वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के कार्यान्वयन के बारे में अपने दो लेखों में से पहले लेख में, भारती नंदवानी ने ओडिशा के अनुसूचित जनजातियों की राजनीति में सहभागिता के संदर्भ में भूमि स्वामित्व मान्यता की बढ़ती मांग के निहितार्थ पर प्रकाश डाला है। वे आय में वृद्धि या शिकायत निवारण तक पहुँच जैसे संभावित चैनलों की, जिनके माध्यम से एफआरए लाभार्थियों को सशक्त बना सकता है, जांच करती हैं और दर्शाती हैं कि स्थानीय समुदायों को उनके अधिकार दिलाने और कल्याण कार्यक्रमों तक उनकी पहुँच को बढ़ाने से वनों के संरक्षण में मदद मिल सकती है और संघर्ष को कम किया जा सकता है।
कृषि के लिए भूमि सबसे महत्वपूर्ण इनपुट है, जिसका स्वामित्व ग्रामीण समुदायों में उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के साथ बहुत नज़दीकी से जुड़ा हुआ है। विशेष रूप से यह भारत के वन क्षेत्रों में रहने वाले और इससे अपनी आजीविका प्राप्त करने वाले, हाशिए पर रहे स्थानीय समुदायों- अनुसूचित जनजातियों (एसटी) की पहचान के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है। हालाँकि, एक साझा संसाधन होने के नाते, वन क्षेत्रों में भूमि अधिकारों को पारम्परिक रूप से गलत तरीके से परिभाषित किया गया है और उस पर गलत दावे चलते ही रहे हैं। औपनिवेशिक शासन से पहले, आदिवासी समुदाय जंगलों के आसपास रहते थे और इसका प्रबंधन और खेती बहुत मामूली सरकारी हस्तक्षेप के साथ करते थे। फिर भी, 19वीं सदी के मध्य में, औपनिवेशिक सरकार ने वनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया और वनवासियों को सरकारी भूमि पर अतिक्रमणकारी माना जाने लगा। आज़ादी के बाद भी वनों पर सरकारी नियंत्रण कायम रहा और वन भूमि पर पारम्परिक वनवासियों के दावे अवैध बने रहे।
वन अधिकार अधिनियम के निहितार्थ
ऐतिहासिक भूमि अधिकार कानून- वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के अधिनियमन के साथ वनों के कानूनी स्वामित्व में नाटकीय रूप से बदलाव आया। वनवासियों और नागरिक समाज संगठनों की लम्बे समय से चली आ रही मांग के परिणामस्वरूप वर्ष 2008 में लागू किए गए एफआरए को अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के पारम्परिक रूप से कब्ज़े वाली वन भूमि पर उनके स्वामित्व और खेती के अधिकारों को वैध बनाने के लिए पेश किया गया। इस अधिनियम के लागू होने के बाद से, भूमि स्वामित्व की मान्यता की भारी मांग रही है जिसे भूमि स्वामित्व के लिए प्राप्त आवेदनों की संख्या को देखकर समझा जा सकता है। ओडिशा राज्य में वर्ष 2009 में स्वामित्व के लिए कुल 1500 आवेदन प्राप्त हुए थे, जो वर्ष 2019 में बढ़कर 20,000 हो गए और स्वामित्व वितरण दर भी 2009 में 25% थी, जो वर्ष 2019 में बढ़कर 69% हो गई।
एक हालिया अध्ययन (नंदवानी, 2023) में हम यह पता लगाते हैं कि क्या एफआरए के तहत स्वामित्व मान्यता और उसके वितरण की बढ़ती मांग से अनुसूचित जनजातियों की राजनीति में सहभागिता में सुधार होता है? अपनी शिकायतों का समाधान पाने के लिए हाशिए पर रहने वाले समूहों की राजनीति में सहभागिता का होना उन महत्वपूर्ण तरीकों में से एक है, जिसके ज़रिए वे वैध तरीके से अपने अधिकारों की मांग कर सकते हैं, जैसा कि अन्य विकासशील देशों के संदर्भों (कोपैस 2019) में देखा गया है, जिससे सार्वजनिक सेवाओं तक उनकी पहुँच में सुधार होता है। ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से हम एसटी को राजनीतिक रूप से संगठित करने के लिए एफआरए जैसे भूमि अधिकार कानून की अपेक्षा करते हैं। इस अधिनियम द्वारा लाभार्थियों को वनों और लघु वन उपज (एमएफपी) पर स्वामित्व का अधिकार देकर सशक्त बनाए जाने की आशा है। मुख्यधारा के मीडिया में उद्धृत कई घटनाओं से पता चलता है कि एसटी को भूमि स्वामित्व का अधिकार दिए जाने से उन्हें उल्लेखनीय रूप में आय-लाभ हुआ है (चटर्जी एवं अन्य, साहू 2018, लोप्स 2022)। एसटी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार के चलते लाभार्थी समाज में महत्वपूर्ण हितधारक बन जाते हैं और उनकी राजनीति में सहभागिता भी बढ़ सकती है (आइंस्टीन एवं अन्य 2019, हॉल और योडर 2022)।
विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले समूहों के लिए भूमि अधिकारों का प्रावधान, कमज़ोर शासन व्यवस्था वाले समुदायों में अपर्याप्त और बेहद चुनौतीपूर्ण पाया गया है (विशेषकर पेरू और कोलंबिया जैसे दक्षिण अमेरिकी देशों में, जैसा कि क्रमश: अल्बर्टस (2020) और अल्बर्टस और कपलान (2013) दर्शाते हैं)। भारत में वनों पर अधूरे और विवादास्पद भूमि अधिकारों के इतिहास को देखते हुए इस अध्ययन में यह भी जांच की गई है कि क्या एफआरए के प्रभाव को बढ़ाने वाला चैनल, समुदायों की बढ़ी हुई आय है या शिकायत निवारण है।
डेटा और कार्यप्रणाली
हमने अपना अध्ययन भारत के पूर्वी हिस्से में स्थित घने जंगलों वाले एक राज्य ओडिशा में किया। ओडिशा में वर्ष 2009 से 2019 तक वन भूमि स्वामित्व के लिए प्रस्तुत आवेदनों के साथ-साथ भूमि स्वामित्व की मंज़ूरी के बारे में प्रचुर जिला-स्तरीय जानकारी उपलब्ध है, जबकि अन्य राज्य इस जानकारी को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं कराते हैं। हम एफआरए कार्यान्वयन के दो संकेतकों का उपयोग करते हैं- भूमि स्वामित्व की मान्यता के लिए प्रस्तुत किए गए आवेदनों की संख्या और वितरित भूमि स्वामित्व की संख्या। त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डेटा, जिसके पास देश के सभी राज्य विधानसभा चुनाव परिणामों के डिजिटल रिकॉर्ड हैं, द्वारा ओडिशा में वर्ष 2009 और 2019 के बीच हुए चुनावों के संबंध में साझा किया गया चुनावी डेटा भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) से प्राप्त हुआ है। हम राजनीतिक सहभागिता को राज्य विधान सभा चुनाव लड़ने वाले एसटी समुदाय के उम्मीदवारों के प्रतिशत के रूप में मापते हैं। हमारी अनुभवजन्य पद्धति में, निर्वाचन क्षेत्र-विशिष्ट समय अपरिवर्तनीय कारकों, जिला-विशिष्ट समय रुझानों और चुनाव वर्ष निश्चित प्रभावों का अध्ययन करके एफआरए के प्रभाव की पहचान की गई है।
जाँच के परिणाम
हमारे परिणामों से संकेत मिलता है कि 1,000 भूमि-स्वामित्व के अतिरिक्त आवेदनों से एसटी समुदाय से संबंधित राजनीतिक उम्मीदवारों की संख्या 13% (अनारक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में) बढ़ जाती है, जबकि स्वामित्व की मांग को नियंत्रित करने के बाद, वितरित भूमि-स्वामित्व की संख्या में ऐसा कोई संबंध नहीं देखा गया है। इससे पता चलता है कि एफआरए के लागू होने के बाद एसटी उम्मीदवारों की बढ़ी हुई राजनीतिक सहभागिता, वास्तविक स्वामित्व वितरण के बजाय स्वामित्व के लिए मान्यता की मांग से प्रेरित है। इस वृद्धि में मुख्य रूप से ऐसे उम्मीदवार हैं जिन्हें राजनीति का कोई अनुभव नहीं है और वे गैर-मुख्यधारा के राजनीतिक दलों (भाजपा, बीजद, कांग्रेस के अलावा अन्य दलों) से संबंधित हैं।
हम यह भी दर्ज करते हैं कि भूमि के स्वामित्व के लिए आवेदनों में वृद्धि के कारण राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में वृद्धि और प्रमुख उम्मीदवारों के बीच वोट शेयर में अंतर कम है। इसके अतिरिक्त, हमने पाया कि स्थानीय या राज्य सरकार में एसटी के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मौजूदा प्रावधानों के बावजूद, राजनीतिक लामबंदी में वृद्धि समान है, जिससे यह उजागर होता है कि एसटी के लिए मौजूदा संवैधानिक प्रावधान उनके हितों की रक्षा करने में बहुत अधिक सार्थक नहीं रहे हैं।
इसमें दृष्टव्य धारणा यह है कि, सभी नियंत्रणों पर सशर्त, स्वामित्व के लिए प्रस्तुत और वितरित दावों में भिन्नता अर्ध-यादृच्छिक यानी क्वासि-रैंडम होने की संभावना है। फिर भी यदि एसटी की उच्च राजनीतिक लामबंदी से स्वामित्व के लिए दावा प्रस्तुत करने और उसके वितरण में सुधार होता है और इसका विपरीत सही नहीं हो तो यह धारणा बाधित होगी। या यदि ऐसे उलझाने वाले कारक हैं जो एसटी की राजनीतिक सहभागिता और दावा दाखिल/वितरण, दोनों को प्रभावित करते हों तो भी यह धारणा बाधित होगी। हम पूर्व-रुझानों की जांच और एक प्लेसबो परीक्षण, जिसमें हम भविष्य के दावों पर एसटी की राजनीतिक सहभागिता का समाश्रयण या रिग्रेशन करने सहित एक श्रृंखला में जांच करते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भ्रमित करने वाले कारक परिणामों को प्रभावित न कर पाएं।
बढ़ती राजनीतिक सहभागिता के लिए एक माध्यम के रूप में ‘शिकायत निवारण’
हम पहले सुझावात्मक साक्ष्य प्रदान करते हैं कि एफआरए के लागू होने के बाद एसटी की आय में वृद्धि से उनकी राजनीतिक सहभागिता पर प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है। जबकि सैद्धांतिक रूप से एफआरए के लागू होने बाद होने वाला आय लाभ राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि को प्रेरित कर सकता है, हमारे परिणाम बताते हैं कि जो दावे अंततः वितरित हो जाते हैं और परिणामस्वरूप आर्थिक लाभ होता है, वे राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि का कारण नहीं होते हैं। हम यह दर्शाते हुए आय चैनल (स्रोत) के विपरीत सुझावात्मक साक्ष्य भी प्रदान करते हैं कि जब हम आय लाभ के इन दोनों संकेतकों, वन उपज के मूल्य के साथ-साथ एसटी के धन स्तर को नियंत्रित करते हैं, तो हमारे मुख्य परिणामों में कोई बदलाव नहीं होता।
इस बढ़ती राजनीतिक सहभागिता के चैनल (स्रोत) का पता लगाने के लिए, हम भूमि स्वामित्व की अनुमोदन प्रक्रिया को गहराई से देखते हैं। स्वामित्व के लिए दावे प्रस्तुत किए जाने के बाद, उनका मूल्यांकन ग्राम सभा द्वारा गठित एक समिति करती है। अनुमोदित होने के बाद, उन्हें जिला कलेक्टर द्वारा स्वामित्व पर अंतिम हस्ताक्षर करने से पहले अंतिम अनुमोदन के लिए उप-जिला स्तरीय समिति (एसडीएलसी) और जिला स्तरीय समिति (डीएलसी) के पास भेजा जाता है। स्वामित्व वितरण की प्रक्रिया लम्बी है और इसके लिए तीन चरणों में अनुमोदन की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, एसडीएलसी और डीएलसी में विशेष रूप से वन अधिकारी शामिल होते हैं, जो एफआरए का विरोध कर सकते हैं क्योंकि इससे वन भूमि पर उनके अधिकार कम हो जाते हैं। विभिन्न अनुभवों पर आधारित प्रसंगों से प्राप्त प्रमाणों से पता चलता है कि वन अधिकारियों द्वारा बिना स्पष्ट कारण बताए, स्वामित्व आवेदनों को मनमाने ढंग से अस्वीकार करने के कई उदाहरण हैं।
जैसा कि पेरू और कोलंबिया के संदर्भ में पहले के शोध से पता चलता है, अकुशल कार्यान्वयन की यह ऐसी प्रणाली है जिस पर और अध्ययन की ज़रूरत है। अधूरे संपत्ति अधिकार के कारण भूमि सुधार कार्यक्रम के पराजित लोगों और जीतने वालों के बीच शिकायतें पैदा हो सकती हैं, जिससे संघर्ष बढ़ सकता है। हम यह जांच करके कि इन तीनों स्तरों पर स्वामित्व के लिए अनुमोदन कैसे राजनीति में सहभागिता को बढ़ाता है, अपूर्ण भूमि स्वामित्व कानून के प्रति शिकायत निवारण के एक वैकल्पिक और वैध रूप का परीक्षण करते हैं।
हमारे परिणाम दर्शाते हैं कि डीएलसी द्वारा खारिज किए गए दावों में एक मानक विचलन1 वृद्धि के चलते आरक्षित और अनारक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के चुनाव उम्मीदवारों में क्रमशः 15% और 135% की वृद्धि होती है। हम चुनावों में एसटी उम्मीदवारों की भागीदारी पर एसडीएलसी चरण में अस्वीकृतियों का सकारात्मक प्रभाव भी पाते हैं, हालांकि इस प्रभाव की मात्रा बहुत कम है। दूसरी ओर, हमें ग्राम सभा स्तर पर अस्वीकृतियों और एसटी उम्मीदवारों की राजनीतिक सहभागिता के बीच कोई संबंध नहीं मिलता है। इन परिणामों से पता चलता है कि एसटी की राजनीति में अधिक सहभागिता मुख्य रूप से उन दावों में वृद्धि से प्रेरित है जिन्हें ग्राम सभा द्वारा अनुमोदित किया जाता है लेकिन उच्च अधिकारियों (डीएलसी या एसडीएलसी के सदस्यों), जो एफआरए के विरोधी माने जाते हैं द्वारा खारिज कर दिया जाता है। इस प्रकार राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि एसटी के लिए जिला और उप-जिला स्तर पर उनके अधिकारों की मान्यता की कमी को दूर करने का एक साधन प्रतीत होती है। यह प्रशंसनीय लगता है, क्योंकि विधायकों को जिला और उप-जिला स्तर पर उच्च अधकारियों पर काफी प्रभाव डालते देखा गया है (अय्यर और मणि 2012)।
नीति का क्रियान्वयन
भारत के वनवासी स्थानीय समुदायों के लिए एफआरए जैसा सुधार सुरक्षित भूमि कार्यकाल का वादा करने में अभूतपूर्व है और इसलिए इसका अनुभवजन्य मूल्यांकन अन्य संदर्भों में भी ऐसी नीतियों की प्रभावशीलता के बारे में हमारी समझ को बढ़ा सकता है। हमारा शोध यह दर्शाता है कि भूमि दावों की मान्यता की मांग बढ़ने से एसटी की राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि हुई है। यह एक उत्साहजनक परिणाम है क्योंकि राजनीतिक सहभागिता में कल्याण कार्यक्रमों तक उनकी पहुँच बढ़ाने, समग्र आर्थिक स्थितियों में सुधार करने, वन संरक्षण में सहायता करने और यहाँ तक कि हिंसक संघर्षों को कम करने की क्षमता है (गुलज़ार एवं अन्य 2020, 2021, मिलिफ़ और स्टोन्स 2020)।
हालाँकि यह अध्ययन ओडिशा राज्य पर केन्द्रित है, ये निष्कर्ष अन्य राज्यों के साथ-साथ उन देशों के लिए भी प्रासंगिक हैं, जिन्होंने स्थानीय समुदायों के पारम्परिक भूमि दावों को अभी तक मान्यता नहीं दी है। अध्ययन से प्राप्त परिणाम हाशिए पर पड़े स्थानीय समूहों को पहचान दिलाने में भूमि स्वामित्व और स्वामित्व कानूनों की शक्तिशाली भूमिका की ओर इशारा करते हैं। पारम्परिक भूमि अधिकारों की मान्यता लाभार्थियों को अपनी शिकायतों के समाधान के लिए नागरिक संघर्ष का सहारा लेने के बजाय राजनीतिक सहभागिता का वैध मार्ग चुनने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है।
एफआरए के लागू होने के बाद, विरोधाभासी कानून और वनीकरण प्रथाओं के कारण वनवासियों द्वारा खेती की जाने वाली भूमि पर अतिक्रमण के चलते भूमि संघर्ष और विवाद बढ़ गए हैं। इस मुद्दे पर आगे और चर्चा दूसरे लेख, 'वन अधिकार अधिनियम- विरोधाभासी संरक्षण कानूनों का लेखा-जोखा' में की गई है जिसे नवम्बर में प्रकाशित किया जा रहा है।
टिप्पणी:
- मानक विचलन एक ऐसा माप है, जिसका उपयोग उस सेट के माध्य से मूल्यों के एक सेट की भिन्नता या फैलाव की मात्रा को निर्धारित करने के लिए किया जाता है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : भारती नंदवानी इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर), मुंबई में अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर हैं। उनकी शोध रुचि राजनीतिक अर्थव्यवस्था और शिक्षा के अर्थशास्त्र के क्षेत्रों में है।
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