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ट्रम्प द्वारा लागू किए गए टैरिफ और भारत की रणनीतिक प्रतिक्रिया

  • Blog Post Date 16 सितंबर, 2025
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अमेरिका द्वारा भारत से आयात पर 50% टैरिफ दर लगा देने पर भारत-अमेरिका के बीच व्यापार संबंधों में अचानक और तेज़ी से गिरावट आई है। गुलाटी, राव और सुंतवाल ने इस लेख में, इस बात पर प्रकाश डाला है कि इसका प्रभाव मुख्य रूप से लाखों लोगों की आजीविका बनाए रखने वाले श्रम-प्रधान क्षेत्रों पर केन्द्रित है। वे एक बहुआयामी रणनीतिक प्रतिक्रिया- अमेरिका के साथ समझदारी भरी बातचीत, बुरी तरह से प्रभावित क्षेत्रों को तत्काल और लक्षित राहत, निर्यात बाज़ारों का विविधीकरण, और प्रतिस्पर्धात्मकता बहाल करने के लिए मज़बूत घरेलू सुधार का सुझाव देते हैं।

पिछले कुछ महीनों से भारत-अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता चल रही है और भारत का दृष्टिकोण आक्रामक नहीं बल्कि रचनात्मक रहा है। हालांकि, 500 अरब अमेरिकी डॉलर के व्यापार लक्ष्य की ओर आशाजनक गति के साथ शुरू हुआ यह कदम अब टैरिफ बढाने की धमकियों और राजनीतिक युद्ध में फँस गया है। ट्रम्प ने भारत पर कुल 50% शुल्क (जो 27 अगस्त से प्रभावी है) लगाया और हालात उलट गए। इन कदमों को द्वितीयक प्रतिबंध कहा गया है और इन्हें रूस के मुख्य ऊर्जा साझेदारों, जिनमें से एक भारत भी है, के विरुद्ध कार्रवाई के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

ये घटनाक्रम अमेरिकी दृष्टिकोण में एक स्पष्ट बदलाव को दर्शाते हैं। कभी व्यापार घाटे को संतुलित करने और घरेलू नौकरियों की सुरक्षा करने के उद्देश्य से लागू होने वाले टैरिफ अब दबाव की रणनीति के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। अमेरिका के साथ 45.7 अरब अमेरिकी डॉलर के व्यापार घाटे के साथ भारत को चीन (व्यापार घाटा मूल्य- 295.4 अरब अमेरिकी डॉलर, टैरिफ दर- 30%), यूरोपीय संघ (235.6 अरब अमेरिकी डॉलर, 15%), या मैक्सिको (171.8 अरब अमेरिकी डॉलर, संयुक्त राज्य अमेरिका-मेक्सिको-कनाडा समझौते के तहत 0%) की तुलना में अधिक टैरिफ का सामना करना पड़ता है। भारत के विदेश मंत्रालय ने इन कार्रवाइयों को अनुचित, अन्यायपूर्ण और अविवेकी बताया है। रूस से भारत का तेल आयात अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अंतर्गत है और वैश्विक मूल्य सीमा प्रणाली1 का पालन किया जाता है, जिससे दुनिया भर में तेल की कीमतें स्थिर रखने में मदद मिलती है। वहीं, वर्ष 2024 में यूरोप में रूस से 41.6 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य की वस्तुओं का  आयात किया गया, जबकि भारत से केवल 64.2 अरब अमेरिकी डॉलर की तुलना में अमेरिका से 3.2 अरब अमेरिकी डॉलर की तथा चीन से 129.07 अरब अमेरिकी डॉलर की वस्तुएं ली गईं।

रूस से भारत का कच्चा तेल आयात

विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) के अनुसार, वित्त वर्ष 2024-25 में भारत का कच्चा तेल आयात (एचएसएन 2709)2 143.08 अरब अमेरिकी डॉलर रहा, जिसमें रूस का हिस्सा 35% था। मुख्य चर्चा इस बात पर केन्द्रित है कि विश्व बाज़ार की कीमतों की तुलना में, 60 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल की मूल्य सीमा के तहत रियायती दरों पर रूसी कच्चे तेल की आपूर्ति से भारत को वास्तव में कितना लाभ होता है। वर्ष 2024 में, भारत (52.2 अरब अमेरिकी डॉलर) और चीन (62.3 अरब अमेरिकी डॉलर) रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदार बनकर उभरे, और दोनों ने मिलकर रूस के कुल कच्चे तेल निर्यात (122.5 अरब अमेरिकी डॉलर) का बड़ा हिस्सा (अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केन्द्र ट्रेडमैप के अनुसार) आयत किया। भारत के लिए, रियायती रूसी आपूर्ति से वर्ष 2024 में तेल आयात बिल अनुमानित 7-10 अरब अमेरिकी डॉलर तक कम हो गया। हालांकि अब छूट का मार्जिन लगभग 2.2 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल तक हो गया है, फिर भी रूसी कच्चा तेल एक सस्ता विकल्प बना हुआ है।

हालांकि अक्सर रूसी तेल से भारत की 'बचत' पर ज़ोर दिया जाता रहा है, पीटर नववारो तर्क देते हैं  कि इन आयातों के प्राथमिक वित्तीय लाभार्थी छोटे उद्यम या उपभोक्ता नहीं हैं, बल्कि बड़े निगम हैं। हालांकि पहली नज़र में ऐसा लगता है कि तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) (21%), रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड (19%), और हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एचपीसीएल) (18%) जैसी बड़ी तेल रिफाइनरियाँ इन लाभों का बड़ा हिस्सा हासिल करती हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश (ओएनजीसी और एचपीसीएल सहित) सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयाँ हैं। इन लाभों से घरेलू ईंधन की कीमतों को स्थिर रखने में मदद मिलती है, जिससे परिवारों और छोटे व्यवसायों को वैश्विक अस्थिरता से सुरक्षा मिलती है (आकृति-1)।

लेकिन यह बचत कई नुकसानों के साथ आती है। सस्ते ऊर्जा आयात को प्राथमिकता देकर (अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के हिस्से के रूप में), भारत अब अमेरिका से द्वितीयक प्रतिबंधों के खतरे का सामना कर रहा है, जिससे ख़ासकर कपड़ा और परिधान, जूते, रत्न और आभूषण और कृषि जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्रों में लगभग 60 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य के निर्यात को खतरा हो सकता है, जिनके ज़रिए लाखों लोगों को नौकरियाँ टिकी हुई हैं।

आकृति-1. वित्त वर्ष 24-25 में भारतीय कंपनियों द्वारा रूसी तेल का आयात

स्रोत : एसएंडपी पंजीवा, 2024-25.

इसके अलावा, भारत की तेल खरीद को उसकी व्यापक भू-राजनीतिक-आर्थिक वास्तविकता से अलग करके नहीं देखा जा सकता। दुनिया के तीसरे सबसे बड़े तेल उपभोक्ता के रूप में, भारत को विकास को बनाए रखने के लिए किफायती कीमतों पर ऊर्जा प्राप्त करनी होगी। तब प्रश्न उठता है- यदि भारत और चीन, दो सबसे बड़े खरीदार, दुनिया के शीर्ष कच्चा तेल निर्यातक रूस से आयात करना बन्द कर दें, तो वैश्विक कच्चे तेल बाज़ार (जिसका मूल्य वर्ष 2024 में 10 खरब 80 अरब अमेरिकी डॉलर था) का क्या होगा? अमेरिका और किसी अन्य उत्पादक के पास रूस द्वारा दी जा रही कीमतों पर इस मांग को पूरा करने की अतिरिक्त क्षमता नहीं है। तेल आयत करना अचानक बन्द करने से आपूर्ति की गतिशीलता में भारी व्यवधान आ सकता है, जिससे कच्चे तेल की कीमत बाज़ार की लोच (बदलाव) के आधार पर 100-150 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच सकती है। इससे न केवल भारत पर बल्कि समग्र वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भारी लागत आएगी। साथ ही, यह उल्लेखनीय है कि चीन रूस से बड़ी मात्रा में कच्चे तेल का आयात करता रहा है (भारत की तुलना में कहीं अधिक मात्रा में) और फिर भी उसे अब तक इस तरह के दंडात्मक टैरिफ का सामना नहीं करना पड़ा है।

अमेरिका के साथ भारत का व्यापार

अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा आयातक और प्रमुख निर्यातक दोनों है और वैश्विक व्यापार प्रवाह पर इसका महत्वपूर्ण प्रभाव है। अब 60.85 अरब अमेरिकी डॉलर (अमेरिका को भारत के माल निर्यात का 70%) पर नए 50% टैरिफ (आकृति-2) का खतरा मंडरा रहा है। हालांकि यह देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 1.56% और कुल निर्यात का 7.38% है, यह झटका श्रम-प्रधान, उच्च-मूल्य वाले क्षेत्रों जैसे कपड़ा और परिधान, रत्न और आभूषण, ऑटो पार्ट्स और समुद्री उत्पादों (विशेष रूप से झींगा) पर केन्द्रित है, जिनमें से सभी लाखों नौकरियों और किसानों की आजीविका को सीधे प्रभावित करते हैं। ये क्षेत्र पहले से ही तीव्र प्रतिस्पर्धात्मक नुकसान का सामना कर रहे हैं- कपड़ा और परिधान क्षेत्र में बांग्लादेश (जिस पर 20% टैरिफ है), पाकिस्तान (19%) और वियतनाम (20%) के साथ प्रतिस्पर्धा है ; झींगा उद्योग में इक्वाडोर, इंडोनेशिया और वियतनाम के साथ प्रतिस्पर्धा है ; और रत्न एवं आभूषण क्षेत्र में तुर्की (15%) और थाईलैंड (19%) के साथ प्रतिस्पर्धा है।

तर्कसंगत दृष्टिकोण दो सम्भावित परिदृश्यों पर विचार करने में निहित है। एक विकल्प यह है कि भारत अपने कच्चे तेल के आयात में विविधता लाए और इसका एक हिस्सा, लगभग 20 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य का, अमेरिका से प्राप्त करे (जिसका विस्तार रक्षा उपकरणों और सेमीकंडक्टर चिप्स तक हो सकता है, जिनका उत्पादन भारत स्वयं नहीं कर सकता)। इससे व्यापार घाटे को संतुलित करने में मदद मिल सकती है, जो ट्रम्प का मुख्य उद्देश्य है। दूसरी सम्भावना यह है कि भारत अमेरिकी हितों को ध्यान में रखते हुए समायोजन नहीं करता है और इसमें अमेरिका की ओर से आवश्यक और उच्च मूल्य वाली वस्तुओं, विशेष रूप से दवा उत्पादों, जहाँ भारत की निर्यात स्थिति मज़बूत है, पर आयात शुल्क बढ़ाकर जवाबी कार्रवाई की जा सकती है। इस सन्दर्भ में, तर्कसंगतता इस बात को समझने में है कि यह 'ट्रम्पियन अर्थशास्त्र' का एक अस्थाई चरण है, जिसे वह अमेरिकी मुद्रास्फीति के बढ़ने पर छोड़ देंगे। वास्तव में, जाने-माने अमेरिकी अर्थशास्त्रियों का कहना है कि ट्रम्प की यह नीति दिशा त्रुटिपूर्ण है और अमेरिकी नागरिकों को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। फ़रीद ज़कारिया के शब्दों में, "अगर टैरिफ़ लागू रहते हैं, तो यह ट्रम्प के राष्ट्रपति कार्यकाल की अब तक की सबसे बड़ी रणनीतिक भूल हो सकती है। नुकसान तो हो ही चुका है, अब भारत को रूस और चीन के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करके अपनी स्थिति और मज़बूत करने की ज़रूरत है।"

आकृति-2. वित्त वर्ष 24-25 में अमेरिका को निर्यात किए गए भारत के माल का क्षेत्रीय हिस्सा

स्रोत : डीजीएफटी, 2024.

भारत क्या कर सकता है?

अमेरिका ने दीर्घकालिक वैश्विक विश्वास की अपेक्षा अल्पकालिक लेन-देन संबंधी लाभों को प्राथमिकता देकर वैश्विक विश्वास को ठेस पहुँचाई है। ट्रम्प का टैरिफ झटका केवल व्यापार से संबंधित नहीं है ; यह संप्रभुता से जुड़ा है, जिस पर किसी भी लोकतंत्र में कोई समझौता नहीं किया जा सकता और यह एक मौलिक अधिकार है। भारत को दृढ़ रहना होगा, लेकिन समझदारी से काम लेना पड़ेगा। भारत के लिए सबसे अच्छा यही होगा कि वह बातचीत करे और इसका सौहार्दपूर्ण ढंग से समाधान निकाले।

सबसे पहले भारत को भावनात्मक बातचीत के बजाय समझदारी से बातचीत करनी चाहिए। अमेरिका एक बहुत ही महत्वपूर्ण बाज़ार है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता और भारत को अमेरिका के साथ फिर से जुड़ने के लिए चतुराईपूर्ण, सामरिक बातचीत करनी चाहिए। ऊर्जा, रक्षा उपकरणों (ड्रोन सहित) और उन्नत सेमीकंडक्टर चिप्स पर ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए, जिनका भारत अभी तक घरेलू स्तर पर उत्पादन नहीं करता है। इस तरह के दृष्टिकोण से अमेरिका अपने व्यापार घाटे को कम कर पाएगा

कृषि, विशेष रूप से आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों के मामले में, हमेशा से एक मुद्दा रहा है। भारत जीएम के आधार पर अमेरिका से सोयाबीन और मक्का के आयात पर प्रतिबंध लगाता है, फिर भी यह विडंबना ही है कि जीएम कपास और उसके उत्पाद पहले से ही खाद्य श्रृंखला में शामिल हैं। भारत का 95% कपास जीएम है और बिनौले (कपास के बीज) का तेल और तेल-रहित खली का व्यापक रूप से इसका उपभोग किया जाता है। एक अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण यह होगा कि इथेनॉल मिश्रण या पोल्ट्री फ़ीड के लिए जीएम मक्का तथा तेल निष्कर्षण और फ़ीड उपयोग के लिए जीएम सोया के आयात की अनुमति दी जाए। जीएम उत्पादों पर अमेरिकी मांगों का समाधान वैज्ञानिक आधार पर किया जाना चाहिए। भारत कपास, सोया और डेयरी जैसी संवेदनशील वस्तुओं में टैरिफ दर कोटा (टीआरक्यू)3 तंत्र भी अपना सकता है। डेयरी के मामले में, उपभोक्ताओं को यह आश्वस्त करने के लिए एक प्रमाणन प्रणाली (हलाल के समान) शुरू की जा सकती है कि मवेशी मांसाहार नहीं करते या चरागाह में चरते हैं, जिससे संवेदनशीलता का समाधान होगा और व्यापार को सुगम बनाया जा सकेगा।

भारत को अपने टैरिफ ढाँचे पर भी पुनर्विचार करना होगा। वर्ष 2024 में औसत कृषि टैरिफ 36.7% था जो अमेरिका के औसत 5% से लगभग सात गुना ज़्यादा है। फिर भी, 17.09 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य के खाद्य तेल (उपभोग का 57%) जैसे कुछ आयातों पर 30% से कम टैरिफ लगता है, जबकि अन्य पर भारी टैरिफ लगता है- अखरोट (120%), चिकन लेग्स (100%), चावल (70%, भारत सबसे बड़ा निर्यातक होने के बावजूद), स्किम्ड मिल्क पाउडर (60%), मक्का और सेब (50%), सोयाबीन (45%) आदि। भारत को सभी कृषि वस्तुओं पर टैरिफ को 50% से नीचे लाना होगा।

दूसरा, अगर अमेरिका अब भी टैरिफ लगाकर भारत पर दबाव बनाता है, तो उन क्षेत्रों की पहचान करने की ज़रूरत है जिन्हें इससे काफ़ी नुकसान होगा। यह अस्थाई ब्याज़-मुक्त ऋण, पूंजीगत प्रोत्साहन, कर छूट, जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) दरों में कटौती और माल ढुलाई सब्सिडी के लिए मुआवज़े के माध्यम से लक्षित राहत प्रदान करने का आधार हो सकता है। कपड़ा एवं परिधान, रत्न एवं आभूषण और झींगा जैसे क्षेत्रों के लिए ये उपाय कुछ ही हफ़्तों में लागू किए जाने चाहिए। कपड़ा और परिधान क्षेत्र को 50% टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है, जबकि प्रतिस्पर्धियों को 19-20% टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है तथा इस अंतर को कम करने और निर्यात आय तथा 4 करोड़ 50 लाख से अधिक श्रमिकों की नौकरियों की रक्षा करने के लिए अस्थाई रूप से 25-30% प्रोत्साहन (ऊपर उल्लिखित) की आवश्यकता है। सूरत में स्थित रत्न एवं आभूषण क्षेत्र और मुख्य रूप से आंध्र, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में झींगा निर्यात को भी इसी तरह का समर्थन प्रदान किया जाना चाहिए।

तीसरा, भारत को निर्यात में विविधता लाने और अमेरिका पर अपनी निर्भरता कम करने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। ऐसा यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौतों को तेज़ी से आगे बढ़ाकर, ब्रिटेन के साथ समझौते को मज़बूत करके, व्यापक और प्रगतिशील ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप व्यापार समूह में शामिल होने की सम्भावना तलाशकर और अफ्रीका, आसियान (दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ), मध्य पूर्व तथा ब्राज़ील के साथ व्यापार को मज़बूत करके किया जा सकता है। ब्रिक्स-4 देशों को वैश्विक व्यापार व्यवस्था को बहाल करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए और भारत इसमें सक्रिय भूमिका निभा सकता है। हालांकि, यह केवल मध्यम अवधि में ही संभव हो पाएगा

अंत में, यह भारत के लिए अपनी व्यापार रणनीति को नए सिरे से तय करने का समय है, ठीक वैसे ही जैसे 1991 के सुधारों ने प्रतिकूल परिस्थितियों को अवसर में बदल दिया था। इसकी नींव मज़बूत घरेलू सुधारों पर होनी चाहिए जिनका उद्देश्य ट्रम्प के टैरिफ दबावों के बावजूद प्रतिस्पर्धात्मकता बहाल करना हो। घरेलू सुधारों में देरी हो रही है। आज भारत में व्यापार करने में आसानी अत्यधिक नौकरशाही नियंत्रण से बाधित है, जिसमें अकुशलता और जवाबदेही का अभाव असली बाधाएँ हैं। इसका समाधान नौकरशाही को परिणामों के लिए सीधे जवाबदेही तय करने में निहित है। इस समस्या के समाधान के लिए, व्यापार नीति सहित, साक्ष्य-आधारित, दूरदर्शी सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए, क्षेत्र के विशेषज्ञों को प्रणाली में शामिल किया जाना चाहिए। कृषि के क्षेत्र में, ट्रम्प की नीतियों के बावजूद, सभी कृषि वस्तुओं पर टैरिफ को 50% से नीचे लाया जाना चाहिए और टीआरक्यू को अपनाया जाना चाहिए, जिसमें निषेधात्मक टैरिफ केवल एक निश्चित मात्रा सीमा से आगे ही रखे जाएँ। भारत को अपना ध्यान वैश्विक स्तर पर अपनी निर्यात प्रतिस्पर्धात्मक ताकत बढ़ाने के लिए नवाचारों, आपूर्ति श्रृंखला दक्षता, बुनियादी ढाँचे के आधुनिकीकरण, उच्च उत्पादकता और अनुसंधान एवं विकास पर केन्द्रित करना चाहिए।

भारत पहले भी इससे बदतर हालात का सामना कर चुका है। वर्ष 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षणों के बाद, प्रतिबंधों ने हमें अलग-थलग करने की कोशिश की, लेकिन हम इससे उबर गए। ट्रम्प के टैरिफ एक और इम्तेहान हैं। भारत एक उभरती हुई शक्ति है जिसका समय आ गया है। चतुर रणनीति, अनुकूलनशीलता और सुधारों के साथ, हम न केवल इस चुनौती से पार पाएँगे, बल्कि और भी मज़बूती से उभरेंगे। यह 1991 में लागू किए गए सुधारों के समान, लेकिन तत्परता से लागू किए गए, साहसिक सुधारों के लिए एक चेतावनी भी है, जहाँ भारत अधिक प्रतिस्पर्धी और भविष्य के लिए तैयार होने के लिए अपने सबसे बड़े संरचनात्मक परिवर्तनों को अंजाम दे।

यह ब्लॉग लेख आईसीआरआईईआर द्वारा प्रकाशित नीतिगत संक्षिप्त विवरण, "नेविगेटिंग ट्रम्पस टैरिफ़ ब्लोज़" से लिया गया है।

इस लेख में व्यक्त विचार पूरी तरह से लेखकों के हैं और और ज़रूरी नहीं कि वे आई4आई संपादकीय बोर्ड के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों।

टिप्पणियाँ :

  1. जी-7 और यूरोपीय संघ ने रूसी तेल पर 60 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल की मूल्य सीमा लगा दी है, जिससे पश्चिमी बीमा कंपनियों और मालवाहकों को उच्च मूल्य वाले निर्यातों को सम्भालने से रोका जा रहा है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि रूसी तेल का वैश्विक स्तर पर प्रवाह जारी रहेगा, लेकिन राजस्व कम होगा, जिससे उसकी युद्ध वित्तपोषण क्षमता पर अंकुश लगेगा।
  2. व्यापारिक वस्तुओं के मानकीकृत वर्गीकरण के लिए हार्मोनाइज्ड सिस्टम ऑफ नोमेनक्लेचर (एचएसएन) के तहत, एचएसएन 2709 "पेट्रोलियम और बिटुमिनस खनिजों, खनिज तेल से प्राप्त तेलों" को संदर्भित करता है।
  3. टैरिफ दर कोटा एक व्यापार नीति साधन है जिसके तहत कम टैरिफ दर पर आयात की एक निर्दिष्ट मात्रा की अनुमति दी जाती है, जबकि इस सीमा से अधिक मात्रा पर उच्च टैरिफ लागू होता है।
  4. ब्रिक्स उभरती अर्थव्यवस्थाओं का एक गठबंधन है, जिसमें ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ पांच नए सदस्य- मिस्र, इथियोपिया, इंडोनेशिया, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं। 

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : अशोक गुलाटी भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद में एक विशिष्ट प्रोफेसर हैं। इससे पहले वे कृषि लागत एवं मूल्य आयोग, भारत सरकार (2011-14) के अध्यक्ष रह चुके हैं। वे भारतीय रिज़र्व बैंक, राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक और नेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज लिमिटेड के केन्द्रीय निदेशक मंडल के स्वतंत्र निदेशक रह चुके हैं। वे भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के बारहवें लेखा परीक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य और कोटक महिंद्रा बैंक लिमिटेड तथा गोदरेज एग्रोवेट लिमिटेड के निदेशक मंडल के वर्तमान स्वतंत्र निदेशक हैं। डॉ. गुलाटी भारत में नीति विश्लेषण और परामर्श में गहन रूप से शामिल रहे हैं। वे प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की आर्थिक सलाहकार परिषद के सबसे युवा सदस्य थे और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य तथा कर्नाटक के राज्य योजना बोर्ड के सदस्य भी रहे हैं। इस क्षेत्र में उनके योगदान के लिए राष्ट्रपति ने उन्हें 2015 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया है। उनके नाम भारतीय और एशियाई कृषि पर 22 पुस्तकें हैं। सुलक्षणा राव भी भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद में एक वरिष्ठ फेलो हैं। उनकी रुचि के क्षेत्रों में वस्त्र एवं परिधान क्षेत्र, कृषि-खाद्य प्रणालियाँ, संसाधन अर्थशास्त्र और स्थिरता आकलन शामिल हैं। आईसीआरआईईआर में शामिल होने से पहले, वह भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के जी20 कृषि कार्य समूह से जुड़ी थीं। उन्होंने आईसीएआर-एनआईएपी और आईआरआरआई, भारत में भी काम किया है। उन्होंने तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबटूर से प्राकृतिक संसाधन अर्थशास्त्र विषय में अर्थशास्त्र में पीएचडी की है। तनय सुंतवाल व्यापार एवं आर्थिक नीति के शोधकर्ता हैं, जिनका ध्यान कृषि, वैश्विक व्यापार और विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की स्थिति पर केन्द्रित है। उनका कार्य साक्ष्य-आधारित विश्लेषण और नीति प्रासंगिकता के संयोजन पर रहता है और यह समझने का प्रयास करता है कि घरेलू सुधार और अंतर्राष्ट्रीय विकास भारत की विकास संभावनाओं और प्रतिस्पर्धात्मकता को कैसे प्रभावित करते हैं। उन्होंने डॉ. अशोक गुलाटी के साथ नीतिगत संक्षिप्त और विचार लेखों का सह-लेखन किया है। उन्होंने अर्थशास्त्र में एमएससी की डिग्री प्राप्त की है।

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