12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी सन्दर्भ में प्रस्तुत है यह आलेख। शिक्षा और करियर युवाओं के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं। भारत में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (एसटीईएम) स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उच्च माध्यमिक स्तर पर विज्ञान का अध्ययन करना आवश्यक है। इस लेख में हालिया शोध के आधार पर विज्ञान का अध्ययन करने के विकल्प में लिंग और जाति-आधारित असमानताओं की व्यापकता को प्रस्तुत किया गया है। लेख में परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, स्कूली शिक्षा तक पहुँच की कमी और इन असमानताओं को समझाने में गलत मान्यताओं व पूर्वाग्रहों की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए, यह दर्शाया है कि शिक्षकों की सामाजिक पहचान का वंचित समूहों द्वारा विज्ञान को चुनने पर प्रभाव पड़ सकता है।
विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (एसटीईएम) शिक्षा तकनीकी प्रगति के लिए महत्वपूर्ण है और इन विषयों में रुचि रखने वाले छात्रों को इन्हें आगे चुनने का अवसर मिलना चाहिए। देखा गया है कि, एसटीईएम को मुख्य रूप में चुनने और करियर को आगे बढ़ाने में सामाजिक-आर्थिक, लैंगिक और नस्लीय असमानताएँ मौजूद हैं।
भारतीय शिक्षा प्रणाली की प्रगति और स्कूल स्तर की शिक्षा में लिंग और सामाजिक श्रेणी की असमानताओं को कम करने में लगातार की जा रही सरकारी पहलों (1994 में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम, 2001 में सर्व शिक्षा अभियान और 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम सहित) के बावजूद, महत्वपूर्ण असमानताएँ अभी भी कायम हैं। ये असमानताएँ विशेष रूप से तब स्पष्ट हो जाती हैं जब सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों (एसईडीजी) की उच्च-माध्यमिक शिक्षा में विशेषज्ञता की बात आती है, जिनका ऐतिहासिक रूप से शिक्षा में प्रतिनिधित्व का अभाव रहा है। यहाँ तक कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) में भी शिक्षा के उच्च स्तरों पर बढ़ रही इन असमानताओं को स्वीकार किया गया है और इसका समाधान करने के लिए, विशेष रूप से प्रत्येक एसईडीजी को लक्षित करने वाले अनुसंधान-आधारित नीति उपायों का आह्वान किया गया है। हम अपने दो हालिया अध्ययनों (साहू और क्लासेन 2021, कुमार और साहू 2023) में, पिछले दशक (2008-2017) में एसईडीजी के उच्च-माध्यमिक स्तर पर विषय-शाखाओं की पसन्द में दो मार्करों- जाति और लिंग के आधार पर व्याप्त असमानताओं की जाँच करते हैं। दस साल की व्यापक स्कूली शिक्षा के बाद, कक्षा 11-12 के लिए, छात्र आमतौर पर विज्ञान, वाणिज्य और मानविकी शाखाओं में से किसी एक का चयन करते हैं। वर्तमान में, भारत के अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों में स्नातक और मास्टर डिग्री में किसी भी एसटीईएम पाठ्यक्रम को पूरा करने के लिए उच्च माध्यमिक स्तर पर विज्ञान शाखा में अध्ययन करना ज़रूरी है। यद्यपि एनईपी में पाठ्यक्रम और विकल्पों में अधिक लचीलेपन के साथ अधिक समग्र और बहु-विषयक उच्च शिक्षा की ओर बढ़ने की कल्पना की गई है, अब तक उच्च माध्यमिक में विज्ञान चुनना उन छात्रों के लिए आवश्यक ही रहा है जो उच्च स्तर पर एसटीईएम पाठ्यक्रमों में से किसी एक को चुनना चाहते हैं। इसलिए, इस स्तर पर शाखा का चयन भविष्य के शिक्षा पथ को निर्धारित करता है और भविष्य के श्रम बाज़ार परिणामों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।
विज्ञान चुनने में स्त्री-पुरुष भेद
भारत में, प्रतिष्ठित तकनीकी कॉलेजों में एसटीईएम शिक्षा में लैंगिक असंतुलन को दूर करने के लिए, एक हालिया नीति में महिला उम्मीदवारों के लिए 20% सीटें आरक्षित की गई हैं। जहाँ इस तरह की नीतियाँ उच्च शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित करती हैं, शैक्षणिक दिशा के सम्बन्ध में निर्णय अक्सर स्कूली शिक्षा के शुरुआती वर्षों में लिए जाते हैं। अपने अध्ययनों से हमने पाया है कि लड़कों की तुलना में लड़कियों के विज्ञान शाखा चुनने की सम्भावना लगभग 10 प्रतिशत अंक कम है। यह ध्यान में रखते हुए कि विज्ञान चुनने वाले छात्रों का कुल अनुपात लगभग 40% है, औसत विज्ञान भागीदारी दर पर लैंगिक अन्तर का परिमाण लगभग 25% है। हमने वर्ष 2007 और 2018 के बीच के तीन दौरों के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) डेटा का उपयोग करते हुए, पाया कि यह लिंग अन्तर लगातार बना हुआ है और इसमें, पिछले कुछ वर्षों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया है।
कुछ छात्रों के विज्ञान न चुनने का एक सम्भावित कारण यह हो सकता है कि 10वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में उनका प्रदर्शन अच्छा न रहा हो। जिन विद्यार्थियों में गणित के प्रति अभिरुचि नहीं है, वे भी विज्ञान का अध्ययन करने से हतोत्साहित हो सकते हैं। हालाँकि, भारत मानव विकास सर्वेक्षण (आईएचडीएस) डेटा का उपयोग करते हुए, हमने पाया कि विज्ञान की पसन्द में लैंगिक अन्तर उन लड़कों और लड़कियों के बीच बना हुआ है, जिन्होंने 10 वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में समान रूप से अच्छा प्रदर्शन किया था और उन्हें गणित का समान ज्ञान था (साहू और क्लासेन 2021)। इससे संकेत मिलता है कि गणित और विज्ञान से संबंधित क्षमता में अन्तर से लड़कियों द्वारा विज्ञान शाखा चुनने की कम सम्भावना पर्याप्त रूप से स्पष्ट नहीं होती है। इसके अलावा, हम पाते हैं कि एक ही घर के लड़के और लड़कियों के बीच भी लैंगिक अन्तर प्रचलित है।
शाखाओं के चयन में जातिगत अन्तर
हमारा अध्ययन विज्ञान को चुनने में लगातार जातिगत अन्तर का प्रमाण भी प्रस्तुत करता है। हमने पाया है कि सामाजिक रूप से वंचित समूह- अनुसूचित जनजाति (एसटी), अनुसूचित जाति (एससी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की विज्ञान में भागीदारी दर सामान्य जाति की तुलना में क्रमशः 18, 12 और 8% कम है।
ये अनुमान मासिक प्रति-व्यक्ति उपभोग व्यय सहित विभिन्न पारिवारिक स्तर के सामाजिक-आर्थिक संकेतकों को दर्शाते हैं। इस प्रकार, इनसे यह पता चलता है कि धन या वर्ग-आधारित असमानताओं पर नियंत्रण के बाद भी जाति की पहचान शैक्षिक परिणामों को प्रभावित करती है। आगे हम यह भी पाते हैं कि ओबीसी और एससी समूहों की महिला छात्रों को ‘दोहरे खतरे’ का सामना करना पड़ता है– अर्थात, उनकी लिंग और जाति संबंधी पहचान उनकी चुनौतियों को बढाती है।
घरेलू सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका
हम यह भी जाँच करते हैं कि परिवारों की आर्थिक स्थिति और वयस्क सदस्यों की शैक्षिक पृष्ठभूमि मौजूदा जाति और लैंगिक असमानताओं में कैसे योगदान करती है। हमने पाया कि जब परिवारों का उपभोग व्यय बढ़ता है, तो जातिगत अन्तर, विशेष रूप से एससी और ओबीसी के सन्दर्भ में, काफी कम हो जाता है। इसी प्रकार, परिवार के मुखिया की शिक्षा के स्तर में वृद्धि के साथ जातिगत अन्तर कम हो जाता है। हालाँकि, न तो उच्च पारिवारिक खपत और न ही उच्च शिक्षा स्तर लैंगिक अन्तर को कम करता है। इस प्रकार, जबकि पारिवारिक समृद्धि में पर्याप्त वृद्धि सम्भावित रूप से जातिगत असमानताओं को कम कर सकती है, इससे लैंगिक अन्तर के प्रभावित होने की सम्भावना नहीं है। इस परिणाम को और विश्वसनीय बनाते हुए, हमारा विश्लेषण आगे दर्शाता है कि परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में अन्तर से जाति-आधारित अन्तराल बहुत अधिक स्पष्ट हो सकता है, लेकिन इनसे लैंगिक अन्तर नहीं स्पष्ट होता है।
शिक्षकों की भूमिका और स्कूल तक पहुँच
हमने आगे पाया कि इलाके में उच्च-माध्यमिक स्तर पर विज्ञान शाखा वाले स्कूलों की उपलब्धता लड़कियों के लिए विषय-शाखा की पसन्द को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सभी स्कूलों में विज्ञान शाखा नहीं होती और सुरक्षा चिंताओं सहित विभिन्न कारणों से, माता-पिता लड़कियों को (लड़कों की तुलना में) दूर के स्कूल में भेजने के विरोधी हो सकते हैं। माता-पिता लड़कियों को किसी दूर स्थित विज्ञान विषय वाले स्कूल की बजाय केवल मानविकी विषय वाले नजदीकी स्कूल में भेजना ज़्यादा पसन्द कर सकते हैं। किसी जिले में उच्च-माध्यमिक विद्यालयों की संख्या पर नियंत्रण करते हुए, हम पाते हैं कि जब अधिक अनुपात में विद्यालयों में विज्ञान शाखा उपलब्ध होती है तो लैंगिक अन्तर काफी कम हो जाता है।
स्कूलों की उपलब्धता ही एकमात्र प्रासंगिक कारक नहीं है। शोध से पता चला है कि हालाँकि बच्चों की गणितीय क्षमता में कोई आंतरिक लैंगिक अन्तर नहीं होता है, लेकिन समाज में गलत धारणाएं प्रचलित हैं कि लड़के गणित में लड़कियों से बेहतर हैं (काह्न और गिन्थर 2017)। एक संबंधित अध्ययन (रक्षित और साहू 2023) से पता चलता है कि शिक्षक भी ऐसी लैंगिक रूढ़िवादिता रखते हैं। जब लड़कियों को ऐसे पक्षपाती शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जाता है, तो वे विज्ञान से संबंधित विषयों को लेने से हतोत्साहित हो सकती हैं। इस तरह के पूर्वाग्रह वंचित जाति समूहों के छात्रों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।
इस प्रकार, पिछली कक्षाओं में गणित और विज्ञान जैसे विषय पढ़ाने वाले शिक्षकों की सामाजिक पहचान बाद के वर्षों में छात्रों की शाखा पसन्द को प्रभावित कर सकती है। हम पाते हैं कि यदि छात्रों को माध्यमिक स्तर (कक्षा 9 और 10) में गणित या विज्ञान विषय मेल खाने वाली सामाजिक पहचान (अर्थात समान लिंग या जाति) के शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जाता है, तो उच्चतर माध्यमिक स्तर पर विज्ञान की पसन्द में लैंगिक और जाति-आधारित असमानताएं कम होती हैं। ऐसा समान सामाजिक पहचान वाले शिक्षकों के कम पक्षपाती होने या छात्रों के लिए 'रोल मॉडल' के रूप में काम करने के कारण हो सकता है।
निष्कर्ष
दुनिया में एसटीईएम स्नातकों के एक बड़े अनुपात का योगदान भारत देता है। एसटीईएम में प्रवेश इतना सीधा नहीं है, विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारक व्यक्तियों के विज्ञान का अध्ययन करने के निर्णय को प्रभावित कर सकते हैं। हमारा शोध भारत में उच्च माध्यमिक स्तर पर शाखा चयन में लिंग और जाति-आधारित अन्तर पर मात्रात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करता है।
नीतिगत दृष्टिकोण से, हमारे परिणाम दर्शाते हैं कि विज्ञान विषयों की सुविधा वाले अधिक स्कूलों की स्थापना के माध्यम से एसटीईएम शिक्षा तक पहुँच में सुधार से, विशेष रूप से लड़कियों को, लाभ होगा और वे विज्ञान में शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित होंगी। सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों (एसईडीजी) से शिक्षकों का प्रतिनिधित्व बढ़ने से विज्ञान विषय लेने की दर में सामाजिक पहचान-आधारित असमानताएं भी कम होंगी। इस प्रकार, नीतियाँ बनाते समय सामाजिक पहचान को ध्यान में रखने से एसटीईएम शिक्षा में समान अवसरों को आगे बढ़ाने में मदद मिल सकती है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : आनन्द कुमार भारतीय प्रबंधन संस्थान बैंगलोर में अर्थशास्त्र क्षेत्र में पीएचडी उम्मीदवार हैं। पीएचडी कार्यक्रम से पहले, उन्होंने बैंकिंग क्षेत्र में काम किया, और राष्ट्रीय रक्षा अकादमी से स्नातक और भारतीय वायु सेना के अनुभवी कर्मी हैं। सोहम साहू भी आईआईएम बैंगलोर के सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में सहायक प्रोफेसर हैं। उनकी शोध रुचि मोटे तौर पर विकास अर्थशास्त्र में है, जिसमें उनका ध्यान शिक्षा, लिंग, श्रम और राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर केन्द्रित है।
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