मानव विकास

सामाजिक-धार्मिक समूहों के भीतर व्याप्त जातिगत असमानताएँ: उत्तर प्रदेश से साक्ष्य प्रमाण

  • Blog Post Date 13 मई, 2022
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Srinivas Goli

Jawaharlal Nehru University

srinivasgoli@mail.jnu.ac.in

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Chhavi Tiwari

National Institute of demographic Studies (INED), Paris

chhavi.tiwari@theigc.org

मंडल आयोग और सचर समिति की रिपोर्ट में चार प्रमुख जाति समूहों के भीतर जातिगत असमानताओं के अस्तित्व को दर्शाया गया है। हालाँकि, इस विषय पर सीमित डेटा ही उपलब्ध है। यह लेख उत्तर प्रदेश में वर्ष 2014-2015 में किए गए एक नवल सर्वेक्षण के आंकड़ों का उपयोग करते हुए दर्शाता है कि हिंदू और मुस्लिम ओबीसी और दलित दोनों के बीच पाई गई समूह असमानताओं की तुलना में उच्च जातियों के बीच समूह असमानताएं काफी कम हैं।

मोटे तौर पर, भारत के संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के तहत सरकार द्वारा चार सामाजिक समूहों- हिंदू उच्च जातियां, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी),अनुसूचित जाति (एससी) या दलित, अनुसूचित जनजाति (एसटी) का उपयोग प्रशासनिक और शासन उद्देश्यों के लिए किया जाता है(भारत सरकार 1956, लांबा और सुब्रमण्यम 2020)। वर्ष 1950 में, संविधान ने सामाजिक-आर्थिक स्थिति में जातिगत बाधाओं को दूर करने हेतु अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए रोजगार और शिक्षा में आरक्षण प्रदान किया। मंडल आयोग (फोंटेन और यमाडा 2014) की सिफारिशों के बाद 1990 के दशक में ओबीसी के लिए भी इन आरक्षणों को लागू किया गया था। हालाँकि,आज तक,मुसलमानों जैसे अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों को कोई आरक्षण नहीं दिया गया है। जाति व्यवस्था की उत्पत्ति हिंदू धर्म के मूलभूत ग्रंथों- वैदिक साहित्य में वर्णित वर्ण व्यवस्था1 से हुई है,और समय के साथ,अन्य धर्मों ने भी इस सामाजिक बुराई को आत्मसात कर लिया गया है या वह उनमें फैल गई है(अहमद 1967)। निचली जाति के हिंदुओं ने हिंदू समाज की जातिगत कठोरता से बचने के लिए बड़ी संख्या में इस्लाम और ईसाई धर्म अपना लिया(अहमद 1967, ट्रोफिमोव 2007)। भारत के मुस्लिम समुदाय की सामाजिक,आर्थिक और शैक्षिक स्थिति पर नवंबर 2006 में आई सचर समिति की रिपोर्ट इस संबंध में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर थी (सच्चर एवं अन्य 2006)। इस रिपोर्ट ने भारत की वर्ष 2001 की जनगणना के डेटा और केंद्र और राज्य सरकार की रिपोर्ट के अन्य आधिकारिक आंकड़ों का उपयोग करते हुए कई संकेतकों में मुस्लिमों के पिछड़ेपन के बारे में व्यापक सबूत प्रस्तुत किए हैं। हाल के अध्ययनों ने, मुसलमानों में जाति-आधारित अस्पृश्यता और छह सामाजिक-धार्मिक समूहों2 में व्याप्त व्यावसायिक अलगाव के बारे में अनुभव-जन्य प्रमाण की पहचान की और उन्हें दर्ज किया(कुमार एवं अन्य 2020, त्रिवेदी एवं अन्य 2016ए, त्रिवेदी एवं अन्य 2016बी)।

हिंदू समाज के चार प्रमुख जाति समूहों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में भी, भारत भर में विभिन्न राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभावशाली जातियों (उदाहरण के लिए- महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार, उत्तर भारत में जाट, आंध्र प्रदेश में कापू) द्वारा आरक्षण की मांग बढ़ रही है और यह देश के राजनीतिक वर्गों (देशपांडे और रामचंद्रन 2017) के लिए एक ज्वलंत मुद्दा बन गया है। हालांकि,प्रभावशाली ओबीसी और उच्च जातियों के लिए आर्थिक वर्ग-आधारित आरक्षण (कोटा) की मांग को हल करने के संदर्भ में सीमित प्रमाण उपलब्ध हैं। जाति के आधार पर जनगणना का अभाव और विभिन्न उप-जातियों के स्तर पर शिक्षा, रोजगार, आय, धन और घरेलू सुविधाओं जैसे बहुआयामी विकास संकेतकों पर इकाई स्तर के आंकड़ों की कमी, आरक्षण (कोटा) के लिए इन प्रभावशाली जातियों की बढ़ती मांग को युक्तिसंगत बनाने में एक बाधा के रूप में सामने आती है।

हाल के एक अध्ययन (तिवारी एवं अन्य 2022)में, हम भारत के सबसे बड़ी आबादी वाले और जहां जाति-आधारित भेदभाव और प्रभुत्व की गहरी जड़ें हैं ऐसे राज्य- उत्तर प्रदेश में गरीबी, धन और वित्तीय समावेशन के संदर्भ में विभिन्न उप-जातियों के बहुआयामी सापेक्ष अभाव का आकलन करने के लिए अनुभव-जन्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं (कुमार एवं अन्य 2020, त्रिवेदी एवं अन्य 2016 ए, 2016बी)। हमारा अध्ययन भारत में व्यापक सामाजिक-धार्मिक समूहों के भीतर उभरती पहचान की राजनीति और हाशिए के समुदायों के सामाजिक और आर्थिक विकास की बढ़ती बेचैनी पर उभरते साहित्य(एंडरसन एवं अन्य 2015)में योगदान देता है।

हमारा अध्ययन

हम उत्तर प्रदेश के ओबीसी और दलित मुसलमानों की सामाजिक और शैक्षिक स्थिति का आकलन करने के लिए, वर्ष 2014-2015 के दौरान गिरि इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज (जीआईडीएस)द्वारा एकत्र किए गए एक अद्वितीय प्राथमिक सर्वेक्षण से डेटा का उपयोग करते हैं। इस सर्वेक्षण ने पहली बार,उत्तर प्रदेश राज्य में व्यापक सामाजिक-धार्मिक समूहों के भीतर उप-जातियों की पहचान की है। इस सर्वेक्षण का उपयोग करने वाले पिछले अध्ययन दृढ़ता से सुझाव देते हैं कि दलित मुस्लिम- जो न केवल हिंदू दलितों के समान व्यवसायों में लगे हुए हैं,बल्कि अपने समकक्षों की तुलना में गरीब हैं और सरकार के सकारात्मक कार्रवाई लाभों का लाभ उठाने में असमर्थ हैं- संबंधित नीति तैयार करते समय उनको ध्यान में रखा जाना चाहिए। (कुमार एवं अन्य 2020, त्रिवेदी एवं अन्य 2016ए, 2016बी)।

पिछले शोध के पूरक हमारे इस अध्ययन में, हम पांच व्यापक सामाजिक-आर्थिक डोमेन में व्यापक सामाजिक-धार्मिक समूहों के भीतर उप-जाति-वार असमानताएं प्रदान करते हैं: जीवन शैली का अभाव, ऐतिहासिक अभाव, पारिवारिक स्थिति, धन संचय और वित्तीय समावेशन।

जीवन-शैली में अभाव: गरीबी और खर्च

हम तालिका 1 में, उप-जातियों में हिंदुओं और मुसलमानों- दोनों के संदर्भ में औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (एमपीसीई) और गरीबी का स्तर प्रस्तुत करते हैं। हमारे निष्कर्ष में हम ग्रामीण और शहरी- दोनों क्षेत्रों में एमपीसीई और जाति के आधार पर गरीबी के स्तर में भारी असमानताओं को दर्शाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में, ‘हिंदू सामान्य’(अब से, उच्च जाति के हिंदू) और जाट (ओबीसी) का औसत एमपीसीई हिंदू और मुस्लिम दोनों के संदर्भ में अन्य सभी जातियों की तुलना में अधिक है। हालांकि, जाटों, ब्राह्मणों और ठाकुरों का औसत एमपीसीई, धर्म कोई भी हो, दलितों की तुलना में दो गुना अधिक है।'अन्य हिंदू सामान्य (गैर-ब्राह्मण और गैर-ठाकुर' का औसत एमपीसीई भी, धर्म कोई भी हो, गैर-जाट ओबीसी और दलितों की तुलना में बहुत अधिक है। यह उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में जाटों को ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया गया है- उनका एमपीसीई सबसे अधिक है, यहां तक ​​कि ब्राह्मणों और ठाकुरों से भी अधिक है। लोध, पासी और अन्य हिंदू दलितों (चमारों को छोड़कर) के नमूने में अन्य जातियों की तुलना में सबसे कम एमपीसीई है। शहरी क्षेत्रों में, हिंदुओं का सामान्य आर्थिक प्रभुत्व और भी अधिक स्पष्ट है,जबकि जाट उनके पीछे हैं और वे अन्य हिंदू ओबीसी के समान स्तर पर हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में मुस्लिमों की स्थिति बदतर है।

तालिका 1. जाति के आधार पर, औसत मासिक प्रति-व्यक्ति उपभोग व्यय और गरीबी का अनुपात

जाति

ग्रामीण

शहरी

औसत एमपीसीई

ग्रामीण गरीबी

जनसंख्या में हिस्सेदारी

एमपीसीई में हिस्सेदारी

औसत एमपीसीई

शहरी गरीबी

जनसंख्या में हिस्सेदारी

एमपीसीई में हिस्सेदारी

ब्राह्मण

1,688

15.9

0.07

0.12

2,302

4.9

0.07

0.12

ठाकुर/क्षत्रिय

1,677

9

0.05

0.08

2,440

7.3

0.02

0.03

अन्य हिंदू सामान्य

1,546

20.6

0.03

0.04

2,362

2

0.08

0.14

हिंदू सामान्य

1,659

14.4

0.15

0.23

2,346

3.9

0.17

0.29

मुस्लिम सामान्य

1,278

31.3

0.08

0.08

1,529

25

0.09

0.09

यादव

1,128

32.1

0.07

0.06

1,399

29.6

0.04

0.04

कुर्मी

1,003

40.7

0.02

0.01

1,998

13.9

0.03

0.01

जाट

1,956

15.3

0.03

0.06

1,779

14.6

0.02

0.02

लोध

743

61.3

0.01

0.01

1,217

43.9

0.02

0.03

अन्य हिंदू ओबीसी

1,060

42.3

0.2

0.19

1,236

35.4

0.19

0.15

हिंदू ओबीसी

1,150

38

0.34

0.34

1,342

32.7

0.29

0.26

अंसारी मुस्लिम

1,039

39.4

0.06

0.05

1,195

44.5

0.09

0.07

अन्य मुस्लिम ओबीसी

994

37.7

0.12

0.09

1,176

36.6

0.1

0.07

मुस्लिम ओबीसी

1,008

38.2

0.17

0.14

1,186

40.4

0.2

0.15

चमार

931

48

0.12

0.11

1,207

44.4

0.1

0.09

पासी

759

56.3

0.02

0.01

1,116

37.5

0.004

0.003

अन्य हिंदू दलित

775

61.8

0.04

0.03

1,163

37.8

0.05

0.04

हिंदू दलित

879

51.9

0.18

0.15

1,191

42.3

0.16

0.13

दलित मुसलमान

853

52.5

0.08

0.05

1,058

48.4

0.09

0.07

सभी हिंदू

1,190

36.8

0.63

0.56

1,569

27.4

0.56

0.63

सभी मुसलमान

1,046

39.2

0.23

0.25

1,237

38.6

0.29

0.24

एनएसएसओ (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय) 68वां दौर (2012)

30.4

26.1

गरीबी के स्तर में जाति-वार असमानताएं अधिक परेशान करने वाली हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे की आबादी का प्रतिशत ठाकुरों में सिर्फ 9% से लेकर लोधों और अन्य हिंदू दलितों में 61% तक है। हमारे नमूने में हिंदू और मुस्लिम दोनों में,50% से अधिक दलित गरीबी रेखा से नीचे हैं, जबकि उच्च जाति के हिंदुओं और जाटों में यह केवल 20% या उससे कम है। गरीबी की खाई उन शहरी क्षेत्रों में और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है जहाँ दलित मुसलमान ठाकुरों की तुलना में 24 गुना अधिक गरीबी (48%) का अनुभव करते हैं, और जिनका गरीबी स्तर सबसे कम (2%) है। सभी उच्च जाति के हिंदुओं में 10% से कम गरीबी है,जबकि दोनों धर्मों में जाट और कुर्मियों को छोड़कर, सभी ओबीसी जातियों में 30% और सभी दलित जातियों की आबादी 40% से अधिक है जो गरीबी रेखा से नीचे हैं।

तथापि,उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में खपत न केवल आय से संचालित होती है, बल्कि इसका विवाह और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक समारोहों पर उनकी क्षमता से अधिक खर्च (ओझा 2007) जैसे क्षेत्र-विशिष्ट उपभोग की आदतों के साथ एक मजबूत संबंध है। इसलिए, हम अन्य सामाजिक-आर्थिक संकेतकों के माध्यम से, जातियों के आधार पर आर्थिक असमानताओं की भी जांच करते हैं।

ऐतिहासिक अभाव: भूमि का स्वामित्व

भूमि का सामाजिक वितरण उत्तर प्रदेश जैसे ग्रामीण और कृषि प्रधान अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उप-जातियों द्वारा खेती योग्य भूमि का स्वामित्व पर्याप्त असमानता को दर्शाता है (चित्र 1)। सबसे अधिक भूमिहीन परिवार मुस्लिम ओबीसी और दलित मुस्लिम हैं, इसके बाद हिंदू दलितों में से पासी और चमार हैं। जबकि नमूना परिवारों में उच्च जाति के हिंदुओं में 20% के पास कुल खेती-योग्य भूमि का 30% से अधिक हिस्सा है। भूमि के अंतर्जातीय वितरण में चिंताजनक असमानताओं को दर्शाता है। कुछ जातियों के पास जनसंख्या में उनके हिस्से की तुलना में अधिक भूमि का स्वामित्व है। उदाहरण के लिए, ठाकुरों के स्वामित्व वाली भूमि का हिस्सा 11% है, जिसके बाद ब्राह्मण (15%), अन्य हिंदू जातियाँ (6%), यादव (13%), कुर्मी (4%), और जाट (8%) हैं। तथापि, उपरोक्त उप-जातियों का संबंधित अनुमानित जनसंख्या हिस्सा क्रमशः 7%, 10%, 4%, 10%, 3% और 5% है।

चित्र 1. जाति के आधार पर कृषि-योग्य भूमि का स्वामित्व (एकड़ में)

धन संचय का अभाव

जातियों में आर्थिक असमानताओं की और छानबीन करने के लिए, हमने स्व-रिपोर्ट की गई संपत्ति मूल्य जानकारी (कृषि भूमि को छोड़कर) का उपयोग करके विभिन्न उप-जाति समूहों के बीच पारिवारिक संपत्ति की स्थिति की भी जांच की। हमने पाया कि जाट (55%), ठाकुर (43%), ब्राह्मण (38%), अन्य हिंदू सामान्य (37%), और यादव (31%) का अनुपात सबसे धनी क्विंटाइल (चित्र 2) में है। दूसरी ओर, पासी, चमार और लोध के लगभग 40% परिवार सबसे गरीब धन क्विंटाइल के हैं।

चित्र 2. जाति के आधार पर, परिवारों की आर्थिक स्थिति

वित्तीय बहिष्करण: ऋण के स्रोत

हम औपचारिक बैंकिंग सेवाओं से निचली जातियों के बहिष्करण के माध्यम से वित्तीय बहिष्करण का आकलन करते हैं। तालिका 3 उप-जाति समूहों द्वारा लिए गए ऋण के स्रोतों को दर्शाती है। हम पाते हैं कि औपचारिक बैंकिंग सेवाओं से ऋण के स्रोतों का निर्धारण करने में व्यक्ति की जाति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। निचली जाति के व्यक्तियों को ज्यादातर दोस्तों, रिश्तेदारों और स्थानीय साहूकारों से ऋण मिलता है, जबकि हिंदू उच्च जातियां औपचारिक बैंकिंग सेवाओं के माध्यम से असमान रूप से ऋण प्राप्त करती हैं। औपचारिक वित्तीय सेवाओं से बहिष्करण निचली जातियों को मुख्य रूप से उधार लेने के लिए अनौपचारिक वित्तीय स्रोतों पर निर्भर होने के लिए मजबूर करता है- जो उन्हें साहूकारों के ऋण जाल में फंसने के लिए सहज-संवेदनशील बनाता है और इसप्रकार गरीबी के दुष्चक्र को आगे भी बनाये रखता है।

तालिका 3. जाति के आधार पर, ऋण के मुख्य स्रोत

जाति

बैंक (सहकारी बैंकों सहित)

सहकारी क्रेडिट

सोसाइटी

पंजीकृत साहूकार

किसान क्रेडिट कार्ड

मित्र/

रिश्तेदार

अन्य साहूकार और अन्य

ब्राह्मण

27.4

2.4

0.8

41.9

20.2

7.3

ठाकुर/क्षत्रिय

31.7

2.5

0

51.7

6.7

7.5

अन्य हिंदू सामान्य

43.7

1.4

1.4

28.2

21.1

4.2

हिंदू सामान्य

32.7

2.2

0.6

42.5

15.2

6.7

मुस्लिम सामान्य

18.9

2

2.5

15.9

46.8

13.9

यादव

23.3

6.7

0

28.3

28.3

13.3

कुर्मी

16.7

4.2

2.1

27.1

47.9

2.1

जाट

15.9

4.6

0

69.3

6.8

3.4

लोध

2.6

0

23.1

12.8

38.5

23.1

अन्य हिंदू ओबीसी

15.4

1.2

2

24.9

33.3

23.2

हिंदू ओबीसी

16.2

2.7

2.6

30.5

30.4

17.6

अंसारी मुस्लिम

9.3

0

0.7

5

67.9

17.1

अन्य मुस्लिम ओबीसी

7.2

1.1

9.4

3.4

44.5

34

मुस्लिम ओबीसी

7.9

0.7

6.4

4

52.6

28.2

चमार

15.3

1.4

1.7

22.1

39.1

20.4

पासी

25.9

0

0

7.4

48.2

18.5

अन्य हिंदू दलित

11.1

1.6

0

9.5

57.1

20.6

हिंदू दलित

15.4

1.3

1.3

19

42.7

20.3

दलित मुसलमान

9.6

0

1.5

6.1

56.6

26.3

सभी हिंदू

19.6

2.2

1.8

29.6

30.8

16.1

सभी मुसलमान

11.5

1

4.1

8.9

50.9

23.6

नीति क्रियान्वयन

हम पाते हैं कि निरंतर जारी जाति के बीच के पदानुक्रम और महत्वपूर्ण जाति के बीच की असमानता राज्य में गरीबी और अन्य आर्थिक अभाव को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उच्च जाति के हिंदू और मुसलमान अपने निम्न जाति के समकक्षों की तुलना में बहुत बेहतर स्थिति में हैं। हिंदू और मुस्लिम ओबीसी और दलितों- दोनों के बीच पाई गई समूह असमानताओं की तुलना में उच्च जातियों के बीच समूह के भीतर असमानता काफी कम है। फिर भी,मौजूदा सरकारी नीतियों में समूह के भीतर के पदानुक्रम पर पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं दिया गया है। हालांकि,अति पिछड़े और अधिक पिछड़े वर्गों में ओबीसी के उप-वर्गीकरण की बढ़ती मांग का अध्ययन करने के लिए वर्ष 2017 में रोहिणी आयोग का गठन किया गया था, जिसकी रिपोर्ट अभी भी प्रतीक्षित है। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में आरक्षण के लिए एससी और एसटी के उप-वर्गीकरण पर बहस फिर से शुरू करा दी है। राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को समूह के बीच की और साथ ही समूह के भीतर की असमानता को कम करने हेतु उचित कदम उठाने चाहिए, ताकि वंचित समूहों के भीतर के सबसे वंचित समूह और भी पीछे न रह जाएँ।

मुसलमानों के बीच के जाति के अस्तित्व को अभी भी शिक्षा में व्यापक स्वीकृति नहीं मिली है और इसे राज्य द्वारा भी मान्यता नहीं है। इसके चलते, कमजोर दलित मुसलमान,जो हिंदू दलितों की तुलना में उनके समान या अधिक वंचित हैं,सरकार की सकारात्मक कार्रवाई नीतियों का लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। मुसलमानों के बीच जाति के अस्तित्व और ओबीसी और दलित मुसलमानों द्वारा झेली जा रही वंचितता के तर्क को स्थापित करने हेतु अखिल भारतीय स्तर पर आंकड़ों का भी अभाव है। हम जो उत्तर प्रदेश में देखते हैं वह शेष भारत के संदर्भ में भी सच हो सकता है। तथापि, आंकड़ों की कमी- विशेष रूप से जाति के आधार पर जनगणना न होने से शोधकर्ता शेष भारत की आबादी के बारे में ऐसा ही आकलन नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार, भारत में सभी सामाजिक समूहों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए नीतियों को डिजाइन करने हेतु जाति के आधार पर जनगणना करना बहुत महत्वपूर्ण है।

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टिप्पणियाँ:

1.जाति व्यवस्था में चार पदानुक्रमित समूह,या वर्ण शामिल हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। आज दलितों के रूप में माने जानेवाले कुछ जनसंख्या समूहों को ऐतिहासिक रूप से वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा गया था और उन्हें अछूत माना जाता था, और प्रत्येक वर्ण के भीतर और दलितों में सैकड़ों वर्ण या जातियाँ हैं (मुंशी 2019)।

2.छह सामाजिक-धार्मिक समूह हिंदू सामान्य (उच्च जाति के हिंदू),मुस्लिम सामान्य (उच्च जाति के मुस्लिम),हिंदू ओबीसी, मुस्लिम ओबीसी, हिंदू दलित और दलित मुस्लिम हैं (कुमार एवं अन्य 2020, त्रिवेदी एवं अन्य 2016ए, त्रिवेदी और अन्य 2016बी)।

लेखक परिचय: श्रीनिवास गोली सेंटर फॉर द स्टडीज इन रीजनल डेवलपमेंट, स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में जनसंख्या अध्ययन में सहायक प्रोफेसर हैं। छवि तिवारी वर्तमान में आइडियाज फॉर इंडिया की संपादकीय टीम में कॉपी एडिटर (हिंदी) और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डेमोग्राफिक स्टडीज (आईएनईडी), पेरिस में पोस्टडॉक्टरल शोधकर्ता हैं।

1 Comment:

By: Deepak kumar

मैं व्यक्तिगत रूप से इस प्रकार की जानकारियों से वंचित होता हूँ इस लिए मुझे वर्तमान में हो रहे बदलावों और नए खोजों से जुड़ने का यह सही स्थान लगता है। आज जिस तरह टेक्नोलॉजी का दुरुपयोग कर झूठी और बेतुकी बातें प्रचारित की जा रही है खासकर फसेबूक और व्हाट्सएप के माध्यम से, इसे समझने और खुद के लिए अपने से जुड़े लोगों के लिए और तार्किक फैसला लेने के लिए यह पेज लाभकारी है।

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