शासन

ड्यूएट: रोजगार सृजन को शहरी स्थानीय निकायों में विकेंद्रीकृत करना

  • Blog Post Date 26 सितंबर, 2020
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Dilip Mookherjee

Boston University

dilipm@bu.edu

दिलीप मुखर्जी रोजगार सृजन को शहरी स्थानीय निकायों में विकेंद्रीकृत करने के ज्यां द्रेज़ के सुझाव का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि अभी तक शहरी स्थानीय सरकार के अशक्‍त स्वभाव के कारण शहरी नवीकरण, स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य की उपेक्षा की गयी है। हालांकि वित्‍त-पोषण के साथ-साथ भ्रष्टाचार के मुद्दों और राजनीतिकरण की संभावना पर भी गहन विचार करने की आवश्यकता है।

मैं यह काफी समय से सोच रहा हूँ कि भारत के शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक रोजगार कार्यक्रम के विचार को आगे क्यों नहीं बढ़ाया गया है। शहरी गरीबों के लिए किसी प्रकार के रोजगार और आय सुरक्षा के साथ शहरी नवीकरण, स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करने की बहुत आवश्यकता है, जो देश में सबसे महत्वपूर्ण आवश्‍यकताओं में से एक है और जिस पर अभी तक ध्‍यान नहीं दिया गया है। इसका एक कारण शहरी स्थानीय सरकार की अशक्‍त प्रकृति रही है, जिसे संविधान के 74वें संशोधन द्वारा उस प्रकार सक्रिय नहीं किया गया है जैसा कि 73वें संशोधन के बाद से ग्रामीण पंचायतों को सक्रिय किया गया था। इसके परिणामस्‍वरूप शहरी निकायों को शक्ति और वित्त प्रदान करने में राज्य सरकारों की अनिच्छा के कारण यह समस्‍या उत्‍पन्‍न हो गई है। इसलिए ड्रेज का यह सुझाव कि रोजगार सृजन को विभिन्न स्थानीय निकायों में विकेंद्रीकृत कर दिया जाए, एक उत्कृष्ट सुझाव है।

बेशक, एक सार्वजनिक रोजगार कार्यक्रम की भूमिका के संबंध में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच कुछ महत्वपूर्ण असमानता हैं। शहरी क्षेत्र इस प्रकार की मौसमी बेरोजगारी के अधीन नहीं हैं, इसलिए बीमा का मसला नहीं है। बुनियादी ढांचे की जो जरूरतें हैं वो अलग हैं, जैसा स्वच्छता, सार्वजनिक स्वास्थ्य, आवास, परिवहन और भीड़भाड़ की समस्याएं भी हैं। ड्यूएट प्रस्ताव एक रोजगार गारंटी योजना नहीं है। इसके बजाय यह शहरों में उपयुक्‍त शहरी कचरा संग्रह/स्वच्छता और सार्वजनिक बुनियादी ढांचे/सामूहिक स्थान प्रदान करने में विफलता की समस्‍या का पूरी तरह से एक अलग समाधान प्रदान करता है। इसी के साथ ऐसे शहरी बेरोजगार भी बड़ी संख्‍या में हैं जो असामाजिक गतिविधियों की ओर रुख करने के बजाय काम करने और आजीविका कमाने के लिए उत्सुक है। यह एक दीर्घकालिक आवश्‍यकता है, कोविड-19 के प्रभावों को दूर करने जैसी तात्‍कालिक आवश्‍यकता नहीं है। शहरी नवीकरण और स्वच्छ भारत अभियान पिछले एक दशक में सरकार के एजेंडे में रहा है। लेकिन शहरों में उल्‍लेखनीय प्रगति करने के लिए शहरी स्थानीय सरकार या वित्त में कोई सुधार नहीं हुआ है। राज्य सरकारों के पास ऐसा करने की इच्छा या साधन नहीं है। इसलिए केंद्र सरकार को इसमें हस्‍तक्षेप करते हुए एक तंत्र बनाने और इसके लिए धन मुहैया कराने की आवश्यकता है।

एक तरफ, शहरी बुनियादी ढांचे की व्यापक भूमिका पर निरंतर उपलब्ध शोधों में दिखाया गया है कि भारत में विकास, ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों में संरचनात्मक परिवर्तन की असाधारण धीमी दर के कारण बाधित हुआ है। स्थायी प्रवासन कम है, जबकि ग्रामीण आजीविका बढ़ती आबादी के दबाव से प्रभावित हो रही है जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि तेजी से बंटती जा रही है। स्कूल में नामांकन बढ़ रहे हैं और आज शिक्षित युवाओं की आकांक्षाएं ग्रामीण के बजाय शहरी जीवनशैली अपनाने की हैं। शहरी-ग्रामीण मजदूरी-दरों में अंतर अधिकांश अन्य एशियाई देशों की तुलना में अधिक हैं, जो प्रवासन से अभी तक अनर्जित लाभ का संकेत देते हैं। फिर भी प्रवास की वास्तविक दरें विशेष रूप से स्थायी प्रवास की दरें कम हैं। जबकि कई स्पष्टीकरण दिए गए हैं, मुझे यह लगता है कि इस समस्या का कुछ अंश शहरी क्षेत्रों में अच्छी नौकरियों के सृजन की असामान्य रूप से धीमी दर है, और इसके साथ शहरों में भारी गंदगी, अधिक भीड़भाड़, उचित आवास, परिवहन और आय सुरक्षा तंत्र की कमी भी जुड़ जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वहां बड़ी मात्रा में अस्‍थायी प्रवासन होता है जो किन्‍ही खास परियोजनाओं से जुड़ा होता है: एक बार परियोजना समाप्त हो जाने के बाद श्रमिक अपने गाँव लौट जाते हैं क्योंकि उनके पास न तो शहर में कमाई के अवसर होते हैं और न ही उन्‍ह‍ें भयानक बुनियादी ढाँचे के कारण अच्छी गुणवत्ता वाला जीवन मिलता है। यहां तक ​​कि वे फर्में जो श्रमिकों को प्रशिक्षित करने की कोशिश करती हैं, वे पाती हैं कि प्रशिक्षण के बाद उन्हें अपने साथ बनाए नहीं रख सकतीं - मुझे लगता है कि इसका भी यही कारण है। चीन की विकास रणनीति के सबसे स्पष्ट कारकों में से एक कारक सक्रिय शहरी सरकार है जिसके पास शक्तियां और धन है, उनके उद्यमी मेयरों ने ऐसा शहरी बुनियादी ढाँचा विकसित करने में अद्भुत कार्य किया है जो प्रवासियों को उचित आवास और सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करते हैं, जिसके कारण वे वहीं रहना चाहते हैं और साथ ही वहां एक ऐसा वातावरण तैयार किया जाता है जिसमें निजी निवेश का स्वागत किया जाता है और उसे लगातार बनाए रखता है।

निश्चित रूप से ड्यूएट इन सभी समस्याओं को एक साथ हल नहीं करेगा। लेकिन यह सही दिशा में उठाया गया एक कदम साबित होगा। शहरी स्थानीय सरकारें अपर्याप्त राजकोषीय क्षमता, संसाधनों, श्रमशक्ति, राज्य सरकार के निकायों के साथ अधिकार क्षेत्रों की दखलअंदाजी, और राजनीतिकरण से उत्पन्न दीर्घकालिक कमजोरियों से त्रस्त हो गई हैं। इसका एक कारण राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय सरकारों को कम मात्रा में धन और जिम्मेदारियां सौंपना, और उपयुक्त विधानों तथा स्थानीय संपत्ति करों एवं उपयोगकर्ता शुल्क के कार्यान्वयन में कमी है (राव और बर्ड 2010, झा 2020)। ड्यूएट में रोजगार के अवसरों के प्रावधान को विभिन्न स्वीकृत संस्थानों में विकेंद्रीकृत करने की खासियत है। साथ ही, श्रमिकों को एक स्वतंत्र प्लेसमेंट एजेंसी द्वारा नियोक्ताओं को भेजा जाता है। इसके काफी मायने हैं क्योंकि किसी भी संस्था में रोजगार की जरूरत आम तौर पर एक समय या अल्पकालिक प्रकृति की होती है, और श्रमिकों की खोज और उनके प्लेसमेंट को समन्वित करने की आवश्यकता होगी जो नगरपालिका क्षेत्र में फैले हुए विभिन्न नियोक्ताओं से प्राप्‍त होने वाले रोजगार की तलाश में हैं। द्रेज़ विभिन्न अन्य कार्यों को जोड़ते हैं: श्रमिक के कौशल को प्रमाणित करना, शोषण के खिलाफ श्रमिकों की रक्षा करना, सामाजिक लाभ प्रदान करना (और प्रशिक्षण, मैं जोड़ सकता हूँ)।

इसके साथ-साथ रोजगार संस्थान से अलग होने का लाभ भी है जो कि मिली-भगत की समस्याओं को कम करने में मदद करता है। भ्रष्टाचार की समस्याओं और राजनीतिकरण की संभावनाओं (उदाहरण के लिए, सत्‍ताधारी राजनीतिक दल द्वारा कब्जा कर लिया जाना और एक ग्राहकवादी साधन के रूप में उपयोग किया जाना) को कैसे कम किया जा सकता है, इस पर और अधिक विचार करने की आवश्‍यकता है। ड्रेज प्लेसमेंट एजेंसी के लिए विभिन्न विकल्पों का उल्लेख करते हैं, जिसमें स्वयं नगरीय सरकार, कोई श्रमिक सहकारी संस्था या गैर सरकारी संगठनों द्वारा संचालित कई प्लेसमेंट एजेंसियां ​​शामिल हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से तीसरे विकल्प के पक्ष में हूँ क्‍योंकि यह भ्रष्‍टाचार और राजनीतिकरण दोनों की गुंजाइश को कम करता है क्‍योंकि विभिन्न एजेंसियां ​​एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करती हैं इसलिए रिश्वत के लिए गुंजाइश कम होती है। ऐसे मुद्दे भी आएंगे कि कई प्लेसमेंट एजेंसियों में काम ढू़ंढने वाले श्रमिकों द्वारा दुर्व्यवहार को कैसे रोका जाए, और इसलिए सुरक्षा उपायों के साथ एक सामान्य सूचना मंच बनाना आवश्यक होगा। साथ ही, पर्यवेक्षण और ऑडिटिंग तंत्र की भी जरूरत होगी। और यह सब आसानी से संभव है।

दूसरा मुद्दा वित्‍तपोषण का है। विशेष रूप से वर्तमान समय में वित्‍तपोषण का एक बड़ा हिस्सा केंद्र सरकार से आना होगा, इसलिए यह एक और बड़ा केंद्र प्रायोजित कार्यक्रम होगा। मैं व्यक्तिगत रूप से इसके पक्ष में हूँ, लेकिन यह जानने के लिए भी उत्‍सुक हूँ कि केंद्र सरकार इसके लिए किस प्रकार निधि उपलब्‍ध कराएगी, और नए राजकोषीय संघवाद के साथ यह कितना सुसंगत होगा। केंद्र सरकार महामारी के बीच अभी इस प्रक्रिया को एक विशेष प्रोत्साहन उपाय के रूप में शुरू कर सकती है, लेकिन उपयुक्‍त समय आने पर निश्चित रूप से इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों को वापस सौंपनी होगी। मुझे लगता है कि इन व्‍यापक मुद्दों पर और अधिक चर्चा करना ज़रूरी है।

 

लेखक परिचय: दिलीप मुखर्जी बोस्टन यूनिवरसिटि में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं, जहाँ वे 1998 से इंस्टीट्यूट ऑफ इकनॉमिक डेव्लपमेंट के निदेशक भी हैं।

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