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भारत का महिला आरक्षण अधिनियम : शासन के लिए एक बड़ी सफलता और उससे परे

  • Blog Post Date 21 फ़रवरी, 2024
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20 फरवरी को विश्व सामाजिक न्याय दिवस, जिसका मूल लैंगिक असमानता, बहिष्कार, गरीबी बेरोज़गारी व सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर आधारित है, के उपलक्ष्य में प्रस्तुत इस लेख में महिला आरक्षण अधिनियम पर चर्चा है। पिछले वर्ष सितम्बर में पारित महिला आरक्षण अधिनियम क्या ज़मीनी स्तर पर लैंगिक असमानताओं को कम कर सकेगा, इस विषय पर विभिन्न चर्चाओं में वट्टल और गोपालन स्थानीय सरकार में महिलाओं की भागीदारी से संबंधित कई यादृच्छिक मूल्याँकनों से साक्ष्य का सारांश जोड़ते हैं। इन अध्ययनों से पता चलता है कि स्थानीय सरकारों में महिला नेताओं की अधिक सहभागिता से महिलाओं के लिए प्राथमिकता वाली नीतियों में अधिक निवेश होना सम्भव है।साथ ही, महिलाओं की सामाजिक धारणाओं में सुधार और लैंगिक भूमिकाओं के प्रति महिलाओं की आकांक्षाओं और दृष्टिकोण में बदलाव हो पाएगा।

लगभग तीन दशकों की बहस के बाद, सितंबर 2023 में भारतीय संसद ने आखिरकार एक विधेयक पारित किया जो लोकसभा (राष्ट्रीय संसद का निचला सदन) और राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीटों की गारंटी देता है। यह एक ऐतिहासिक कदम है। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह विधेयक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं के अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व का मार्ग प्रशस्त करता है, बल्कि इसलिए भी कि इसमें बड़े पैमाने पर महिलाओं को सशक्त बनाने का वादा किया गया है।

भारत के महिला आरक्षण अधिनियम को लागू होने में अभी और छह साल लग जाएंगे (सिंह 2023)। इस बीच, इस बात पर चल रही बहस कि इससे महिलाओं को कितना फायदा होगा, भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) की नीतियाँ बनाने में आने वाली कठिनाइयों को दर्शाता है। फिर भी, यह राजनीतिक भागीदारी में कुछ लैंगिक अन्तर को कम करने में सहायक हो सकता है- वैश्विक लैंगिक अन्तर (ग्लोबल जेंडर गैप) रिपोर्ट 2023 से पता चलता है कि यह एक ऐसा लक्ष्य है, जो अभी भी भारत और दुनिया के अधिकांश हिस्सों के लिए एक दूर की वास्तविकता है। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड इलेक्टोरल असिस्टेंस के अनुसार, इन लैंगिक अन्तरों को कम करने के प्रयास में, 137 देशों ने, किसी न किसी रूप में, कोटा (आरक्षण) नीतियों को अपनाया है।

एक सवाल बार-बार उठता है कि क्या महिलाओं के लिए आरक्षण से ज़मीनी स्तर पर कोई ठोस बदलाव आएगा? क्या महिला नेता ऐसे निर्णय लेंगी जो सार्थक रूप में पुरुषों से भिन्न होंगे, या फिर वे महज अपने पुरुष समकक्षों के समान, उनका पर्याय बनकर रह जाएंगी? क्या महिला नेताओं की उपस्थिति वास्तव में उनके मतदाताओं के दैनिक जीवन पर प्रभाव डालेगी?

उन नीतियों को लागू करना जिनको महिलाओं की परवाह है

जे-पाल नेटवर्क के शोधकर्ताओं ने भारत के 24 राज्यों के साथ-साथ, अफगानिस्तान और लेसोथो में ग्यारह यादृच्छिक या रेंडमाइज़्ड मूल्याँकन किए हैं, जो इनमें से कुछ सवालों के जवाब देने में हमारी मदद कर सकते हैं (अब्दुल लतीफ जमील पॉवर्टी एक्शन लैब, 2018)। हालांकि ये अध्ययन स्थानीय सरकारों के सम्बन्ध में किए गए हैं, ये मज़बूत संकेत देते हैं कि राजनीति में लैंगिक आधार पर कोटा (आरक्षण) राजनीतिक नेतृत्व में लैंगिक असंतुलन को ठीक करने और यह सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त है कि नीति-निर्धारण महिलाओं के हितों का प्रतिनिधित्व करता है और लिंग के बारे में आम धारणाओं में बदलाव करता है।

महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने के समर्थन में शायद सबसे ठोस प्रमाण पश्चिम बंगाल और राजस्थान में वर्ष 2000 और 2002 के बीच किए गए एक अध्ययन से मिलता है (बीमैन एवं अन्य 2004)। वर्ष 1993 में भारत के संविधान में एक संशोधन के तहत सभी ग्राम-परिषद नेताओं के पदों में से एक तिहाई पद यादृच्छिक रूप में महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात कही गई है (चट्टोपाध्याय और दुफ्लो 2004)। इस यादृच्छिक असाइनमेंट से जे-पीएएल के सह-संस्थापक एस्थर दुफ्लो, लोरी बीमैन, राघबेंद्र चट्टोपाध्याय, रोहिणी पांडे और पेटिया बी टोपालोवा की एक शोध टीम ने ऐसे गाँवों में जो कोटा प्रणाली का हिस्सा थे और जिनके परिषद में महिला नेता थे, लिए गए नीतिगत निर्णयों की तुलना ऐसे गावों के निर्णयों से की जो कोटा प्रणाली का हिस्सा नहीं थे।  

उनके अध्ययन में पाया गया कि चयनित ग्राम परिषदों में महिला नेताओं ने उन नीतियों पर अधिक निवेश किया जिनमें महिलाओं को परवाह थी। पश्चिम बंगाल में शोधकर्ताओं द्वारा किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि महिलाओं ने पीने के पानी और खराब सड़कों की समस्या के बारे में पुरुषों की तुलना में अधिक शिकायतें दर्ज कीं। औसतन, महिलाओं की अध्यक्षता वाली ग्राम परिषदों ने नौ अतिरिक्त पेयजल सुविधाओं में निवेश किया और पुरुषों की अध्यक्षता वाली ग्राम परिषदों की तुलना में सड़क की स्थिति में 18% सुधार हुआ।

राजस्थान के निष्कर्ष भी इसी ओर इशारा करते हैं। सर्वेक्षण में शामिल महिलाओं की सर्वोच्च प्राथमिकता में पीने के पानी की खराब पहुँच थी, जबकि पुरुषों का एक बड़ा वर्ग खराब सड़कों की परवाह करता था। महिलाओं के लिए आरक्षित ग्राम परिषदों ने औसतन अधिक पेयजल सुविधाओं में निवेश किया और सड़क की स्थिति में कम सुधार किए।

समाज का महिलाओं को देखने का नज़रिया बदलना

भारत में कई शक्तिशाली महिला राजनेता रही हैं और फिर भी महिला सांसदों की हिस्सेदारी वैश्विक औसत से लगातार कम रही है। संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक लैंगिक अन्तर (ग्लोबल जेंडर गैप) रिपोर्ट के अनुसार, 146 देशों में से केवल 11 (अल्बानिया, फिनलैंड और स्पेन के नेतृत्व वाले) देशों में 50% या अधिक महिलाएं मंत्री हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 7% से भी कम महिलाएं मंत्री हैं।

यूएनडीपी के 2023 लैंगिक सामाजिक मानदण्ड सूचकांक (जेंडर सोशल नॉर्म्स इंडेक्स) में पाया गया कि भारत में लगभग हर कोई महिलाओं के प्रति किसी न किसी तरह का भेदभावपूर्ण रवैया रखता है। इसे देखते हुए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में घरेलू कामों में अधिक समय बिताती हैं, केवल एक-चौथाई भारतीय महिलाएँ श्रम-बल में शामिल हैं और इनमें से कई अक्सर कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव का सामना करती हैं, जबकि उनकी कमाई पुरुष सहकर्मियों से कम होती है।

लैंगिक पूर्वाग्रह में योगदान देने वाली गहरी धारणाओं को बदलने के लिए केवल आरक्षण पर्याप्त नहीं हो सकता है। लेकिन सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) के माध्यम से अधिक महिलाओं को सत्ता की स्थिति में लाना पुरुषों के बीच महिलाओं की धारणा को बदलने में उपयोगी हो सकता है। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के ग्राम परिषदों में किए गए यादृच्छिक मूल्याँकन के साक्ष्य इस दावे का समर्थन करते हैं (बीमैन एवं अन्य 2009)। शोधकर्ताओं ने देखा कि आरक्षण नीति के कारण पुरुषों को यह एहसास हुआ कि महिलाएं नेतृत्व की भूमिकाओं में प्रभावी हो सकती हैं और उन्होंने महिलाओं को घरेलू काम से कम जोड़ना शुरू कर दिया।

महिलाओं का खुद को देखने का नज़रिया बदलना

निश्चित रूप से ऐसा नहीं है कि केवल पुरुष ही ऐसा सोचते हैं कि महिलाएं प्रभावी राजनेता और बिज़नेस लीडर नहीं हो सकती हैं, या कि उन्हें सिर्फ घर की देखभाल करनी चाहिए। यूएनडीपी के 2023 लैंगिक सामाजिक मानदण्ड सूचकांक बताते हैं कि कई महिलाएं भी ऐसी भावनाएं साझा करती हैं। लेकिन प्रमाण दर्शाते हैं कि लोगों में, विशेष रूप से युवाओं के लैंगिक भूमिकाओं के प्रति दृष्टिकोण को बदला जा सकता है। एक प्रभावी सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) नीति, वास्तव में लड़कियों और उनके माता-पिता को परम्पराओं से बाहर निकलने को प्रेरित कर सकती है (धर एवं अन्य 2022)।

बीमैन, दुफ्लो, पांडे और टोपलोवा (2012) द्वारा बीरभूम, पश्चिम बंगाल में किए गए एक अलग अध्ययन में पाया गया कि दो चुनाव चक्रों में लैंगिक आधार पर कोटा (आरक्षण) लागू करने वाले गाँवों में किशोर लड़कियाँ गृहिणी नहीं बनना चाहती थीं या दूसरों द्वारा अपना व्यवसाय निर्धारित नहीं करना चाहती थीं। ऐसे गाँवों में माता-पिता की भी अपनी बेटियों के प्रति उच्च आकांक्षाएँ थीं। सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन व्यवसाय-संबंधी आकांक्षाओं के सन्दर्भ में था। ऐसे माता-पिता का प्रतिशत, जो यह मानते थे कि बेटी (लेकिन बेटे का नहीं) का व्यवसाय उसके ससुराल वालों द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए, 76% से घटकर 65% हो गया। उसी अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने पाया कि आकांक्षाओं में इस बदलाव के कारण व्यापक विकास परिणामों में बाद में सुधार हुआ है। लगातार दो चुनावों में दिए गए कोटा (आरक्षण) के कारण (पहले 1998 में और फिर 2003 में) शिक्षा प्राप्ति में लैंगिक अन्तर पूरी तरह से मिट गया, जिसे स्कूल में उपस्थित रहने की सम्भावना और पढ़ने-लिखने की क्षमता के माध्यम से मापा गया। कोटा (आरक्षण) के कारण युवा लड़कियों द्वारा पारिवारिक कामों में बिताया जाने वाला समय भी कम हुआ और पारिवारिक गतिविधियों में बिताए जाने वाले समय में लैंगिक अन्तर में 18 मिनट की गिरावट आई।

महिला नेतृत्व अन्य महिलाओं को भी अपनी नीतिगत प्राथमिकताओं के बारे में बोलने में सक्षम बना सकता है (बीमैन एवं अन्य 2010)। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन ग्राम-परिषदों को लैंगिक आधार पर कोटा दिया गया था, वहाँ परिषद की बैठकों में महिलाओं के बोलने की अधिक सम्भावना थी।

सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) नीतियाँ किसी बड़ी समस्या का सरल समाधान नहीं हैं। लैंगिक पूर्वाग्रह जैसी स्थाई, संवेदनशील और जटिल समस्या का कोई सरल समाधान कभी नहीं हो सकता है। जैसा कि कहा गया है, प्रमाण दर्शाते हैं कि महिलाओं के लिए राजनीतिक आरक्षण में लैंगिक-समानता वाली  दुनिया की लड़ाई में एक प्रभावी उपकरण होने और लम्बी अवधि में महिलाओं के विकास परिणामों में सुधार करने की क्षमता है। 

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : अक्षरा गोपालन जे-पाल दक्षिण एशिया में नीति एवं प्रशिक्षण प्रबंधक हैं। वह लिंग-संबंधी परिणामों में सुधार के लिए नीतियों व कार्यक्रमों में वैज्ञानिक प्रमाण लागू करने के लिए सरकारों, फाउंडेशनों और गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करती हैं। उर्वशी वट्टल जे-पाल साउथ एशिया में एसोसिएट डायरेक्टर-पॉलिसी हैं। वह नीति निर्माण में वैज्ञानिक साक्ष्य के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए सरकारों, नागरिक समाज संगठनों और निजी भागीदारों के साथ जुड़ाव का नेतृत्व करती हैं।

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