मानव विकास

बजट 2021-22: स्‍वास्‍थ्‍य को प्राथमिकता, एक बार फिर से

  • Blog Post Date 15 मार्च, 2021
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Diane Coffey

University of Texas at Austin

coffey@utexas.edu

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Dean Spears

University of Texas at Austin

dean@riceinstitute.org

वर्ष 2021-22 के केंद्रीय बजट का आकलन स्वास्थ्य क्षेत्र के नजरिए से करते हुए, कॉफी और स्पीयर्स यह तर्क देते हैं कि भारत के स्वास्थ्य परिणामों को बेहतर बनाने के लिए पुरानी समस्याओं को पुराने तरीको से हल करने की आवश्यकता है और ‘नए’ बजट में ऐसे किसी हल को ढूंढ पाना कठिन है। विशेष रूप से, वे अगले बजट में मातृ और नवजात शिशु सबंधी स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए आवंटन बढ़ाने का पक्ष लेते हैं।

“हेल्थकेयर अहम स्थान लेता है, आखिरकार”, इस नाम का एक अध्‍याय इस साल के आर्थिक समीक्षा में शामिल किया गया है। हमारे जैसे कई लोगों के लिए, जो लोगों को बीमार पड़ने से रोकने की नीतियों के पक्षधर हैं, यह बेतुका प्रतीत होता है। दुनिया भर के ऐसे देशों, जिनकी बजटीय स्थिति भारत की तुलना में कहीं खराब है, ने लंबे समय से यह दिखाया है कि स्वच्छता और मातृत्व पोषण जैसे कम खर्चीले उपाय लोगों को प्रारंभ में ही स्वास्थ्य सेवाओं की ज़रूरत से बचा सकते हैं।

लेकिन उपचारात्मक स्वास्थ्य देखभाल पर खर्चा राजनीतिक रूप से अधिक रोमांचक है। यह भारत में विशेष रूप से सच हो सकता है, जहां तथाकथित 'मध्यम वर्ग' निजी अस्पतालों में बड़े बिलों का भुगतान कर रहा है। कोविड-19 ने भी मरीजों को बुनियादी सेवाओं से दूर रखते हुए आधुनिक, तकनीकी समाधानों की मांग को स्पष्ट रूप से बढ़ाया है। यह सब तब हो रहा है जब स्वास्थ्य केन्द्रों में प्रसवों की संख्या तक कम हुई है। पूरे भारत में स्वास्थ्य परिणामों में सुधार लाने के लिए पुरानी समस्याओं के पुराने समाधानों की जरूरत होगी। नए बजट में ऐसे किसी समाधान का मिलना मुश्किल है।

कुछ पुराना और कुछ नया

वार्षिक बजट का उपयोग इस तरह राजनीतिक रूप से किया जाना कुछ अजीब है। कोई भी यह सोच सकता है कि अलग-अलग श्रेणियों में खर्च को पुन: आवंटित करने के लिए बजट एक बेहतरीन अवसर प्रदान करता है। लेकिन यह मजबूत राजनीतिक नेतृत्व के लिए सुर्खियां नहीं बनेगा। इसलिए, बजट नए रोमांचक नामों के साथ नए रोमांचक कार्यक्रमों की घोषणा करने का अवसर बन गया है।

इस वर्ष एक नई योजना प्रधान मंत्री आत्‍मनिर्भर स्‍वस्‍थ भारत योजना की घोषणा की गई है। समाचार पत्रों ने इस योजना के उद्देश्यों के बारे में लंबी चौड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की है, लेकिन यह काफी हद तक एक महामारी की प्रतिक्रिया स्‍वरूप बनाई गई योजना लगती है, जिसके अंतर्गत नई प्रयोगशालाओं और नई बीमारियों से लड़ने के लिए योजना बनाई गई है। इसके विपरीत, एक पुरानी योजना राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, जो मातृ और नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य पर केंद्रित है, को वित्‍तीय वर्ष 2021-22 के बजटीय आवंटन में 4% की वृद्धि की गई है। यह कोई खास वृद्धि नहीं है क्योंकि भारत में मुद्रास्फीति दर वर्ष में 4% से अधिक है।

परेशानी यह है कि भारत की दीर्घकालिक, गंभीर स्वास्थ्य चुनौतियों को दूर करने के लिए क्या होना चाहिए, इसकी कोई तरकीब नहीं है। भारत में दुनिया की आबादी का एक-छठा हिस्सा रहता है, हर साल दुनिया में पैदा होने वाला हर पांचवा बच्‍चा यहां पैदा होता है और दुनिया में नवजात शिशुओं की मौतों में से एक-चौथाई मौंतें यहां होती हैं। यहां तक ​​कि बहुत अधिक गरीब देशों के साथ भी तुलना की जाए तो भारत में नवजात शिशुओं की मौतों की संख्या काफी ज़्यादा है।

क्या एक बड़ा स्वास्थ्य बजट इस समस्या को हल कर सकता है? अगर नए बजट को अमल में लाया जाये, तो भारत सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4% स्वास्थ्य पर खर्च करेगा। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार चीन से कम और सबसे अमीर देशों की तुलना में बहुत कम है। लेकिन बांग्लादेश सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.34% ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। इसके बावजूद, भारत की तुलना में वहां नवजात शिशुओं की पहले महीने में जीवित रहने की संभावना अधिक है।

यह कोई विरोधाभास नहीं है क्योंकि नवजात शिशुओं को जीवित रखने के लिए मानी जाने वाली प्रथाएं आमतौर पर महंगी नहीं होती हैं। शिशुओं को गर्म रखना, अच्छी तरह से पोषित माताओं द्वारा उन्‍हें जल्दी स्तनपान कराना, प्रशिक्षित और प्रेरित नर्सों एवं दाइयों द्वारा प्रसव-पूर्व देखभाल प्रदान करना और एक स्वच्छ वातावरण में सामान्य प्रसव की निगरानी करना, यह ऐसे कुछ कम खर्चीले कदम हैं जो नवजात शिशुओं की मौतों को रोकने में सबसे अधिक योगदान देंगे।

कुछ होना कुछ न होने से बेहतर नहीं

भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं के सार्वजनिक अर्थशास्त्र के बारे में कुछ अजीब गौर करने वाले हम पहले नही है। आधिकारिक बजट और बयानबाजी में अक्सर निजी प्रदाताओं की मौजूदगी को अनदेखा कर दिया जाता है। इस निहितार्थ के आधार पर, स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना सार्वजनिक क्षेत्र की जिम्‍मेदारी है। फिर भी, कुमार एवं अन्‍य (2015), एनएसएस (राष्‍ट्रीय नमूना सर्वेक्षण) के 71वें दौर के आंकड़ों का उपयोग कर यह पाते हैं कि 70% दीर्घकालिक बीमारी का इलाज निजी क्षेत्र में किया गया था।

अर्थशास्त्री जेफ़ हैमर, जिष्‍नु दास, और सहयोगियों ने पाया है कि निजी व्‍यवस्‍थाओं में की जाने वाली देखभाल सार्वजनिक अस्पतालों और क्लीनिकों की देखभाल से भिन्न होती है। निजी प्रदाताओं के पास सक्रिय दिखने और ग्राहकों की इच्‍छानुसार (कई बार, एंटीबायोटिक्स) काम करने के लिए प्रोत्साहन मौजूद हैं, भले ही यह ग्राहकों के लिए अच्छा न हो। सार्वजनिक प्रदाताओं के पास, अधिकतर मामलों में कुछ भी करने के लिए बहुत कम प्रोत्साहन होता है। प्रसव जैसी विशेष स्वास्थ्य सेवा के मामले में, जहां अक्सर ज्‍यादा की बजाय कम हस्तक्षेप ज़्यादा फायदेमंद है, इस पैटर्न के आश्चर्यजनक प्रभाव हो सकते हैं।

एनएफएचएस-4 (राष्‍ट्रीय परिवार स्‍वास्‍थ्‍य सर्वेक्षण) (2015-16) के आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण उत्तर प्रदेश (यूपी), बिहार और अन्य वंचित राज्यों में, सार्वजनिक केन्द्रों की तुलना में निजी केन्द्रों में पैदा होने वाले नवजात शिशुओं की मृत्यु की संभावना अधिक होती है। वास्तव में, उत्‍तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में निजी सुविधाओं में जन्‍म लेने वाले नवजात शिशुओं की मृत्यु दर 60 प्रति 1,000 थी, जबकि सार्वजनिक केन्द्रों के लिए यह दर 36 प्रति 1,000 थी। जो जनसांख्यिकी विशेषज्ञ नवजात शिशुओं की मृत्यु दर से परिचित हैं, उनके लिए यह अंतर बहुत बड़ा है।

हमारी शोध टीम गुणात्मक क्षेत्र अनुसंधान के साथ इस पैटर्न की जांच कर रही है। कुछ हद तक समस्या यह लगती है कि निजी प्रदाता के पास रोगियों के लिए 'कुछ' करते हुए दिखाने का प्रोत्‍साहन होता है जैसे प्रसव पीड़ा शुरू कराने या बढ़ाने के लिए दवाओं का उपयोग करना, भले ही ये दवाएं भ्रूण के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती हैं।

एक कहावत है कि बजट ऐसे दस्‍तावेज होते हैं जिनमें राजनेता अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट करते हैं। शिशुओं को जीवित रखना भी एक अच्‍छी प्राथमिकता हो सकती है। और इस क्षेत्र में मदद करने के लिए बेहतर बजट बनाना का एक अच्‍छा तरीका है।

जननी सुरक्षा योजना: प्रोत्साहन और मुद्रास्फीति के बीच दौड़

सोलह साल पहले, मातृ और नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य के परिणामों में सुधार लाने के प्रयास स्‍वरूप, सार्वजनिक केन्द्रों में प्रसव के लिए माताओं को प्रोत्साहित करने हेतु जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) की घोषणा की गई थी। इस कार्यक्रम के लिए योग्‍यता प्राप्त करने वाली माताओं को सशर्त नकद हस्तांतरण प्राप्त होता है। जैसा कि हमने कहीं और जिक्र किया है, जेएसवाई (किसी भी अन्य नीति या कार्यक्रम की तरह) अपूर्ण है (कॉफी 2014)। इसी प्रकार जिन सार्वजनिक केन्द्रों को इसे बढ़ावा देने के लिए डिज़ाइन किया गया है वे भी अपर्याप्‍त हैं। लेकिन आर्थिक वृद्धि के बढ़ते रुझानों और बदलते मानदंडों के साथ मिलकर सार्वजनिक केन्द्रों में होने वाले प्रसवों की संख्‍या बढ़ाने में यकीनन इसने अपनी भूमिका निभाई है (डोंगरे और कपूर 2013)। 

इस पूरे विषय का एक बचा हुआ हिस्‍सा यह भी है कि सार्वजनिक केन्द्रों में होने वाले प्रसवों के साथ-साथ निजी केन्द्रों में प्रसवों की संख्‍या भी बढ़ गई है। दुर्भाग्य से, जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की है, उत्तर भारत (जहां नवजात शिशुओं की मृत्यु दर अधिक है) के ग्रामीण निवासियों के लिए उपलब्‍ध अधिकांश निजी केंद्र प्रसव के लिए सुरक्षित स्थान नहीं हैं। यदि उत्‍तर प्रदेश और बिहार में ग्रामीण निवासियों ने सभी निजी-केन्द्रों में होने वाले प्रसवों के बजाय सार्वजनिक केन्द्रों में प्रचलित नवजात शिशुओं की मृत्यु दर का सामना किया होता, तो ऐसा अनुमान है कि औसतन रूप से सालाना लगभग 30,000 नवजात शिशुओं को मृत्यु से बचाया जा सकता था। 

क्या जेएसवाई कार्यक्रम का उपयोग प्रसवों को अधिक खतरनाक निजी केन्द्रों की बजाय सुरक्षित सार्वजनिक केन्द्रों में स्‍थानांतरित करने के लिए किया जा सकता है? यदि प्रसवों को निजी केन्द्रों से सार्वजनिक केन्द्रों में स्थानांतरित किया जाता है, तो क्या सार्वजनिक तंत्र इन अतिरिक्त प्रसवों की ठीक से देख-भाल कर पाएगा और मृत्यु दर कम कर पाएगा? जिस हद तक यह सत्‍य है कि निजी केन्द्रों में अधिक जटिल मामले आते हैं, संभवतया प्रसवों का सार्वजनिक केन्द्रों में स्‍थानांतरित होना मृत्यु दर को कम नहीं करेगा। हालांकि साक्ष्य बढ़ते हुए क्रम में यह बताते हैं कि प्रसवों को सार्वजनिक केन्द्रों में स्थानांतरित करने से निजी प्रदाताओं द्वारा कम जटिल मामलों में किए जाने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। ज़्यादातर प्रसव कम जटिल ही होते हैं।

हमें लगता है कि जेएसवाई प्रोत्साहन को बढ़ाना उचित होगा। इस से ग्रामीण उत्तर भारतीय परिवार सार्वजनिक सुविधाओं को चुनने के लिए अधिक आकर्षित हो सकेंगे। लेकिन ऐसा करने के लिए इसका बजट बढ़ाना होगा। ग्रामीण भारतीय अब 2005 की तुलना में अधिक समृद्ध हैं। इनमें से कई अब निजी स्वास्थ्य सेवा के लिए भुगतान करने में सक्षम हैं और इस बात से अनजान हैं कि इससे उनके बच्चों के बचने की संभावना कम हो सकती है।

यहां महंगाई दुश्मन है। जेएसवाई के तहत रु.1,400 का नाममात्र का नकद भुगतान किया जाता है जिसकी कीमत 2005 की कीमतों की तुलना में एक तिहाई रह गई है। निजी प्रदाताओं से प्रतिस्पर्धा भी बहुत बढ़ गई है। घरों में होने वाले प्रसवों को सार्वजनिक केन्द्रों की ओर स्‍थानांतरित करने के लिए जितना प्रोत्‍साहन दिया गया था, रोगियों को निजी केन्द्रों से सार्वजनिक केन्द्रों की ओर मोड़ने के लिए उससे भी कहीं अधिक वास्‍तविक प्रोत्‍साहन की जरूरत पड़ सकती है। हम आशा करते हैं कि अगले वर्ष के बजट में सामान्य रूप से मातृ और नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य लिए राशि में और अधिक वृद्धि की जाएगी, और विशेष रूप से जेएसवाई भुगतान को उस स्तर तक बढ़ाया जाएगा जो ग्रामीण परिवार के लिए यह निर्णय लेने में पुन: प्रासंगिक बन सके कि प्रसव कहां कराया जाये। 

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लेखक परिचय: डाएन कॉफी अमेरिका के ऑस्टिन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास में समाजशास्त्र और जनसंख्या अनुसंधान की असिस्टेंट प्रोफेसर और भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आइएसआइ), दिल्ली में विजिटिंग रिसर्चर हैं। डीन स्पीयर्स अमेरिका के ऑस्टिन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर और भारतीय सांख्यिकी संस्थान के दिल्ली केंद्र में विजिटिंग इकोनॉमिस्ट हैं। 

1 Comment:

By: Prem Prakash

Dear sir, my view is that health institutions should be strengthened and diligent action needed for assuring quality services. more expenses needed for highly generating and maintaining skilled health professionals. there should be weightage of quality over money power in context of human resources. Here fair managmt systm is equally important.

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