नहीं तथा यह समझना कि भारत की कृषि विपणन प्रणाली में मंडियों की क्या भूमिका है, महत्वपूर्ण है।
एपीएमसी मंडियों को राज्य द्वारा राजस्व निकासी के लिए स्थलों के रूप में और शक्तिशाली स्थानीय कमीशन एजेंटों और व्यापारियों द्वारा नियंत्रित स्थानीय बाजारों के रूप में देखा जाना आम बात है। यह दोनों वास्तव में ऐसे अधिकांश बाजारों की विशेषताएं हैं। हालांकि कृषि क्षेत्रों में स्थानीय भौतिक थोक बाजार स्थापित अपनी उपज को नीलामी में करने के पीछे मूल तर्क किसानों को सार्वजनिक रूप से विनियमित बाजार तक पहुंच प्रदान करना था, जहाँ वे अपनी उपज को सबसे अधिक बोली लगाने वाले को बेच सकते थे, मानकीकरण और माप-तौल में सतर्कता का लाभ उठा सकते थे, और उम्मीद कर सकते थे कि उन्हें भुगतान पूरा और समय पर किया जाएगा। विपणन विनियमन ने किसानों को, अपनी उपज को कहीं भी बेचने और उन घुमंतू समूहकों जो किसानों से खरीदी गई उपज को स्थानीय बाजार में ही बेचते थे, नहीं रोका है। लेकिन विनियमन ने स्थानीय बाजार क्षेत्र में उपज खरीदने के इच्छुक सभी प्रमुख खरीदारों को लाइसेंस देना चाहा। भारत भर में अधिकांश उत्पादकों के छोटे आकार को देखते हुए कमीशन एजेंट लंबे समय से इन बाजारों में महत्वपूर्ण व्यक्ति रहे हैं, जो विक्रेताओं और खरीदारों के बीच आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान करते हैं और अक्सर दोनों को ऋण देते हैं।
बहु-विक्रेता और बहु-खरीदार बाजार स्थलों के रूप में कल्पना की गई मंडियों का उद्देश्य प्राथमिक उपलब्ध बाजारों के रूप में कार्य करना था, जिससे प्रतिस्पर्धी मूल्य खोज, बाजार जानकारी और ज्ञान विनिमय स्थल पर ही विवाद समाधान और प्रति-पक्ष जोखिम आश्वासन सक्षम हो सके। यहाँ किसान को, जो सामूहिक रूप से संगठित हो सकते हैं और एक निर्वाचित स्थानीय समिति जिस पर सैद्धांतिक रूप से किसानों का वर्चस्व रहता है, लेकिन जिसमें व्यापारी, कमीशन एजेंट, श्रम और सहकारी एवं अन्य एजेंसी के प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं, समग्र देखरेख गतिविधियों का प्रभारी बनाया जाता था। समान्यतया अच्छी तरह से कार्यरत मंडियां सार्वजनिक संस्थान हैं और उनकी उपस्थिति गैर-मंडी लेनदेन की कीमतों के ऊपर भी प्रभाव डालती है, जहाँ प्रचलित मंडी दर आम तौर पर सौदे के लिए एक बेंचमार्क के रूप में कार्य करती है। यही कारण है कि आमतौर पर देखा गया है कि निजी कॉर्पोरेट खरीदार मंडियों के बाहर खरीद के लिए कीमतें तय करने के लिए स्थानीय मंडी की कीमतों पर भरोसा करते हैं।
जमीन पर निश्चित रूप से जैसा कि हम कई सरकारी रिपोर्टों और दशकों से असंख्य क्षेत्र खातों से जानते हैं, अधिकांश राज्यों और क्षेत्रों ने पर्याप्त मंडियों के निर्माण में निवेश नहीं किया, मौजूदा बाजार यार्ड के बुनियादी ढाँचे में कमी बनी हुई है, और एपीएमसी का व्यवहार अत्यंत समझौतापूर्ण है (कृष्णमूर्ति 2015, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, 2017)। फिर भी उनकी तमाम दुर्बलताओं के साथ अनुभवजन्य आंकड़े हमें दिखाते हैं कि जहाँ भी मंडियाँ मौजूद हैं, किसानों के लिए वे मायने रखती हैं। मंडी की कीमतों पर सूक्ष्म आंकड़ों का उपयोग करते हुए हम में से एक यह दिखाता है कि एपीएमसी मंडी घनत्व में एक मानक विचलन1 की वृद्धि स्थानीय मांग और आपूर्ति की स्थिति (चटर्जी 2019) के लिए नियंत्रित करने के बाद 3-5% अधिक मंडी की कीमतों से जुड़ी है। निसंदेह इसका मतलब यह नहीं है कि कहीं भी अधिक बाजार बनाने से कीमतों में लगातार सुधार होगा। पंजाब में, जहाँ एमएसपी पर सबसे अधिक धान की खरीद की जाती है, वहाँ अधिक बाजार बनाने से संचालन व्यवस्था सरल हो सकती है लेकिन कीमतों से इसका कोई संबंध नहीं होगा। हालांकि अन्य राज्यों और वस्तुओं में, जहाँ कीमतें बाजार की ताकतों द्वारा निर्धारित की जाती हैं, वहाँ अधिक मंडियां संभावित रूप से अधिक प्रतिस्पर्धा की सुविधा देती हैं और इसीलिए मूल्य प्राप्ति में मदद करती हैं।
नए अधिनियम मौजूदा राज्य विपणन कार्यों या मौजूदा एपीएमसी मंडी यार्ड के कामकाज या कराधान पर रोक नहीं लगाते हैं। लेकिन इन राज्य-विनियमित परिसरों के बाहर के सभी क्षेत्रों को कर-मुक्त ‘व्यापार क्षेत्र’ के रूप में घोषित करते हुए अब राज्यों के भीतर और राज्यों के बीच कई नियामक व्यवस्थाएं कार्यरत हैं। यह भी बताया गया है कि इन नए व्यापार क्षेत्रों में अनिवार्य पंजीकरण की न्यूनतम आवश्यकता नहीं हैं और बाजार निगरानी के लिए कोई तंत्र भी नहीं है। अगर हालिया घटनाएँ एक संकेत हैं, जैसा कि संजय कौल एवं अन्य ने बताया है तो अब यह राज्यों और केंद्र के बीच नियामक नियंत्रण के लिए संघर्ष की ओर बढ़ रहा है। यह एक काफी विपरीत परिणाम है। समान रूप से जैसा कि अन्य लेखकों ने भी इंगित किया है कि निजी खरीदारों को एमएसपी पर खरीद के लिए मजबूर करना भी भ्रामक और संभावित रूप से विनाशकारी होगा। यह व्यापारियों को उनके भीतर प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के बजाय मंडियों के बाहर ले जाएगा। लेकिन किसानों के लिए मूल्य समर्थन और खरीद नीतियों एवं आय-समर्थन उपायों के साथ-साथ बाजारों में सम्मिलित होने हेतु किसानों की शर्तों को मजबूत करने के लिए सार्वजनिक निवेश की एक पूरी श्रृंखला पर ध्यान से विचार करने की आवश्यकता है। यह जरूरी नहीं कि कुशल बाजार किसानों के लिए ‘लाभकारी’ कीमतें प्रदान करे।
हालांकि बाजार किसी भी समग्र रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और बढ़ती प्रतिस्पर्धा इन विशिष्ट नियामक सुधारों का उद्देश्य है। इसलिए राज्यों और केंद्र के लिए प्राथमिक भौतिक थोक बाजार स्थलों की कवरेज और गुणवत्ता को मजबूत करने को प्राथमिकता देने की बात समझ में आती है। इसके लिए विनियामक डिजाइन और क्षमता के साथ कई और लगातार समस्याओं को ध्यान से देखने की आवश्यकता होगी जिनमें से सभी ने अतीत में एपीएमसी मंडी प्रणाली को अलग-अलग तरीकों से दोषपूर्ण बताया है (कृष्णमूर्ति 2020)। इसमें मंडियों के बाहर कई चैनलों में विनिमय के लिए एक सुसंगत विनियामक और संस्थागत ढांचा शामिल होना चाहिए, लेकिन जैसा कि सुखपाल सिंह बार-बार अपनी आइडियास फॉर इंडिया के पोस्ट में बताते हैं - इसके लिए विनिमय के सभी पहलुओं पर बहुत अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है। राज्यों को नेतृत्व करना चाहिए और केंद्र-राज्य एवं अंतर-राज्य आम सहमति-निर्माण तथा समन्वय के लिए पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है।
अंत में कृषि कानूनों के दूसरे उद्देश्य: एकीकरण - देश भर में उपज के मुक्त आवागमन की सुविधा पर कुछ कहना चाहूंगी, हालांकि यह एक उचित लक्ष्य है। एकीकरण दो प्रमुख आपत्ति-सूचनाओं के साथ आता है जिन्हें हमें जानना चाहिए। पहली, एकीकरण के किसी भी रूप से एक को लाभ होता है और एक को हानि, इसलिए इसके परिणाम वितरणीय होते हैं (एक ऐसी ताकत के प्रतिपादन के लिए चटर्जी 2019 देखें)। हालांकि हम उम्मीद करेंगे कि शुद्ध लाभ किसानों के लिए सकारात्मक हो, और अन्यों की तुलना में अधिक भी। महत्वपूर्ण रूप से कुछ किसान ऐसे होंगे जो वास्तव में बदतर होंगे। दूसरा, एकीकरण आय को अधिक अस्थिर भी बनाता है (एलन और एटकिन 2016)। किसी भी प्रचालित बीमा पॉलिसी के अभाव में किसानों के लिए यह फिर से गंभीर कल्याणकारी परिणाम है। इसलिए जैसा कि हमने पहले भी जोर दिया है (चटर्जी और कृष्णमूर्ति 2020) कि बाजार के एकीकरण को आगे बढ़ाने के लिए अधिक संस्थागत क्षमता, सार्वजनिक निवेश, नियामक नवाचार और संदर्भ-विशिष्ट कार्यान्वयन की आवश्यकता होती ही है। इसके अलावा इसे एकीकरण के लाभ और नुकसान दोनों के लिए बहुत अधिक स्वीकार्यता और तैयारी द्वारा तथा लाखों जीवन, आजीविका एवं इस प्रक्रिया में शामिल आर्थिक और सामाजिक बदलावों के लिए उनके परिणाम द्वारा सहयोग दिया जाना चाहिए।
टिप्पणियाँ:
- मानक विचलन का उपयोग सेट के माध्य (औसत) मान से मूल्यों के एक सेट की विविधता या फैलाव की मात्रा को मापने के लिए किया जाता है।
लेखक परिचय: शौमित्रो चटर्जी पेंसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। मेखला कृष्णमूर्ति अशोका विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र और सामाजिक नृविज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर हैं, साथ ही वे सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में एक वरिष्ठ फेलो भी हैं, जहाँ वे राज्य क्षमता पहल (स्टेट कपकिती इनिशिएटिव) का निर्देशन करती हैं।
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