ग्रामीण भारत में गणित सीखने में लैंगिक अंतर

11 February 2022
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विकसित देशों में साक्ष्य के बढ़ते दायरे यह संकेत देते हैं कि गणित सीखने संबंधी परिणामों में महिलाओं के लिए प्रतिकूल स्थिति बनी रहती है और इसके संभावित कारण सामाजिक कारक, सांस्कृतिक मानदंड, शिक्षक पूर्वाग्रह और माता-पिता के दृष्टिकोण आदि से संबंधित होते हैं। यह लेख भारत के राष्ट्रीय स्तर के प्रतिनिधिक आंकड़ों का उपयोग करते हुए, विभिन्न आयु वर्गों में गणित सीखने में मौजूद लैंगिक असमानता को दर्शाता है और यह भी दर्शाता है कि समय के साथ इसके कम होने के कोई प्रमाण भी नहीं मिलते हैं।

सामान्य गणित में क्षमता विकसित करने से विश्लेषणात्मक सोच और तार्किक तर्क कौशल (क्रेसवेल और स्पीलमैन 2020) को बढ़ाने में मदद मिलती है। लड़के और लड़कियों के बीच अंतर उच्च शिक्षा में एसटीईएम (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित) विषयों में उनके प्रदर्शन और अनुभवों को बताता है(ब्रेडा और नैप 2019)। यह, बदले में, श्रम बाजार में महिलाओं की संभावनाओं को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है (हनुशेक और वूजमैन 2008, डोसी एवं अन्य 2021), और इसी कारण गणित सीखने की क्षमता और भिन्नता- विशेषकर लड़के और लड़कियों के बीच, को दर्ज करना और इसे ट्रैक करना महत्वपूर्ण हो जाता है।

इस विषय पर (फ्रायर और लेविट 2010, भारद्वाज एवं अन्य 2012, भारद्वाज एवं अन्य 2016, लिपमैन और सेनिक 2018) एवं इसके कई संभावित चैनलों- सामाजिक कारकों (बुसर एवं अन्य 2014,स्मेटाकोवा 2015), सांस्कृतिक मानदंडों (नोलेनबर्गर एवं अन्य 2016), माता-पिता के दृष्टिकोण (क्राउले एवं अन्य 2019) और शिक्षक पूर्वाग्रह (कार्लाना 2019) आदि में महिलाओं को होने वाले नुकसान की व्यापकता और निरंतरता को दर्ज करते प्रमाण निरंतर बढ़ रहे हैं। हालाँकि, भारत सहित विकासशील देशों के संदर्भ में ये प्रमाण सीमित1 हैं, विशेष रूप से हर समय, आयु-वर्गों और भौगिलिकी (क्षेत्रों) में गणित सीखने में लैंगिक अंतर परंपरागत और निरंतरता से मौजूद है।

हमारा अध्ययन

वर्तमान शोध (दास और सिंघल 2021) के अंतर्गत हम ग्रामीण भारत में 08 से 16 वर्ष की आयु के बच्चों के गणित सीखने में लैंगिक अंतर की व्यापकता और निरंतरता का प्रमाण प्रदान करके इस अंतर को पाटने की दिशा में कार्य करते हैं। हम वर्ष 2010 से 20182 तक के शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (एएसईआर) के लिए बीस लाख से अधिक बच्चों की बुनियादी शिक्षा और गणितीय क्षमताओं से संबंधित राष्ट्रीय स्तर के प्रतिनिधि शिक्षण परिणाम के आंकड़ों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं।

हमने इसे 2004-05 और 2011-12 में एकत्र किए गए भारत मानव विकास सर्वेक्षण (आईएचडीएस) की दो चरणों के आंकड़ों और 2015-16 में एकत्र किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) के चौथे दौर से ग्रामीण भारत के लिए सीखने के परिणामों के आंकड़ों को पूरक समझा हैं। आईएचडीएस का डेटासेट समूह में सीखने के परिणाम, एएसईआर परीक्षण के परिणाम के समान ही हैं, साथ ही यह परिवारों की सामाजिक आर्थिक और जनसांख्यिकीय विशेषताओं पर विस्तृत आंकड़े प्रदान करते हैं। यह हमें विभिन्न विशेषताओं वाले परिवारों में सीखने के परिणामों में अंतर को समझने की दिशा में मदद करता है। हम परिवार एवं जिला स्तर पर मौजूदा पितृसत्तात्मक प्रथाओं और मानदंडों के साथ लैंगिक भिन्नता के संबंध को समझने के लिए एनएफएचएस-4 और आईएचडीएस के पहले चरण के आंकड़ों का उपयोग करते हैं।

गणित सीखने में लैंगिक अंतर

जब हम एएसईआर के वर्ष 2010 से 2018 तक के सभी सर्वेक्षणों के डेटा को लेते हैं, तो हमें महिलाओं के गणित सीखने के आंकड़ों में महत्वपूर्ण प्रतिकूलता देखने को मिलती है, लेकिन उनकी शिक्षा के सन्दर्भ में नहीं। आईएचडीएस डेटा का उपयोग करते हुए, हम पाते हैं कि ये अंतर विभिन्न प्रकार के स्कूल प्रबंधन (सार्वजनिक या निजी), सामाजिक समूहों (धर्म और जाति), आर्थिक समूहों (आय समूहों का उपयोग करके) और बच्चों के जन्म क्रम में भी बना रहता है।

वर्ष 2010 से 2018 तक के लिए विभिन्न आयु-वर्गों में मापा गया हमारा कालगत विश्लेषण बताता है कि कुल मिलाकर, गणित में लड़कियों और लड़कों दोनों के प्रदर्शन में गिरावट आई है और महिलाओं के लिए यह प्रतिकूल स्थिति समय के साथ जारी है (चित्र 1)। वास्तव में, हमें समय के साथ इस अंतर के कम होने का (समरूपता का) कोई प्रमाण नहीं मिलता है। तथापि, हमारे आंकड़ों के अनुसार हाल के वर्षों (2018) में पढ़ने के परीक्षणों में लड़कियों ने लड़कों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है।

चित्र 1. विभिन्न वर्षों में गणित के अंकों में लैंगिक अंतर

टिप्पणियाँ: (i) 95% के विश्वास अंतराल के साथ मानकीकृत गणित स्कोर पर सीमांत प्रभाव प्लॉट3 किए गए हैं। लंबवत अक्ष मानकीकृत गणित स्कोर को इंगित करता है और क्षैतिज अक्ष सर्वेक्षण के वर्ष को इंगित करता है। (ii) नमूने में 2010 से 2018 तक के एएसईआर सर्वेक्षणों से 8-16 वर्ष की आयु के बच्चे शामिल हैं। (iii) प्रभाव की गणना गांव-स्तर की विशेषताओं के साथ-साथ पारिवारिक स्तर के आर्थिक कारकों की गणना के बाद की गयी है, जिसमें यह शामिल है कि क्या गांव में एक डाकघर, निजी स्कूल, और स्वास्थ्य क्लीनिक, पक्की सड़क आदि मौजूद है।

इसके अलावा, हम पाते हैं कि यह अंतर विभिन्न आयु-वर्गों में भी बना रहता है और वृद्धावस्था में इसमें विचलन नजर आता है (चित्र 2 देखें)। हमने आगे यह समझने की कोशिश की है कि क्या ये अंतर समान आयु वर्ग के समय4 के साथ आगे बढ़ने पर भी बने रहते हैं और इसमें समान अंतर मिलता है।

चित्र 2. विभिन्न उम्र में गणित के अंक प्राप्ति में लैंगिक अंतर

टिप्पणियाँ: (i) 95% के विश्वास अंतराल के साथ मानकीकृत गणित स्कोर पर सीमांत प्रभाव प्लॉट3 किए गए हैं। लंबवत अक्ष मानकीकृत गणित स्कोर को इंगित करता है और क्षैतिज अक्ष सर्वेक्षण के वर्ष को इंगित करता है। (ii) नमूने में 2010 से 2018 तक के एएसईआर सर्वेक्षणों से 8-16 वर्ष की आयु के बच्चे शामिल हैं। (iii) प्रभाव की गणना गांव-स्तर की विशेषताओं के साथ-साथ पारिवारिक स्तर के आर्थिक कारकों की गणना के बाद की गयी है, जिसमें यह शामिल है कि क्या गांव में एक डाकघर, निजी स्कूल, और स्वास्थ्य क्लीनिक, पक्की सड़क आदि मौजूद है।

अंतर-राज्यीय भिन्नताएँ

शिक्षा में लैंगिक असमानता पर अन्य अध्ययनों के समान (किंगडन 2005, 2020) ही, हम राज्यों में इन अंतरों में पर्याप्त भिन्नता पाते हैं। विश्लेषण के लिए एकत्रित किये गए एएसईआर आंकड़ों (2010-18) का उपयोग करने पर यह भारत के राज्य-वार मानचित्र में उन राज्यों को चिह्नित करता है, जिनमें लैंगिक अंतर प्रचलित है। हम पाते हैं कि लगभग आधे राज्यों में इस सन्दर्भ में महिलाओं के लिए स्थिति काफी प्रतिकूल है। जैसा कि कोई उम्मीद करेगा, इन राज्यों में मुख्य रूप से उत्तरी और मध्य राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड आदि हैं।

चित्र 3. राज्य-वार लैंगिक-आधारित प्रतिकूल स्थिति

टिप्पणी: नक्शा तैयार करने हेतु 8-16 आयु वर्ग के बच्चों के सीखने के परिणामों के सन्दर्भ में वर्ष 2010 से 2018 तक के एएसईआर आंकड़ों का उपयोग किया गया है।

दूसरी ओर, केरल और तमिलनाडु जैसे भारतीय राज्यों में एक 'रिवर्स' गैप (अर्थात- पुरुषों के लिए प्रतिकूल) की स्थिति देखी गई है। हालांकि इसके लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है, उत्तरी राज्यों की तुलना में महिलाओं की बेहतर स्थिति विशेष रूप से आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि संदर्भों की भिन्नता और शिक्षा से संबंधित निवेश इसे ऐसा बनाते हैं। इवांस (2020) ने उत्तर और दक्षिण भारत के राज्यों के बीच प्रासंगिक भिन्नताओं को दर्ज किया है- उदाहरण के लिए, उत्तर क्षेत्र में महिलाओं की कम श्रम-शक्ति भागीदारी, उच्च लैंगिक भेदभाव, और दक्षिण भारत के कई हिस्सों में मातृवंशीय संरचनाओं की मौजूदगी को देखा जा सकता है। तथापि, पंजाब राज्य एक अलग ही विश्लेषण प्रदर्शित करता है; यह लैंगिक असमानता होने के बावजूद शिक्षा में पुरुषों के लिए प्रतिकूल स्थिति को प्रदर्शित करता है जो कि अन्य उत्तरी राज्यों जैसे बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश (किंगडन 2005) के समान है।

पितृसत्तात्मक मानदंड

उपरोक्त अंतरों से यह स्पष्ट है कि जिन राज्यों को बड़े पैमाने पर अधिक लैंगिक-प्रतिगामी माना जाता है (पितृसत्तात्मक मानदंडों के उच्च प्रसार, खराब लैंगिक अनुपात और अन्य कारकों के आधार पर) वे खराब प्रदर्शन करते हैं। हम एनएफएचएस से जिला-स्तरीय प्रतिनिधिक आंकड़ों का मिलान करके और आईएचडीएस के पारिवारिक स्तर से संबंधित आंकड़े का उपयोग करके इसे और अधिक बारीकी से समझने की कोशिश करते हैं।

आईएचडीएस सर्वेक्षण से, हम दो प्रतिगामी पारिवारिक प्रथाओं पर विचार करते हैं जो परिवार में महिलाओं के लिए प्रतिकूल स्थिति और कम स्वायत्तता से जुड़ी हैं- घुंघट या पर्दा (उनके चेहरे को ढंकने की प्रथा), और पुरुषों के खाना खाने के बाद महिलाओं के खाने की प्रथा। एनएफएचएस सर्वेक्षण से, हम जिला स्तर के संकेतकों का उपयोग करते हैं जैसे कि जिले में परिवारों का अनुपात जहां पति पैसे कमाने पर अपनी पत्नी पर भरोसा नहीं करता है, वह अपनी पत्नी के संपर्क को सीमित करने की कोशिश करता है, अगर वह अन्य पुरुषों से बात करती है तो उसे ईर्ष्या होती है, महिला को अपने दोस्तों से मिलने की अनुमति नहीं दी जाती है और इस प्रकार के कई अन्य संकेतक। हम पाते हैं कि ये कारक गणित के अंकों में लैंगिक अंतर से महत्वपूर्ण रूप से जुड़े हुए हैं - उपरोक्त प्रथाओं के उच्च प्रसार वाले ऐसे परिवारों के और जिलों के बच्चों में, महिलाओं के लिए प्रतिकूल स्थिति बहुत अधिक है।

समापन निष्कर्ष

गणित सीखने में लैंगिक अंतर की नीतिगत औपचारिक मान्यता सीमित रही है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी, 2005) द्वारा स्थापित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा द्वारा इन अंतरों और संभावित कारणों (उदाहरण के लिए, लड़कों को बेहतर प्रदर्शन के लिए 'बुद्धिमत्ता' और लड़कियों को 'कड़ी मेहनत' के रूप में श्रेय दिया जाना) को स्वीकार किया गया है और इस पर चर्चा की गई है। तथापि, इस पर किसी व्यवस्थित मान्यता या प्रभावी नीतियों की कमी प्रतीत होती है जो यह इंगित कर सके कि इन चुनौतियों/मुद्दों समाधान किया गया है।

यहां तक कि हाल ही में पारित नई शिक्षा नीति (एनईपी) भी इन लैंगिक-आधारित अंतरों को स्वीकार नहीं करती है, जबकि शुरुआती वर्षों में बच्चों में मूलभूत साक्षरता और संख्या ज्ञान (एफएलएन) विकसित करने पर जोर दिया गया है। इन अंतरों को समझने और इसे कम करने के लिए आवश्यक कार्रवाई के बारे में अधिक ध्यान से विचार करने की आवश्यकता है। कई राज्यों ने बच्चों के सीखने के परिणामों (उदाहरण के लिए, असम और गुजरात में गुणोत्सव और मध्य प्रदेश में प्रतिभा पर्व) पर आंकड़े जुटाने की क्षमताएं विकसित की हैं। तथापि, इन मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने के लिए जिला/ ब्लॉक स्तर के अधिकारियों और शिक्षकों द्वारा दिए जाने वाले विकेंद्रीकृत इनपुट सहित यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि नीति निर्माण के लिए ये आकलन कितने विश्वसनीय5 हैं।

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टिप्पणियाँ:

  1. सिंह और कृतिकोवा (2017) ने चार देशों (भारत में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों) में पूर्व-प्राथमिक/प्राथमिक से माध्यमिक चरणों में बढ़ते लैंगिक अंतर को दर्ज किया। एक ही डेटासेट का उपयोग करते हुए, रक्षित और साहू (2020) शिक्षक पूर्वाग्रह के प्रमाण पाते हैं। मुरलीधरन और सेठ (2016) शिक्षक की लैंगिक स्थिति (स्त्री/पुरुष) की भूमिका और ग्रेड में बढ़ते अंतर को दर्ज करते हैं।
  2. एएसईआर, राष्ट्रीय स्तर का एक प्रतिनिधिक वार्षिक सर्वेक्षण है (शामिल जिलों का भी प्रतिनिधि), जिसके अंतर्गत 5 से 16 वर्ष के बीच के सभी बच्चों के बुनियादी पठन और गणित का परीक्षण किया गया है। ये परीक्षण ग्रेड दो या ग्रेड तीन स्तर की दक्षता पर आधारित हैं ताकि एक सामान्य सात या आठ वर्षीय बच्चा सही उत्तर देने में सक्षम हो। सर्वेक्षण में बच्चे के स्कूल, घर और गांव के बारे में भी जानकारी हासिल की जाती है। अधिक जानकारी के लिए कृपया आधिकारिक वेबसाइट देखें।
  3. 95% विश्वास अंतराल अनुमानित प्रभावों के बारे में अनिश्चितता प्रस्तुत करने का सांख्यिकीय तरीका है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि नए नमूनों के साथ बार-बार परीक्षण किए जाते हैं, तो 95% बार, सही प्रभाव विश्वास अंतराल के भीतर होगा। मानकीकृत स्कोर यह मापता है कि बच्चे का स्कोर औसतन दूसरों से कितना अलग है। यह वास्तविक स्कोर को नमूना माध्य से घटाकर और फिर मानक विचलन से विभाजित करके प्राप्त किया जाता है।.
  4. हमने जो लोग 2010 में आठ साल के, 2011 में नौ साल के, 2012 में 10 साल के, और इसी क्रम में थे; ऐसे लोगों को समूहित करके ऐसा किया है।
  5. गुणोत्सव (गुजरात) और प्रतिभा पर्व के आंकड़ों की सटीकता के लिए- देखें मूडी (2018) एवं सिंह (2020) |

लेखक परिचय: उपासक दास युनिवर्सिटी औफ मैनचेस्टर में वैश्विक विकास संस्थान में अर्थशास्त्र के अध्यक्षीय फेलो हैं। करण सिंघल वर्तमान में भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद में एक शोधकर्ता के रूप में कार्यरत हैं |

लिंग, स्कूली शिक्षा

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