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महिलाओं के सशक्तिकरण संबंधी हस्तक्षेपों की जटिलता

  • Blog Post Date 31 मार्च, 2023
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Siwan Anderson

University of British Columbia

siwan.anderson@gmail.com

इस लेख में सीवन एंडरसन अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2023 के उपलक्ष्य में I4I पर इस महीने चल रहे अभियान के अंतर्गत महिला सशक्तिकरण के उपायों के बीच के जटिल आयामों और अंतर्क्रियाओं को सामने रखती हैं। वे महिलाओं के आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देने या लैंगिक मानदंडों को बदलने के उद्देश्य से किये जाने वाले नीतिगत हस्तक्षेपों के गंभीर और अनपेक्षित खतरों पर प्रकाश डालती हैं। वे महिलाओं की विस्तारित आर्थिक संभावनाओं, विकसित देशों से लैंगिक मानदंडों के बेंचमार्किंग और अनुसरण एवं राजनीतिक कोटा को प्रभावी बनाने के लिए क्षमता निर्माण के उपायों के बारे में परिवारों के प्रतिक्षेप के प्रति सचेत रहने के लिए नीति निर्माण का आग्रह करती हैं।

लैंगिक समानता को विकास नीति के केंद्र में रखने हेतु चल रहे दबाव से महिलाओं के कानूनी अधिकारों, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और राजनीतिक पदों में अभूतपूर्व सुधार हुआ है। फिर भी दुनिया भर में महिलाओं और लड़कियों को अत्यधिक भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है।

सुधार के अगले स्तर में पहुँचने के लिए हमें लैंगिक समानता प्राप्त करने में निहित जटिल प्रतिक्रिया तंत्रों के बारे में अपनी समझ को बढ़ाने की आवश्यकता है। महिला सशक्तिकरण एक बहुआयामी अवधारणा है जिस पर शिक्षाविदों और नीति निर्माताओं – दोनों द्वारा समान रूप से जोर दिया गया है, लेकिन विभिन्न आयाम एक-दूसरे के साथ और अधिक व्यापक रूप से समाज के साथ कैसे संबद्ध करते हैं तथा सह-विकसित होते हैं इस बात को अच्छी तरह से नहीं समझा गया है। कई नीतिगत उद्देश्यों में यह माना गया है कि महिला सशक्तिकरण के विभिन्न उपाय साथ-साथ चलते हैं। इसके विपरीत, मेरा मानना है कि यह अवधारणात्मक रूप से महिला सशक्तिकरण को कई डोमेन में व्यवस्थित तरीके से "लागू" करने के लिए उपयोगी है: जैसे परिवार के भीतर, पूरे समाज में और इसके माध्यम से मानकों को निर्धारित करने वाली गतिशीलता (एंडरसन 2022) में। यह लेख महिला सशक्तिकरण के इन अलग-अलग पहलुओं और बाहरी सामाजिक कारकों के बीच की अंतर्क्रिया की जटिलता पर प्रकाश डालता है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि आयामों में इन अंतर्क्रियाओं की अनदेखी करने से नीति के भटक जाने की संभावना होती है।

इन जटिलताओं को तीन सामान्य नीति उद्देश्यों के संदर्भ में स्पष्ट किया जा सकता है: पहला - महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देना; दूसरा - निष्पक्ष लैंगिक मानदंडों की ओर बदलाव; और तीसरा - महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण को बढ़ाना।

महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण और इस संबंध में प्रतिक्षेप

पिछले दशकों ने महिलाओं को सरकारी हस्तांतरण, माइक्रो-क्रेडिट, बचत खाते, संपत्ति, ज्ञान, प्रशिक्षण और कौशल के रूप में संसाधन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से तरह-तरह की विकास नीतियों की भरमार देखी है। इन पहलों का मूल्यांकन करते समय यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है कि गरीब देशों में विवाह को लगभग सार्वभौमिक रूप से देखा जाता है और महिलाएं आमतौर पर संयुक्त परिवारों में रहती हैं। अतः महिलाओं को सीधे लक्षित करने वाली किसी भी नीति से पारिवारिक व्यवहार के उतार-चढाव पर भी प्रभाव पड़ता है। इस वजह से, एक ही नीति के अनेक प्रकार के प्रभाव हो सकते हैं। एक महिला को आर्थिक लाभ के साथ लक्षित करने से परिवार में गतिशीलता बदल जाती है, और इसके व्यापक सामाजिक प्रभाव हो सकते हैं।

अर्थशास्त्री यह मानते हुए कि परिवार के सदस्यों की वस्तुओं के मध्य परस्पर विरोधी प्राथमिकताएँ हैं, इस व्यवहार का मॉडल बनाते हैं। पारिवारिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को सौदेबाजी के माध्यम से हल किया जाता है जहां परिवार में एक सदस्य की सापेक्ष सौदेबाजी की शक्ति और उनके बाहर के अवसरों (जैसे रोजगार) की गुणवत्ता से उनकी प्राथमिकताओं के अनुसार अधिक से अधिक पारिवारिक आवंटन होगा। इसलिए महिलाओं को आर्थिक संसाधन सीधे उपलब्ध कराये जाने से परिवार में उनका महत्त्व बढेगा।

यद्यपि यह सरल वैचारिक ढांचा समग्र नीतिगत लक्ष्यों के अनुरूप है तथापि नए-नए शोध एक अधिक जटिल तस्वीर सामने लाते हैं। सौदेबाजी की प्रक्रिया के रूप में पारिवारिक निर्णयों का मानक मॉडल यह मानता है कि सदस्यों को पूरी जानकारी है और वे अपनी बात रखने में सक्षम हैं। हालांकि इसके विपरीत महत्वपूर्ण अनुभवजन्य और प्रायोगिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। जानकारी छुपाने की क्षमता (और इच्छा) संसाधनों को आवंटित करने के तरीके को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण में सुधार लाने में अधिकांश कार्यक्रम सफल साबित हुए थे क्योंकि उन्हें इस तरह से डिज़ाइन किया गया था कि महिलाएं अपने निर्णयों को अपने जीवनसाथी से छुपा सकें (चांग एवं अन्य 2020)। इनमें बैंक खातों में पतियों से पैसा छिपाकर रखना (डुपास और रॉबिन्सन 2013, फियाला 2018) या वस्तु के रूप में अनुदान (फाफचैंप्स एवं अन्य 2014) और मोबाइल मनी डिपॉजिट जिसे पतियों द्वारा विनियोजित किए जाने की कम संभावना थी (रिले 2020), शामिल था। यह डिज़ाइन विशेषता दीर्घकालिक विकास रणनीतियों के अनुकूल नहीं है।

शोध आगे यह दर्शाता है कि कुछ संदर्भों में महिलाओं और लड़कियों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किये जाने वाले विकास कार्यक्रम अंततः उन्हें सशक्त नहीं बना सकते हैं और यहां तक ​​कि उनकी शक्ति की कमी को भी मजबूत कर सकते हैं। एक चैनल वह होगा जिसमे महिला आर्थिक सशक्तिकरण परिवार में संघर्ष की संभावना को बढ़ाता है। वास्तव में प्रतिक्षेप प्रभाव के बढ़ते प्रमाण मिलते हैं। महिलाओं के लिए उपलब्ध बढ़ते संसाधनों की वजह से उनके द्वारा प्राप्त इन नए संसाधनों को नियंत्रित करने या कम करने के लिए पुरुषों द्वारा हिंसा या हिंसा की धमकियों का उपयोग करने के लिए बल मिल सकता है ।

एंडरसन और बिडनेर (2022) सापेक्ष महिला निर्णय लेने की शक्ति और उनके प्रति जीवन-साथी द्वारा हिंसा (आईपीवी) के उपायों के बीच एक व्यवस्थित गैर-मोनोटोनिक संबंध को उजागर करते हैं। महिलाएं जब अकेले पारिवारिक निर्णय लेती हैं तो जीवन-साथी द्वारा अत्यधिक हिंसा का अनुभव करती हैं, केवल पति द्वारा परिवार के निर्णय लेने की स्थिति में उससे कम जीवन-साथी द्वारा हिंसा का और संयुक्त रूप से निर्णय लिए जाने पर जीवन-साथी द्वारा सबसे कम हिंसा होती है। परिवार के निर्णय संयुक्त रूप से लेने से जीवन-साथी द्वारा हिंसा की संभावना कम हो जाती है।

परिवारों में बहुमूल्य संघर्ष का प्रभाव स्त्री-पुरुष दोनों पर हो सकता है। एंडरसन और जेनीकोट (2015) दर्शाते हैं कि भारत में महिला संपत्ति अधिकारों में सुधार किये जाने से पुरुष और महिला दोनों की आत्महत्या दर में वृद्धि होती है। नीतियों में जब अचानक से रूढ़िवादी लैंगिक भूमिकाओं का विरोध होने लगता है तो यह पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए चरम मनोवैज्ञानिक प्रभावों को अस्थायी रूप से पैदा कर सकता है। इस संदर्भ में, निजी और सार्वजनिक – दोनों क्षेत्रों में बढ़ते सापेक्ष महिला आर्थिक सशक्तिकरण का प्रभाव होता है जो यह दर्शाता है कि पतियों, या परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों की ओर से प्रतिक्षेप न केवल पारिवारिक संसाधनों को नियंत्रित करने का एक प्रयास हो सकता है बल्कि बदलते लैंगिक मानदंडों का प्रतिरोध भी हो सकता है।

निष्पक्ष लैंगिक मानदंड उत्पन्न करना

हाल की नीतिगत पहलें इन लैंगिक पक्षपातपूर्ण मानदंडों को बदलकर सामाजिक परिवर्तन को सक्रिय रूप से प्रेरित करने की ओर उन्मुख हैं। कुछ हस्तक्षेप विशेष रूप से हानिकारक रीति-रिवाजों – जैसे बाल विवाह (बुचमैन एवं अन्य 2017) को कम करने के लिए प्रत्यक्ष मौद्रिक प्रोत्साहन उपलब्ध कराते हैं। अन्य हस्तक्षेप लैंगिक पक्षपाती मानदंडों – जैसे कि महिलाओं को घर से बाहर काम करने से रोकना - को तोड़ने के लाभों पर परिवारों को जानकारी उपलब्ध कराते हैं। (मैककेलवे 2021, डीन और जयचंद्रन 2019)। स्कूलों और कॉलेजों में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने वाले तथा पुरुषों और महिलाओं दोनों को आपसी बातचीत में शामिल करने वाले शैक्षिक अभियान सफल हुए हैं (धर एवं अन्य 2022, शर्मा 2022)। अन्य दृष्टिकोण महिला नेताओं को लैंगिक समानता के हिमायती के रूप में शामिल करते हैं या परिवर्तन के प्रतीक के रूप में महिलाओं में छोटे स्तर के सामूहिक अभियान को प्रोत्साहित करते हैं (जीजी भॉय एवं अन्य 2017ए और 2017बी)। महिला आर्थिक सशक्तिकरण के साथ मानदंडों को बदलना एक जटिल बहुआयामी प्रयास है: केवल शुरुआत की जानी है, और जो अनपेक्षित परिणाम भी मिलने की संभावना हैं, उनका पहले से अंदाज लगाना मुश्किल होगा।

अधिकांश नीतिगत पहलों में यह निहित धारणा होती है कि महिलाओं के प्रति समर्थक मानदंडों को एक साथ आगे बढ़ना चाहिए। विशेष रूप से, समाज में समग्र रूप से महिलाओं की स्थिति में सुधार करने से परिवार में उनकी स्थिति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लेकिन वैचारिक और अनुभवजन्य रूप से, चीजें अधिक जटिल हैं। एंडरसन एवं अन्य (2021) यह दर्शाते हैं कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में पुरुष प्रभुत्व के इन दो अलग-अलग क्षेत्रों को अलग करना महत्वपूर्ण हो सकता है - यह मानने के अच्छे कारण हैं कि दो क्षेत्रों के भीतर लैंगिक मानदंड जरुरी नहीं कि साथ-साथ लागू नहीं होंगे। इसका एक उदाहरण ‘पर्दा की प्रथा’ है, जो सार्वजनिक क्षेत्र में महिला के सशक्तिकरण का ही रूप है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अपने ही परिवार में निर्णय लेने की शक्ति महिलाओं के पास नहीं है।

वांछित दिशा के विपरीत चलने वाले मानदंडों का एक और अच्छा उदाहरण भारत की वह समस्या है जो आर्थिक विकास के पिछले कुछ दशकों में महिलाओं की श्रम-बल भागीदारी की दरों में गिरावट दर्शाती है। इसका एक बाध्यकारी स्पष्टीकरण ‘संस्कृतिकरण’ है: निचली जाति की महिलाएँ उच्च जाति के मानदंडों को अपनाती हैं या उनकी नकल करती हैं - इस मामले में, पर्दा प्रथा का पालन करना या घर से बाहर काम नहीं करना (क्लासेन और पीटर 2012) है। ऐसा करना निम्न जातियों द्वारा उच्च स्थिति समूहों के अधिक कठोर महिला-प्रतिबंधात्मक मानदंडों का अनुकरण करके अपनी सामाजिक स्थिति को उन्नत करने की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित कर सकता है। महिलाओं के विकल्पों में यह कमी और शायद महिलाओं के बिगड़ते कल्याण का अनुमान लगाना इतना आसान नहीं था।

लैंगिक मानदंडों के लागू किये जाने और उनके बेंचमार्किंग से जुड़ी आशंकाएं

सामाजिक परिवर्तन की दिशा पर केंद्रित नीतिगत मंचों में, अधिक विकसित देशों में अक्सर ऐसा होता है कि लैंगिक मानदंडों का उपयोग बेंचमार्क के रूप में किया जाता है। जब ऐसा होता है तो हमें सावधानीपूर्वक उन स्थितियों पर विचार करने की आवश्यकता होती है जिसके तहत एक समाज के लैंगिक मानदंड दूसरे समाज में महिला परिणामों को बेहतर बनाने के लिए काम आएंगे। लैंगिक मानदंड अन्य मानदंडों से मौलिक रूप से भिन्न हैं जिनका कोई मोल नहीं होता है यदि महिलाओं को कुछ अधिक दिया जाता है तो यह अक्सर पुरुषों से लेकर दिया जाता है। इसी कारण से सामाजिक प्रतिक्षेप (कड़ी प्रतिक्रिया) की घटना इतनी प्रचलित है और इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। विकसित देशों में महिला-समर्थक मानदंड में किये गए बदलाव के टेम्पलेट का उपयोग आवश्यक नहीं कि दूसरे स्थानों में नीति के लिए एक मानक मार्गदर्शिका के रूप में काम आए।

यह उम्मीद करने का कोई कारण नहीं है कि वर्तमान में विकासशील देशों में हो रहे सांस्कृतिक परिवर्तन पश्चिम में अपनाई गई परम्पराओं की नकल करेंगे। आज विकसित दुनिया में इस तरह के मानदंड कैसे बदलते दिखाई देते हैं - यह भी दर्शाता है कि समान आर्थिक दबावों के अधीन स्थानीय संस्कृतियाँ अलग-अलग तरीकों से बनी रह सकती हैं या बदल सकती हैं। इसके अलावा, संरचनात्मक परिवर्तनों का समय अलग है। विकासशील देशों ने आज विशेष रूप से शिक्षा के विस्तार और सेवा क्षेत्र में विकास के बहुत निचले स्तर पर विकास का अनुभव किया है, जब उन्होंने पश्चिम का अनुसरण किया था। उनके कानूनी संदर्भ भी स्पष्ट रूप से भिन्न हैं। आज के विकासशील देशों को आमतौर पर अपने पूर्व उपनिवेशवादियों के औपचारिक कानूनी ढांचे विरासत में मिले हैं, जो पश्चिम में विकास के तुलनीय स्तरों पर प्रचलित कानूनी संरचनाओं की तुलना में अधिक प्रगतिशील और महिलाओं के अनुकूल हैं। साथ ही साथ, स्वाभाविक रूप से लैंगिक पक्षपाती मानदंड – जैसे कि सेक्स-चयनात्मक गर्भपात, दहेज हिंसा, बहुविवाह और महिला जननांग विकृति भी अस्तित्व में हैं। ऐसे मानदंड आज के विकसित देशों में महिला-समर्थक मानदंडों के संक्रमण के दौरान भी कहीं भी व्यापक रूप से अस्तित्व में नहीं थे।

महिला राजनीतिक सशक्तिकरण की योग्यता

निर्वाचित कार्यालय में लैंगिक समानता एक वैश्विक प्रतिबद्धता बन गई है। आज की तिथि में 137 देश महिलाओं के लिए संवैधानिक, चुनावी, या राजनीतिक पार्टी कोटा का अनुसरण करते हैं। कई विकासशील देश इस मामले में विकसित देशों से आगे निकल गए हैं। महिला नेतृत्व को आश्वस्त करने का सबसे सीधा तरीका महिलाओं के लिए राजनीतिक सीटें आरक्षित करना है। महिलाओं को राष्ट्रीय या उप-राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक सीटें आरक्षित करने वाले नीतियां केवल कम विकसित देशों में मौजूद हैं और ऐसी नीतियां पश्चिम में लागू नहीं होती हैं।

भारत ने वर्ष 1992 में संविधान के 73वें संशोधन ने महिलाओं के लिए पंचायती राज संस्थानों के गांव, ब्लॉक और जिला स्तर की परिषदों में एक तिहाई सीटें आरक्षित रखना अनिवार्य करते हुए इसका आगाज किया। इसके अलावा, इन परिषदों के अध्यक्षों के कम से कम एक तिहाई कार्यालय भी महिलाओं के लिए आरक्षित थे। हाल ही में, कई राज्यों ने इस महिला प्रतिनिधित्व को बढ़ाकर 50%1 कर दिया है। भारत न केवल स्थानीय राजनीति में बड़े पैमाने पर महिला कोटा को लागू करने में विश्व में अग्रणी था, बल्कि चुनाव चक्रों के दौरान मतदान वार्डों में बारी-बारी से महिला कोटा लागू किया, इसका महिलाओं को नेतृत्व के पदों पर रखने के प्रत्यक्ष प्रभाव के विश्लेषण के लिए सबसे व्यापक रूप से स्वाभाविक अध्ययन किया गया। 

महिला सशक्तिकरण के अन्य उपायों की तरह, मानवीय दृष्टिकोण से, महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ाना अपने आप में एक लक्ष्य है। ऐसे प्रेरक तर्क भी हैं कि महिलाओं का नेता के रूप में होना समाज को पसंदीदा तरीकों से प्रभावित कर सकता है। महिला नेतृत्व इक्विटी बढ़ा सकता है, और अगर महिला राजनेता कम भ्रष्ट और अधिक परोपकारी हैं तो वह महिलाओं की जरूरतों या दक्षता को बेहतर तरीके से समझ सकती  हैं। यदि महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग नीतिगत प्राथमिकताएँ हैं, तो महिलाओं के राजनीतिक एजेंडे के माध्यम से बाल स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश में वृद्धि हो सकती है, और इस प्रकार विकास के लिए सकारात्मक दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं। 

30 साल पूर्व भारत सरकार द्वारा अपनाई गई दूरदर्शी और अभूतपूर्व नीतियों की कृतज्ञता से अब यह सुझाव देने के लिए पर्याप्त अनुभवजन्य साक्ष्य उपलब्ध हैं कि सार्वजनिक कार्यालय में महिलाओं के होने से वास्तव में फर्क पड़ता है। इन नीतियों द्वारा अनिवार्य किये गए महिला राजनीतिक प्रतिनिधित्व के कारण - ग्राम सरकारों द्वारा चुने गए सार्वजनिक वस्तुओं और व्यय के प्रकारों को प्रभावित किया है (चट्टोपाध्याय और डफ्लो 2004); लड़कियों की शैक्षिक उपलब्धि में वृद्धि (बीमन एवं अन्य 2012) की; महिलाओं की आकांक्षाओं, उपलब्धियों और राजनीतिक जुड़ाव को आगे बढ़ाया (बीमन और अन्य 2009, बीमन और अन्य 2011); महिला राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बनाए रखा (भवानी 2009); और नेतृत्व के पदों पर महिलाओं के प्रति पुरुषों की धारणा में भी सुधार (बीमन एवं अन्य 2009) हुआ है। 

हालाँकि सामाजिक संदर्भ मायने रख सकता है। अफरीदी एवं अन्य (2017) महिला प्रमुखों के लिए आरक्षित ग्राम परिषदों में नरेगा की अधिक अक्षमताओं और कमियों को उजागर करते हैं क्योंकि उनकी राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभवहीनता उन्हें नौकरशाही के प्रभाव के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है। उनके निष्कर्ष इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि किस प्रकार से महिलाओं के लिए राजनीतिक कोटा की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए उनके क्षमता निर्माण की आवश्यकता है। दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल के एक अध्ययन से पता चलता है कि राजनीति में प्रवेश करने वाली महिलाओं में पुरुषों की तुलना में बेईमान व्यवहार में लिप्त होने की संभावना कम होती है, लेकिन यह लैंगिक अंतर कार्यालय में उनके द्वारा बीताये गए समय के साथ कम हो जाता है (चौधरी और अन्य 2022)। व्यापक भ्रष्टाचार के संदर्भ में, महिलाएं भी अंततः स्थानीय राजनीतिक संस्कृति में घुल-मिल जाती हैं। अतः एक बार फिर, इस दिशा में स्थायी परिवर्तन हेतु स्थानीय राजनीतिक संस्कृति में बदलाव के साथ महिला प्रतिनिधित्व में वृद्धि की आवश्यकता होगी। 

सार्वजनिक कार्यालय में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में वृद्धि पर यह ध्यान सर्वोपरि लगता है, क्योंकि अच्छी तरह से काम करने वाली औपचारिक राजनीतिक संस्थाएँ आर्थिक विकास के लिए आवश्यक हैं। लेकिन यह देखते हुए कि कई विकास संदर्भों में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां राज्य की पहुंच कमजोर हो सकती है, अनौपचारिक संस्थाएं भी प्रमुख भूमिका निभा सकती हैं। भारत के राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन द्वारा लाया गया स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) का बढ़ता जाल एक ऐसा ही उदाहरण है। महिलाओं द्वारा संचालित स्वयं-सहायता समूह आम तौर पर सामूहिक ऋण और वित्तीय सहायता के लिए स्थापित किए जाते हैं लेकिन जल्दी ही वे राजनीतिक रूप से प्रेरित हो जाते हैं। उपलब्ध साक्ष्य दर्शाते हैं कि सदस्यों द्वारा मतदान करने (और अपनी पसंद के अनुसार मतदान करने), ग्राम परिषद की बैठकों में भाग लेने और स्थानीय नेताओं को जवाबदेह ठहराने की संभावना अधिक होती है (कुमार एवं अन्य 2019, प्रिलमैन 2021)। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि स्वयं-सहायता समूह मतदान को सुरक्षित करने के लिए राजनीतिक दलों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। 

सामान्य तौर पर, इस तरह की अनौपचारिक महिला राजनीतिक संस्थाओं और अधिक औपचारिक राजनीतिक प्रशासनिक संरचनाओं के बीच अंतर्क्रिया के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। एक बार फिर, हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण साथ-साथ कारगर है। यहाँ औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों के बीच की भिन्नता और अंतःक्रियाएँ प्रासंगिक प्रतीत होती हैं। अतः हमें किसी संस्था के पारंपरिक क्रम को अलग करते समय सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि इसके व्यापक राजनीतिक प्रभाव होने की संभावना है। 

टिप्पणी:

  1. आंध्र प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, त्रिपुरा, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, मणिपुर, राजस्थान, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को 50% तक बढ़ने वाले राज्य। 

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लेखक परिचय: सिवान ऐन्डर्सन यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं।

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