चुनावी गड़बडि़यों पर नियंत्रण रखने के प्रयास में भारतीय चुनाव आयोग द्वारा 1990 के दशक में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का राष्ट्रीय स्तर पर उपयोग शुरू किया गया था। इस लेख में राज्यों की विधान सभाओं के 1976 से 2007 तक के चुनावों के आंकड़ों का प्रयोग करके चुनावी प्रक्रिया पर मशीनों के प्रभाव का विश्लेषण किया गया है। इसमें पाया गया है कि मतदान की प्रौद्योगिकी में बदलाव ने चुनावों को अधिक प्रतिस्पर्धी बना दिया है जिससे विकास को बढ़ावा मिला है।
राजनीतिक प्रतिनिधियों को चुनने के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की नींव होते हैं तथा नागरिकों के लिए मौलिक मानवाधिकार होते हैं। मतदान के तरीके स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये मतदाताओं की पसंद को राजनीतिक जनादेश में बदल देते हैं जो नीतिनिर्माण की नींव बनता है। हालांकि व्यवहार में लोकतंत्र में चुनावी परिणामों को आकार देने में अवैध प्रयास होना कोई असामान्य बात नहीं है। वर्ष 2013 में पाकिस्तान के आम चुनाव में इमरान खान के नेतृत्व वाले मुख्य विरोधी दल तहरीक-ए-इंसाफ ने पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) पर चुनाव में धांधली करने का आरोप लगाया था। उनके द्वारा किए गए विरोध के कारण इस्लामाबाद कई दिनों तक बंद रहा था। उसके बाद 2015 में हुआ तुर्की का आम चुनाव विवादों से भरा हुआ था। यूरोपीय संसदीय परिषद (पार्लियामेंटरी असेंबली औफ द काउंसिल औफ यूरोप) ने चुनाव को ‘अनुचित’ घोषित कर दिया था जबकि यूरोपीय सुरक्षा एवं सहयोग संगठन (ऑर्गनाइजेशन फॉर सिक्योरिटी एंड को-ऑपरेशन इन यूरोप) ने चुनाव की निष्पक्षता के बारे में ‘गंभीर चिंता’ प्रकट की थी।
गलत मतदाताओं का निबंधन, मतदाताओं को धमकाना, और गिनती की प्रक्रिया में अनियमितता जैसी चुनावी धोखाधड़ी चुनाव के परिणामों को आकार देने के अप्रकट और अवैध प्रयास होते हैं (लेहॉक़ 2003)। अवैध प्रकृति का होने के कारण इन व्यवहारों के प्रभावों का अध्ययन करना मुश्किल होता है क्योंकि राजनीतिक एजेंट सतर्क रहते हैं कि कोई सबूत नहीं छूटे। मतदान की प्रौद्योगिकी को चुनने के साथ जुड़े विवादों के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि मतदान प्रौद्योगिकी और चुनाव संबंधी परिणामों के बीच संबध पर बहुत कम प्रयोगसिद्ध प्रमाण मौजूद हैं। चुनावी धोखाधड़ी राजनीतिक संस्थाओं के प्रति लोगों का विश्वास कमजोर कर देती है जिससे राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है, और दीर्घकालिक विकास प्रभावित हो सकता है।
चुनावों के दौरान बूथ कैप्चरिंग
लोकतंत्र को अमल में लाने वाले दुनिया के सबसे बड़े देश भारत में, जहां 80 करोड़ से भी अधिक निबंधित मतदाता हैं और जटिल बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था है, चुनावी धोखाधड़ी भारतीय चुनाव आयोग के सामने मौजूद एक प्रमुख चुनौती रही है। एक बार से अधिक मतदान करने, मत खरीदने, और मतदाताओं को धमकाने जैसे चुनाव संबंधी अपराधों के अनेक स्वरूपों के बीच बूथ कैप्चरिंग (मतदान केंद्र पर कब्जा कर लेना) चिंता की प्रमुख बात है। श्रीनिवास (1993) ने राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था को, और खास तौर पर बूथ कैप्चरिेंग को 1990 के दशक के आरंभ में हिंसा बढ़ने का कारण बताया था। बूथ कैप्चरिंग का अर्थ ‘‘राजनीतिक दलों द्वारा तैनात अपराधी समूहों द्वारा किसी मतदान केंद्र को कब्जे में लेकर मतदान पेटी को अपने पसंदीदा प्रत्याशी के पक्ष में बड़ी संख्या में मतपत्रों से भर देना है’’ (हर्सस्टैट एवं हर्सटैट 2014)।
विगत वर्षों के दौरान चुनाव आयोग ने चुनाव में की जाने वाली गड़बड़ियों पर रोक के लिए सुरक्षा के अनेक उपाय किए हैं। चुनावी धोखाधड़ी को रोकने का पहला प्रयास 1962 के संसदीय चुनाव में कई बार मतदान करने से रोकने के लिए नहीं मिटने वाली स्याही का उपयोग शुरू करके किया गया था। मतदाता पहचान के लिए फोटोयुक्त पहचान-पत्रों का उपयोग, अन्य राज्यों के सुरक्षाकर्मियों की तैनाती, और कई चरणों में चुनाव का आयोजन किये जाने वाली पहलों में प्रमुख हैं। खास कर कागज वाली मतपत्र प्रणाली से सुरक्षा संबंधी काफी समस्याएं पैदा होती थीं क्योंकि उनकी जाली नक़ल करना आसान था। वह महंगा और अकुशल भी था। धोखाधड़ी रोकने और जटिल चुनावी प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) का प्रयोग 90 के दशक के अंतिम वर्षों में शुरू किया। इन मशीनों का एक महत्वपूर्ण फीचर यह था कि इनमें प्रति मिनट पांच मत ही निबंधित किए जा सकते थे। चुनावी धोखाधड़ी के मामले में इस फीचर के महत्वपूर्ण प्रतिकूल निहितार्थ थे क्योंकि चुनाव में धांधली करने के लिए मतदान केंद्रों को लंबे समय तक कैप्चर किए रहना पड़ता जिससे बूथ कैप्चरिंग का खर्च बहुत बढ़ जाता। चुनाव प्रक्रिया में निष्पक्षता बढ़ाने के अलावा, आयोग ने यह भी सोचा कि इन मशीनों से चुनाव परिणामों के लिए मतों की गिनती की कुशलता भी बढ़ेगी जिससे मानवीय त्रुटियों के मामले घटेंगे। इन लाभों के बावजूद, इन मशीनों की शुरूआत सुगम नहीं थी।
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की शुरूआत
प्रयोग के तौर पर वोटिंग मशीनों का सबसे पहला उपयोग 1982 में केरल राज्य के पारूर विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र में किया गया था। आरंभिक सफलता के बाद आयोग ने 1990 में राष्ट्रीय स्तर पर उपयोग के लिए 150,000 मशीनें खरीदीं। हालांकि राजनीतिक दल मशीनों की सुरक्षा को लेकर आशंकित थे। चुनाव आयोग द्वारा ईवीएम के उपयोग के वैधानिक अधिकार पर सवाल खड़ा करते हुए एक याचिका दायर की गई थी। सर्वोच्च न्याय ने फैसला दिया कि कानून में आवश्यक प्रावधान किए बिना वोटिंग मशीनों का उपयोग नहीं किया जा सकता।1 दिसंबर 1998 में आवश्यक संविधान संशोधनों के बाद, इन मशीनों का उपयोग दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान के 16 चुनिंदा विधान सभा क्षेत्रों में किया गया।2 इन 16 निर्वाचन क्षेत्रों को ‘‘उनके कंपैक्ट स्वरूप और ईवीएम के उपयोग के लिए लॉजिस्टिक्स के प्रबंधन के लिए पर्याप्त अधिसंरचना’’ के आधार पर चुना गया था। सड़क मार्ग से संपर्क की अच्छी उपलब्धता ने मुख्य भूमिका निभाई ताकि काम नहीं करने की स्थिति में इन मशीनों को तत्काल बदला जा सके। ईवीएम का उपयोग करके मतदान करने की प्रक्रिया को लोग समझ सकें, यह सुनिश्चित करने के लिए आयोग ने काफी प्रचार कराया था।
भारत में प्रयुक्त होने वाले ईवीएम में अधिकतम 3,840 मत दर्ज किए जा सकते हैं। चूंकि मतदान केंद्रों पर निबंधित मतदाताओं की संख्या 1,500 से अधिक नहीं होती है इसलिए मशीनों की क्षमता पर्याप्त है। चुनाव अधिकारी जो औसतन 10 मतदान केंद्रों को कवर करते हैं, अतिरिक्त मशीनें भी लेकर जाते हैं और किसी मशीन के सही से काम नहीं करने पर उसे बदल देते हैं। मशीन खराब होने की स्थिति में उस समय तक कराए गए मतदान के रिकॉर्ड कंट्रोल यूनिट की मेमोरी में सुरक्षित रहते हैं इसलिए आरंभ से ही मतदान शुरू कराना जरूरी नहीं होता है। मतदान मशीनों की असफलता की दर 0.5 प्रतिशत से भी कम है। ये मशीनें 6 वोल्ट की सामान्य अल्कलाइन बैटरी पर चलती हैं इसलिए इनका उपयोग बिजली के कनेक्शन से रहित क्षेत्रों में भी किया जा सकता है।
आकृति 1. भारत में प्रयुक्त कागज के मतपत्र और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें


वोटिंग मशीनों के उपयोग ने मतदान की प्रक्रिया को सरल बना दिया और परिणाम निश्चित करने की प्रक्रिया में तेजी ला दी। इससे चुनाव कराने का खर्च भी बचा क्योंकि आयोग करोड़ों मतपत्रों की छपाई से बच सका। मतपत्रों पर सही जगह निशान नहीं लगने और कई जगह निशान लगने से मतदाता की पसंद अस्पष्ट हो जाती थी जिसके कारण मतपत्रों को अनिवार्यतः खारिज कर दिया जाता था। चूंकि ईवीएम में एक ही रिस्पांस रिकॉर्ड किया जा सकता है इसलिए मतों के खारिज होने की आशंका वस्तुतः समाप्त हो गई।
वर्ष 1999 में गोवा विधान सभा का चुनाव पूरी तरह ईवीएम के जरिए कराया गया था। उसी वर्ष में कराए गए संसदीय चुनाव में भी 17 राज्यों के 45 निर्वाचन क्षेत्रों में ईवीएम के जरिए चुनाव हुए जिनमें 6 करोड़ मतदाता शामिल थे। संसदीय चुनावों के साथ होने वाले विधान सभा चुनावों में ईवीएम के उपयोग को उन 45 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के दायरे में आने वाले विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया था। अगले साल, 2000 में हुए राज्यों के चुनावों में भी ईवीएम का उपयोग उन्हीं 45 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के दायरे में आने वाले विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों तक सीमित रहा। फरवरी 2000 में आयोग ने हरियाणा राज्य के 90 में से 45 विधान सभा क्षेत्रों में ईवीएम के उपयोग का आदेश दिया।
उसके बाद हुए सारे चुनाव ईवीएम का उपयोग करके कराए गए। आकृति 2 में देश के विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों में ईवीएम का उपयोग शुरू होने का घटनाक्रम दर्शाया गया है।
आकृति 2. भारत में विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का उपयोग शुरू होने का घटनाक्रम

टिप्पणी: इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का उपयोग शुरू होने के वर्षों की जानकारी चुनाव आयोग के आदेशों, और समाचारपत्रों के अभिलेखागारों से हासिल की गई है।

इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के प्रभाव का मूल्यांकन
भारत में राज्य विधान सभाओं के चुनावों के 1976 से 2007 तक के आंकड़ों और ईवीएम के उपयोग में अंतरों का प्रयोग करके मैंने और मेरे सहलेखकों ने पाया कि ईवीएम का उपयोग शुरू करने के कारण चुनावी धोखाधड़ी में काफी कमी आई (देबनाथ, कपूर और रवि 2016)। जिन निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान केंद्रों को कैप्चर किया गया था और मतपत्रों को भरा गया था वहां उसके कारण मतदाताओं की अधिक उपस्थिति दिखी थी। लेकिन हमने पाया कि ईवीएम के उपयोग के बाद वैध मतों और मतदाताओं की उपस्थिति (वोटर टर्नआउट) में काफी कमी आई, खास कर उन राज्यों में जहां चुनावी धोखाधड़ी की अधिक आशंका रहती थी और जहां राजनेताओं पर अपराधों के आरोप लगे हुए थे। हमारे अनुमानों में दिखता है कि ईवीएम का उपयोग शुरू होने से मतदाताओं की उपस्थिति में औसतन 3.5 प्रतिशत गिरावट आई। हालांकि इन परिणामों की व्याख्या ईवीएम के प्रति मतदाताओं की नकारात्मक पसंद के बतौर भी की जा सकती है। मतदाता ईवीएम नहीं पसंद कर सकते हैं, या प्रति मिनट अधिकतम मतदान की ऊपरी सीमा होने से इसके कारण मतदान केंद्रों पर लंबी कतारें लग सकती हैं। इन चिंताओं के निवारण के लिए हमने एक स्वतंत्र एजेंसी द्वारा मतदान के बाद किए गए (पोस्ट-पोल) सर्वे के आंकड़ों का विश्लेषण किया।3 दिलचस्प बात जो हमने पाई वह यह थी कि ईवीएम के आरंभ के बाद असुरक्षित नागरिकों (असाक्षरों, महिलाओं, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगो) की मतदान करने की क्षमता में काफी सुधार हुआ। इसके अलावा, मतदाताओं द्वारा इस बात को बताने की आशंका घट गई थी कि हिंसा या वोट कैप्चर होने के भय के कारण उन्होंने मतदान नहीं किया या उन्हें मतदान करने से रोका गया। ये चीजें मिलकर इस बात का मजबूत प्रमाण उपलब्ध कराती हैं कि ईवीएम के कारण चुनावी धोखाधड़ी में काफी कमी आई है। साथ ही, हमने यह भी पाया कि ईवीएम के कारण अस्वीकृत होने वाले मतों की वस्तुतः समाप्ति हो गई।
धोखाधड़ी की आशंका वाली मतदान प्रौद्योगिकी संभ्रांत राजनेताओं को लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर कब्जा जमाने में सक्षम बना सकती है। भारत में ईवीएम के कारण चुनावी प्रक्रिया का सशक्तीकरण हुआ जिससे धांधली करना मुश्किल हो गया। इस कारण ईवीएम राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को प्रभावित कर सकते हैं जो पदस्थों (इनकंबेंट) को मिले मतों के हिस्से और दुबारा चुने जाने की उनकी संभावना में व्यक्त होता है। हमने पाया कि ईवीएम का उपयोग शुरू होने के बाद पदस्थ दलों का मतों में हिस्सा सामान्यतः 8.5 प्रतिशत घटा है। यह गिरावट उन राज्यों में काफी अधिक थी जहां आयोग के लिए पुनर्मतदान का आदेश देने की अधिक संभावना रहती थी। आंध्र प्रदेश, बिहार, और झारखंड में, जहां 2004 के संसदीय चुनावों में पुनर्मतदान के आदेश सबसे अधिक देने पड़े थे, पदस्थ दलों के मतदान के हिस्सों में 9.8 प्रतिशत की अतिरिक्त कमी आई थी और उनके फिर से चुने जाने की संभावना भी कम हो गई थी।
राज्यों के चुनावों में बिजली एक प्रमुख मुद्दा होती है और इसका प्रावधान मुख्य रूप से राज्य के नियंत्रण में होता है। भारत में राज्य-स्तरीय निगम बिजली के सबसे बड़े उत्पादक हैं और इसके संचरण तथा वितरण के लिए जिम्मेवार हैं। राज्य की वितरण कंपनियों पर राजनेता काफी दबाव बनाते है और बिजली की उपलब्धता को नियंत्रित करने या उसमें हेरफेर करने का उपयोग चुनाव का परिणाम अपने पक्ष में झुकाने के लिए करते हैं (बास्करन एवं अन्य 2014)। इसके फलस्वरूप चुनाव के चक्रों के साथ बिजली की उपलब्धता में सुधार हो जाता है। इसके अलावा, राज्य विधान सभा चुनावों के ठीक पहले संचरण जनित नुकसान शीर्ष पर पहुंच जाता है (मिन एवं गोल्डन 2014)। चुनाव और बिजली के बीच घनिष्ठ संबंध को देखते हुए हमने ईवीएम के उपयोग और बिजली की उपलब्धता के बीच संबंध की संभावना भी तलाशी। वर्ष 1992 से 2007 के बीच रात में प्रकाश की सेटेलाइट इमेजरी और विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों के मानचित्रों का उपयोग करके हमने बिजली की उपलब्धता का प्रतिनिधि पैमाना तैयार किया। हमारे परिणाम दर्शाते हैं कि ईवीएम का उपयोग करने वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बिजली का प्रावधान मतपत्रों का उपयोग करने वाले निर्वाचन क्षेत्रों से बेहतर था। इसके अलावा, बिजली की उपलब्धता में समय के साथ सुधार होता गया, और यह प्रभाव चुनाव वाले वर्ष के ठीक पहले वाले वर्ष में सबसे अधिक था। इन परिणामों का अर्थ हुआ कि मतदान की प्रौद्योगिकी में बदलाव आने के कारण चुनावों के अधिक प्रतिस्पर्धी होने से लोकतंत्र में मजबूती आई, और उसका बिजली की बढ़ी उपलब्धता के जरिए विकास को बढ़ावा देने पर प्रभाव पड़ा।
लेखक परिचय: सिसिर देबनाथ इंडियन स्कूल ऑफ़ बिज़नेस (आईएसबी) में अर्थशास्त्र और सार्वजनिक नीति (पब्लिक पॉलिसी) के असिस्टेंट प्रॉफेसर हैं।
नोट्स:
- ईवीएम की सुरक्षा के बारे में राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा व्यक्त चिंताओं को दूर करने के लिए आयोग ने 1990 में एक विशेष समिति द्वारा अध्ययन कराया था। समिति ने एक मत से इन मशीनों को टेंपर-प्रूफ (छेड़छाड़ विरोधी) के बतौर प्रमाणित किया था। आयोग द्वारा तीसरी पीढ़ी वाली मशीनों के मूल्यांकन के लिए 2006 में दूसरी समिति की नियुक्ति की गई। अपनी रिपोर्ट में दूसरी समिति ने भी इस विश्वास को दुहराया कि मशीनें टेंपर-प्रूफ हैं। हालांकि हाल के कुछ स्वतंत्र अध्ययनों में भारत में प्रयुक्त होने वाले ईवीएम की सुरक्षा के संबंध में अनेक मामले उठाए गए हैं (वोल्चोक एवं अन्य 2010)।
- उस समय दिल्ली में 9 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 2 प्रतिशत, और राजस्थान में 3 प्रतिशत निर्वाचन क्षेत्रों में ईवीएम का उपयोग किया गया था।
- हमने सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) द्वारा किए गए पोस्ट-पोल (मतदानोत्तर) सर्वे का उपयोग किया है। भारतीय मतदाताओं के राजनीतिक व्यवहार, राय, और मानसिकता पर सीएसडीएस द्वारा नियमित रूप से बड़े पैमाने के वैज्ञानिक अध्ययन किए जाते हैं। हमने 2000 से 2005 के बीच हुए राज्य विधान सभा चुनावों के पोस्ट-पोल सर्वे के आंकड़ों का उपयोग किया है।



















































































