गत वर्ष, 2023 को 'अंतर्राष्ट्रीय कदन्न वर्ष’ के रूप में मनाया गया। जलवायु परिवर्तन के झटकों को देखते हुए बढ़ती जनसँख्या को भविष्य के खाद्य संकट से बचाने में मोटे अनाजों की एक बड़ी भूमिका हो सकती है। कदन्न के विषय में अपने इस लेख के माध्यम से, मनन भान ने ‘सन्निहित क्षेत्र’ की एक अवधारणा प्रस्तुत की है जिसमें उपभोग के बिन्दु पर भूमि के उपयोग को ध्यान में रखते हुए नकारात्मक प्रभावों का बोझ उत्पादकों के बजाय उपभोक्ताओं पर डाला जाता है। वे मोटे अनाजों के उत्पादन की भूमि क्षेत्र में गिरावट और उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं, दोनों को लाभ पहुँचाने हेतु स्थाई तरीके से कदन्न की खेती, उन के व्यापार और खपत का विस्तार करने की क्षमता को प्रस्तुत करते हैं।
भारत में कदन्न यानी मोटे अनाजों की खेती और उपभोग का एक लम्बा इतिहास रहा है। मोटे अनाजों की खेती कई क्षेत्रों, खासकर देश के अर्ध-शुष्क और उप-नम भागों की सांस्कृतिक विरासत का एक हिस्सा बनी हुई है। हरित क्रांति और देश भर में धान और गेहूँ की अधिक उपज देने वाली किस्मों की शुरुआत के बाद से, मोटे अनाजों की खेती में लगातार गिरावट आई है। इसके बावजूद, भारत ज्वार, मोटा अनाज और रागी जैसे कई मोटे अनाजों की किस्मों के सबसे बड़े उत्पादकों और उपभोक्ताओं में से एक बना हुआ है। हालांकि, वैश्विक कदन्न व्यापार में इसकी हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय कदन्न वर्ष (आईवाईएम 2023) घोषित करने से मोटे अनाज की खेती के वैश्विक पुनरुद्धार का एक अवसर सामने आया, जिसके तहत खाद्य और कृषि संगठन ने विभिन्न प्रयासों का नेतृत्व किया। जलवायु लचीलापन और पोषण सम्बन्धी दृष्टिकोण, दोनों से मोटे अनाज की किस्मों के वांछनीय गुणों के बारे में जागरूकता बढ़ाना इन प्रयासों के मूल में था और इस पुनरुत्थान में भारत सबसे आगे रहा। देश भर में मोटे अनाज की किस्मों के उत्पादन और इन की खपत को बढ़ाने हेतु भारतीय कदन्न अनुसंधान संस्थान के प्रति बढ़े हुए सरकारी समर्थन के साथ-साथ, राज्य-स्तरीय कदन्न मिशन (उदाहरण के लिए, ओडिशा कदन्न मिशन) की शुरुआत सहित कई नई पहलों की घोषणा हुई।
मैं इस लेख में 'सन्निहित क्षेत्र' यानी एम्बॉडीड एरिया की मेट्रिक के माध्यम से पिछले तीन दशकों (यानी 1986-2019 तक) में देश में मोटे अनाजों की खपत के आँकड़ों की समीक्षा करता हूँ। मैं घरेलू खपत और निर्यात के लिए निर्धारित मोटे अनाजों में अंतर करता हूँ ताकि यह बता सकूँ कि इस समय के दौरान भारत में कदन्न का उत्पादन कैसे बदला है।
उपभोग-आधारित विवरण का उपयोग करना
'सन्निहित' क्षेत्र1 की अवधारणा किसी क्षेत्र में किसी कृषि वस्तु विशेष की खपत को पूरा करने के लिए आवश्यक क्षेत्र को दर्शाती है। किसी क्षेत्र और वस्तु (जैसे कि भारत और मोटा अनाज) के सन्दर्भ में, ‘सन्निहित क्षेत्र’ का तात्पर्य भारत में मोटा अनाज उत्पादन के तहत क्षेत्र और घरेलू खपत के लिए भारत में आयात से है। क्योंकि इस मेट्रिक में किसी क्षेत्र के भीतर उत्पादित मात्रा का उपयोग उसी क्षेत्र के भीतर उपभोग की गई या किसी भिन्न क्षेत्र से उत्पन्न होने वाली मात्रा का पता लगाने के लिए किया जाता है, अतः इससे उपभोग-आधारित विवरण प्राप्त होता है। क्योंकि प्रत्येक क्षेत्र में विशिष्ट कृषि उत्पाद और उनके व्यापार के आँकड़े पाए जाते हैं, इसलिए सम्बंधित उपभोग-आधारित आँकड़ों का अनुमान लगाना सम्भव है।
इस प्रकार, उपभोग-आधारित गणना के दृष्टिकोण में उपभोग के बिन्दु पर भूमि के उपयोग का विवरण मिलता है। इसका मतलब यह हुआ कि यह विशिष्ट कृषि वस्तु के उत्पादक के बजाय अंतिम उपभोक्ता (एक व्यक्ति या एक देश) है जो उस वस्तु के उत्पादन (इस मामले में मोटा अनाज) के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि का 'प्रतिनिधित्व' कर रहा है।
यह किसी कृषि वस्तु के उत्पादन के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि का किसी भी देश के हिस्से पर एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। इसके पश्चात इन मेट्रिक्स को प्राथमिक समकक्षों के सन्दर्भ में वर्णित किया जाता है। उदाहरण के लिए, कदन्न के आटे, चोकर के व्यापार और खपत को इसके स्रोत उत्पाद अर्थात मोटा अनाज में बदल दिया जाता है और फिर इसे मोटा अनाज व्यापार के रूप में दर्शाया जाता है। प्राप्त अनुमानों को फिर पुन: निर्यात- उदाहरण के लिए, भारत जर्मनी को निर्यात करता है जो फिर ऑस्ट्रिया को निर्यात करता है तो इसे भारत-ऑस्ट्रिया व्यापार के रूप में दिखाया जाएगा ; डबल क्रॉपिंग- एक ही भूमि पर कई मौसमों में उत्पादन, भारत में एक आम प्रथा ; और उत्पाद मूल्य श्रृंखला में हानि के सन्दर्भ में संशोधित किया जाता है।
कृषि मूल्य श्रृंखलाओं में प्रचलित नकारात्मक सामाजिक-पर्यावरणीय प्रभावों, जैसे भूमि क्षरण और किसानों की आय में स्थिरता, की समझ पहले के मुकाबले में बढ़ी है। इन प्रभावों को कम करने की ज़िम्मेदारी को बेहतर ढंग से आवंटित करने के लिए उपभोग-आधारित गणना उपयोगी है। इससे समानता और न्याय से जुड़े मुद्दों पर भी बेहतर ढंग से ध्यान दिया जा सकता है। अर्थात, नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए कार्रवाई करने का बोझ उत्पादकों के बजाय उपभोक्ताओं पर पड़ना चाहिए, क्योंकि उपभोक्ताओं के पास आमतौर पर निर्णय लेने के सर्वोच्च अधिकार होते हैं।
भारत एक ऐसा देश है जहाँ मोटे अनाज का उत्पादन और खपत बड़े पैमाने पर घरेलू स्तर पर होत है, इन विचारों का महत्व अपेक्षाकृत कम है। पाम ऑयल और सोयाबीन जैसे अन्य कृषि उत्पाद के लिए, ऐसे व्यापार सम्बन्धों का महत्व बढ़ जाता है क्योंकि इनका भू-राजनीतिक महत्व है। परिणामस्वरूप, किसी क्षेत्र के उत्पादन-आधारित विवरण के साथ तुलना, जो आमतौर पर कृषि सांख्यिकी डेटासेट में पाई जाती है, सम्भव है, लेकिन यह तुलना सावधानी से की जानी चाहिए। इसका कारण ऐसी तुलना में वस्तु के पुन: निर्यात सम्बंधित संशोधन तथा उपभोग-आधारित विवरणों में व्यापार, भंडारण और अंतिम खपत के बीच समय के अंतराल आदि में अनिश्चितताओं का होना है।
उत्पादन क्षेत्र में लगातार गिरावट
धान और गेहूँ का उत्पादन पिछले 30 वर्षों में लगातार बढ़ा है, जबकि मोटे अनाज का अपने स्थान पर बरकरार नहीं रह पाया है। पिछले तीन दशकों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और खपत के आँकड़े भारत में मोटा अनाज खपत के कुल क्षेत्र में पर्याप्त कमी का संकेत देते हैं, जहाँ मोटे अनाज का उत्पादन घरेलू स्तर पर किया जाता था। वास्तव में यह वर्ष 1986 में 15.95 मिलियन हेक्टेयर (एमएचए) था, जो वर्ष 2019 में घटकर 6.83 एमएचए हो गया है (आकृति-1 को देखें)। सदी की शुरुआत (2000-2005) में कुछ साल ऐसे थे जब वृद्धि देखी गई, जो समग्र रूप से घटती प्रवृत्ति का संक्षेप में प्रतिकार करती थी। यद्यपि मोटे अनाज का निर्यात-उन्मुख घरेलू उत्पादन कई गुना अर्थात 0.37 किलोहेक्टेयर से 33.93 किलोहेक्टेयर तक बढ़ गया है, यह घरेलू खपत के लिए भारत में निर्धारित मोटा अनाज उत्पादन की तुलना में नगण्य है।
आकृति-1. भारत में मोटा अनाज और ज्वार की घरेलू खपत में घरेलू उत्पादन से सन्निहित क्षेत्र, 1986-2019

स्रोत : लेखक द्वारा अनुमान।

ज्वार के लिए, घरेलू उत्पादन से घरेलू खपत में ‘सन्निहित क्षेत्र’ में और भी अधिक गिरावट देखी गई है। यह वर्ष 1986 में 15.11 मिलियन हेक्टेयर थी, जो बढ़कर वर्ष 2019 में 3.26 मिलियन हेक्टेयर हो गई है। निर्यात के लिए निर्धारित घरेलू उत्पादन के तहत सन्निहित क्षेत्र वर्ष 1986 में 0.5 हेक्टेयर था, जो कि वर्ष 2019 में बढ़कर 20.8 हेक्टेयर हो गया है, जबकि वर्ष 1986 और 2019 के बीच के वर्षों में कई बार इस में वृद्धि हुई है।
साक्ष्य दर्शाते हैं कि पिछले कुछ दशकों में मोटा अनाज की पैदावार में 600-1000 किलोग्राम/हेक्टेयर की वृद्धि से क्षेत्रीय उत्पादन में इनकी गिरावट की भरपाई हो गई है और इससे मोटा अनाज उत्पादन में शुद्ध वृद्धि दर्ज हुई (इंडिया डेटा इनसाइट्स, 2023)। इससे पता चलता है कि मोटे अनाज के उत्पादन का विस्तार करने की रणनीतियों को नए क्षेत्रों में विस्तार के बजाय पैदावार बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
मोटा अनाज उत्पादन में वृद्धि, न तो मोटा अनाज विस्तार के लिए और न ही मोटे अनाज उगाने से विस्थापित फसलों के लिए जंगलों या घास के मैदानों के कृषि भूमि में परिवर्तन की कीमत पर होनी चाहिए। भूमि उपयोग स्थिरता का एक तत्व उत्पादन और उपभोग पैटर्न को समझना है, साथ ही घरेलू और विदेशी उपभोग मांगों को पूरा करने के लिए भूमि और पारिस्थितिकी तंत्र की सीमा को समझना भी है। यह समझ भूमि उपयोग पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रभाव, अन्य देशों में पारिस्थितिक दबाव के विस्थापन और समय के साथ कृषि उत्पादन के वैश्विक पुनर्वितरण का निर्धारण करने में उपयोगी सिद्ध होती है।
मोटा अनाज उत्पादन और इसके व्यापार के रुझान को उलटने की जरूरत
अंतर्राष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष 2023 ने भारत में मोटा अनाज उत्पादन, व्यापार और खपत को स्थाई तरीके से प्रोत्साहित करने के अवसर प्रदान किए। इससे आशा की जाती है कि भारत के फसल मिश्रण में विविधता लाने, उत्पादकों को जलवायु लचीलापन अपनाने और उपभोक्ताओं के लिए पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। इसे एक सतत प्रयास में बदलने के लिए, मोटा अनाज उत्पादन से लेकर इसके प्रसंस्करण और खुदरा बिक्री तक सम्पूर्ण कदन्न मूल्य श्रृंखला में सुधार करना महत्वपूर्ण होगा, ताकि यह अनेक भारतीयों की जीवनशैली का हिस्सा बन सके।
मोटा अनाज निर्यात एक और आशाजनक अवसर प्रदान करता है। हाल की रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि वैश्विक बाज़ार में बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए, जो कि पिछले कुछ वर्षों में लगभग 3% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रही है, भारत में मोटा अनाज निर्यात का विस्तार करने की भारी क्षमता है। उत्पादन के क्षेत्र में हालिया गिरावट के रुझान को उलटने और सतत तरीके से पैदावार में बढ़ोतरी को बनाए रखने से भारत को मोटे अनाज की बढ़ती राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय माँग को पूरा करने में मदद मिल सकती है।
(लेख में उल्लिखित खाद्यान्नों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार प्रवाह पर डेटासेट तैयार करने के लिए लेखक डॉ. निकोलस रूक्स को धन्यवाद देते हैं।)
लेख में व्यक्त विचार पूरी तरह से लेखक के हैं और ज़रूरी नहीं कि वे I4I संपादकीय बोर्ड के विचारों को प्रतिबिम्बित करते हों।
टिप्पणी:
- ‘सन्निहित क्षेत्र’ की अवधारणा के बारे में अधिक जानने के लिए, रूक्स एवं अन्य (2022) को देखें।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : मनन भान भारत के बेंगलुरु में अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) में फेलो इन रेज़िडेंस हैं। उन्होंने 2022 में वियना में इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल इकोलॉजी, यूनिवर्सिटेट फूर बोडेनकल्चर से पीएचडी की है। वे दिल्ली विश्वविद्यालय से भूविज्ञान में स्नातक और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पर्यावरण परिवर्तन और प्रबंधन में स्नातकोत्तर उपाधियाँ प्राप्त हैं।
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