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भारत में समाचार पत्र बाज़ार के राजनीतिक निर्धारक

  • Blog Post Date 28 फ़रवरी, 2024
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समाचार पत्र भारतीय मतदाताओं के लिए राजनीतिक जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। लेख में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि राजनीतिक कारक समाचार पत्र बाज़ार को किस तरह से प्रभावित करते हैं। 2000 के दशक के मध्य में की गई परिसीमन की घोषणा को एक बाहरी झटके के रूप में मानते हुए, यह पाया गया कि उन जिलों में समाचार पत्रों के प्रसार में वृद्धि हुई थी, जिनका चुनावी महत्त्व घोषणा के बाद बढ़ गया था। देखा गया कि, अल्पावधि में यह परिवर्तन आपूर्ति में बदलाव से प्रेरित था, क्योंकि मतदाता अभी भी राजनीतिक झटके से अनजान थे।

राजनीतिक परिणामों के सन्दर्भ में, सभी प्रकार के मीडिया से प्राप्त जानकारी मायने रखती है और इस जानकारी में कौन निर्वाचित होता है, संसाधन कैसे वितरित किए जाते हैं, और कौन से मुद्दे विशेष रूप से प्रमुख होते हैं इस से जुड़ी जानकारी शामिल होती है (देखें बेस्ली और बर्जेस 2002, स्रूमबर्ग 2004, जेंट्ज़को 2006, जॉर्ज और वाल्डफोगेल 2006, स्नाइडर और स्रूमबर्ग 2010, जेंट्ज़को एवं अन्य 2011, गवाज़ा एवं अन्य 2019)। इसलिए मतदाताओं को कितनी और किस प्रकार की जानकारी मिलती है, उसका बहुत बड़ा राजनीतिक महत्त्व है। फिर भी, हम सूचना के इस प्रदर्शन के निर्धारकों और विशेष रूप से इसके राजनीतिक निर्धारकों के बारे में बहुत कम जानते हैं। समग्र मीडिया बाज़ार किस हद तक राजनीतिक कारकों पर निर्भर करता है?

मीडिया बाज़ार के विकास को आकार देने वाले सभी कारकों को देखते हुए जिनमें से अधिकांश को अनुभवजन्य रूप से समझना कठिन है, राजनीतिक कारकों और समाचार पत्र बाज़ार के बीच के सम्बन्धों का अध्ययन करना आसान नहीं है। इसके अलावा, राजनीतिक नेताओं के इस बारे में खुलकर आगे आने की बिलकुल सम्भावना नहीं है कि वे समाचारों को किस प्रकार से प्रभावित करना चाहते हैं। हम अपने एक शोध-आलेख (कैगे, कैसान और जेन्सेनियस 2023) में, भारतीय समाचार पत्रों के बारे में एक मूल डेटासेट बनाते हैं ताकि भारत भर के समाचार पत्र बाज़ारों पर राजनीतिक माहौल में एक बड़े बदलाव अर्थात प्रशासनिक जिलों के सापेक्ष चुनावी महत्त्व में बदलाव के प्रभाव की यथोचित पहचान की जा सके।

भारत में समाचार पत्र बाज़ार

समाचार पत्र भारत में राजनीतिक जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। रेडियो, टीवी और सोशल मीडिया जैसे अन्य मीडिया भी महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन भारतीय मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा नियमित रूप से समाचार पत्र पढ़ता है (मीडिया रिसर्च यूज़र्स काउंसिल, 2017)। और भारत में दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा समाचार पत्र बाज़ार मौजूद है। समाचार पत्र रजिस्ट्रार के कार्यालय के अनुसार, मार्च 2018 में भारत में 1,18,000 से अधिक समाचार प्रकाशन थे और वर्ष 2017-2018 में, भारत में पंजीकृत समाचार पत्र प्रकाशनों का कुल प्रसार 43 करोड़ का था (आकृति-1 देखें)।

आकृति-1. भारत में समाचार पत्र बाज़ार का पैमाना

स्रोत : आरएनआई रिपोर्ट (2002-2017) और लेखकों द्वारा की गई गणना

इतनी बड़ी पाठक संख्या के कारण इस बात में कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत में समाचार पत्र उद्योग एक बड़ा व्यवसाय है। कोहली-खांडेकर (2013) के अनुसार, भारत के शीर्ष समाचार पत्र समूहों का परिचालन मार्जिन 25% से अधिक है। वर्ष 2018 में, प्रिंट विज्ञापन ने 210.6 अरब रुपये (इंडियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन, 2018) का राजस्व अर्जित किया और कुल प्रिंट उद्योग का राजस्व 218.9 अरब रुपयों का था। हालाँकि, इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि नेता राजनीतिक प्रभाव जैसे गैर-मौद्रिक लाभों के लिए भी समाचार पत्र बाज़ार में प्रवेश करते हैं- जेफरी (2000) का तर्क है कि "प्रभावशाली लोगों" ने नौकरशाही और राजनेताओं पर प्रभाव पाने के लिए समाचार पत्रों का अधिग्रहण किया अथवा उनकी स्थापना की। वर्ष 2013 की एक रिपोर्ट में, दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने निष्कर्ष निकाला कि "मीडिया क्षेत्र में राजनीतिक दलों/राजनेताओं के प्रभाव की प्रवृत्ति बढ़ रही है।"

हमने भारत के समाचार पत्रों के रजिस्ट्रार (आरएनआई) द्वारा प्रकाशित वार्षिक रिपोर्टों से समाचार पत्रों  का एक डेटासेट बनाया, उसे डिजिटाइज़ किया, परिशुद्ध किया और उसका जनगणना डेटा एवं राजनीतिक डेटा के साथ विलय कर दिया ताकि इस बात का अध्ययन किया जा सके कि राजनीतिक माहौल में बदलाव के साथ स्थानीय स्तर के मीडिया बाज़ार कैसे विकसित हुए हैं। इस वार्षिक सरकारी प्रकाशन में भारत के समाचार पत्रों के संसार के बारे में जानकारी, जिसमें उनके प्रकाशन का स्थान, प्रसार, भाषा और स्वामित्व शामिल है। हमारे डेटा में वर्ष 2002 से 2017 के बीच भारतीय जिलों में समाचार पत्रों की कुल संख्या और प्रति व्यक्ति उनके प्रसार के बारे में जानकारी शामिल है। हमारी जानकारी के अनुसार, यह किसी भी विकासशील देश के लिए समाचार पत्रों से सम्बंधित पहला बड़े पैमाने पर सूक्ष्म स्तर का डेटासेट है।

बहिर्जात झटके के रूप में परिसीमन

हम समाचार पत्र बाज़ारों पर चुनावी महत्त्व के प्रभाव का अनुमान लगाने के लिए, 2000 के दशक के मध्य में हुए भारतीय चुनावी निर्वाचन क्षेत्रों के नए परिसीमन की घोषणा का लाभ उठाते हैं। नए निर्वाचन क्षेत्र की सीमाएं परिसीमन आयोग द्वारा तैयार की गई थीं और अंतिम परिसीमन रिपोर्ट 2007 में प्रकाशित की गई थी, जबकि राज्य-वार मसौदा परिसीमन रिपोर्ट आम या राज्य चुनाव होने से कई साल पहले यानी वर्ष 2005 और 2007 के बीच प्रत्येक राज्य के लिए अलग से घोषित की गई थी।

परिसीमन आयोग द्वारा निर्वाचन क्षेत्र की सीमाएँ जनगणना के आँकड़ों के आधार पर तय की गईं थीं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि परिसीमन प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप का कोई सबूत नहीं है (देखें जेन्सेनियस 2013, अय्यर और रेड्डी 2013)। यह तभी हुआ जब नए परिसीमन के मसौदे सार्वजनिक रूप से प्रसारित किए गए कि नए चुनावी प्रोत्साहन राजनेताओं और हितधारकों जैसे मीडिया मालिकों के लिए स्पष्ट हो गए होंगे। आम जनता के लिए, परिवर्तनों के निहितार्थ शायद अगले चुनावों के समय ही स्पष्ट हो गए होंगे, जो कि परिसीमन का मसौदा प्रसारित होने के समय, कई साल के बाद होने वाले थे।

हालाँकि, परिसीमन का भारतीय प्रशासनिक जिलों के चुनावी महत्त्व पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। आकृति-2 चुनावी निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या में बदलाव को दर्शाती है, जिसका परिसीमन के परिणामस्वरूप प्रत्येक भारतीय जिले से चुने जाने वाले विधायकों की संख्या पर प्रभाव पड़ता है- कुछ जिलों में एक या कई निर्वाचन क्षेत्र कम हो गए जबकि अन्य जिलों में कुछ बढ़ गए। इसलिए राज्य-वार मसौदा परिसीमन रिपोर्ट का प्रकाशन प्रशासनिक जिलों के चुनावी महत्त्व के लिए एक बहिर्जात झटका माना जा सकता है। चूँकि जिलों में जनसंख्या या शिक्षा स्तर में परिवर्तन जैसे मीडिया के खपत सम्बन्धी अन्य सभी निर्धारक समय के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं, किसी जिले के चुनावी महत्त्व में अचानक हुए परिवर्तन के चलते हम समाचार मीडिया की जिला स्तरीय आपूर्ति पर पडने वाले चुनावी महत्त्व में परिवर्तनों के कारण-प्रभाव को अलग कर पाते हैं।

आकृति-2. परिसीमन के परिणामस्वरूप जिलों में राज्य विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या में परिवर्तन

 

 
मुख्य परिणाम

हमारे डेटा में वर्ष 2002 से 2017 के बीच अधिकांश भारतीय जिलों को कवर किया गया है (हम उन कुछ राज्यों को छोड़ देते हैं जहाँ उस समय परिसीमन नहीं हुआ था), समाचार पत्र बाज़ार के तेज़ी से विकास का पता चलता है। और जैसा कि हमने आकृति-3 में दर्शाया है, उन जिलों में विकास अधिक ठोस था जो अन्य जिलों की तुलना में परिसीमन की घोषणा के बाद चुनावी रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण होने वाले थे। 

आकृति-3. परिसीमन के बाद बढ़ते और घटते चुनावी महत्त्व वाले जिलों में मीडिया बाज़ारों का विकास

टिप्पणियाँ : (i) आँकड़े भारत में समाचार पत्रों की खपत में वृद्धि और टाइटल्स की संख्या को दर्शाते हैं, जो बाज़ारों (जिलों) के बीच विघटित होते हैं, जिनका चुनावी महत्त्व समय के साथ बढ़ता, घटता या स्थिर होता रहता है। (ii) लाल रेखा परिसीमन की घोषणा के समय को इंगित करती है। (iii) डेटा में केवल 14 वर्षों को कवर किया है, जिसमें सभी राज्यों में एक ही समय हुई घोषणा को देखा गया है।

स्रोत : आरएनआई रिपोर्ट और लेखकों की गणना। 

यह पैटर्न तब भी कायम रहता है जब हम वैकल्पिक स्पष्टीकरणों को खारिज करने के लिए उसमें विभिन्न ‘नियंत्रण’ शामिल करते हैं। विशेष रूप से, हम एक ‘घटना-अध्ययन दृष्टिकोण’ या इवेंट-स्टडी अप्रोच का उपयोग करते हैं (जिसमें उस जिले के वार्षिक प्रक्षेप-पथ ‘ट्रेजेक्ट्री’ की तुलना गई है जिसका चुनावी महत्त्व परिसीमन की घोषणा से पहले और बाद में अन्य जिलों की तुलना में बढ़ गया है) और एक डिफरेंस इन डिफरेंस अनुमानक (जिसमें परिसीमन की घोषणा से पहले और बाद में उन जिलों की तुलना की गई है जिनका चुनावी महत्त्व बढ़ जाता है और जिनका चुनावी महत्त्व नहीं बढ़ता है) का उपयोग करते हैं। चूँकि दोनों विधियों में राज्य-वर्ष और मीडिया बाज़ार के निश्चित प्रभाव शामिल हैं, राज्य-स्तरीय चुनावी चक्र के प्रभाव और निश्चित बाज़ार-स्तरीय विशेषताओं का हिसाब लगाया गया है।

देखि गई वृद्धि सांख्यिकीय रूप से सार्थक और आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। हमारे अनुमानों के अनुसार, जिन समाचार पत्र बाज़ारों का चुनावी महत्त्व बढ़ा, उनमें समाचार पत्रों के प्रसार में पर्याप्त वृद्धि (एक मानक विचलन के एक तिहाई तक) देखी गई। इसके अलावा, जबकि मीडिया बाज़ार स्पष्ट रूप से चुनावी महत्त्व के अलावा अन्य कारकों से प्रभावित होते हैं, हमारा अनुमान है कि परिसीमन के बाद भारत में समाचार पत्रों का 12% से 18% प्रसार चुनावी महत्त्व में इस बदलाव के कारण है।

हम दर्शाते हैं कि अनुमानित प्रभावों का परिमाण राजनीतिक प्रतिस्पर्धा (परिसीमन से पहले मापा गया) और समाचार पत्रों और उनके मालिकों की विशेषताओं, दोनों के साथ भिन्न होता है। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के विभिन्न मापों (मतदान, जीत का अंतर और राजनीतिक दलों की प्रभावी संख्या) का उपयोग करते हुए, हम यह दर्शाते हैं कि परिसीमन से पहले कमज़ोर चुनावी प्रतिस्पर्धा वाले बाज़ारों में प्रभाव अधिक ठोस है– ऐसे स्थान जहाँ राजनीतिक लामबंदी की अधिक गुंजाइश है। हम यह भी दर्शाते हैं कि स्थानीय भाषा के समाचार पत्रों पर इसका प्रभाव अधिक मज़बूत है, जिनमें स्थानीय राजनीति को कवर करने की अधिक सम्भावना है।

हम यह भी पता लगाते हैं कि क्या यह आपूर्ति या मांग है, जिससे परिणामों में बदलाव आता है। हमारे अनुमान से पता चलता है कि अल्प से मध्यम अवधि में, संतुलन में परिवर्तन आपूर्ति में बदलाव के कारण होता है। यह बात समझ आती है। जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, अल्पावधि में, राजनीतिक झटके की घोषणा तो की गई है लेकिन अभी तक इसे लागू नहीं किया गया है, इसलिए पाठकों को इसके बारे में पता होने की सम्भावना नहीं है। हालाँकि, लम्बे समय में, जब राजनीतिक माहौल में बदलाव अखबार के पाठकों को दिखाई देने लगता है, तो मांग भी एक महत्त्वपूर्ण योगदानकर्ता बन जाती है। लेकिन महत्त्वपूर्ण रूप से, हमारे परिणाम से संकेत मिलते हैं कि लम्बे समय में भी, समाचार पत्रों की मांग समाचार पत्रों की संख्या और प्रसार में वृद्धि का पूरी तरह से कारण होगी ही, ऐसा नहीं हो सकता ; समाचार पत्र बाज़ार के संतुलन को निर्धारित करने में मालिकों की राजनीतिक प्रेरणाएँ भी भूमिका निभाती प्रतीत होती हैं।

निष्कर्ष

भारत में अत्यधिक राजनीतिकरण वाले समाचार पत्र मीडिया बाज़ार के गुणात्मक साक्ष्य के अनुरूप, हम उन क्षेत्रों में समाचार पत्रों की आपूर्ति में पर्याप्त वृद्धि पाते हैं, जिन्हें परिसीमन के कारण चुनावी महत्त्व प्राप्त हुआ। हम उन बाज़ारों में समाचार पत्रों की संख्या और समाचार पत्र के प्रसार, दोनों में वृद्धि को दर्ज करते हैं जिनका चुनावी महत्त्व होता है। यह वृद्धि लगभग तत्काल है, भले ही अधिकांश स्थानों पर चुनाव अभी भी कई साल के बाद होने वाले थे और यह वृद्धि परिसीमन की घोषणा के बाद दस साल की अवधि में भी जारी है।

हमारे परिणामों में मतदान व्यवहार और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की समग्र गुणवत्ता को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण निहितार्थ मौजूद हैं। यह इस बात की पूरी तस्वीर नहीं है कि भारत का मीडिया बाज़ार किस हद तक राजनीतिकरण में तब्दील हो रहा है, बल्कि इस बात का एक साफ़ उदाहरण है कि यह राजनीतिक माहौल में हो रहे बदलावों पर किस हद तक प्रतिक्रिया करता है। जब न केवल सामग्री, बल्कि मीडिया बाज़ार का आकार भी राजनीतिक कारकों के प्रति इतना संवेदनशील है तो हमें एक ऐसी वास्तविकता का सामना करना पड़ता है जहाँ सक्रिय और व्यस्त नागरिक बनने की राह में विभिन्न मतदाताओं के शुरुआती बिन्दु काफी भिन्न-भिन्न होते हैं।

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : जूलिया कैगे साइंसेज़ पो पेरिस के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं और सार्वजनिक अर्थशास्त्र, औद्योगिक संगठन व आर्थिक इतिहास में सेंटर फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी रिसर्च (सीईपीआर) में रिसर्च फेलो भी हैं। गुइलहेम कैसान ने पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से भारत में पहचान-आधारित नीतियों के प्रभाव पर केन्द्रित विषय पर पीएच.डी. किया है जिसे फ़्रेंच इकोनॉमिक एसोसिएशन द्वारा पुरस्कृत किया गया है। फ्रांसेस्का आर. जेन्सेनियस ओस्लो विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर हैं। वह भारत-केन्द्रित तुलनात्मक राजनीति और तुलनात्मक राजनीतिक अर्थव्यवस्था की विशेषज्ञ हैं।

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