बुनियाद की मज़बूती: प्राथमिक शिक्षा की चुनौती

03 July 2019
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रुक्मिणी बनर्जी बताती हैं कि नई शिक्षा नीति का प्रारूप एक सही कदम के रूप में बच्चों की शुरुआती देख-रेख और शिक्षा के महत्व पर ज़ोर देता है। साथ ही, यह प्राथमिक स्तर पर बुनियादी साक्षरता व गणितीय क्षमता को अविलम्ब दुरुस्त करने की ज़रूरत को रेखांकित करता है – वह स्तर जो आज सीखने के संकट से जूझ रहा है।

सन 2005 से साल दर साल एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट्स (असर) इस बात को लगातार उजागर करती आ रही है कि बच्चों के पढ़ने और गणित करने की क्षमता का स्तर चिंताजनक रूप से नीचे है। पंद्रह साल पहले, ग्रामीण भारत के पाँचवीं कक्षा के करीब आधे बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ नहीं पढ़ पाते थे। साल 2018 तक यह आँकड़ा करीब-करीब जस का तस था। अगर थोड़ा-बहुत बदलाव आया भी तो 2010 के बाद कुछ समय के लिए स्थितियाँ थोड़ी और बदतर हो गईं। स्पष्ट है कि ये निष्कर्ष न केवल बच्चों की स्कूली उपलब्धियों की दयनीयता का खुलासा करते हैं बल्कि इस बात का भी अनुमान देते हैं कि जब ये बच्चे उच्च प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में पहुँचेंगे तो किस हाल में होंगे।

बच्चे कक्षाओं में आगे बढ़ते हुए बेशक सीखते हैं, लेकिन सीखने का उनका ग्राफ समय के सापेक्ष सपाट रहता है। उदाहरण के लिए सन 2018 में आठवीं कक्षा के करीब 25% बच्चों को आसान से पाठ को पढ़ पाने में मुश्किल आ रही थी (असर 2018)। असर के आँकड़े बताते हैं कि कुछ मामलों में तो मौजूदा समूह का सीखने का ग्राफ पिछले समूहों की बनिस्बत कहीं नीचे है। इस बात का यह मतलब निकलता है कि प्रत्येक अतिरिक्त स्कूल वर्ष में बच्चों के आगामी समूहों में कम-दर-कम "मूल्य" का इज़ाफा हो रहा है।

विद्यार्थियों की उपलब्धियों पर किए गए अन्य सर्वेक्षण और सरकारी संस्थाओं व विशेषज्ञों के शोधों से मिलने वाले आँकड़े भी उन प्रवृत्तियों की पुष्टि करते हैं जो असर के आँकड़ों से स्पष्ट होती है। हालाँकि अन्य सभी अध्ययनों में अलग तरह के टूल और पद्धतियों का इस्तेमाल किया गया। नामाँकन की ऊँची दर के बावजूद ठीक से सीख न पाने की यह बीमारी सिर्फ भारतीय शिक्षा व्यवस्था तक सीमित नहीं है। वास्तव में पिछले 10 वर्षों में, जब दुनिया भर से बुनियादी शिक्षा के आँकड़े सामने आ रहे हैं और शोधकर्ताओं ने बच्चों के नामाँकन से आगे देखना शुरू किया तो एशिया और सब-सहारा अफ़्रीका के अन्य देशों से भी इसी तरह के प्रमाण मिल रहे हैं। विश्व बैंक को प्राथमिक शिक्षा का यह संकट इस कदर महत्त्वपूर्ण लगा कि उसने इस समस्या की प्रकृति और पहलुओं को समझने के लिए 2018 की वर्ल्ड डेवलपमेंट पर पूरी रिपोर्ट समर्पित कर दी।

आज तक, शिक्षा नीति से जुड़े किसी भी दस्तावेज में इतनी मज़बूती के साथ और अत्यावश्यक बताते हुए इस मुद्दे को नहीं उठाया गया कि सीखने की बुनियाद पर तत्काल ध्यान देना क्यों ज़रूरी है।

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, नई शिक्षा नीति 2019 के मसौदे को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने "इस संकट को तुरंत प्रभाव से चिन्हित करना है" (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 71) साहसपूर्वक स्वीकार और संबोधित किया। प्रारूप ज़ोर देते हुए आगे कहता है:

सभी बच्चों के लिए मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता को बनाए रखना तत्काल रूप से एक राष्ट्रीय अभियान बनना चाहिए। अपने स्कूल, शिक्षक, अभिभावकों और समुदायों के साथ छात्रों को इस महत्त्वपूर्ण लक्ष्य और अभियान को पूरा करने के लिए हर तरह से तत्काल सहायता और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। यही वास्तव में भविष्य में सीखने का आधार भी बनाता है (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 72)।

किसी समस्या को पहचानना, स्वीकार करना और समझना, उसके हल की राह निकालने के आवश्यक चरण हैं। आज तक शिक्षा नीति सम्बंधी जितने भी दस्तावेज जारी हुए हैं, किसी में भी इस सवाल को इतना मज़बूत और तात्कालिक मुद्दा नहीं बनाया गया कि क्यों शिक्षा की बुनियाद पर तुरंत काम करने की ज़रूरत है। हालाँकि भारत की शिक्षा व्यवस्था में ऐसी कई बातें हैं, जिन्हें ठीक किए जाने, दुबारा करने, संशोधित करने और पुनःकल्पित किए जाने की ज़रूरत है, नई शिक्षा नीति का प्रारूप बिलकुल सही तौर पर कहता है कि बुनियादी कौशलों का निर्माण करना कम से कम प्राथमिक विद्यालय की मुख्य गतिविधि होनी चाहिए। "हमारी उच्चतम प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हम 2025 तक सभी प्राथमिक व इनसे आगे के विद्यालयों में बुनियादी साक्षरता व गणितीय क्षमता का लक्ष्य हासिल कर लें" (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 83)। बिना किसी लाग-लपेट के और स्पष्ट शब्दों में यह दस्तावेज कहता है कि "नीति का शेष हिस्सा हमारे विद्यार्थियों के इतने बड़े समूह के लिए अप्रासंगिक साबित हो जाएगा अगर उन्हें सबसे पहले ये बुनियादी क्षमताएँ (पढ़ना, लिखना और बुनियादी स्तर का गणित कर पाना) हासिल नहीं हो जातीं" (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 84)।

उपलब्ध प्रमाणों और शहरी झुग्गी-बस्तियों व ग्रामीण समुदायों के बच्चों, परिवारों व विद्यालयों के साथ काम करने के हमारे पिछले 25 वर्षों के संचित अनुभवों के आधार पर हम भरोसे के साथ कह सकते हैं कि हम यदि नई शिक्षा नीति के मसौदे के उद्देश्य - "2025 तक कक्षा 5 और आगे के विद्यार्थी में बुनियादी साक्षरता और गणितीय क्षमता की प्राप्ति"- को हासिल करना चाहते हैं तो तीन प्रमुख रणनीतियों को शीर्ष प्राथमिकता पर रखना होगा।

शुरुआती वर्षों में आधार तैयार करना

पहला, प्रारंभिक वर्षों में बुनियाद को इतनी मज़बूती से डालना होगा कि बच्चे "आगे छलाँग" लगा पाएँ। आज "पीछे छूट जाने" की जो परिघटना इतने व्यापक स्तर पर दिखाई देती है, उसका एकमात्र कारण यही है कि सही चीज़ें सही वक़्त पर नहीं की गईं।

कम से कम जो बच्चे आज विद्यालय जाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए हमारा उद्देश्य होना चाहिए कि वे सीखने की सुविचारित गति से ऊपर उठते हुए मार्ग पर निर्बाध ढंग से यात्रा कर सकें ताकि जब वे प्राथमिक विद्यालय से बाहर निकलें तो वे आगे की शिक्षा और जीवन के लिए अच्छी तरह तैयार हों।

नई शिक्षा नीति का प्रारूप इस मान्यता को स्वीकार करता है कि प्रारंभिक वर्षों (3 से 8 वर्ष आयु) को "बुनियादी चरण" माना जाना चाहिए और इसे सतत होना चाहिए। इस आयु वर्ग के बच्चों की एक "लचीली, बहु-आयामी, बहु-स्तरीय, खेल आधारित, गतिविधि-आधारित, खोज- आधारित शिक्षा तक पहुँच होनी चाहिए" (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 61)। यह दस्तावेज उन बृहद कानूनी, संस्थागत, पाठ्यक्रम सम्बंधी व शैक्षणिक बदलावों की रूपरेखा पेश करता है जो प्रारंभिक बाल्यावस्था और शुरुआती कक्षाओं के लक्ष्यों, रूपरेखा और अभ्यास की सम्पूर्ण जाँच-पड़ताल के लिए आवश्यक हैं।

यह कहना उचित होगा कि भारत के प्रमुख शैक्षिक प्रतिष्ठान, मसलन केंद्र, राज्य व ज़िला स्तरीय सरकारी संस्थाओं के पास, जिन्होंने अब तक विद्यालयों को निर्देशित किया (जैसे एनसीईआरटी, एससीईआरटी या डायट), विद्यालय-पूर्व आयु वर्ग के साथ काम का अनुभव नहीं के बराबर रहा है। निजी क्षेत्र के विद्यालयों में विद्यालय-पूर्व कक्षाएँ अमूमन प्राथमिक विद्यालय का हिस्सा होती हैं और इनमें ज़्यादातर नामाँकन लोअर या अपर किंडरगार्टन में होता है। तथापि, शोध बताते हैं कि इन संस्थाओं में भी प्रारंभिक आयु के बच्चों के साथ "विद्यालय-जैसी" गतिविधियाँ ही की जाती हैं और वे इन बच्चों को लचीली, खेल-आधारित एवं विकास अनुरूप ऐसी गतिविधियाँ नहीं कराते जो नन्हे-मुन्ने मस्तिष्कों के विकास के अनुरूप हों। ये बच्चे विद्यालय-पूर्व शिक्षा में कई वर्ष बिताने के बाद भी कक्षा 1 के लिए "तैयार" नहीं हो पाते। (आंबेडकर विश्वविद्यालय और असर सेंटर द्वारा 2017 में किए गए अध्ययन- इंडिया अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन इम्पैक्ट स्टडी को देखें)।

वहीं भारत सरकार का महिला एवं बाल कल्याण विभाग समेकित बाल विकास सेवाएँ (आईसीडीएस) संचालित करता है। यह गर्भवती माताओं, नवजात शिशुओं व छोटे बच्चों के स्वास्थ्य, टीकाकरण और पोषण की ज़िम्मेदारियों से बुरी तरह लदा रहता है। कुल मिलाकर यह कोई इस बात को जानता है कि आँगनवाड़ियों में प्रारंभिक बाल प्रोत्साहन या विकास को जितनी प्राथमिकता मिलनी चाहिए, वह नहीं मिल पाती है।

दिल्ली से राज्य की राजधानियों और ज़िलों व गांव स्तर तक इन दो मंत्रालयों को एक साथ लाना बहुत बड़ा और चुनौतीपूर्ण कार्य है लेकिन उतना ही ज़रूरी भी है। नीति दस्तावेज का प्रारूप कहता है:

यह अनुमान लगाया गया है कि एक मज़बूत ECCE (अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन) कार्यक्रम उन बेहतरीन निवेशों में से एक है जो भारत कर सकता है। । । निष्कर्षतः यह मान्य तथ्य है कि ECCE में निवेश बच्चों को एक अच्छे, नैतिक, विचारवान, समानुभूति रखने वाले और उत्पादक इंसान के रूप में तैयार करने की सबसे अच्छी सम्भावना पैदा करता है (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 59)।

नीति दस्तावेज का प्रारूप कार्रवाई के लिए तीन संस्तुतियाँ पेश करता है। कुल मिलाकर, स्थानीय सन्दर्भ, आवश्यकताओं और अवसरों को ध्यान में रखते हुए प्रारंभिक बाल शिक्षा की डिलीवरी को प्रोत्साहित व मज़बूत करने की ज़रूरत होगी। उदाहरण के लिए, पिछले वर्ष, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में, राज्य सरकार ने अपने प्राथमिक विद्यालयों (पंजाब में सभी प्राथमिक विद्यालयों और हिमाचल में करीब 3000 विद्यालयों) में पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं के संचालन के लिए आवश्यक कदम उठाने का फैसला लिया। उनके अनुभव से मिलने वाली सीख दूसरे राज्यों के लिए उपयोगी हो सकती है। दोनों राज्यों में प्राइवेट स्कूलों की ओर जाने का रुझान 3 से 4 वर्ष की आयु से शुरू हो जाता है। अभिभावक कई वजहों से प्राइवेट स्कूलों को ज़्यादा आकर्षक पाते हैं। उनमें एक बड़ी वजह पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं की मौजूदगी भी है। जो अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं लेकिन उनके पास उन्हें प्राइवेट स्कूलों की पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में भेजने के लिए पैसे नहीं हैं, वे अपने बच्चों को जल्दी से जल्दी सरकारी स्कूलों की पहली कक्षा में भेज देना चाहते हैं (क्योंकि सरकारी स्कूलों में पूर्व-प्राथमिक कक्षाएँ नहीं लगतीं)। वास्तव में, आयु आधारित कक्षा वितरण की तुलना बताती है कि अभी हाल तक सरकारी स्कूलों की पहली कक्षा के बच्चे प्राइवेट स्कूलों के अपने समतुल्यों के मुकाबले उल्लेखनीय रूप से छोटे पाए गए। समय से पहले औपचारिक विद्यालयी शिक्षा शुरू करने और कक्षा 1 की अकादमिक अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चुनौती भी बच्चों के सही विकास में बाधा डालती है। सरकारी विद्यालयों में पूर्व-प्राथमिक कक्षाएँ शुरू करने और आँगनवाड़ी से पूर्व-प्राथमिक व पूर्व-प्राथमिक से कक्षा 1 में पारगमन को सुगम बनाने से बच्चों को सही आयु व सही समय पर विकासात्मक रूप से सही गतिविधियाँ मिल पाएँगी और इससे उनकी मज़बूत बुनियादी शिक्षा की प्रभावी राह बनेगी।

प्राथमिक कक्षाओं में आधारभूत कौशल

दूसरा, उन बच्चों के लिए जिन्हें उनके शुरुआती वर्षों में अच्छी तालीम का लाभ नहीं मिल पाया, पूरी रफ़्तार देने के लिए प्राथमिक विद्यालय को पार करने से पहले एक मज़बूत व टिकाऊ व्यवस्था की ज़रूरत पड़ेगी। इसके लिए, "थोड़े से काम चल जाएगा" या "चलता है" वाला रवैया काम नहीं करेगा। नीचे दी गई तालिका उन चुनौतियों की ठोस बानगी पेश करती है, जिनसे शिक्षक अपनी कक्षा में रोज़ रू-ब-रू होते हैं।

नोट: असर सर्वे भारत में गैर-सरकारी संगठन द्वारा किया जाने वाला सबसे बड़ा परिवार आधारित सर्वेक्षण है। इसके अंतर्गत देश के सभी ग्रामीण ज़िलों में बच्चों के प्रतिनिधि सैम्पल तक पहुँचा जाता है। हर वर्ष असर करीब 6,00,000 बच्चों तक पहुँचता है। राज्य की मुख्य स्कूली भाषा में बने बुनियादी असर टूल से बच्चों का एक-एक कर टेस्ट लिया जाता है।

ज़रा उस पंक्ति पर नज़र डालिए जो कक्षा 5 के बच्चों की स्थिति के निष्कर्ष बताती है। पूरे भारत में करीब 50% बच्चे कम से कम कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ पाने में सक्षम हैं (यह बिलकुल संभव है कि उनमें से कुछ इससे ऊँचे स्तर का पाठ भी पढ़ पाते होंगे)। लेकिन बाकी 50% बच्चों के बारे में क्या कहेंगे? ये शेष आधे बच्चे पढ़ने के अलग-अलग स्तर पर अटके हुए हैं- कुछ अक्षरों तक को नहीं पहचान पाते, तो कुछ सरल वाक्यों से जूझते नज़र आते हैं। अटके हुए बच्चों का यह व्यापक दायरा प्राथमिक विद्यालय में सीखने-सिखाने की सबसे बड़ी चुनौती है। शिक्षक के लिए यह रोज़ की दुविधा है कि वह किन बच्चों को पढ़ाए? और उन्हें क्या पढ़ाए? वर्षों से हमारी विद्यालयी व्यवस्था बड़ी निष्ठा से पाठ्यक्रम की पढ़ाई पर लंगर डाले हुए है, जो कक्षा आधारित पाठ्यपुस्तकों से निर्देशित की जाती है। एक सामान्य शिक्षक "कक्षा के सबसे अगड़े" बच्चों पर ही ध्यान देता है और बाकी को उनके हालात पर जूझने के लिए छोड़ देता है। शिक्षकों को दोष नहीं दिया जा सकता। वास्तव में, शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून कहता है कि शिक्षक को "निर्धारित समय में समूचे पाठ्यक्रम को ज़रूर पूरा कर लेना चाहिए" (आरटीई एक्ट 2009, 24। c)।

दिलचस्प है कि नई शिक्षा नीति का प्रारूप विद्यालय की तैयारी में कमी सहित इस शैक्षिक संकट के कई कारण गिनाता है- "बुनियादी साक्षरता व गणितीय क्षमता पर पाठ्यक्रम में बहुत कम ज़ोर", पढ़ाने की पद्धतियाँ, भाषा की भूमिका, शिक्षक की तैनाती में मुश्किलें और स्वास्थ्य व पोषण में कमी (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 72)। लेकिन यह अति महत्वाकांक्षी पाठ्यक्रमों के नकारात्मक परिणामों" (प्रिट्चेट और बीएटी 2012) या कक्षा के सर्वोत्कृष्ठ बच्चों को ही पढ़ाने की आम परिपाटी (बनर्जी और डूफ्लो 2012) पर सीधे तौर पर कुछ नहीं कहता। हालाँकि बाद के एक खंड में कुछ इस तरह के सन्दर्भ भी मिलते हैं कि "वर्तमान पाठ्यसामग्री ज़रूरत से बहुत ज़्यादा" और "ठूंसी हुई" है (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 102) और "कक्षा में किसी तरह पाठ को निपटाने की दौड़ और आदेशित पाठ्यसामग्री को हर हाल में रटने की परिपाटी आलोचनात्मक सोच, खोज आधारित, संवाद आधारित और मूल्याँकन आधारित शिक्षा, यानी सच्ची समझ प्राप्त करने के अवसरों के लिए मौक़ा ही नहीं देती है" (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 102)।

नई शिक्षा नीति का प्रारूप कहता है कि "कक्षा 1-5 तक के लिए विद्यालयी व कक्षा पाठ्यक्रम एवं समय-सारिणी बुनियादी साक्षरता व गणितीय क्षमता को केंद्र में रखते हुए पुनर्गठित की जाएगी। प्रति दिन, प्रति सप्ताह, प्रति वर्ष, विशेष अवसरों, सामग्रियों और गतिविधियों के समय के निर्धारण के लिए व्यावहारिक सुझाव दिए गए हैं और पढ़ने, लिखने व गणित करने पर केंद्रित किया गया है। इन सुझावों के इस बात के लिए गहरे निहितार्थ होंगे कि विद्यालयी दिवस व विद्यालयी सत्र के दौरान किस प्रकार सीखने-सिखाने के समय और शिक्षक के प्रयास को फिर से निर्धारित किया जाए।

नीति दस्तावेज के प्रारूप के तैयार होने से पहले ही, कई राज्यों ने ऐसी पहलकदमियाँ लेनी शुरू कर दी थीं। इन पहलकदमियों का प्रभाव, चिरक्षमता और सफलता भले ही अलग-अलग रही हो। (उदाहरण के लिए, राज्य सरकारों द्वारा किए गए ऐसे प्रयास- पंजाब में "पढ़ो पंजाब, पढ़ाओ पंजाब", कर्नाटक में "ओडु कर्नाटक", उत्तर प्रदेश में "ग्रेडेड लर्निंग प्रोग्राम", बिहार में "मिशन गुणवत्ता", दिल्ली में "मिशन बुनियाद")। ज़मीनी स्तर पर वास्तविक चुनौती इस बात की है कि एक बार की "उपलब्धि" के आदेश का रोज़मर्रा की कवायद यानी सिलेबस के इशारे पर चलने वाली स्कूल की आम समय-सारिणी के साथ कैसे संतुलन बिठाया जाए। "उपलब्धि" को विद्यालयी व्यवस्था में सतत रूप से गूँथ देना या विद्यालय के वार्षिक कलेंडर का हिस्सा बना देना अब तक का सबसे कठिन लक्ष्य रहा है। अपेक्षित "उपलब्धियों" के आकार, गहराई और मात्रा को देखते हुए, हमें कम से कम पाँच साल या ज़्यादा समय के लिए एक निरंतर व उच्च प्राथमिकता के प्रयासों की ज़रूरत है। निर्धारित लक्ष्य हासिल करने के लिए विद्यालयी व्यवस्था के प्रमुख तत्वों, जैसे- शिक्षक प्रशिक्षण, टीएलएम, सतत शिक्षक सहायता, मेंटरिंग-मॉनिटरिंग, मूल्याँकन और गलतियों में सुधार आदि को एक सूत्र में लाना जोखिम भरा काम है। नई नीति की अत्यंत महत्त्वपूर्ण दिशा को देखते हुए बुनियादी शिक्षण के लिए एक सूत्र में लाने की यह कवायद संभवतः संभव होगी।

अभिभावकों को जोड़ना और समुदायों को तैयार करना

तीसरा, भारत के करीब-करीब पूर्ण सार्विक नामाँकन पर वापस नज़र डालते हैं। इस उपलब्धि का श्रेय निश्चय ही सरकार, अभिभावकों और समुदाय के सदस्यों को दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने ही हर बच्चे की विद्यालय में नामाँकन को सुनिश्चित किया है। हर बच्चा ठीक तरह से पढ़ पाए, इसके लिए भी इसी तरह के सामाजिक आन्दोलन की ज़रूरत है। प्रारूप दस्तावेज़ "समुदाय की सहभागिता" या "अभिभावकों की भागीदारी" के रस्मी नुस्खों से आगे बढ़कर ठोस सुझाव देता है। यह नेशनल ट्यूटर्स प्रोग्राम और रेमेडिअल इंस्ट्रक्शनल ऐड्स प्रोग्राम (नई शिक्षा नीति, पृष्ठ 79) जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से बड़े स्तर पर समुदाय एवं स्वयंसेवकों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के तौर-तरीकों व प्रक्रियाओं की रूपरेखा पेश करता है। यह बताना दिलचस्प होगा कि शहरी ग़रीब बस्तियों व गांव समाजों में हमारा ख़ुद के काम में स्थानीय युवक-युवतियों व अभिभावकों को शामिल करने के सशक्त प्रयास किये जा रहे हैं ताकि वे अपने बच्चों की शैक्षिक ज़रूरतों को जान व समझ सकें। बाह्य मूल्याँकन (JPAL के यादृच्छिकीक्रित नियंत्रित परीक्षण) की एक शृंखला स्वयंसेवकों की भूमिका को महत्त्वपूर्ण बताती है। अगर अर्थपूर्ण ढंग से किया जाए तो युवाओं को ज़रूरतमंद स्कूली बच्चों से जोड़ने की व्यवस्था को सामूहिक कार्रवाई, सामाजिक जुड़ाव, सहयोगपूर्ण शिक्षा और राष्ट्र निर्माण का सशक्त औज़ार बनाया जा सकता है।

नीति दस्तावेज की दो संस्तुतियाँ उल्लेखनीय हैं: नेशनल ट्यूटर प्रोग्राम (हर विद्यालय के सर्वोत्कृष्ट बच्चे जो छोटे बच्चों की मदद कर सकते हैं) और रेमेडियल इंस्ट्रक्शनल ऐड्स प्रोग्राम (स्थानीय अनुदेशक ख़ास तौर पर महिलाएँ) के अंतर्गत उन बच्चों पर ध्यान दिया जा सकता है जिन्हें अतिरिक्त मदद की ज़रूरत है। नीति दस्तावेज यह भी सुझाव देता है कि अनुदेशात्मक सहायता को बढ़ावा देकर आगे प्रमाणत्र या दी गई सेवाओं के बदले क्रेडिट हासिल किए जा सकते हैं। "शिक्षा के बदले शिक्षा" का विचार बहुत शक्तिशाली है; अगर आप अपने गांव के छोटे बच्चों की मदद के लिए समय निकालते हैं, तो आप ख़ुद अपनी शिक्षा को जारी रखने के लिए क्रेडिट "कमा" सकते हैं। पिछले दशक में समुदायों के बीच काम के दौरान हमें "शिक्षा के बदले शिक्षा" के अनेक संस्करणों का अनुभव हुआ। यह अनुभव आँगनवाड़ी और प्राथमिक विद्यालय दोनों जगहों के स्वयंसेवियों के साथ काम का है। इस तरह के काम को सरकारी मान्यता और आगे के अध्ययन के लिए क्रेडिट कमाना, सामुदायिक सेवा व शिक्षा को जोड़ने की एक प्रभावी युक्ति साबित हो सकती है।

निष्कर्ष

निष्कर्ष के तौर पर हमें याद रखना चाहिए कि एक नीति व्यापक लक्ष्यों को सामने रखकर उन पर कार्यवाही की योजना सुझाती है। यह लक्ष्य की ओर जाने वाली मार्गदर्शिका के निर्माण के लिए एक दिशा और रूपरेखा की ओर इशारा करती है। योजना, परिचालन, सुधार और समीक्षा जैसी बातें नीति के लागू होने के बाद के वर्षों में होनी शुरू होंगी। नीतियाँ उम्मीदों से भरी होनी चाहिए। अगर स्थितियाँ सतोषजनक हों तो नई नीति की ज़रूरत ही नहीं पड़ती है। असल मुसीबत तो विस्तार में छुपी होती है। यह लागू करने वालों का काम है कि वे किसी नीति को कार्यरूप में बदलें। अपेक्षित लक्ष्यों को साधने और व्यावहारिक राह बनाने के बीच संतुलन कायम करना कोई आसान काम नहीं है। व्यवहार को नीतियों से लगातार रोशन करते रहना और हर बढ़ते कदम से सीख लेना ज़रूरी है।

छोटे और प्राथमिक विद्यालय की उम्र के बच्चों के लिए नई शिक्षा नीति का प्रारूप कुछ लक्ष्यों को चिन्हित करता है जो देश के भावी विकास के लिए अनिवार्य हैं। चाहे वह समानता हो या वृद्धि, यह सुनिश्चित करना अत्यावश्यक है कि हमारी युवा आबादी की रचनात्मक एवं उत्पादक ऊर्जा का दोहन न हो। यह नीति निर्माताओं और उन्हें लागू करने वालों पर, अभिभावकों और लोगों की ज़िम्मेदारी है कि बच्चों को उनकी महत्तम क्षमता तक पहुँचाने के लिए वे किस हद तक साथ काम करने के लिए तैयार हैं।

इस लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं।

लेखक परिचय: डॉ रुक्मिणी बनर्जी प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की सीईओ हैं।

अनुवाद करने में सहायक:आशुतोष उपाधय

स्कूली शिक्षा

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