‘संथाल परगना’ में भूमि विवाद: मुद्दे और समाधान

29 January 2021
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झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र के छह में से चार जिलों को नीति आयोग द्वारा ‘आकांक्षी जिलों’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इस लेख में कर्ण सत्यार्थी ने इस क्षेत्र में कार्यरत भू-राजस्व प्रशासन के अनोखे तरीके का और भूमि विवाद समाधान में शामिल समस्याओं का वर्णन किया है। वे इन प्रणालीगत मुद्दों को हल करने के तरीके सुझाते हैं और तर्क देते हैं कि यह इस क्षेत्र में एक प्रमुख कारक-बाजार सुधार का निर्माण करेगा।

अक्सर यह कहा जाता है कि ‘कब्जा हीं वास्तविक अधिकार का परिचायक होता है’। हालांकि यह वास्तव में सत्य नहीं है, लेकिन यह कहावत भूमि के टुकड़े के वैध स्वामित्व को तय करने में कब्‍जे की खासियत को रेखांकित करती है। भूमि विवाद मुख्य रूप से भूमि के टुकड़े पर कब्जे और अधिकारों की अलग-अलग धारणाओं से उत्पन्न होता है। किसी भी भूमि विवाद के सटीक समाधान के लिए स्‍पष्‍ट, अद्यतन और सुलभ भूमि रिकॉर्डों का होना आवश्यक हैं। इस आलेख में मैंने झारखंड राज्य में संथाल परगना क्षेत्र के एक अनोखे मामले पर चर्चा की है। मैंने भूमि विवाद समाधान में संरचनात्मक समस्याओं का विश्लेषण किया है और ऐसे तरीके सुझाए हैं जिनके द्वारा इनमें से कुछ प्रणालीगत मुद्दों को हल किया जा सकता है।

संथाल परगना को शासित करने वाला काश्तकारी अधिनियम

झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में राज्य के छह पूर्वोत्तर जिले हैं, जिनके नाम हैं – साहिबगंज, गोड्डा, पाकुड़, देवघर, दुमका और जामताड़ा। 1980 के दशक तक संथाल परगना में एक ही जिला था जिसका मुख्यालय दुमका था। 1855 के संथाल विद्रोह के बाद से अंग्रेजों ने संथाल परगना में भूमि राजस्व प्रशासन के संदर्भ में एक अनोखी नीति बनाई थी1। संथाल परगना काश्‍तकारी (पूरक प्रावधान) अधिनियम, 1949 (इस लेख में आगे इसे केवल अधिनियम कहा गया है), संथाल परगना को शासित करता है। इस अधिनियम में कई प्रचलित नियमों/विनियमों के साथ-साथ संथाल प्रथा2 का कोडीकरण किया गया है। काफी हद तक, भूमि राजस्व प्रशासन का संचालन संथाल परगना बंदोबस्ती विनियम 1872 के द्वारा भी होता है जिसके अंतर्गत मैकफर्सन (1898-1907) और गैन्टज़र (1932 में अंतिम प्रकाशन) द्वारा लगान का निर्धारन तथा अधिकार अभिल्ख का निर्माण किया गया था।

अधिनियम की चार विशेषताएं इसे देश के अधिकांश अन्य काश्‍तकारी कानूनों से मौलिक रूप से अलग बनाती हैं। पहला यह कि अधिनियम की धारा 20 में यह अनिवार्य किया गया है कि अधिकांश भूमि का विभाजन विरासत के सिवाय अन्य किन्‍हीं माध्यमों (बिक्री/ बंधक/ वसीयत/ पट्टे/ उपहार सहित) द्वारा हस्तांतरित नहीं हो सकता। दूसरा, धारा 42 अनुमंडल पदाधिकारी (एसडीओ)3 को अपने अनुमंडल के भीतर कृषि भूमि के किसी भी अवैध कब्‍जाधारी को बाहर निकालने का अधिकार प्रदान करता है। तीसरा, पीड़ित पक्ष द्वारा कब्जे की बहाली के लिए आवेदन करने के लिए निर्धारित कोई सीमा नहीं है (धारा 64)। यह प्रतिकूल कब्जे के आधार पर मालिकाना अधिग्रहण को प्रभावी रूप से नामुमकिन करती है4। और चौथा, धारा 63 इस अधिनियम से संबंधित मामलों पर सिविल अदालतों के हस्‍तक्षेप पर एक स्पष्ट रोक लगाती है, सिवाय उन मामलों के जो इस अधिनियम के ठीक पहले इनके क्षेत्राधिकार में आते थे।

सामान्य परिस्थितियों में वास्‍तविक भूमि संबंधी विवादों का निपटारा सिविल अदालतों द्वारा किया जाता है। दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 145 के तहत तत्काल किसी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए कब्जे से संबंधित कुछ सीमित प्रश्नों को एसडीओ के समक्ष उठाया जा सकता है। सीआरपीसी की धारा 145 के तहत एसडीओ के पास कब्‍जा घोषित करने और बहाल करने की सीमित शक्तियां हैं। हालांकि बहाली इस शर्त के अधीन है कि यह बेदखली आवेदन से 60 दिनों से अधिक पहले नहीं हुई हो। अधिनियम में धारा 145 से दो महत्वपूर्ण विचलन हैं। पहला, कब्जे की बहाली पर कोई सीमा नहीं है। और दूसरा, न केवल कब्जे बल्कि भूमि के हस्तांतरण के प्रश्‍न को भी राजस्व अदालत द्वारा वैध रूप से तय किया जा सकता है। इस प्रकार एक एसडीओ की शक्तियां यह तय करने में महत्वपूर्ण हो जाती हैं कि जमीन पर किसका हक़ है।

भूमि विवाद समाधान को जटिल बनाने वाली प्रणालीगत समस्याएं

अधिनियम की जो विशेषताएँ हैं, उनमें कुछ प्रणालीगत समस्याएं इस क्षेत्र में भूमि विवाद के समाधान को जटिल बनाती हैं। सबसे पहले, जमीन पर वास्तविक स्थिति और भूमि अभिलेख में बहुत अंतर है। संथाल परगना के लगान बंदोबस्‍ती प्रचालनों को अंतिम बार 1932 में गैन्टज़र द्वारा प्रकाशित किया गया था। बिहार अभिधारी होल्डिंग (अभिलेखों का अनुरक्षण) अधिनियम, 1973) में यह परिकल्‍पना की गई है कि खतियान (काश्‍तकारों के अधिकारों और कर्तव्यों का रिकॉर्ड) और एक काश्‍तकार बहीखाता रजिस्टर निरंतर बनाए रखा जाए। इन दोनों अभिलेखों का उद्देश्य जमीन पर होने वाले भू-जोतों में परिवर्तनों को दर्ज कराना है। चूंकि संथाल परगना में भू-जोतों का हस्‍तांतरण तब तक नहीं हो सकता जब तक कि ये विरासत के माध्यम से न हों। इसलिए ज्यादातर निवासियों ने भूमि के स्वामित्व/कब्जे में परिवर्तन को दर्ज कराने की आवश्यकता महसूस नहीं की थी। नतीजतन, 1932 में संथाल परगना के सर्वेक्षण और बंदोबस्‍ती के लगभग नौ दशक बाद भी इस बात का कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड नहीं है कि वर्तमान में भूमि पर किसका कब्‍जा है। भूमि विवादों के मामले में मानक प्रक्रिया के अनुसार 1932 के अधिकारों के रिकॉर्ड को देखा जाना है और मूल काश्‍तकार की वंशावली के माध्यम से यह निर्धारित किया जाना है कि आज कौन वैध कब्‍जाधारी है। जैसा कि स्पष्ट है, इस तरह की प्रक्रिया उत्तराधिकार के संबंध में पर्याप्‍त दस्तावेजी साक्ष्य न होने के कारण चुनौतीपूर्ण है (1931 की जनगणना के अनुसार क्षेत्र की साक्षरता दर 2.9% थी)।

दूसरा, मांग और आपूर्ति की ताकतों ने भूमि हस्तांतरण के लिए एक अवैध बाजार का निर्माण किया है और इन्हें वैध रूप से दर्ज नहीं किया जा सकता है। कई मामलों में लेन-देन करने का वादा एक या दो पीढ़ी के लिए रखा जाता है, लेकिन इसके बाद उत्तराधिकारी हस्तांतरित भूमि पर अपना अधिकार जताना शुरू कर देते हैं, और यदि एसडीओ को इस तरह का आवेदन किया जाता है तो वह कब्जा बहाल करने के लिए बाध्य हो जाता है। इससे यह प्रतीत होता है कि स्थापित न्याय के कई सिद्धांतों का उल्लंघन किया जा रहा है क्योंकि मूल लेन-देन दोनों पक्षों की सहमति से किया गया था और कई मामलों में जिस पक्ष को कब्जा मिला था, उसके पास दशकों तक शांतिपूर्ण कब्‍जा बना रहता है जब तक कि कानूनी बल द्वारा इसे खाली नहीं कराया जाता।

तीसरा, इस क्षेत्र में फील्‍ड कार्य करते समय, अक्सर जाली दस्तावेजों का सामना करना पड़ता है। देवघर जिले में 2012 में यह प्रथा इतनी तेजी से बढ़ गई कि जाली दस्‍तावेजों के परिणामस्‍वरूप हुए एक घोटाले में सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) जांच का आदेश देना पड़ा। जाली दस्तावेज संथाल परगना के लिए अपने आप में कोई अनोखी समस्या नहीं है। हालांकि जो बात इसे विशेष रूप से खतरनाक बनाती है, वह यह है कि सरकारी अभिलेखों को पर्याप्त रूप से अद्यतन नहीं किया जाता है। राजस्व अदालतें किसी विलेख की वैधता पर सवाल नहीं उठा सकती हैं और यह मामलों पर निर्णय लेने में बहुत बड़ा अवरोध पैदा करती है क्योंकि उन क्षेत्रों में जहां हस्‍तांतरण की अनुमति है, ऐसा लगता है कि दोनों पक्षभूमि के उसी एक टुकड़े के लिए वैध प्रलेख प्रस्‍तुत कर रहे हैं। भूमि के टुकडे के लेन-देन का इतिहास उपलब्‍ध न होने के कारण जाली दस्तावेजों का पता लगाना बेहद जटिल हो जाता है।

चौथा, आंकड़ों के निर्माण की प्रक्रिया में समस्याएं हैं। झारखंड राज्य ने भूमि रिकॉर्ड डिजिटलीकरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। भूमि अभिलेखों के डेटा बहीखातों को बनाए रखने के लिए ब्लॉक चेन जैसी अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग करने पर चर्चा हुई है। भूमि अभिलेखों का आधुनिकीकरण भूमि प्रशासन में सुधार के लिए एक अत्‍यंत उपयोगी साधन है, हालांकि इसमें कुछ बारीकियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। भले आंकड़ों के संरक्षण और रखरखाव के लिए प्रौद्योगिकी को लागू किया गया है, परंतु उनके निर्माण की समस्याओं को अभी तक हल नहीं किया जा सका है। व्यापक डिजिटलीकरण के बावजूद, अभी भी वास्तविक भू-जोतों के केवल एक छोटे से हिस्‍से का ही भूमि अभिलेख तैयार किया जा सका है। और इसका कारण यह है और जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, अभिलेख अद्यतन करने की प्रक्रिया सुचारू रूप से काम नहीं करती है। इसलिए क्षेत्र के अधिकारियों को स्वामित्व में बदलाव जैसे नियमित मामलों को निपटाना भी बहुत चुनौतीपूर्ण लगता है। यहां तक कि जमीन के स्वामित्व या कब्जे का एक विश्वसनीय दस्‍तावेज तक उपलब्ध नहीं है।

भूमि विवाद के समाधान की गति और सटीकता बढ़ाना

बेहतर संसाधन युक्‍त राजस्व न्‍यायालय: बेहतर संसाधन युक्‍त राजस्व न्‍यायालय भूमि विवादों को सुलझाने के लिए समय को कम करने में उपयोगी साबित होंगे। जो मुद्दे अधिकार एवं हक से संबंधित नहीं हैं उन्‍हें हल करने के लिए एसडीओ सर्वाधिक उपयुक्‍त व्‍यक्ति है। मामलों की भारी संख्‍या के बावजूद एसडीओ न्‍यायालयों में संसाधनों की भरी कमी है। झारखंड के राजस्व न्यायालय प्रबंधन प्रणाली के डैशबोर्ड से पता चलता है कि राज्य के राजस्व न्यायालयों में दायर किए गए सभी मामलों में से अभी तक केवल 25.1% मामले ही निपटाए गए हैं। ज्यादातर न्‍यायालय केवल एक या दो पेशकारों5 की सहायता से चलाए जाते हैं जो सामान्य लिपिक संवर्ग से संबंधित होते हैं और इनका तबादला अलग-अलग अनुभागों में होता रहता है। इन पेशकारों को कानून या अदालती प्रक्रिया का कोई विशेष ज्ञान नहीं होता है। परिणामस्वरूप, कब्जे के मूल प्रश्नों पर निर्णय लेने के बजाय एसडीओ का अधिकांश समय लिपिकीय/प्रक्रियात्मक कार्यों की देखरेख या उन्‍हें करने में व्यतीत हो जाता है। न्‍यायालय के अन्य आवश्यक सदस्य जैसे अदालती चररासी और सरकारी वकील या तो अक्सर अनुपस्थित रहते हैं या वे पूरी तरह से अप्रशिक्षित होते हैं। एसडीओ न्‍यायालयों से एक और महत्‍वपूर्ण संसाधन गायब है और वह है एक समर्पित अमीन6 की सेवाएं। अधिकांश एसडीओ न्‍यायलय अंचल अधिकारी के कार्यालय के अमीन की सेवाओं पर निर्भर रहते हैं, जिनमें पहले से ही सीमांकन से संबंधित मामले बड़ी संख्‍या में लंबित रहते हैं। इसके कारण अमीन की सेवाओं को प्राप्‍त करना एक कठिन कार्य है और इससे भ्रष्टाचार और वादियों के पक्षपात की संभावना काफी बढ़ जाती है क्‍योंकि इनकी मांग और आपूर्ति में भारी बेमेल है।

एसडीओ के न्यायालय में अधिक संसाधनों की आपूर्ति करना काफी सरल कार्य है। हालांकि यह अल्पावधि में सरकारी खजाने पर एक अतिरिक्त भार की तरह लग सकता है, लेकिन मध्यम से दीर्घावधि में मामलों के लं‍बन की स्थिति पर यह जबरदस्‍त रूप से प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है।

लगान बंदोबस्‍त प्रक्रिया का समय पर पूरा होना: पुन: सर्वेक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा भूमि अभिलेख के दो प्रमुख घटक (अधिकारों के अभिलेख और गाँव के नक्शे) अपडेट किए जाते हैं। यह भूमि उपयोग की प्रकृति में परिवर्तन को ध्यान में रखता है और मौजूदा स्थितियों के आधार पर, नवीनतम भूमि-कर रोल तैयार करता है। भूमि अभिलेखों के साफ और स्‍पष्‍ट होने के लिए पुन: सर्वेक्षण के माध्यम से उत्पन्न प्रारंभिक आंकड़ों का एक अच्छा भंडार होना महत्‍वपूर्ण है। संथाल परगना में पुन: सर्वेक्षण 1978 में शुरू हुआ था, परंतु अभी तक सभी गांवों के लिए यह प्रकाशित नहीं किया जा सका है।

मेरा सुझाव है कि संताल परगना में, एसडीओ को पदेन अतिरिक्‍त बंदोबस्‍त अधिकारी (एएसओ) बनाया जा सकता है। इससे लोगों के मन में भ्रम कम होगा और राज्य के राजस्व विभाग के स्तर पर समन्वय एवं निगरानी सरल हो जाएगी। यह एएसओ के कार्यालय के लिए अत्‍यंत आवश्यक पारंपरिक अधिकार और जीवंतता भी लाएगा, न्‍यायालयों में मजबूती लाएगा और प्रक्रिया में स्पष्ट जवाबदेही लाएगा। फिर हमें पुन: सर्वेक्षण को एक अभियान की तरह चलाना चाहिए और समयबद्ध तरीके से प्रकाशन सुनिश्चित करना चाहिए।

प्रौद्योगिकी का उपयोग: अच्छी तरह से बनाए रखे गए भूमि अभिलेखों और नियमित रूप से इन्‍हें अद्यतन किए जाने के कई लाभ हैं। डाटा के सही प्रकार और मात्रा के साथ, निकट भविष्य में भूमि विवाद की भविष्यवाणी करने के लिए यंत्र शिक्षण का उपयोग करना संभव हो सकता है। ब्लॉक चेन जैसी तकनीकें भूमि विवाद समाधान प्रक्रिया की सबसे महत्वपूर्ण बाधा, अर्थात, भूमि खंड के लेन-देन के इतिहास के ज्ञात होने की कमी को दूर करने में मदद कर सकती हैं।

भूमि विवादों का समय पर समाधान न केवल सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए आधार है, बल्कि यह कानून और व्यवस्था की कई समस्याओं को भी पहले ही रोक देगा। अनावश्‍यक विवादों के समाधान में बंधी हुई राजस्व मशीनरी अन्य बहुत बड़े कार्यों को होने से रोक देती हैं। संथाल परगना के छह में से चार जिलों को नीति आयोग द्वारा ‘आकांक्षी जिलों’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है, और भूमि विवादों का प्रभावी समाधान एक प्रमुख कारक-बाजार सुधार होगा।

टिप्पणियाँ:

  1. संथाल विद्रोह अंग्रेजों के काश्‍तकारी कानूनों की प्रतिक्रिया थी। यद्यपि विद्रोह को कुचल दिया गया था, परंतु ब्रिटिश प्रशासकों को शांति बनाए रखने के लिए स्थानीय परंपराओं का सम्मान करने की आवश्यकता महसूस हुई।
  2. अंग्रेजों ने संथाल प्रथा जैसे कि घर-जमाई के अधिकार (जब दुल्‍हन के परिवार में कोई पुरुष वारिस नहीं होता तो दूल्हे का दुल्‍हन के परिवार के साथ रहना); ग्राम प्रधानों के अधिकार और कर्तव्य; चारागाहों, पेड़ों, बंजर भूमि एवं नदी निकायों/चैनलों पर सामुदायिक अधिकार; अलगाव के विरुद्ध काश्‍तकार के अधिकार; तथा अधिभोग अधिकार को संहिताबद्ध किया।
  3. संथाल परगना के तत्कालीन उपायुक्त आर प्रसाद ने 26 मई 1951 को अधिनियम की धारा 62 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक स्थायी आदेश पारित किया जिसके तहत पूरे संथाल परगना में एसडीओ के कर्तव्यों को निर्धारित किया गया। इस आदेश के माध्यम से, अधिनियम की धारा 20 और 42 के तहत मामलों को जिले (बाद में डिवीजन) के सभी एसडीओ को सौंप दिया गया था।
  4. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अमरेन्द्र प्रताप सिंह बनाम तेज बहादुर प्रजापति एवं अन्य के मामले में प्रतिकूल कब्जे को इस प्रकार परिभाषित किया था - “एक व्यक्ति, जिसका यद्यपि किसी और की संपत्ति पर कब्जा करने का कोई अधिकार नहीं है, यदि वह ऐसा करता है और लगातार कब्‍जा जारी रखता है और स्‍वयं का तथा मालिक के हक पर प्रतिकूल रूप से हक निर्धारित करना शुरू कर देता और ऐसा हक 12 साल की अवधि के लिए जारी रहने पर, वह स्‍वयं नहीं बल्कि वास्तविक मालिक की ओर से की गई गलती या निष्क्रियता के कारण हक अर्जित करता है, जो 12 साल की अवधि तक जारी रहा था, जिसके परिणामस्‍वरूप वास्‍तविक मालिक का हक समाप्‍त हो जाता है।”
  5. पेशकार का मोटे तौर पर उस व्‍यक्ति को कहा जा सकता है जो मामले के अभिलेख को अदालत के समक्ष रखता है और न्यायालय में वाद सूची, उपस्थिति और पेशी का प्रबंधन करता है।
  6. अमीन वह व्यक्ति है जो भूमि का माप और सीमांकन करता है।

लेखक परिचय: कर्ण सत्यार्थी भारतीय प्रशासनिक सेवा (2016 बैच) के सदस्य हैं, जो वर्तमान में झारखंड सरकार के राजस्व, निबंधन एवं भूमि सुधार विभाग में निदेशक के रूप में कार्यरत हैं।

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