वर्ष 2021-22 के केंद्रीय बजट का आकलन करते हुए भास्कर दत्ता यह तर्क देते हैं कि भले इस बजट में कई सकारात्मक पहलू भी हैं परंतु यह कुल मिलाकर निराशाजनक है क्योंकि इसमें गरीबों की जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान नहीं दिया गया है।
केंद्र सरकार के वार्षिक बजट जैसे प्रमुख नीतिगत दस्तावेजों का कोई भी मूल्यांकन करते समय इसके संदर्भ को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए। ऐसे समय में यह तथ्य विशेष रूप से सच है जब कोविड-19 महामारी के असाधारण समय में प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था व्यावहारिक रूप से प्रभावित हुई है। पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7.7% की गिरावट के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था अधिकांश अन्य देशों की तुलना में सबसे अधिक प्रभावित हुई है। इससे भी बुरी बात यह है कि आबादी के सबसे निचले तबके को सबसे अधिक कष्ट झेलना पड़ा है। इसलिए, वित्त मंत्री और उनकी टीम को एक ऐसा बजट तैयार करना चाहिए था, जो अर्थव्यवस्था को तेजी से सुधारने में सक्षम हो और साथ ही साथ यह भी सुनिश्चित करे कि समग्र वृद्धि की प्रक्रिया में गरीबों की भलाई की ओर प्रमुखता से ध्यान दिया जाए। यह कोई आसान काम नहीं था क्योंकि पिछले वर्ष के दौरान आर्थिक गतिविधियों के लगभग पूरी तरह समाप्त हो जाने के कारण कर एवं गैर-कर राजस्व दोनों ही बजट अनुमानों की तुलना में काफी कम हो गए थे और सरकारी खजाना खाली हो गया था।
इन मानदंडों के संदर्भ में यह बजट कितना सफल है? मैं इसे केवल उत्तीर्णांक से ज्यादा कुछ नहीं दूंगा। हालांकि इस बजट में कई सकारात्मक पहलू भी हैं परंतु यह कुल मिलाकर निराशाजनक है क्योंकि इसमें गरीबों की जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान नहीं दिया गया है।
समग्र वृद्धि की रणनीति
बजट के पूंजीगत व्यय1 में तीव्र वृद्धि के साथ वृद्धि की रणनीति को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया जाता है जिसे विकास के प्रमुख प्रेरक तत्व के रूप में कार्य करने के लिए बनाया जाता है। इस बजट में वर्ष 2020-21 के बजट अनुमानों की तुलना में कुल पूंजीगत व्यय को 34% तक अधिक किए जाने का प्रावधान किया गया है जिसमें सड़कों, राजमार्गों, टेक्सटाइल और रेलवे जैसे बुनियादी ढांचागत क्षेत्रों पर अधिक ध्यान दिया गया है। स्पष्ट रूप से कुछ हद तक निकट भविष्य के चुनावी राज्यों, जैसे कि असम, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु को सड़क निर्माण कार्यों के लिए बहुत बड़ी मात्रा में राशि का आवंटन मिल रहा है।
समग्र वृद्धि का लक्ष्य वर्ष के दौरान जीडीपी में होने वाली बहुत मामूली वृद्धि का 14.4% रखा गया है। वास्तविक अर्थों में यह 11% ही है जोकि हाल ही में आईएमएफ (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) के पूर्वानुमान के ठीक नीचे है। पहली नजर में यह काफी प्रभावशाली लगता है। दुर्भाग्य से, इसका अर्थ यह है कि अर्थव्यवस्था दो वर्षों में केवल 3.5% या 1.75% की वार्षिक दर से बढ़ेगी। वृद्धि के प्रदर्शन पर यह धब्बा तभी मिट सकता है जब यह समय कई वर्षों तक जारी रहने वाली उस समयावधि का आरंभिक समय हो जिसमें वृद्धि दर निरंतर ऊंची बनी रहेगी। संभवतः पूंजी क्षेत्र पर जोर कम से कम आंशिक रूप से यह सुनिश्चित करने के लिए दिया गया है कि रिटर्न कई वर्षों तक आता रहे ताकि दीर्घकालिक वृद्धि के लक्ष्यों को बढ़ावा मिल सके।
रोज़गार का सृजन?
सरकार उम्मीद कर सकती है कि चूंकि सड़क निर्माण और अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाएं अपेक्षाकृत अधिक श्रम सृजन करने वाले क्षेत्र हैं, इसलिए नए निवेश का पैटर्न रोजगार पर बड़ा प्रभाव डालेगा। शायद सरकार को यह भी विश्वास है कि प्रस्तावित मेगा टेक्सटाइल्स पार्क रोजगार सृजन में योगदान करेंगे क्योंकि कपड़ा उद्योग भी काफी श्रम गहन है। हालांकि, बजट में रोजगार को बढ़ावा देने के लिए कोई विशिष्ट प्रस्ताव या योजनाओं का जिक्र नहीं है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा)2 के शहरी संस्करण को लागू करने के बारे में आइडियाज फॉर इंडिया सहित कई मंचों पर चर्चा की गई है। बजट भाषण में ऐसी किसी भी योजना का उल्लेख नहीं किया गया है। वास्तविकता तो यह है कि, मनरेगा के लिए बजटीय आवंटन 2020-21 के संशोधित अनुमान3 से लगभग 30% कम है। हालाँकि, इस बात पर भी ध्यान दिया जाए कि शहरी क्षेत्रों से लौटने के बाद प्रवासियों को रोजगार प्रदान करने के लिए पिछले वित्त वर्ष के दौरान मनरेगा के आवंटन में भारी वृद्धि हुई थी।
कोई स्पष्ट गरीब-समर्थक उपाय नहीं
स्पष्ट रूप से अमीरों की संपत्ति में वृद्धि होने के परिणामस्वरूप गरीबों को क्रमिक रूप से लाभ होने की प्रक्रिया की प्रभावोत्पादकता में पूर्ण विश्वास प्रदर्शित होता है। ग्रामीण और शहरी भारत में संकट की भयावहता को देखते हुए यह काफी कठिन कार्य है। वास्तव में बजट में कोई भी स्पष्ट गरीब-समर्थक या वितरण संबंधी उपाय न किया जाना निस्संदेह सबसे बड़ी चूक है। मनरेगा के लिए आवंटन वर्ष 2020-21 के लिए संशोधित अनुमानों के करीबी स्तर पर रखा जा सकता था। ‘प्रायोगिक’ परियोजना के रूप में ही सही, शहरी मनरेगा को किसी रूप में शुरू किया जा सकता था। सरकार कम से कम एक सीमित अवधि के लिए भारतीय खाद्य निगम (एफ़सीआई) के गोदामों से और अधिक मात्रा में खाद्यान्न वितरित भी कर सकती थी जिनमें क्षमता से अधिक खाद्यान्न मौजूद है। बफर स्टॉक अभी तक इतनी अधिक मात्रा में मौजूद है कि इसका एक काफी बड़ा हिस्सा या तो सड़ जाएगा या इसे चूहे खा जाएंगे। इसके अतिरिक्त, आबादी के लक्षित वर्गों के लिए छोटी मात्रा में नकदी का प्रत्यक्ष हस्तांतरण एक अच्छा कदम हो सकता था।
वास्तव में पिछले एक वर्ष से यही देखा जा रहा है कि कोई भी बड़ा वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करने की अनिच्छा रही है। सरकार ने महामारी के प्रभावों को कम करने के लिए कई पैकेज जारी किए। परंतु, वस्तुतः उनमें से सभी आपूर्ति-पक्ष संबंधी उपाय थे, जिनमें क्रेडिट के सस्ते और आसान स्रोत उपलब्ध कराना एक प्रमुख घटक था। पिछले वर्ष के दौरान कुल सरकारी खर्च में रुपये 4 लाख करोड़ से अधिक की प्रशंसनीय वृद्धि हुई। हालाँकि इसका बड़ा हिस्सा आय समर्थन के रूप में या स्वास्थ्य क्षेत्र में किया जाने वाला व्यय नहीं है। बल्कि यह खाद्य और उर्वरक सब्सिडी पर और मनरेगा परिव्यय में वृद्धि के लिए किया गया है। हालांकि ये क्षेत्र कई लोगों की सहायता के महत्वपूर्ण स्रोत थे परंतु इन्होंने मांग में वृद्धि और आर्थिक सुधार को प्रोत्साहित करने में कोई भूमिका नहीं निभाई।
राजकोष के संबंध में रूढ़िवादी रुख
खर्च में मामूली वृद्धि के बावजूद वर्ष 2020-21 के लिए संशोधित राजकोषीय घाटा जीडीपी का 9.5% है जोकि बजट अनुमान से 6% अधिक है। जीडीपी में नाटकीय गिरावट का अर्थ यह था कि राजकोषीय घाटे का वही शुद्ध आकार कई गुना बढ़ गया था। राजकोषीय घाटे में इस वृद्धि का एक और महत्वपूर्ण कारण यह है कि विनिवेश प्राप्तियों में तेजी से गिरावट आई है। पहले की आशंकाओं के विपरीत, कर प्राप्तियों में केवल थोड़ी-सी कमी आई थी।
वर्ष 2021-22 के लिए अनुमानित राजकोषीय घाटा 6.8% है। हकीकत यह है कि अभी से 12 महीने बाद वास्तविक आंकड़ा बहुत खराब हो सकता है। बजट में यह माना गया है कि वर्ष 2021-22 के दौरान विनिवेश प्राप्तियां 1.75 लाख करोड़ रुपए होंगी। यह एक बहुत ही महत्वाकांक्षी लक्ष्य है जबकि यूपीए (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) और एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) सरकारें अतीत में इन महत्वाकांक्षी विनिवेश लक्ष्यों को प्राप्त करने में लगातार विफल रही हैं, और यह मानने के लिए कोई बाध्यकारी कारण भी नहीं है कि इस स्थिति में कुछ परिवर्तन आएगा। अब तक घाटे को भारी मात्रा में बाजार उधारों के साथ-साथ छोटी बचतों के माध्यम से वित्तपोषित किया गया है। भविष्य के वर्षों में उधार चुकाना और भी कठिन हो जाएगा। इस पृष्ठभूमि के संदर्भ में शायद यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वित्त मंत्री ने राजकोष के संबंध में अपेक्षाकृत रूढ़िवादी रुख अपनाया है।
सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष
बजट में कुछ सकारात्मक पक्ष हैं। मिसाल के तौर पर, आंकड़ों के हेरफेर से बचने का एक सचेत उपाय किया गया है जोकि भारत में कोई आसान कार्य नहीं है। अब तक की सामान्य प्रथा के अनुसार खाद्य सब्सिडी बिल के आकार को एफसीआई बाजार उधार के रूप में गलत रूप से प्रस्तुत करके छिपाया जाता था। इस प्रथा को अब समाप्त कर दिया गया है और अब से एफसीआई को पारदर्शी तरीके से वित्त-पोषित करना होगा। उर्वरक उद्योग के बकाया को दूर करके सरकार ने एक और बड़ा कदम भी उठाया है।
बजट भाषण इस मायने में भी साहसी है कि इसमें कुछ ऐसी योजनाओं की घोषणा की गई है जिन्हें आम तौर पर राजनीतिक रूप से स्वीकार्य नहीं माना जाता है। सरकार ने कहा है कि वह बीमा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआई) की सीमा को बढ़ाकर 74% करेगी। इसकी यह भी योजना है कि भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) में अपनी हिस्सेदारी को कम किया जाए तथा सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों को बेच दिया जाए। यहां तक कि वित्त मंत्री ने इस संबंध में "निजीकरण" शब्द का भी उपयोग किया है! बेशक, हमें इंतजार करना होगा और यह देखना होगा कि इन योजनाओं को कितनी सफलता से लागू किया जा सकता है। लेकिन इसकी मंशा साफ तौर से व्यक्त की गई है।
स्वाभाविक रूप से कोविड-19 टीकाकरण अभियान के लिए 35,000 करोड़ रुपये की बड़ी राशि आवंटित की गई है। पानी और स्वच्छता को भी अतिरिक्त परिव्यय दिया गया है। वित्त मंत्री ने नई बीमारियों का पता लगाने और उनका इलाज करने हेतु प्राथमिक, तृतीयक एवं माध्यमिक स्वास्थ्य प्रणालियों की क्षमता विकसित करने के लिए केंद्र प्रायोजित एक नई पहल की घोषणा की है। हालाँकि इस बजट में पीछे लौटने वाला कदम यह है कि इसमें शिक्षा क्षेत्र की उपेक्षा की गई है और शिक्षा मंत्रालय को आवंटन में वास्तव में 6% की कमी हुई है। इस सरकार ने ज्ञान अर्थव्यवस्था का निर्माण करने और विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों के साथ प्रतिस्पर्धी बनाने की अपनी इच्छा को दोहराया है। निश्चित रूप से इन तरीकों से ये लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सकते।
बजट के अधिक निराशाजनक पक्षों के अंतर्गत यह कहा जा सकता है कि इससे संरक्षणवादी प्रवृत्तियां मजबूत होंगी। बजट जहां एक ओर कई मदों पर छूट को हटाना चाहता है वहीं दूसरी ओर कुछ अन्य मदों में दरों में वृद्धि करना चाहता है। बल्कि विडंबना तो यह है कि वर्तमान सरकार उन्हीं नीतियों की ओर वापस लौट रही है जो नेहरू के शासन काल के दौरान प्रचलित थीं। किसी भी रूप में उच्च शुल्क की बाधाएं खड़ी करके घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन की बात करना दूरदर्शी कदम नहीं है और विश्वास से परे है। यह आत्मनिर्भरता को बढ़ावा नहीं देता है, बल्कि यह केवल ऐसे उच्च लागत वाले उद्योगों को बढ़ावा देता है जो वैश्विक बाजारों में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं। कुछ मामलों में मध्यवर्ती उत्पादों पर शुल्कों में वृद्धि करने से इनके घरेलू उत्पादकों को कोई भी लाभ नहीं होता है क्योंकि ऐसा कोई उत्पादक मौजूद ही नहीं है। मोबाइल फोन के निर्माण में उपयोग किए जाने वाले कुछ पुर्जों के मामले में इसे देखा जा सकता है।
वित्त मंत्री के लिए यह अत्यंत चुनौतियों भरा वर्ष है क्योंकि पूरे किए जाने वाले लक्ष्यों की संख्या तो बहुत है परंतु इन्हें पूरा करने के लिए साधन बहुत कम उपलब्ध हैं। उन्हें यह चुनना है कि किन लक्ष्यों का कार्यान्वयन किया जाए। दुर्भाग्य से वित्त मंत्री ने लक्ष्य को बुद्धिमानी से नहीं चुना है।
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टिप्पणियाँ:
- राजस्व व्यय वह व्यय है जो सरकारी विभागों और विभिन्न सेवाओं के सामान्य काम-काज चलाने, सरकार द्वारा लिए गए ऋण पर ब्याज प्रभार, सब्सिडी आदि के लिए किया जाता है। पूंजीगत व्यय से तात्पर्य उस व्यय से है जो परिसंपत्तियां सृजित करता है या सरकार की देयता को कम करता है।
- मनरेगा एक ऐसे ग्रामीण परिवार को एक वर्ष में 100 दिनों के मजदूरी-रोजगार की गारंटी देता है, जिसके वयस्क सदस्य निर्धारित न्यूनतम मजदूरी पर अकुशल मैनुअल काम करने को तैयार हैं।
- बजट अनुमान आने वाले वित्त वर्ष के लिए बजट में किसी मंत्रालय या योजना को आवंटित धनराशि को बताता है। संशोधित अनुमान वर्ष के बीच में संभावित व्यय की समीक्षा है, और इसे व्यय हेतु संसदीय अनुमोदन या पुनर्विनियोजन आदेश के माध्यम से अधिकृत होने की आवश्यकता होती है।
लेखक परिचय: भास्कर दत्ता यूनिवर्सिटी ऑफ वार्विक में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और भारतीय सांख्यिकी संस्थान दिल्ली में एक प्रतिष्ठित विजिटिंग प्रोफेसर हैं।
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