विचार-गोष्ठी की प्रस्तावना: कांग्रेस के 'न्याय' का विश्लेषण

08 May 2019
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जारी संसदीय चुनाव में कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र में की गई एक बड़ी घोषणा न्यूनतम आय की गारंटी के प्रस्ताव – न्यूनतम आय योजना (न्याय) की है। इस विचार गोष्ठी में भरत रामास्वामी (अशोका विश्वविद्यालय), जौं ड्रेज़ (रांची विश्वविद्यालय), प्रनब बर्धन (कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कली), एस. सुब्रमनियन (इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च), अश्विनी कुलकर्णी (प्रगति अभियान), कार्तिक मुरलीधरन (कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डीएगो), प्रनब सेन (इंटरनेशनल ग्रोथ सेंटर), निरंजन राजाध्यक्ष (आइडीएफसी इंस्टिट्यूट), और मैत्रीश घटक (लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स) इस योजना से संबंधित मुख्य मुद्दों की जांच-परख कर रहे हैं।

इस संसदीय चुनाव के लगातार होने वाले मतदान के सभी चक्रों में कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र में घोषित असाधारण रूप से उदार नकद अंतरण योजना ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) पर काफी अधिक विचार-विमर्श जारी है। इसमें आबादी के सबसे निचले 20 प्रतिशत हिस्से के सारे परिवारों को प्रति वर्ष 72,000 रु. भुगतान करने का वादा किया गया है। एक ओर, इस योजना की आलोचना बेतुका, अवास्तविक, और लागू नहीं होने लायक योजना कहकर की जा रही है। वहीं दूसरी ओर, कांग्रेस के नेताओं और कुछ प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने योजना का बचाव यथार्थवादी और यहां तक कि वांछित कहकर भी किया है। हमने सोचा कि इस विषय पर एक विचार-गोष्ठी आयोजित करना बेहतर रहेगा और यही सोचकर हमने कुछ-कुछ भिन्न परिप्रेक्ष्यों वाले नौ विशेषज्ञों से संपर्क किया। उनमें से सभी ने प्रस्तावित योजना की वांछनीयता और क्रियान्वयनशीलता के बारे में विचार किया है। हमने आम तौर पर उठाए जाने वाले निम्नलिखित 10 प्रश्न उनलोगों के सामने रखे और उनसे उन पर विचार करने का अनुरोध किया। आमंत्रित योगदाताओं में से कुछ ने अपने विचार लघु निबंधों के रूप में रखना पसंद किया जबकि बाकियों ने हमारे प्रश्नों के उत्तर प्रश्नोत्तर शैली में दिए।

न्यायपर सिंपोजियम के लिए प्रश्नों की सूची :

  1. क्या आप बता सकते हैं कि न्याय क्यों ज़रूरी है जबकि इतनी सारी अन्य गरीबी निवारण योजनाएं पहले ही मौजूद हैं? हमें मौजूदा योजनाओं के लिए ही बजट क्यों नहीं बढ़ा देना चाहिए?
  2. क्या आपकी समझ में इसके बजाय धनराशि का उपयोग सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान सेवाओं में सुधार के लिए किया जाय तो उसका बेहतर उपयोग होगा? या हमने सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान को कार्यशील बनाने का प्रयास छोड़ दिया है?
  3. क्या आप कोई ऐसी वैकल्पिक योजना पसंद करेंगे जिसमें हर प्राप्तकर्ता को मिलने वाली रकम को घटाकर नकद अंतरण के जरिए उतनी रकम का वितरण अधिक संख्या में परिवारों के बीच किया जाय? अगर हां, तो क्यों?
  4. क्या आपको इस अतिरिक्त व्यय के राजकोषीय बोझ को लेकर कोई चिंता लगती है? क्या आपको लगता है कि न्याय को समायोजित करने के लिए करों की वर्तमान दरों को बदलना होगा या वर्तमान सब्सिडियों को समाप्त करना होगा?
  5. आप ऐसे लोगों को क्या कहेंगे जो इस बात से चिंतित है कि नकद के प्रवाह से डिमांड बढ़ जाएगी लेकिन सप्लाई नहीं जिससे कीमतों में वृद्धि होगी?
  6. केंद्र सरकार की वर्तमान सब्सिडियों में से कौन-कौन अनावश्यक हैं और समाप्त करने के लिहाज से विचारणीय हैं?
  7. सबसे निचली 20 प्रतिशत आबादी को लक्षित करना विशाल कार्य लगता है। इसके लिए सरकार किन आंकड़ों का उपयोग कर सकती है? आप किस प्रकार के टार्गेटिंग मैकेनिज्म का सुझाव देंगे?
  8. प्रस्तावित योजना आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को विकृत प्रोत्साहन (परवर्स इंसेंटिव्स) देने के लिए बाध्य है। वे लोग यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि वे अपनी वास्तविक स्थिति से काफी अधिक गरीब हैं या इसकी पात्रता हासिल करने के लिए वे अपनी आमदनी को कम करके दिखाने की कोशिश करेंगे। आप योजना का निर्माण कैसे करेंगे कि इस स्वाभाविक समस्या के कारण कम से कम नुकसान हो?
  9. आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि यह योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नैशनल फ़ूड सिक्योरिटी एक्ट (एनएफएसए)) या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) जैसी वर्तमान योजनाओं को कमजोर या बर्बाद करने के लिहाज से ट्रॉजन हॉर्स नहीं बन जाएगी?
  10. वर्तमान गरीबी निवारण योजनाओं में मौजूद कमियां सरकार की कमजोर क्षमता की उपज हैं। क्या ‘न्याय’ योजना भी इस समस्या से पीडि़त नहीं होगी?

लेखक परिचय: अशोक कोटवाल 'आइडियाज फॉर इंडिया' के प्रधान संपादक हैं। वह कनाडा के वैंकोवर स्थित ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर हैं।

नकद अंतरण नीतियों से संबंधित चार चिंताएं - भरत रामास्वामी (अशोका विश्वविद्यालय)

यूनिवर्सल बेसिक इनकम के एक अनुपूरक का पक्ष - प्रनब बर्धन (कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कली)

न्याय का संभावित मैक्रोइकोनॉमिक प्रभाव - निरंजन राजाध्यक्ष (आईडीएफसी इंस्टिट्यूट)

'न्याय' विचार-गोष्ठी: न्याय से अन्याय न हो - ज्यां द्रेज़ (रांची विश्वविद्यालय )

सही लक्ष्यीकरण करना - कार्तिक मुरलीधरन (कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डीएगो)

गरीबी के दीर्घकालिक समाधान के बजाय उपयोगी 'प्राथमिक उपचार' - मैत्रीश घटक (लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स)

बहुआयामी गरीबी से निपटने का साधन - अश्विनी कुलकर्णी (प्रगति अभियान)

राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के विस्तार को प्राथमकिता - प्रोनाब सेन (आइजीसी इंडिया)

वित्तपोषण के लिए करों की जांच-पड़ताल अत्यंत महत्वपूर्ण - श्रीनिवासन सुब्रामनियन (इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च )

लोक वित्त, राजकोषीय नीति, लोक सेवा प्रदान

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