कृषि विपणन में मुक्त बाजार प्रतिस्पर्धा को कथित रूप से बढ़ावा देने वाले कृषि कानूनों के सार पर ध्यान केंद्रित करते हुए दिलीप मुखर्जी एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) मंडियों के सुधार की आवश्यकता पर जोर देते हैं। उनके अनुसार निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने, विवादों को सुलझाने और छोटे किसानों के अवसरवादी शोषण को रोकने के लिए प्रभावी विनियामक बुनियादी ढांचे का निर्माण करते हुए, खरीदारों और विक्रेताओं के बीच सीधे लेन-देन की अनुमति देना एक समझदारीपूर्ण तरीका होगा।
पिछले कई महीनों में, हम दो बड़ी ताकतों के बीच हो रहे टकराव को आश्चर्य से देख रहे हैं जिसमें सरकार कृषि कानूनों को जल्दी लागू करने के लिए तत्पर दिख रही है और इन कानूनों का कड़ा विरोध कर रहे किसानों के प्रतिनिधियों के समक्ष खड़ी है जिन्हें आशंका हैं कि इन कानूनों के बन जाने से कृषि विपणन में अबंध-नीति1 (लाईसेज़-फैर) की व्यवस्था आ जाएगी और इसमें सरकारी हस्तक्षेप समाप्त हो जाएगा। यद्यपि सरकार ने थोड़ा पीछे हट कर, इन कानूनों के कार्यान्वयन को 18 महीने तक स्थगित करने की पेशकश की है, परंतु किसान लॉबी चाहती है कि ये कानून स्थायी रूप से रद्द किए जाएँ। इस दौरान हमें कृषि सुधार के उन रचनात्मक मार्गों के बारे में सोचने का अवसर मिला है जो आने वाले समय में विकसित हो सकते हैं। अर्थशास्त्रियों के रूप में हमारी भूमिका ऐसे सुधारों की सलाह देने की है, जो निहित हितों के बजाय जनता की भलाई के लिए हों, जो वास्तविक नीतिगत प्रस्तावों का आधार बनें तथा जिन पर आने वाले महीनों में बहस की जा सके।
मैं कृषि कानूनों के सार पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूँ, जो एपीएमसी मंडियों (कृषि उपज विपणन समितियों) को समाप्त करके कृषि विपणन में मुक्त बाजार प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना चाहते हैं। प्रदर्शनकारी किसान समूह अनाज की खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बारे में अधिक बात कर रहे हैं, जो कि कृषि उपज में निजी थोक व्यापारों के लिए बाजारों को पुनर्गठित करने हेतु कुछ हद तक रूढ़िवादी मुदद्दा है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि राज्य की खरीद और निजी बाजारों के सुधार के बीच कुछ संबंध अवश्य हैं, जैसे कि संभावित निजी लेन-देन की कीमतों पर एमएसपी के अप्रत्यक्ष प्रभाव। लेकिन यह मुद्दा गौण है, और यह उस केंद्रीय प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमता है जो कुछ हद तक, थोक विक्रेताओं और खरीदारों की निजी बाजारों तक पहुंच, इन बाजारों के नियमन, और संबद्ध बाजार अवसंरचना से जुड़ा हुआ है। राज्य की अनाज खरीद निजी बाजारों को कैसे प्रभावित करती है, इस पर बाद में चर्चा की जा सकती है। सुधार संबंधी विचारों के बारे में स्पष्ट रूप से सोचने के लिए, मुद्दों को सुलझाना और प्राथमिकता के क्रमानुसार उन पर ध्यान केंद्रित करना ज़रूरी है। इसलिए, इस आलेख में, मैं राज्य खरीद और एमएसपी पर बात करने के बजाय निजी विपणन व्यवस्था के सुधार पर ध्यान केंद्रित करूंगा।
मंडी सुधार की आवश्यकता
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि एपीएमसी मंडियों (कृषि उपज के लिए बाजार)2 में सुधार की आवश्यकता है ताकि उनका भौतिक बुनियादी ढ़ांचा सुधर सके, और छोटे किसानों के लिए और साथ ही साथ अलग-अलग प्रकार के खरीदारों तक पहुंच आसान हो सके, जो अभी तक संभव नहीं हो सका है। बाजार तक पहुंच को रोकने और आपसी साठ-गांठ को बढ़ावा देने वाली इन समस्याओं के बारे में पहले ही बहुत कुछ बताया जा चुका है [उदाहरण के लिए, चटर्जी और कृष्णमूर्ति (2020), रामास्वामी (2020), अग्रवाल, जैन और नारायणन (2017), और मुखर्जी (2016) द्वारा I4I पर लिखे गए विभिन्न लेख)]। यह सर्वविदित है कि अधिकांश किसान सीधे मंडियों में नहीं जाते हैं और विभिन्न प्रकार के बिचौलियों के जरिए अपनी उपज को बेचते हैं जिनमें गाँव के व्यापारी, या बड़े थोक खरीदारों के कमीशन एजेंट शामिल हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कुछ हद तक मध्यस्थ समूहकों के लिए यह आवश्यक है कि लाखों छोटे किसानों द्वारा कुछ सीधी बिक्री के कारण थोक खरीदारों को होने वाली प्राकृतिक ‘लेनदेन की लागतों’ को दूर किया जाए। थोक खरीदार भारी मात्रा में उपज को खरीदने में रुचि रखते हैं। वे रोजाना कई छोटे किसानों के साथ व्यक्तिगत रूप से बातचीत करने के लिए तैयार नहीं हैं, और वे उन्हें सुपुर्द की गई उपज की मात्रा और गुणवत्ता की निगरानी करने में असमर्थ होंगे। बिचौलिए दैनिक लक्ष्यों को पूरा करने, उपज का निरीक्षण करने, और किसानों के साथ दीर्घकालिक संबंधों को बनाए रखने, अतीत के अनुभव के आधार पर विश्वसनीयता को मापने के साथ-साथ जरूरत पड़ने पर व्यापार ऋण प्रदान करने और उपज की सुपुर्दगी एवं भुगतान के बीच अंतराल पर काबू पाने के लिए उपयोगी सेवा प्रदान करते हैं।
फिर भी, अक्सर छोटे किसानों को एपीएमसी की मंडियों में सीधी बिक्री करने में रुकावट आती है क्योंकि उन्हें मंडियों तक लंबी दूरी तय करनी होती है, उन्हें मंडी की कीमतों के बारे में कम जानकारी होती है, मंडियों का बुनियादी ढांचा (वजन और भंडारण सुविधाओं) खराब होता है और उनसे बहुत अधिक विपणन शुल्क वसूला जाता है। एपीएमसी को नियंत्रित करने वाले बड़े व्यापारी और किसानों की भी अक्सर ऐसी इच्छा नहीं रहती कि जिन खरीदारों से उनकी साठ-गांठ नहीं है वे मंडी में खरीदारी करें। एपीएमसी अधिनियम मंडी समितियों को दरकिनार करते हुए ‘बाहरी’ खरीदारों को सीधे किसानों से खरीदारी करने से रोकता है, जब तक कि वे राज्य सरकार से अनुमति नहीं ले लेते। पहुंच पर इन प्रतिबंधों का मतलब यह है कि बड़ी संख्या में संभावित विक्रेता और खरीदार निजी बाजारों में भाग लेने से वंचित रह जाते है, जिससे बिचौलियों को बड़ी कमाई का अवसर मिल जाता है जो किसानों को होने वाले लाभ की कीमत पर होती है।
यहां तक कि जिन राज्यों में कई किसान अपनी उपज की बिक्री सीधे मंडियों में करते हैं, वहां भी खेत से बाजार तक की लंबी दूरी, बाजार का खराब बुनियादी ढांचा और मूल्य की जानकारी की कमी, उनकी प्रभावी कमाई को कम कर देते हैं। ये प्रतिबंध व्यापार की मात्रा को कम करते हैं, किसानों को उनके रिटर्न को कम करके उन्हें उत्पादन के लिए हतोत्साहित करते हैं, जबकि खुदरा उपभोक्ताओं द्वारा अदा की जाने वाली कीमतों को बढ़ा देते हैं। कुल मिला कर इसका परिणाम यह होता है कि कृषि उत्पादन और सकल घरेलू उत्पाद कम हो जाता है, और साथ ही साथ लाखों छोटे किसानों को अधिक कमाई करके अपनी गरीबी को दूर करने और उच्च मूल्य वाली नकदी फसलों के उत्पादन में विविधता लाने के अवसर समाप्त हो जाते हैं।
दूसरी ओर, एपीएमसी के पक्षधर लोग एपीएमसी के पूर्णत: समाप्त हो जाने के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले बाजार की मुक्त प्रतिस्पर्धा संबंधी खतरों की ओर इशारा करते हैं। उनकी चिंता यह है कि बड़ी-बड़ी कृषि व्यापार कंपनियां लूटने वाली कीमतें निर्धारित करेंगी, मौजूदा आपूर्ति श्रंखलाओं को व्यवसाय से बाहर कर देंगी, और फिर किसानों को अभी मिल रही कीमतों से भी कम भुगतान करके निर्दयतापूर्वक उनका शोषण करेंगी। अनुबंध खेती के परिणामस्वरूप बड़े कॉर्पोरेट खरीदारों द्वारा अवसरवादी व्यवहार किया जा सकता है जिसमें वे किसानों पर डिलीवरी में देरी करने या गुणवत्ता के मानदंडों को पूरा करने में विफलता के आरोप लगा कर तय मूल्यों का भुगतान करने से मना कर सकते हैं। भारत और अन्य जगहों पर अनुबंध खेती के ऐसे कई वास्तविक मामले हैं जो इन खतरों को दर्शाते हैं। स्पष्टतया, यदि मौजूदा आपूर्ति श्रंखला के अधिकांश बिचौलिये अपनी आजीविका खो दें, किसानों को कम भुगतान प्राप्त हो, उन पर बहुत बड़ा उधार हो जाए या वे अपनी जमीन या अन्य संबद्ध परिसंपत्तियां को खो दें तो सार्वजनिक हितों की भली-भांति पूर्ति नहीं हो सकती।
कृषि विपणन का निजीकरण
यद्यपि कई अन्य विकासशील देशों में कृषि विपणन के निजीकरण, बड़े कृषि व्यापार कंपनियों के प्रवेश, और अनुबंध खेती से जुड़े हुए अनुभव कुछ खास अच्छे नहीं रहे हैं। भारत में और कई अफ्रीकी देशों में भी कई ऐसे उदाहरण हैं, जहां छोटे भूमिधारक किसान उच्च मूल्य वाली विविधतापूर्ण नकदी फसलों की खेती करने और खेती से होने वाली आय में बड़ी वृद्धि करने में सफल रहे हैं (मिनटेनेट एवं अन्य 2009, बैरेट एवं अन्य 2012, राव एवं अन्य 2012, रियरडोन एवं अन्य 2009, स्विन्नेनेट एवं अन्य 2011)। किसानों और कृषि व्यापार कंपनियों के बीच सीधा व्यापार विकासशील देशों को सभी स्तरों, यानि बीज, उत्पादन के तरीके, परिवहन और भंडारण अवसंरचना, राष्ट्रीय तथा वैश्विक विपणन के क्षेत्रों में बेहतर प्रौद्योगिकी के आधार पर वैश्विक मूल्य श्रंखलाओं को समझने में सक्षम बनाता है। यदि लाभ कृषि व्यापार कंपनियों और किसानों के बीच समान रूप से साझा किया जाए तभी यह संभव है कि कृषि आय में बढ़ोतरी होगी, गरीबी कम होगी और साथ ही साथ वृद्धि दर ऊंची होगी।
यह डर भी काफी हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है कि कृषि व्यापार कंपनियों का गठजोड़ मौजूदा मंडियों और आपूर्ति श्रंखलाओं को समाप्त कर देगा। अनुबंध खेती कुछ चुनिंदा फलों और सब्जियों के लिए तथा (कम से कम थोड़े बड़े) किसानों के एक छोटे गुट तक ही सीमित होने की संभावना है। अधिकांश किसान अधिकतर सामान्य कृषि वस्तुओं का उत्पादन करना और उन्हें स्थानीय बिचौलियों के माध्यम से बेचना जारी रखेंगे, जो फिर उन्हें मंडियों में बेचेंगे। हजारों छोटे किसानों और दूरदराज के कृषि व्यवसायियों के बीच लेन-देन की प्रचलित प्रत्यक्ष लेन-देन लागतें जारी रहेगी। इसलिए, अगर कृषि व्यवसाय बड़े पैमाने पर सामान्य वस्तुओं की खरीद करना चाहता है, तो उन्हें मौजूदा आपूर्ति श्रृंखला मध्यस्थों की अभिवृत्तियों को समझना होगा। अधिकांश अन्य विकासशील देशों का भी यही अनुभव रहा है।
इसलिए, आगे का समझदारीपूर्ण तरीका यह होगा कि एपीएमसी या राज्य सरकारों से अनुमोदन लिए बिना खरीदारों और विक्रेताओं के बीच सीधे लेनदेन की अनुमति दी जाए। इसी के साथ, ऐसे संस्थानों की भी स्थापना की जाए जो छोटे किसानों को सामूहिक सौदेबाजी के अवसर प्रदान करें; और निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने, विवादों की मध्यस्थता करने और छोटे किसानों के अवसरवादी शोषण को रोकने के लिए एक नियामक बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराएं। हमारा ध्यान ऐसे बाजार संस्थानों की डिजाइन पर केंद्रित होना चाहिए। इसके लिए मेरे कई सुझाव निम्नवत हैं।
नियामक बुनियादी ढांचे का योजना बनाना
सर्वप्रथम तत्काल लेनदेन को अनुबंध लेनदेन से अलग करना। तत्काल लेनदेन के लिए, विनियमन संबंधी समस्याएं कुछ कम हैं। 1990 के दशक (गोयल 2010) के दौरान मध्य प्रदेश में आईटीसी लिमिटेड प्रयोग ई-चौपाल (इंटरनेट सुविधा के साथ एक डेस्कटॉप को संदर्भित करने के लिए प्रयोग किया गया शब्द), तत्काल लेनदेन के लिए एक संभावित मॉडल प्रदान करता है। खरीदार गांवों में ई-चौपाल स्थापित कर सकते हैं, इन्हें स्थानीय एजेंट द्वारा संचालित किया जाता है और जहां वस्तुओं की डिलीवरी के लिए दैनिक या साप्ताहिक आधार पर कीमतों की पेशकश की जाती है। ई-चौपाल गाँव या पड़ोसी गोदाम में आपूर्ति की जाने वाली वस्तुओं के लिए नकद भुगतान करने के लिए तैयार रहती है, जिससे किसानों को अपनी फसलों को अपने स्थानों से दूर स्थित मंडियों तक पहुँचाने की जरूरत नहीं पड़ती। स्थानीय एजेंट को बिक्री मूल्य के एक अंश तक कमीशन देकर प्रोत्साहित किया जाता है। ई-चौपाल मूल्य संबंधी उपयोगी जानकारी भी प्रदान कर सकती है, जैसे, पड़ोसी मंडियों में प्रचलित कीमतें, जो कि उनके खुद के द्वारा पेशकश की जाने वाली कीमतों के साथ तुलना बिंदु के रूप में काम करती हैं।
अनुबंध खरीद के लिए अधिक विस्तृत नियामक बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता होती है। इस संरचना के दो महत्वपूर्ण तत्व हैं। सबसे पहले, किसानों को किसान-उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के साथ अनुबंध करना चाहिए जो स्थानीय किसानों के समूहों के साथ खरीद को इकट्ठा करते हैं। एफपीओ की संभावित भूमिका का उल्लेख कृषि कानूनों में पहले ही किया जा चुका है, लेकिन वर्तमान में इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि इनकी स्थापना कैसे होती है और ये कैसे काम करते हैं। एफपीओ अनिवार्य रूप से किसान सहकारी समितियां हैं, लेकिन जैसा कि सर्वविदित है कि किसान सहकारी समितियों का अनुभव मिला-जुला है, जिसमें एक ओर देश के कुछ हिस्सों और कुछ खास वस्तुओं (उदाहरण के लिए - महाराष्ट्र चीनी सहकारी समितियां, अमूल दूध सहकारी समितियां) में यह बहुत ही अच्छा है वहीं दूसरी ओर देश के अन्य भागों या अन्य वस्तुओं (उदाहरण के लिए - तिलहन) में यह उतना अच्छा नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण, प्रभावी और अच्छी तरह से काम करने वाली सहकारी समितियाँ रातों-रात नहीं बनती हैं, और न ही राज्य सरकारों द्वारा नीतियों को सर्वोच्च स्तर पर बना कर उन्हें निचले स्तर पर लागू करवाया जा सकता है। उन्हें स्थानीय सामाजिक समरूपता और किसानों के बीच आर्थिक समानता, गैर सरकारी संगठनों और/या स्थानीय सरकारों की सक्रिय सहायता की आवश्यकता है। एफपीओ के कई संभावित मॉडल हैं जिनके साथ प्रयोग किया जा सकता है, उदाहरण के लिए, इनका प्रबंधन स्थानीय पंचायतों द्वारा किया जा सकता है, एनजीओ द्वारा किया जा सकता है या मौजूदा किसान संगठनों द्वारा किया जा सकता है।
नियामक पर्यवेक्षण संस्था के अन्य आवश्यक घटक में विवाद निपटान तंत्र शामिल किया जाए जिनमें गुणवत्ता का तृतीय-पक्ष द्वारा सत्यापन, मध्यस्थता, अनुबंध की शर्तों को लागू करने के लिए अर्ध-न्यायिक निकाय और प्रतिस्पर्धा पर निगरानी करने के लिए राज्य स्तर पर एक 'उचित कृषि व्यापार आयोग' (एफ़एटीसी) सम्मिलित हैं। बाहरी खरीदारों और स्थानीय एफपीओ के बीच अनुबंध को राज्य एफएटीसी के साथ पंजीकृत करने की आवश्यकता होगी। खरीदारों को उत्पादन की मात्रा और गुणवत्ता की तीसरे पक्ष से सत्यापन कराने की आवश्यकता होगी। इससे बड़े खरीदारों के लिए निम्न गुणवत्ता के आधार किसानों से धोखाधड़ी करना मुश्किल हो जाएगा। इसके अलावा, इससे किसानों की नज़र में खरीदार की विश्वसनीयता बढ़ जाएगी। यदि विवाद उत्पन्न होते हैं, तो मामले को मध्यस्थता के लिए भेजा जा सकता है, और यदि वहां यह नहीं सुलझ पाता है, तो निर्णय के लिए अर्ध-न्यायिक निकाय को भेजा जा सकता है। जब उपज वास्तव में सभी मानकों को पूरा कर रही है तब भी यदि खरीदार भुगतान में देरी करते हैं तो इस देरी को रोकने के लिए निर्णय तेजी से करने होंगे। मौजूदा अदालतें इस तरह का बोझ उठाने में सक्षम नहीं होंगी, इसलिए राज्य सरकारों द्वारा नए कानूनी निकाय स्थापित करने होंगे।
समावेशी विकास करने और गरीबी में कमी लाने के लिए किसी भी बाजार अर्थव्यवस्था के लिए ऐसे संस्थान आवश्यक हैं। चूंकि कृषि राज्य का विषय है इसलिए वास्तविक नीतिगत प्रयास राज्य सरकारों के स्तर पर किए जाने चाहिए। इसका एक फायदा यह होगा कि स्थानीय जानकारी और विभिन्न राज्यों में अलग-अलग प्रकार के सुधार प्रयासों के प्रयोग से मिली सीखों का लाभ उठाते हुए ‘सभी के लिए उपयुक्त एक नीति’ प्राकार की नीतियों से बचा जा सकेगा। अंतत: कौन से संस्थान प्रभावशाली होंगे, इसका निष्कर्ष पूरे में परीक्षण प्रक्रिया से मिली सीख से निकलेगा। कृषि कानूनों में विविधता एवं सुधार की गुंजाइश के लिए इनमें लचीलेपन को अवश्य शामिल करना चाहिए।
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टिप्पणियाँ:
- अबंध-नीति (लाईसेज़-फैर) सरकार के उस सिद्धांत या प्रणाली को संदर्भित करता है जिसके अंतर्गत, यह मानते हुए कि सरकार को आर्थिक मामलों की दिशा में यथासंभव कम हस्तक्षेप करना चाहिए, आर्थिक व्यवस्था के स्वायत्त स्वरूप को मजबूती प्रदान की जाती है।
- भारत में कृषि विपणन राज्य का विषय है और इसे कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) अधिनियम के तहत विनियमित किया जाता है। अधिनियम में कहा गया है कि कुछ कृषि जिंसों की खरीद निर्धारित कमीशन और विपणन शुल्क का भुगतान करके सरकार द्वारा विनियमित बाजारों (मंडियों) के माध्यम से की जाती है।
लेखक परिचय: दिलीप मुखर्जी बोस्टन यूनिवरसिटि में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं, जहाँ वे 1998 से इंस्टीट्यूट ऑफ इकनॉमिक डेव्लपमेंट के निदेशक भी हैं।






















































