क्या औपनिवेशिक इतिहास भारत में महिलाओं के समकालीन आर्थिक परिणामों की दृष्टि से मायने रखता है? इसकी जांच करते हुए यह लेख इस बात की ओर इशारा करता है कि जो क्षेत्र सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन रहा, महिला सशक्तिकरण के लगभग सभी मानदण्डों के आधार पर वहां की निवासी महिलाएं बेहतर स्थिति में हैं। इसमें तर्क दिया गया है कि अंग्रेज़ों के काल में महिलाओं के पक्ष में लाए गए कानूनी और संस्थागत परिवर्तन और 19वीं शताब्दी में पश्चिम-प्रेरित सामाजिक सुधार इस दीर्घकालिक संबंध को समझाने में प्रासंगिक हो सकते हैं।
भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, फिर भी इसकी महिला श्रम-बल भागीदारी (एफएलएफपी) की दर सबसे कम बनी हुई है। आवधिक श्रम-बल सर्वेक्षण 2021-22 के अनुसार, 15 से 59 वर्ष के आयु वर्ग की केवल लगभग 29% महिलाएँ ही श्रम-बल का हिस्सा हैं। यह पुरुषों की श्रम-बल भागीदारी दर के बिल्कुल विपरीत है, जो 81% के करीब है और इसकी तुलना विकसित देशों से की जा सकती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, एनएफएचएस 2015-16 के अनुसार, महिला सशक्तिकरण के अन्य पैमानों पर भी भारत का प्रदर्शन संतोष से कम रहा है जिसमें करीब 50% महिलाओं ने बताया कि वे अपने परिवार में वित्तीय रूप से स्वतंत्रत नहीं हैं और उनके पास साधन की कमी है।
ये औसत एक गम्भीर तस्वीर पेश करते हैं, लेकिन इनसे क्षेत्रीय विविधता सामने नहीं आती। हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु जैसे राज्यों में एफएलएफपी औसत की तुलना से काफी ऊपर है, जबकि बिहार, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में यह औसत से काफी नीचे हैं। यह विविधता जिला स्तर पर भी देखी जा सकती है। जहां बिहार में समस्तीपुर और बेगुसराय जैसे जिलों में एफएलएफपी बेहद कम (लगभग 1%) है, वहीं हिमाचल प्रदेश के मंडी में एफएलएफपी दरें पुरुषों की तुलना में (लगभग 70%) हैं।
हमने (नंदवानी और रॉयचौधरी 2023) हाल के एक अध्ययन में पता लगाया है कि क्या ऐतिहासिक कारक इस विविधता को समझाने में हमारी मदद कर सकते हैं? विशेष रूप से, हम महिलाओं के रोज़गार और महिला सशक्तिकरण के अन्य पैमानों में आज की विविधता को समझाने में, 18वीं और 19वीं शताब्दी के भारत के औपनिवेशिक इतिहास की भूमिका की जांच करते हैं।
ब्रिटिश भारत और रियासतें
लगभग दो शताब्दियों तक भारत एक ब्रिटिश उपनिवेश था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने वर्ष 1757 से 1856 तक भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया और ब्रिटिश राज ने वर्ष 1858 से 1947 तक प्रशासन संभाला। इसके बाद भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया। हालाँकि, पूरा देश प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन नहीं था- वर्तमान के जिलों का 60-65% हिस्सा ब्रिटिशों के सीधे नियंत्रण में था (इसके आगे 'ब्रिटिश भारत' के रूप में संदर्भित किया गया है), जबकि शेष में कई ‘रजवाड़े और रियासतें' शामिल थीं जिनकी अपनी कानूनी, राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना थी और वंशानुगत राजाओं द्वारा शासित थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी ने वर्ष 1757 में इन रियासतों पर कब्ज़ा करना शुरू किया, लेकिन मुख्य रूप से देश के सभी क्षेत्रों पर कब्ज़ा नहीं किया क्योंकि वह संख्यात्मक और राजनीतिक रूप से पूरे उपमहाद्वीप पर प्रशासन करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली नहीं थी। ऐसा वर्ष 1857 में ब्रिटिश राज द्वारा प्रशासन अपने हाथ में लिए जाने तक जारी रहा और फिर ईस्ट इंडिया कंपनी ने आगे कब्ज़ा करना बंद कर दिया। इस प्रकार, एक ही देश में ऐसे क्षेत्र थे जो सीधे ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में आते थे और इन क्षेत्रों में औपनिवेशिक कानून लागू थे। दूसरी ओर, रियासतों को काफी हद तक कानूनी, राजनीतिक और प्रशासनिक स्वायत्तता1 प्राप्त थी।
चित्र-1. भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत ब्रिटिश भारतीय जिले और रियासतें।


ब्रिटिश भारत इन क्षेत्रों पर शासन करने के तरीके के अलावा, संस्थागत और प्रशासनिक आधार पर रियासतों से काफी भिन्न था। हम पता लगाते हैं कि क्या भारतीय महिलाओं के संदर्भ में, इन मतभेदों का कई समकालीन परिणामों पर दीर्घकालिक प्रभाव है?
अनुभवजन्य रणनीति
ब्रिटिश उपनिवेशवाद और महिलाओं के समकालीन परिणामों के बीच कारण-संबंध की जांच करना इतना सरल नहीं है। उपलब्ध शोध और अध्ययन-कार्य (अय्यर 2010, रॉय 2020) से पता चलता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने विलय के लिए कृषि उत्पादक क्षेत्रों को प्राथमिकता दी। इस बात के भी पुख्ता प्रमाण हैं कि कृषि की दृष्टि से उपजाऊ क्षेत्रों में अन्य क्षेत्रों की तुलना में महिला सशक्तिकरण के प्रति अलग-अलग लैंगिक मानदंड और दृष्टिकोण व्याप्त हैं (एलेसिना एवं अन्य 2013, हैनसन एवं अन्य 2015)। इसलिए, हम पहचान संबंधी इस समस्या के समाधान के लिए एक साधन-चर-पद्धति2 यानी इंस्ट्रुमेंटल वेरिएबल मेथडालोजी का उपयोग करते हैं। विशेष रूप से, हम अय्यर (2010) का अनुसरण करते हुए, ब्रिटिश उपनिवेशीकरण के लिए एक साधन के रूप में विलय की ‘व्यपगत नीति (चूक नीति) या हड़प नीति के सिद्धांत’ का उपयोग करते हैं। यह कुख्यात नीति वर्ष 1848 और 1856 के बीच भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा शुरू की गई थी और कहा गया था कि यदि किसी रियासत का शासक बिना किसी प्राकृतिक उत्तराधिकारी के मर जाता है (गोद लिए गए बच्चों को कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता नहीं दी जाती थी), तो स्थानीय सत्ता समाप्त हो जाएगी और रियासत ब्रिटिश शासन के अधीन आ जाएगी। यहां दृष्टिगत धारणा यह है कि वर्ष 1848 से 1856 की अवधि विशेष में प्राकृतिक उत्तराधिकारी के बिना किसी शासक की मृत्यु प्रणालीगत कारकों की बजाय परिस्थितिजन्य मामला होने की अधिक संभावना है, जो महिलाओं के दीर्घकालिक परिणामों को भी प्रभावित कर सकती है।
हम अय्यर (2010) द्वारा एकत्र किए गए समृद्ध ऐतिहासिक डेटा का उपयोग करते हैं जो 417 भारतीय जिलों (1991 की जनगणना के अनुसार) की शासन-व्यवस्था के बारे में जानकारी प्रदान करता है- ऐतिहासिक रूप से कौन से जिले आते थे, उनके विलय का तरीका, विलय का वर्ष क्या था आदि। हम इन आंकड़ों को वर्ष 2011 की जनगणना वाले जिलों तक विस्तारित करते हैं और दो विश्लेषणात्मक नमूने बनाने के लिए इनको एनएफएचएस 2015-16 और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) 2011-12 के साथ मिलाते हैं।
मुख्य निष्कर्ष
हमारे अनुभवजन्य परिणाम दर्शाते हैं कि उन जिलों में महिलाएं आर्थिक रूप से अधिक सशक्त हैं जो जिले ऐतिहासिक रूप से सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन थे। जो महिलाएं सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन रहे जिलों में रहती हैं, अपने समकक्षों की तुलना में उनके वेतन और आकस्मिक मज़दूरों के रूप में नियोजित होने की संभावना क्रमशः 2 प्रतिशत अंक और 4 प्रतिशत अंक अधिक है। मात्रात्मक रूप से, इसके वर्तमान राष्ट्रीय औसत3 की तुलना में 50 और 57% अधिक होने की संभावना है।
इसके अलावा, पूर्व ब्रिटिश जिलों में महिलाओं को अकेले बाज़ार जाने की अनुमति दिए जाने की संभावना 6.6 प्रतिशत अंक अधिक है और गाँव के बाहर अकेले कहीं जाने की अनुमति दिए जाने की संभावना 8 प्रतिशत अंक अधिक है। ये औसत की तुलना में 10 से 15% की वृद्धि दर्शाते हैं। पूर्ववर्ती ब्रिटिश भारतीय जिलों में महिलाओं को वित्तीय स्वायत्तता मिलने की संभावना 6 प्रतिशत अंक अधिक है- यह राष्ट्रीय औसत की तुलना में 10% की वृद्धि दर्शाता है। ब्रिटिश शासित जिलों में महिलाओं द्वारा अपने जीवन-साथी से कम गम्भीर हिंसा का सामना करने की संभावना 6 प्रतिशत अंक कम है और यौन हिंसा का सामना करने की संभावना 3 प्रतिशत अंक कम है। हमने यह भी पाया कि ब्रिटिश उपनिवेशित क्षेत्रों में महिलाएं अधिक शिक्षित हैं (साक्षर होने की संभावना 6 प्रतिशत अंक अधिक है और औसतन 0.5 वर्ष अधिक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने की संभावना), उनकी शादी अधिक उम्र में हुई, उनकी वास्तविक प्रजनन क्षमता कम थी, अंतर-पारिवारिक निर्णय लेने के संबंध में वे बेहतर लैंगिक समानता मानदंड का अनुसरण करती थीं और उनकी ऐसे पुरुषों से शादी हुई जिनके साक्षर होने और प्रगतिशील दृष्टिकोण रखने की अधिक संभावना है। ये निष्कर्ष उपनिवेशीकरण के निरन्तर लिंग-आधारित प्रभावों को दर्शाते हैं।
औपनिवेशिक इतिहास क्यों मायने रखता है?
यद्यपि डेटा उपलब्धता संभावित कारणों की विस्तृत जांच के दायरे को सीमित करता है कि आखिर क्यों औपनिवेशिक इतिहास बढ़े हुए सशक्तिकरण में तब्दील होता है, हम कुछ संभावित चैनलों पर विचार करते हैं और उन सम्भावनाओं पर विचारात्मक प्रमाण उपलब्ध कराते हैं। अपने विश्लेषण से हम कई चैनलों को खारिज कर पाते हैं, जिनमें ब्रिटिश शासन द्वारा महिलाओं की शिक्षा में निवेश, ब्रिटिश भारत और रियासतों के बीच कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट मिशनरी गतिविधियों के विस्तार में अंतर, ब्रिटिश शासन द्वारा रेलवे में निवेश और राजनीति में महिलाओं की भागीदारी शामिल है। जिन चैनलों को हम खारिज नहीं कर सकते, वे हैं महिलाओं के पक्ष में अंग्रेज़ों द्वारा लाए गए कानूनी बदलाव और 19वीं सदी का पश्चिम-प्रेरित सामाजिक सुधार आंदोलन।
- कानूनी परिवर्तन : अंग्रेज़ों ने कई कानूनी परिवर्तन किए, जिनके ज़रिए समाज में महिलाओं की स्थिति को उदार बनाने की बात कही गई। यह आंशिक रूप से भारतीय समाज सुधारकों की लम्बे समय से चली आ रही मांग का परिणाम था, जो सती (विधवा-दाह) और बाल विवाह जैसी पारंपरिक हिन्दू प्रथाओं को पुरातनपंथी और महिलाओं की स्थिति के लिए हानिकारक मानते थे। ब्रिटिश प्रशासकों का यह भी मानना था कि कुछ सांस्कृतिक प्रथाएँ गम्भीर रूप से भेदभावपूर्ण थीं और इसलिए, वर्ष 1795 और 1937 के बीच, उन्होंने महिलाओं से संबंधित छह प्रमुख मुद्दों पर कानूनों को उदार बनाया। विशेषकर, सती प्रथा निषिद्ध थी, विधवा पुनर्विवाह की अनुमति थी, सम्भोग के लिए सहमति की उम्र 10 वर्ष तय की गई, और फिर इसे बढ़ाकर 12 कर दिया गया, कन्या भ्रूण हत्या निषिद्ध थी, बाल विवाह वर्जित था और महिलाओं के विरासत अधिकारों में सुधार के लिए कई कानून पारित किए गए। ये कानूनी परिवर्तन केवल उन क्षेत्रों पर लागू थे जो सीधे औपनिवेशिक शासन के अधीन थे, जबकि रियासतों ने सती और बाल विवाह जैसी पारंपरिक सांस्कृतिक प्रथाओं को जारी रखा था। हमारे अनुभवजन्य विश्लेषण से पता चलता है कि ब्रिटिश शासन द्वारा लाए गए प्रगतिशील कानून और संस्थागत परिवर्तन हमारे मुख्य परिणामों के पीछे के कारक-तंत्र हो सकते हैं।
- सुधार आंदोलन : 18वीं शताब्दी में भारतीय समाज अन्धविश्वासों, पुरातन परम्पराओं और सामाजिक बुराइयों से घिरा हुआ था, जो अक्सर महिलाओं के साथ व्यवहार में सामने आती थीं। हालाँकि, 19वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश भारत में शिक्षा, विशेष रूप से विज्ञान और गणित के प्रसार और पश्चिमी दर्शन के बढ़ते प्रदर्शन के कारण शिक्षित भारतीय ऊपरी वर्ग में जागृति आई, जिन्होंने भारतीय समाज में सुधारों की आवश्यकता को पहचाना (राय 1979)। इस प्रकार ब्रिटिश भारत में 19वीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों और सुधार आंदोलनों का उदय हुआ। भले ही आंदोलनों की विचारधाराएं कुछ हद तक भिन्न थीं, एक विषय जो एक समान था, वह था लैंगिक सुधारों के प्रति उनका सतत प्रयास।
इस प्रकार, जबकि अंग्रेज़ों ने महिलाओं की शिक्षा की दिशा में काम नहीं किया था (निवेश नहीं किया था), सामाजिक सुधार आंदोलनों की सक्रिय उपस्थिति और ब्रिटिश शासन के आकस्मिक प्रगतिशील कानूनी सुधारों के अधिनियमन ने महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के सामाजिक मानदंडों में सुधार किया होगा, जिनके चलते परिणामों में लम्बे समय तक सुधार हुआ।
समापन टिप्पणी
हालाँकि, महिला सशक्तीकरण पर सकारात्मक प्रभाव के हमारे परिणाम आश्चर्यजनक लग सकते हैं, विशेष रूप से यह देखते हुए कि उपलब्ध शोध-अध्ययनों ने ब्रिटिश भारतीय जिलों में सार्वजनिक सेवाओं के कम प्रावधान और धीमी आर्थिक वृद्धि को उजागर किया है (उदाहरण के लिए, अय्यर 2010 और झा और तलाठी 2023 देखें), वे रॉय और टैम (2022) और ग्वारनेरी और रेनर (2021) के अनुरूप हैं, जो क्रमशः भारत और कैमरून के संदर्भ में यह बात दर्ज करते हैं कि ब्रिटिश उपनिवेशीकरण का महिलाओं संबंधी परिणामों पर सकारात्मक दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा।
महिलाओं के लिए लैंगिक समानता और उनको घर के बाहर काम के अवसर प्रदान करना महत्वपूर्ण सतत विकास लक्ष्यों के रूप में पहचाना गया है, जिसे संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों ने वर्ष 2030 तक हासिल करने का लक्ष्य रखा है। दुर्भाग्य से, दुनिया के कई हिस्सों में लैंगिक असमानता व्यापक रूप से फैली है और महिलाओं को समाज में उनकी सामाजिक-आर्थिक भागीदारी में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। हमारे निष्कर्ष लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए नीतियां निर्धारित करते समय किसी समुदाय की सामाजिक पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक कारकों को समझने के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। इसके अलावा वे यह भी दर्शाते हैं कि सामाजिक या लैंगिक मानदंडों को बदलने के उद्देश्य से किए जाने वाले प्रगतिशील कानूनी सुधार महिलाओं के जीवन पर अंतर-पीढ़ीगत लाभकारी प्रभाव डाल सकते हैं।
टिप्पणियाँ :
- हालाँकि, रक्षा और विदेश नीति पर अंग्रेज़ों का ही नियंत्रण था।
- अनुभवजन्य विश्लेषण में अंतर्जात-संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिए ‘साधन-चर यानी इंस्ट्रुमेंटल वेरिएबलों’ का उपयोग किया जाता है। यह साधन, व्याख्यात्मक कारक (अर्थात, किसी क्षेत्र में ब्रिटिश शासन) के साथ सह-संबद्ध है, लेकिन सीधे तौर पर मुख्य परिणाम (महिला सशक्तिकरण) को प्रभावित नहीं करता है और इस प्रकार, इसका उपयोग व्याख्यात्मक कारक और हितों के परिणाम के बीच के वास्तविक कारण-संबंध को मापने के लिए किया जा सकता है।
- एनएसएस 2011-12 के लिए एफएलएफपी दर 25% है। हालाँकि महिलाओं के संदर्भ में वेतनभोगी और आकस्मिक मज़दूरों के रूप में रोज़गार की औसत संभावनाएँ क्रमशः 4% और 7% हैं।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : भारती नंदवानी इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर), मुंबई में अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर हैं। पुनर्जीत रॉयचौधरी शिव नादर विश्वविद्यालय (एसएनयू) में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं।
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